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घाटी में अब 60 लाख मुसलमान और मात्र 5 हजार पंडित हैं

असयि गछय पाकिस्तान, बट्ट रोस्तयू बटनिन सान् (हमें पाकिस्तान चाहिए, कश्मीरी पंडितों के बिना लेकिन उनकी महिलाओं के साथ)', हमें चाहिए निजामे मुस्तफा, हमें क्या चाहिए-'आजादी', आजादी का मतलब क्या -'ला इल्हा इल इल्लाह।' जनवरी 19, 1990 की रात कश्मीर की मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से लगातार ये नारे गूंज रहे थे। घाटी का कोई ऐसा कोना नहीं था, जहां ये आवाजें नहीं पहुंच रही थीं। डरे सहमे कश्मीरी हिन्दू अपने बच्चों के साथ घरों में दुबके हुए थे। घाटी की गलियों में हाथों में मशालें और आधुनिक हथियार लिए हुए नारे लगाते हुए कट्टरपंथी जुलूस निकाल रहे थे। पुलिस कहीं नहीं थी।
 
हिन्दुओं को धमकी दी जा रही थी कि 'कश्मीर छोड़कर चले जाओ नहीं तो कत्ल कर दिए जाओगे।' दहशतगर्दों की आवाज पूरी रात कश्मीर की वादियों में गूंजती रही। सुबह जब हिन्दू उठे और डरे सहमे अपने घरों से बाहर निकले तो हर हिन्दू के घर के बाहर पोस्टर चिपके हुए थे जिन पर लिखा था 'यदि अपनी जान की सलामती चाहते हो तो कश्मीर छोड़कर चले जाओ नहीं तो तुम्हारी नस्लों को नेस्तोनाबूद कर दिया जाएगा' ये आंखों देखा मंजर 'पनुन कश्मीर' के अध्यक्ष अश्वनी कुमार चिरंगू का है। पनुन का कश्मीरी में अर्थ होता है 'हमारा अपना।' श्री अश्वनी फिलहाल जम्मू में रहते हैं, वे विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के अधिकारों के लिए वर्षों से समाजसेवा में जुटे हैं।
 
जम्मू में रहने वाले वीरेंद्र रैना दवाइयों का व्यवसाय करते हैं। उनका कहना है कि श्रीनगर के पॉश इलाकों में से एक जवाहर कॉलोनी में उनका तीन मंजिला मकान था। वे तब दवाइयों की एक कंपनी में मैनेजर थे। 21 जनवरी, 1990 तक उनके परिवार के सभी लोग जम्मू पहुंच गए थे। सिर्फ वे वहां रुके रहे ताकि हालात सामान्य हों तो वे परिजनों को वापस बुला सकें, लेकिन ऐसा मौका ही नहीं आया। उन्हें भी 28 फरवरी, 1990 को अपना सब कुछ वहीं पर छोड़कर जम्मू आना पड़ा। बाद में उन्हें पता चला कि उनके मकान पर कब्जा हो चुका है। उनके मकान की तीनों मंजिलों पर अलग-अलग मुस्लिम परिवारों ने कब्जा कर लिया था। आज भी उनका वहां पर मकान है और वहां कोई और रहता है।
कश्मीरी हिन्दुओं की ऐसी इक्की-दुक्की नहीं हजारों कहानियां हैं। इसके बाद जनवरी, 1990 से जो कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन का जो सिलसिला शुरू हुआ फिर थमा नहीं। अपनी जान और बहू-बेटियों की इज्जत बचाने के लिए चार लाख से ज्यादा हिन्दुओं ने अगले दो महीनों के दौरान कश्मीर छोड़ दिया। उन्हें अपने पुरखों की जमीन, मकान, खेत-खलिहान सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा। आज जब कश्मीर में उन्हें फिर से बसाने की बात हो रही है तो बिलों में घुसे अलगाववादी फिर से सिर उठा रहे हैं और विरोध कर रहे हैं। मसरत आलम जैसे अलगाववादी खुले तौर पर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। यासीन मलिक जैसे देशद्रोही बयान दे रहे हैं कि यदि कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से 'टाउनशिप' बसाई गई तो यहां इस्रायल जैसी स्थितियां पैदा हो जाएंगी।
कश्मीरी और हिन्दी की प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती बीना बुदकी अब मुंबई में रहती हैं। उनके पति श्री दीपक बुदकी जम्मू-कश्मीर के पोस्टमास्टर जनरल थे। जनवरी, 1990 में जब कश्मीर से पलायन शुरू हुआ तब वे कश्मीर के लाल चौक पर सरकारी मकान में अपने पति के साथ रहती थीं। उन्होंने बताया कि शाम को पांच से छह बजे तक कर्फ्यू हटाया जाता था। जैसे ही कर्फ्यू में ढील मिलती तो उनके घर के बाहर लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी। सभी कश्मीरी हिन्दू होते थे, जो अपना सामान उनके घर पर रखने के लिए आते थे। सुबह पांच से सात बजे के बीच कर्फ्यू फिर से खोला जाता था तो उनके घर से रोजाना एक गाड़ी डाक लेकर जम्मू के लिए निकलती थी। जो लोग रात को सामान घर पर रखकर जाते थे, वे गाड़ी में जगह पाने के लिए टूट पड़ते थे ताकि वे सुरक्षित जम्मू पहुंच जाएं। उन्होंने बताया कि उस दृश्य को याद करके आज भी वे भावुक हो जाती हैं। छोटे दुधमुंहे बच्चों को छाती से चिपकाए उनकी माताएं गाड़ी में जगह पाने की कोशिश में रहती थीं ताकि वे जम्मू पहुंच जाएं। हर किसी को जान बचाने की फिक्र रहती थी।
यदि कश्मीर के बिगड़ते हालातों की बात करें तो 1985 से कश्मीर में हालात बिगड़ने शुरू हो गए थे । वर्ष 1986 में कट्टरपंथियों ने मंदिरों पर हमले करने शुरू कर दिए। अनंतनाग में सबसे ज्यादा मंदिरों पर हमले किए गए। गांवों में रहने वाले हिन्दुओं के घरों और खेतों को जला दिया गया। कितनी ही घटनाएं ऐसी हैं जिनमें पड़ोस में रहने वाले मुसलमानों ने ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया। तीन अप्रैल, 1987 में कश्मीर में अशोक कुमार गुंजू नाम के युवक की हत्या कर दी गई। यह पहली हत्या थी, जो कि खुलेआम की गई। जेकेएलएफ के आतंकवादियों ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर श्रीनगर में उनकी हत्या कर दी। इसके बाद दहशत फैलाने के लिए आतंकियों ने जगह-जगह बम धमाके शुरू कर दिए। वर्ष 1988, अप्रैल में दुकानदार पवन कुमार और पुजारी स्वामीनाथ की हत्या कर दी गई। 13 सितंबर को पेशे से अधिवक्ता टीकालाल टपलू की जेकेएलएफ के आतंकियों ने हत्या कर दी। उस समय उनके पास भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष का दायित्व था। एक नवंबर, 1989 को आतंकवादियों ने शीला तिक्कु नाम की महिला को गोलियों से भून दिया। इसके बाद चार नवंबर, 1989 को न्यायाधीश नीलकंठ गुंजू की इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि उन्होंने एक आतंकी को फांसी की सजा सुनाई थी। इसके बाद अनंतनाग में केंद्र सरकार के कर्मचारी आर. पी. एन. सिंह की हत्या कर दी गई।
 
आठ दिसंबर, 1989 तत्कालीन गृह मंत्री वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया। उस वक्त जेकेएलएफ का सरगना आतंकी जावेद मीर था। आतंकवादियों ने अपने पांच साथियों शेख अब्दुल हामिद, मोहम्मद अल्ताफ बट, शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवाल को रिहा करने की मांग रखी। सरकार को मजबूरन आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा। आतंकवादियों को जैसे ही छोड़ा गया वैसे ही पूरी कश्मीर घाटी में कट्टरपंथी सड़कों पर निकल आए।
 
 
श्रीनगर के राजौरी कदल इलाके में जब आतंकवादियों को रिहा किया गया तो सैकड़ों की संख्या में वहां हाथों में हथियार लिए हुए आतंकी मौजूद थे। उन्होंने हवा में गोलियां चलाकर खुशियां मनाईं। घाटी में उस दौरान रहने वाले हिन्दू बताते हैं कि सड़कों पर खुशी का माहौल था। कट्टरपंथी सड़कों पर पटाखे फोड़कर खुशियां मना रहे थे। मिठाइयां बांटी जा रही थीं। लाल चौक पर हजारों की संख्या में कट्टरपंथी जुटे और उन्होंने पाकिस्तान जिंदाबाद और हिन्दुस्थान मुर्दाबाद के नारे लगाए। उनके हाथों में पाकिस्तान के झंडे थे।
 
27 दिसंबर, 1989 को पेशे से अधिवक्ता व अनंतनाग में कश्मीरी पंडितों के नेता रहे श्री प्रेमनाथ बट्ट को आतंकियों ने मार डाला। 1990 में अनंतनाग की रहने वाली सरला बट्ट नाम की महिला का अपहरण कर लिया गया। आतंकियों ने उनके साथ पहले दुष्कर्म किया और बाद में 25 अप्रैल, 1990 को आरा मशीन पर रखकर उन्हें बीच में से चीर कर उनकी हत्या कर दी। आतंकवादियों को छोड़े जाने के बाद उनके हौसले और बुलंद हो गए। ऐसी बर्बरता की घटनाएं थमी नहीं, बल्कि बढ़ती गईं। वर्ष 1991 से 1996 में जब पीवी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री थे, तब कश्मीर में हालात और भी बिगड़ गए। सैकड़ों कश्मीरी पंडितों की निर्मम हत्याएं की गईं। 1990 में शुरू हुए इस पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते कश्मीर से हिन्दुओं को निकालने की जो साजिश रची गई उसमें कट्टरपंथी कामयाब भी हुए। यही कारण है कि आज कश्मीरी हिन्दू अपने ही पुस्तैनी आशियानों में शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर हैं। इतने बड़े पलायन का उदाहरण देश के अन्य किसी राज्य में नहीं हैं।
 
जम्मू के शक्ति नगर में रहने वाले कश्मीरी पंडित सभा के अध्यक्ष के. के. कोसा कहते हैं कि 'घाटी में लगभग 60 लाख मुसलमान हैं, जबकि हिन्दुओं की संख्या करीब पांच हजार ही बची है वे भी डर- डरकर वहां रहते हैं। वर्ष 1990 से पहले हिन्दुओं की आबादी यहां चार लाख से ज्यादा थी। हिन्दुओं के यहां से पलायन करने के बाद मुसलमानों ने उनकी संपत्तियों पर कब्जा कर लिया या फिर हिन्दुओं को अपनी संपत्ति को सस्ते दामों पर बेचना पड़ा। अब जबकि केंद्र सरकार ने कश्मीरी हिन्दुओं को बसाने के लिए ' टाउनशिप' बनाने की बात कही वैसे ही उसका विरोध शुरू हो गया है। अलगावादियों ने प्रदर्शन करने शुरू कर दिए हैं। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी अलग से टाउनशिप बसाने की बात से इंकार कर दिया है। श्री कोसा का कहना है कि यदि केंद्र सरकार वास्तव में कश्मीरी हिन्दुओं को फिर से बसाना चाहती है तो उसे ठोस रणनीति बनानी होगी।
 
साभार- साप्ताहिक पांचजन्य से