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हम कैसा सोचते हैं?

हम अपने दोषों को भी बड़ी सुंदर व्याख्या देते हैं। हम दूसरों के गुणों को भी स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार करते हैं। और हम अपने दोषों को भी बचाते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे पूछ रहा था। एक आदमी मुसलमान था, हिंदू हो गया था। उसके बेटे ने पूछा कि पिताजी, इसको हम क्या कहें? उसने कहा, “क्या कहना, गद्दारी है! जो आदमी मुसलमान से हिंदू हो गया, यह गद्दारी है।’ पर उसके बेटे ने कहा कि कुछ ही दिन पहले, एक आदमी हिंदू से मुसलमान हुआ था, तब आपने यह न कहा? उसने कहा कि वह धर्म-रूपांतरण था। उस आदमी को बुद्धि आई थी, सदबुद्धि का आविर्भाव हुआ था।

तो जब हिंदू मुसलमान बने, तो मुसलमान कहता है, सदबुद्धि; और जब मुसलमान हिंदू बन जाये तो गद्दार! यही हिंदू के लिए मूल्य है।

मैं एक जैन संत को जानता था। वे हिंदू थे और जैन हो गये। तो जैन उनसे बड़े प्रसन्न थे, हिंदू बड़े नाराज थे। हिंदू उनकी बात भी न करते। लेकिन जैन उन्हें बड़ा सम्मान देते, उतना सम्मान देते, जितना कि उन्होंने कभी जैन संतों को भी नहीं दिया था। क्योंकि इस आदमी का हिंदू से जैन हो जाना, इस बात का सबूत था कि जैन धर्म सही है। तब तो कोई हिंदू जैन होता है, नहीं तो क्यों होगा! तो जैनों से भी ज्यादा आदृत जैनों में वे थे; लेकिन हिंदुओं में उनका बड़ा अनादर था क्योंकि यह गद्दार था। इसने हिंदू धर्म की अवमानना की।

तुम इसे जरा गौर करना। हमारे जीवन में दोहरे मूल्य होते हैं। अपनी भूल को भी हम सोने से ढंक लेते हैं; दूसरे के सौंदर्य को भी हम मिट्टी से पोत देते हैं।

जिन सूत्र

ओशो