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शब्दयुद्ध का चक्रव्यूह कैसे टूटे ?

मनुष्य एक ऐसा जीव है जिसे सहज मनुष्य बना रहकर ही जीवन जीते रहने में संतोष नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य में अपनी निजी विशेषता की अनोखी चाह आजीवन बनी रहती है। मनुष्य के मन में विशिष्टता रूपी इस असंतोष ने ही मनुष्य मात्र में नाम-रूप के असंख्य भेद और मत मतान्तर इस धरती पर खड़े कर दिये है जिन्हें पाटना या कम करना हम सबके लिये आज के लोकजीवन की सबसे बड़ी चुनौती हैं।वैसे एक जैसी दो प्राकृतिक रचना न होना कुदरत का नियम है। पर इस कुदरती नियम के बाद भी प्रकृति की निगाह में मनुष्य रुप में अभिव्यक्त हुआ जीव मूलत:मनुष्य ही हैं।मनुष्य के पास रुप या शरीर तो मनुष्य का ही हैं पर स्वरूप का कोई साकार स्वरूप नहीं हैं। इसीसे इस धरती पर जन्मा मनुष्य कब क्या कर बैठे इसका कोई और छौर नहीं हैं। फिर भी मनुष्य के विचार ही उसके स्वरूप या स्वभाव को रूप रंग देते हैं

मनुष्य के मुँह से निकली ध्वनि तरंगें जिसे “शब्द”की संज्ञा दी गयी मनुष्यों का परस्पर परिचय कराते हैं।शब्द तारक भी होते हैं,मारक भी होते हैं,प्रेरक और उद्धारक भी होते हैं।शब्दों से ही भीति भी उत्पन्न होती हैं और प्रीति भी।शब्द को ब्रम्ह भी माना गया है। ब्रम्ह सदैव नि:शब्द होता है।पर शब्द से आध्यात्मिक अनुभूति,शांति,गतिशीलता,हलचल,अशांति,प्रेरणा,प्रेम,भय,नफरत,कटुता से लेकर जीवन की अंतहीन हलचले निरन्तर उठती गिरती रहती हैं। शब्दों का प्रवाह ऊर्जा की किरणों की एक अन न्त श्रृखंला हैं।इसीसे शब्द का स्वरूप और विस्तार हर जगह और हर तरह का हैं।प्रत्येक जीव की ध्वनि तरंगें जगत में जीवन के विभिन्न स्वरूपों की आहट के समान हैं।

आज का कालखण्ड जिसे आधुनिक काल या तकनीक का काल भी कहा जाता है।इसकाल में मनुष्य के जीवन में मूलभूत परिवर्तन यह दिखाई देता है कि मनुष्य का शरीर तो आराम पसंद या स्थिर स्थिति का आदि होता जा रहा है। पर विचारों की सुनामी चौबिसों धण्टे बारहों महिने हैं। मनुष्य को धर या कुर्सी पर बैठे बैठे शब्दयुद्ध करने में असीम आनन्द की अनुभूति होने लगी हैं।शब्दयुद्ध आधुनिक मनुष्य की नयी वृत्ति और प्रवृत्ति बनता जा रहा हैं।शब्दयुद्ध के कारण ही मनुष्य की चिन्तन प्रणाली या आपसी व्यवहार एकाएक गहरे से प्रभावित हो गया है।

ध्वनि,लिपि,नृत्य और अभिनय ये मनुष्य के मन की अभिव्यक्ति के बहुत प्राचीन माध्यम है।ध्वनि सिर्फ मुंह की तरंगों से ही नहीं अन्य माध्यमों से भी उत्पन्न होती हैं। इसी कारण मनुष्य ने दो माध्यमों की टकराहट या कम्पन से ध्वनि पैदा करने की कला विकसित या सृजित की। ढोल,नगाड़े,तबला,सितार,झांज,मंजीरे जैसे ध्वनि प्रधान साज साधन गढ़े।थाली पीटना,ताली बजाना और धण्टी बजाना भी इसीक्रम में आते हैं।लिपि और चित्रण का भी प्राचीनकाल से अस्तित्व हैं। लिपि या अक्षर को कम लोग समझ सकते थे क्योंकि लिपि के लिये अक्षर के स्वरूप को पढ़ना और समझना,सीखना जरूरी था।जबकि चित्र के साथ ऐसा नहीं वह सर्वव्यापी आदिकाल से हैं।चित्रका जो स्वरूप है वह जो भी देख रहा है उसे तत्काल समझ आ रहा है,चित्र देखने में विशिष्टता का भाव कभी नहीं रहा।पर चित्र बनाने में जरूर चित्रकार को विशिष्टता का दर्जा आदिकाल से प्राप्त है,क्योंकि हर कोई जैसे देख सकता है वैसे बना या चित्रित नहीं कर सकता।

प्राचीनकाल में लिखने पढ़ने वालों और पढ़ने लिखने के साधनों की संख्या बहुत कम थी।इसी से मनुष्य समाज में लिखने पढ़ने वालों ने विशिष्टता का दर्जा प्राप्त कर लिया।मनुष्य समाज के इतिहास में लेखन और चित्रण की बहुत गहरी और लम्बी परम्परा है।फिर भी बहुत सारे लोग प्राचीनकाल में और आज भी लेखन और चित्रण के कार्यों में नहीं लगे थे।ऐसे लोग प्राय:तब भी शांत और सहज थे और आज भी है।मनुष्यों का सारा या अधिकांश व्यवहार प्रत्यक्ष लोक व्यवहार होता था,आमने सामने बातचीत के अलावा कोई रास्ता नहीं था।इसीसे से समाज में बोलचाल और लेखन में शब्दों के इस्तेमाल में लोकमर्यादा की गहरी नींव पड़ी।हमारे शब्द हमारी सोच और बोली की प्रत्यक्ष पहचान होते हैं।यह लोकमर्यादा हमको बहुत तौल मौल कर बोलने की दिशा में प्रवृत्त करती आयी।

हमारी बोली के साथ ही हमारे बोलचाल का ढंग और हाव-भाव से भी मानव समाज परस्पर एक दूसरे का मूल्यांकन या आदरभाव विकसित करता था। यह काल मानव इतिहास का बहुत लम्बा काल हैं।इसी कालखण्ड के इतिहास में झांके तो हमें असंख्य प्रेरक,उदबोधक,चिंतक और दार्शनिकों की श्रृंखला मनुष्य समाज में दुनिया के हर हिस्से में समान रूप से दिखाई देती है।यह सब एक दूसरे की प्रत्यक्ष उपस्थिति में किये गये लोकव्यवहार की निष्पत्ति हैं।इसी कारण वैचारिक स्तरपर प्राचीन कालखण्ड में हमें कृतित्व में विशिष्ट और आचरण में शिष्ट मनुष्य ज्यादा दिखाई पड़तेहैं।ऐसा नहीं कहा या माना जा सकता की विषैले या चुभनेवाले शब्दबाण प्राचीनकाल में थे ही नहीं।पर वे प्रत्यक्ष रूप से आमने सामने ही चलते थे,जिन्हें प्रत्यक्ष सुना या समझा जाना संभव था या धटना और चर्चा स्थल पर जो प्रत्यक्ष मौजूद होते थे वे ही उससे प्रभावित होते थे,अन्य नहीं।

आज के सूचना प्रौद्यौगिकी के कालखण्ड में मनुष्य के मारक शब्दों की संख्या और क्षमता महामारी से भी तेज होती जा रही है।विषाक्त शब्दों के युद्ध की अंतहीन श्रृंखला को तोड़ने का कोई उपाय या लाक डाऊन हमारी दुनिया के पास उपलब्ध ही नहीं हैं।इसका नतीजा हो रहा है कि मारक एवं विषाक्त शब्द हरक्षण बढ़ते ही जा रहे हैं। जब मनुष्य के पास शब्दों को लिपि तथा ध्वनि के रूप में निरन्तर प्रसारित करते रहने का विश्वव्यापी औज़ार समूची मानवी सभ्यता के रोज़मर्रा के जीवन का अंग बन गया तब से लगता है कि मानवी सभ्यता की शाब्दिक मर्यादाओं को क्या हो गया ?

आज के कालखण्ड़ में हमसब विषाक्त शब्दों के चक्रव्यूह में फंसे गये है।आज का मनुष्य शब्दों की आभासी मारक क्षमता से भयाक्रांत होने लगा हैं।शब्द विचार विनिमय और संवाद के माध्यम न होकर नित नये विवाद और मानवीय निराशा के कारक बनते जा रहे हैं।यह सब इसलिये हो पा रहा हैं कि अब हमारे सारे व्यवहार आभासी और पीठ पीछे होते जा रहे हैं।प्रत्यक्ष हम पहले की तरह मिल बोल नहीं पाते।हमारे धर,पास पड़ौस में पहले जैसा आत्मिय संवाद करने के अवसर न के बराबर होते जा रहे हैं।पर फिर भी दुनियां जहांन के शाब्दिक युद्धों से हम सब अपने आप को तरोताजा रखने के आदि होते जा रहे हैं।

शब्दयुद्ध की निरन्तर छापामार लड़ाई की नितनयी तकनीक और रणनीतियां बनायी जा रही हैं।भिन्न विचार के लोगों के बीच परस्पर संवाद और विचार विनिमय तो दूर उन्हें निरन्तर डराने धमकाने के लिये बाकायदा पूर्णकालिक विषाक्त शब्द सैनिकों को वेतनभोगी की तरह भर्ती किया जा रहा हैं।विषाक्त विचारों की बनी बनायी स्क्रिप्ट उन्हें निरन्तर देकर फायर की तरह प्रसारित करने के आदेश दिये जा रहे हैं।बना बनाया डिब्बाबंद और पकापकाया खाना ही आज की सभ्यता का अविष्कार नहीं हैं।बने बनायें संहारक शब्दास्त्रों को बिना सोचे समझे दिमागों में डालते रहनेवाले यु्वा यांत्रिक मजदूरों की फौजें खड़ी कर दी गयी है।यह सब प्रत्यक्ष दिन रात देखते रहने के कारण आज की दुनिया में एक पीढ़ी ऐसी बड़ी हो गयी है जिसे शब्द की सकारात्मक,आध्यात्मिक और अंतर्मन से बात करने वाले मौन की ब्रम्ह शक्ति की कल्पना भी नहीं हैं।

यंत्र और मानव की नयी यांत्रिक सभ्यता बटन दबाने को ही जीवन का क्रम मानने लगी है।निसंदेह यंत्र ने आज के आम मनुष्य को वह शक्ति दी है जो आज से पहले के मनुष्यों के पास इस्तेमाल के लिये नहीं थी।यंत्र के माध्यम से गतिशील शब्दों की सुनामी में ,अच्छा खासा मनुष्य ,विचार और शब्दों की जीवनदायिनी अनुभूति से वंचित हो रहा हैं।शब्द वही है जो प्राचीन मनुष्य ने गढ़े पर पर उनके अधीरे,अविवेकी संम्प्रेषण ने शब्द और विचारों की प्रेरक और सृजनात्मक शक्ति के धैर्य को कमजोर किया है।आज हम सब ऐसी अधीरी अविवेकी दुनिया के वासी होते जा रहे हैं जहां अशांति,अराजकता,अन्याय,अनिष्ट,अत्याचार तो ब्रेकिंग न्यूज होकर वायरल हो रहे हैं और शांति,सद्भाव,सृजनात्मक विचार,व्यवहार और विवेकशीलता निरन्तर इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं।

कोरोना वायरस से बचाव का आसान उपाय हम सबको यह समझाया जा रहा है कि हम हरबार किसी भी बाहरी वस्तु को छूने के बाद अपने हाथों को साबुन से धोकर, कीटाणुरहित करके ही धर में प्रवेश करें।उसी तरह विषाक्त और मर्यादाविहीन शब्दों,विचारों के मन में आते ही पूरे धीरज और सद्भाव के साथ अपने शब्दों और विचारों को अन्तरमन में नहला धुलाकर ही अभिव्यक्त करें या बोले या लिखे या आगे प्रसारित करें।

शब्द ब्रम्ह है,उसकी प्रेरक,आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक शक्ति,पवित्रता आज की भीड़ भरी,वैमनस्य से भरपूर,विभिन्नताओं वाली,आपाधापी को ही जीवन समझनेवाली दुनिया की पहली जरूरत हैं।स्वस्थ,ताज़गीपूर्ण,सहज सरल प्राकृतिक दुनिया सौमनस्यपूर्ण शब्दों की असीम प्रेरक ऊर्जा के निरन्तर विस्तार से ही संभव हैं।मनुष्य की मनुष्य होने की विशिष्टता हम सबके द्वारा संप्रेषित सौमनस्यपूर्ण शब्दों में ही निहित हैं।अधीरी,अराजक,दूषित और वैमनस्यपूर्ण यांत्रिक मनुष्य की अशिष्टता में नहीं।

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अनिल त्रिवेदी
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