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वेदों में जल का महत्व

विश्व जल दिवस 22 मार्च पर

वेदों में जल कई प्रकार के वर्णित किये गए हैं और उनके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि वे सबके लिए प्रदूषणशामक एवं रोगशामक हों:
शं त आपो हैमवती: शमु ते सन्तूत्स्या:।
शं ते सनिष्यदा आप: शमु ते सन्तु वर्ष्या:।।
शं त आपो धन्वन्या: शं ते सन्त्वनूष्या:।
शं ते खनित्रिमा आप: शं या: कुम्भेभिराभृता:।।
-अथर्व० १९/२/१-२

इन मन्त्रों में जलों के निम्नलिखित प्रकारों का उल्लेख हुआ है:
१. हिमालय के जल (हेमवती: आप:)- ये हिमालय पर बर्फ-रूप में रहते हैं अथवा चट्टानों के बीच में बने कुंडों में भरे रहते हैं, अथवा पहाड़ी झरनों के रूप में झरते रहते हैं।

२. स्त्रोतों के जल (उत्स्या: आप:)- ये पहाड़ी या मैदानी भूमि को फोड़कर चश्मों के रूप में निकलते हैं। कई चश्मों में गन्धक होता है, गन्धक का एक चश्म देहरादून के समीप सहस्रधारा में है।

३. सदा बहते रहनेवाले जल (सनिष्यदा: आप:)- ये सदा बहते रहने के कारण अधिक प्रदूषित नहीं हो पाते हैं।

४. वर्षाजल (वर्ष्या: आप:)- वर्षा से मिलनेवाले जल शुद्धि तथा ओषधि-वनस्पतियों एवं प्राणियों को जीवन देनेवाले होते हैं। अथर्ववेद के प्राण-सूक्त (११/४/५) में कहा है कि जब वर्षा के द्वारा प्राण पृथिवी पर बरसता है तब सब प्राणी प्रमुदित होने लगते हैं।

५. मरुस्थलों के जल (धन्वन्या: आप:)- मरुस्थलों की रेती में अभ्रक, लोहा आदि पाए जाते हैं, उनके सम्पर्क से वहां के जलों में भी ये पदार्थ विद्यमान होते हैं।

६. आर्द्र प्रदेशों के जल (अनूप्या: आप:)- जहां जल की बहुतायत होती है वे प्रदेश अनूप कहलाते हैं, तथा उन प्रदेशों में होनेवाले जल अनूप्य। यहां के जल कृमि-दूषित भी हो सकते हैं।
७. भूमि खोदकर प्राप्त किये जल (खनित्रिमा: आप:)- कुएं, हाथ के नलों आदि के जल इस कोटि में आते हैं।

८. घड़ों में रखे जल (कुम्भेभि: आभृता: आप:)- घड़े विभिन्न प्रकार की मिट्टी के तथा सोना, चांदी, तांबा आदि धातुओं के भी हो सकते हैं।

वेद का कथन है “अप्स्वन्तरमृतम् अप्सु भेषजम् अर्थात् शुद्ध जलों के अन्दर अमृत होता है, ओषध का निवास रहता है -ऋ० १/२३/१९”। “आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि अर्थात् शुद्ध जल के सेवन से मनुष्य रसवान् हो जाता है -ऋ० १/२३/२३”। “उर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम् अर्थात् शुद्ध जलों में ऊर्जा, अमृत, तेज एवं पोषक रस का निवास होता है -यजु० २/३४”। “शुद्ध जल पान किये जाने पर पेट के अंदर पहुंचकर पाचन-क्रिया को तीव्र करते हैं। वे दिव्यगुणयुक्त, अमृतमय, स्वादिष्ट जल रोग न लानेवाले, रोगों को दूर करनेवाले, शरीर के प्रदूषण को दूर करनेवाले तथा जीवन-यज्ञ को बढ़ानेवाले होते हैं -यजु० ४/१२”।

आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।। -ऋ० १०/९/१
शुद्ध जल आरोग्यदायक होते हैं, शरीर में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, वृद्धि प्रदान करते हैं, कण्ठस्वर को ठीक करते हैं तथा दृष्टि-शक्ति बढ़ाते हैं।

शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि स्त्रवन्तु न:।। -ऋ० १०/९/४
शुद्ध जलों का पान करके एवं उन्हें अपने चारों ओर बहाकर अर्थात् उनमें डुबकी लगाकर या कटि-स्नान करके हम अपना स्वास्थ्यरूप अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं।

जल-शोधन-
जलों को प्रदूषित न होने देने तथा प्रदूषित जलों को शुद्ध करने के कुछ उपायों का संकेत भी वेदों में मिलता है।
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा यासूर्जं मदन्ति।
वैश्वानरो यास्वग्नि: प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।। -ऋ० ७/४९/४
वे दिव्य जल हमारे लिए सुखदायक हों, जिनमें वरुण, सोम, विश्वेदेवा: तथा वैश्वानर अग्नि प्रविष्ट हैं।
यहां वरुण शुद्ध वायु या कोई जलशोधक गैस है, सोम चन्द्रमा या सोमलता है, विश्वेदेवा: सूर्यकिरणें हैं तथा वैश्वानर अग्नि सामान्य आग या विद्युत् है।

ऋग्वेद में लिखा है “यन्नदीषु यदोषधीभ्य: परि जायते विषम्। विश्वेदेवा निरितस्तत्सुवन्तु अर्थात् यदि नदियों में विष उत्पन्न हो गया है तो सब विद्वान् जन मिलकर उसे दूर कर लें -ऋ० ७/५०/३”।

‘वेद की दृष्टि में जल अमृतरूप औषधि है’

वेद के अनेक मन्त्र जल को आरोग्य, दीर्घजीवी व बल का संवर्धन करनेवाला इत्यादि बताते हुए जल की महत्ता का वर्णन करते हैं। वेदज्ञों की दृष्टि में जल को एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है किन्तु जल का आवश्यकता से अधिक प्रयोग या अनावश्यक प्रयोग करने वाला आज का भौतिकवाद जल की महत्ता से पूर्णतः अपरिचित है। उन्हें जल के चमत्कारों से परिचित व उनके बचाव के प्रति जागृत केवल वेद ही कर सकता है। आइए, इस लेख के माध्यम से जल की उपयोगिता वेद की दृष्टि में जानें-
आपोऽअस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्व: पुनन्तु।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्य: शुचिरा पूतऽएमि।
दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा: शग्मां परिदधे भद्रं वर्णं पुष्यन्।। -यजु० ४/२
महर्षि दयानन्दजीकृत भाष्य- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सब सुखों को प्राप्त करने, प्राणों को धारण करने तथा माता के समान पालन के हेतु जल हैं, उनसे सब प्रकार पवित्र होके, इनको शोध कर मनुष्यों को नित्य सेवन करने चाहियें, जिससे सुन्दर वर्ण, रोगरहित शरीर को सम्पादन कर निरन्तर प्रयत्न के साथ धर्म का अनुष्ठान कर पुरुषार्थ से आनन्द भोगना चाहिए।

अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।
देवा भवत वाजिन:।। -ऋग्० १/२३/१९
अर्थ- (अप्सु अन्तः अमृतं) जल के भीतर अमृत है, (अप्सु भेषजं) जल में औषधि गुण है (उत अपां प्रशस्तये) ऐसे जलों की प्रशंसा करने के लिए (देवाः वाजिन: भवत) हे देवों! तुम उत्साही बनो।
इदमाप: प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि।
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम्।। -ऋग् १/२३/२२
अर्थ- (आप:) हे जलो! (यत् किञ्च) जो कुछ भी (दुरितम्) अशुभ आचरण (मयि) मेरे जीवन में है (इदम्) इसको (प्रवहत) बहाकर दूर ले जाओ। जल शरीर के रोगों को ही दूर करते हों, सो नहीं, इनका मानस रोगों पर भी प्रभाव पड़ता है। क्रोध में आए हुए मनुष्य को अब तक ठण्डा पानी पीने के लिए देने की प्रथा है। पानी रोगों को ही नहीं, क्रोध को भी दूर कर देता है। वस्तुतः स्वास्थ्य को प्राप्त कराके जल मन को भी स्वस्थ बनाते हैं। मन के स्वस्थ होने पर सब दुरित दूर ही रहते हैं। हे जलो! (यद् वा) और जो (अहम्) मैं (अभिदुद्रोह) किसी के प्रति द्रोह करता हूँ, ये जल उस द्रोह-भाव को भी दूर करें। हमारे मनों में किसी की जिघांसा की भावना न हो। (यद् वा) और जो मैं (शेपे) क्रोध में आक्रोश कर बैठता हूं, किसी को शाप देने लगता हूं, उस वृत्ति को भी दूर करो (उत) और (अनृतम्) मेरे जीवन में न चाहते हुए भी आ जानेवाले असत्य को भी मुझसे दूर करो।

आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनी:।
आप: सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।। -ऋग् १०/१३७/६
अर्थ- (आप:) जल (इद वा उ) निश्चय से (भेषजी:) औषध हैं। ये (आप:) जल (अमीवचातनी:) रोगों का विनाश करनेवाले हैं। (आप:) जल (सर्वस्य भेषजी:) सब रोगों के औषद हैं। (ता) वे जल (ते) तेरे लिए (भेषजं कृण्वन्तु) औषध को करें।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।। -ऋग् १०/९/१
पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकारकृत भाष्य- (आप:) जल (हि) निश्चय से (स्था:) हैं (मयोभुवः) कल्याण व नीरोगता को उत्पन्न करनेवाले। अर्थात् जलों के समुचित प्रयोग से हम अपने शरीरों को पूर्णतया नीरोग बना पाते हैं। (ता:) वे जल (न:) हमें (ऊर्जे) बल व प्राणशक्ति में (दधातन) धारण करें। जलों का समुचित प्रयोग यह है कि- (क) हम स्नान के लिए ठण्डे पानी का प्रयोग स्पञ्जिंग के रूप में (घर्षण स्नान के रूप में) करें और पीने के लिए यथासम्भव गरम का। (ख) प्रातः जीभ व दांतों को साफ करने के बाद जितना सम्भव हो उतना पानी पीयें, यही हमारी (Bed tea) हो। (ग) भोजन में थोड़ा-थोड़ा करके बीच-बीच में कई बार पानी लें ‘मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि’।

इस प्रकार जलों का प्रयोग करने पर ये जल (महे) हमारे महत्त्व के लिए हों, शरीर के भार को कुछ बढ़ाने के लिए हों। जलों के घर्षण स्नान आदि के रूप में प्रयोग से शरीर का उचित भार बढ़ता है। भारी शरीर कुछ हल्का हो जाता है और हल्का शरीर उचित भार को प्राप्त करता है। (रणाय) जल का उचित प्रयोग शब्द शक्ति के विकास के लिए होता है। वाणी में शक्ति आ जाने से हम ‘पर्जन्य निनदोपम:’ मेघगर्जना के समान गम्भीर ध्वनि वाले बनते हैं। (चक्षसे) जलों के ठीक प्रयोग से ये दृष्टिशक्ति की वृद्धि के कारण बनते हैं। भोजन के बाद गीले हाथों के तलों से आंखों को कुछ मलना, प्रातः ठण्डे पानी के छींटे देना आदि प्रयोग दृष्टिशक्ति को बढ़ाते हैं, उषःपान तो निश्चय से इसके लिए अत्यन्त उपयोगी है।

इस प्रकार जल अमृतरूपी औषधि है। शुद्धजल का सेवन न करते हुए दूसरे हानिकारक पेय पदार्थों को स्वीकार करना यह मनुष्यजाति के लिए सर्वथा हानिकारक है। इसलिए धार्मिक लोगों को उचित है कि अपने वैदिक धर्म की आज्ञा का पालन करने की अभिलाषा से वे अन्य हानिकारक पेय पदार्थों को दूर करे और शुद्ध जल के प्रयोग से अपने शरीर की अंतर्बाह्य शुद्धि करके अपना आरोग्य सम्पादन करें तथा दीर्घ जीवन धर्म के मार्ग से व्यतीत करें।

साभार — जय विजय मासिक पत्रिका का अप्रैल २०१९ का अंक