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निरक्षर आदिवासियो की आवाज़ बना सीजीनेट स्वर

भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी दूरदराज के जंगलों में रहता है। ये वे लोग हैं जिन्हें हम आदिवासी के रुप में जानते हैं, ये वे लोग हैं जो विकास के रास्ते पर दौड़ते इस देश में आज भी मूलभूत सुविधाओं से महरुम हैं। ये वे लोग हैं जो अपनी आवाज को समाज के उस तबके तक पहुंचाने की कोशिश में अपना जीवन बिता देते हैं और जब अंत तक उनकी आवाज कोई नहीं सुनता तो फिर उठा लेते हैं बंदूक और बजा देते हैं आंदोलन का बीगूल। इन आंदोलनकारियों को कोई नक्सली कहता है तो कोई माओवादी और कोई गुलाम-ए-मुस्तफा।

इन्हीं निरक्षर आदिवासियों की आवाज और उनकी समस्याओं को संबंधित लोगों तक पहुंचाने और उसके समाधान के लिए एक नया प्रयोग किया जा रहा है। इस प्रयोग की शुरुआत की है शुभ्रांसु चौधरी ने जो मोबाइल सामुदायिक रेडियो के माध्यम से लोगों की आवाज को दुनिया के सामने लाने का काम कर रहे हैं। अपने इसी प्रयोग को देश की जनता से साझा करने के लिए शुभ्रांसु चौधरी ‘अमर उजाला’ के कार्यालय पहुंचे और इसके बारे में विस्तार से बताया कि कैसे इस प्रयोग को चलाया जा रहा है।

उन्होंने बताया की आज आखिरी व्यक्ति तक मीडिया और सरकार की पहुंच नहीं है लेकिन मोबाइल एक ऐसा माध्यम बन कर सामने आया है जो गरीबों के पास भी उपलब्ध है। हालांकि, इसकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन इतनी जरूर है जिससे वह अपनी बात को दुनिया तक पहुंचा सके। ऐसे आदिवासी इलाकों में इंटरनेट की सुनिधा भी उपलब्ध नहीं होती इसलिए उन्हें एक ऐसे माध्यम की जरुरत थी जो बिना इंटरनेट के भी उनको दुनिया से जोड़ सके और उसका समाधान मोबाइल फोन था।

शुभ्रांसु ने अपने प्रयोग की शुरुआत के बारे में बताया कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र और उड़ीसा जैसे कुछ ऐसे राज्य हैं जहां आदिवासियों की संख्या बहुत ज्यादा है। इन आदिवासियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये निरक्षर होते हैं। इनको न तो लिखना आता है और नहीं पढ़ना। हां ये अपनी बोली में बात करना अच्छी तरह से जानते हैं। इनको अपने पारंपरिक बोलियों की ही जानकारी होती है जो बाहरी दुनिया (जंगल से बाहर) के लोग न तो बोल पाते हैं और नहीं समझ पाते हैं।

image (41)ये वे लोग होते हैं जिनकी आवाज समाज के मुख्य धारा में तक नहीं पहुंच पाती। इस के पीछे कारण यह है कि लोगों की आवाज को मजबूत करने वाली मीडिया (अखबार, टेलीविजन, रेडियो) केवल हिन्दी, अंग्रेजी और कुछ क्षेत्रीय भाषाओं तक ही सीमित है। जबकि भारत में भाषाओं के अलावा कई ऐसी बोलियां भी हैं जिनको बोलने और समझने वालों की तादात भी लाखों में हैं। तब सवाल यह उठता है कि आखिर इन लाखों लोगों की समस्याओं को कौन सुनेगा और समझेगा।

 

शुभ्रांसु ने आदिवासियों की इसी समस्या के समाधान के लिए एक नई पहल की शुरुआत की जिसे उन्होंने सीजीनेटस्वर नाम दिया है। उन्होंने बताया कि जब लोगों की समस्याएं सामान्य तरीके से हल नहीं होती तब वे दूसरा रास्ता तलाशते हैं। सही समय पर सही रास्ता नहीं मिलने पर यही लोग हिंसा का रास्ता अपना लेते हैं जिसे नक्सलवाद और माओवाद का नाम दे दिया जाता है। यह प्रयोग उनके लिए दूसरे रास्ते का विकल्प उपलब्ध कराता है।
शुभ्रांसु चौधरी ने बताया कि यह एक मोबाइल सामुदायिक रेडियो है। इस रेडियो स्टेशन में दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोग अपने मोबाइल फोन के माध्यम से एक नंबर पर मिस्ड कॉल करते हैं जिसके कुछ ही देर बाद उनके फोन पर एक दूसरे नंबर से फोन आता है और आपके सामने कुछ विकल्प रखता है। उचित विकल्प का चुनाव करने के बाद लोग अपनी भाषा और बोली में अपनी समस्याओं को रिकॉर्ड कर सीजीनेटस्वर पर भेजते हैं जो सीधे सीजीनेटस्वर के मुख्यालय में लगे कम्प्यूटर पर पहुंच जाता है।

सीटीनेटस्वर के मुख्यालय में अगल-अलग भाषाओं में पहुंची समस्याओं को वहां मौजूद विशेषज्ञ सीजीनेटस्वर की वेबसाइट पर प्रकाशित कर देते हैं और लोगों की आडियो रिकार्डिंग को भी वेबसाइट पर डाल देते हैं। उन्होंने बताया कि हम लोगों से उनकी समस्या के समाधान के उपायों और संबंधित अधिकारियों के बारे में बताने को कहते हैं। वेबसाइट पर उनकी समस्या प्रकाशित होने के बाद उसको पढ़ने वाले लोग ही उनकी मदद कर देते हैं। अगर किसी समस्या का समाधान अधिकारियों की वजह से होता है तो लोग उन अधिकारियों को फोन करके समस्याओं के बारे में बताते हैं और उसका समाधान करने के लिए दबाव भी बनाते हैं।

अपने इस प्रयोग का आदिवासी इलाकों में प्रचार करने के लिए कुछ टीमें भी बनाई गई हैं जो सूदूर इलाकों में जाकर आदिवासियों को इस प्रयोग के बारे में जागरुक करते हैं। ये लोग आदिवासियों को यह भी सिखाते हैं कि कैसे इस सुविधा का उपयोग करना है और अपनी समस्याओं को अपने कस्बे से बाहर पहुंचाना है जिससे की उसका समाधान निकाला जा सके।

शुभ्रांसु अपने इस प्रयोग को गांव कस्बों से निकालकर शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं। उनका मानना है कि अगर पढ़े लिखे लोगों को इस वेबसाइट और प्रयोग के बारे में बताया जाएगा तो वह भी उन आदिवासियों और ग्रामीणों की आवाज सुन पाएंगे। उन्होंने लोगों से यह भी अपील की कि वे ऐसे आदिवासियों की समस्याओं के समाधान के लिए सामने आएं और संबंधित अधिकारियों, नेताओं और सरकार इन समस्याओं से अवगत कराएं।

उन्होंने बताया कि लोग स्वेच्छा से संबंधित अधिकारियों को फोन करते हैं और उनसे समस्या के समाधान के लिए कहते हैं। लेकिन अधिकारी अपनी मनमानी करता है तो उसके लिए दूसरे रास्ते भी अपनाने पड़ते हैं जिसमें उनके ऊपर के अधिकारियों को ईमेल या रजिस्ट्री डाक के माध्यम से अवगत कराया जाता है। इसके अलावा आरटीआई और पीआईएल का भी सहारा लिया जाता है।

साभार- अमर उजाला से