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खेल और आध्यात्म के समन्वय से बचाया जा सकता है भारत का भविष्य

गर्मियां चल रही हैं। 90’s या उससे पहले के समय वाले लोगों से अगर पूछें कि उन्हें गर्मियों के समय की कौन सी बात याद है ! तो वे फट से मामा के घर जाना, दोस्तों के साथ खूब खेलकूद करना इत्यादि बता देंगे। ज्यादातर लोग स्कूल की छुट्टियां लगते ही सभी बच्चे नानी के घर ही तो जाया करते थे, लेकिन सवाल है क्या आज भी वही होता है ! जवाब है नहीं। अब माहौल काफी बदल चुका है, हाँ गर्मियों में बच्चे नानी, मामा के घर भले ही जाते हों लेकिन अब उनकी व्यस्तता मोबाइल फोन में हो गयी है। खेलकूद का बच्चों के जीवन से लगाव कम सा होने लगा है। बच्चों की आंखों पर चश्मा लगना, उनमें चिड़चिड़ापन आना यह सब आम हो चला है। इसका कारण भी हम और आपसे छुपा नहीं है। वे खेलों से दूर भागते हैं। उन्हें बस मोबाइल मिल जाये फिर वो अपनी अलग दुनिया में पहुँच जाते हैं। इसके दुष्प्रभाव के रूप में बच्चों और उनके स्वास्थ्य पर असर देखने को मिला है।

हाल ही के वर्षों की यह रिपोर्ट देखिए 10 साल की उम्र में 42% बच्चों के पास स्मार्टफोन है। 12 वर्ष होते ही यह आंकड़ा 71% का हो गया। वहीं 14 की उम्र तक 91 प्रतिशत बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। आधुनिकता और अपडेटेशन की दौड़ में अब सब आम हो चला है। इससे जुड़ा एक आंकड़ा इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर द्वारा सदन को दिया गया है वह देखिए : लगभग 23.8 प्रतिशत बच्चे सोने से पहले स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं। स्मार्टफोन के उपयोग के कारण 37.15 प्रतिशत बच्चों ने एकाग्रता के स्तर में कमी देखने को मिली है। ऐसे में देश के भविष्य के बारे में चिंता कड़ी होती है।

मोबाइल फोन से ज्यादा निकटता और अपने ‘स्व’ पर गर्व न करने के साथ खेलों से दूरी ने भी चुनौतियां खड़ी की हैं। जीवन में इसके अभाव के कारण बच्चों की स्वस्थता, एक-दूसरे के प्रति समझ, अनुशासन इत्यादि की जीवन में कमी देखने को मिलती है। अत्यधित समय मोबाइल फोन को देने से बच्चे अकेले हो रहे हैं , ज्यादातर सभी बच्चे स्वयं को बेहतर मानते हैं और एक-दूसरे की क्षमताओं का सम्मान करने का अभ्यास भूलते जा रहे हैं। यह नहीं होना चाहिए। हम जानते हैं हर व्यक्ति का अपना समार्थ्य है, बच्चों एक-दूसरे से जुड़कर कार्यों को करने में एकजुटता से रहना आना चाहिए।

हमें जानकारी है कि खेल से बच्चों के जीवन में अनुशासित रहना, एक दूसरे के साथ रहना, उन्हें प्रोत्साहित करना, धैर्य रखने जैसे गुण सीखते हैं। पहले बच्चे एक साथ खेल खेलने जाते थे, ज्यादा समय अपने मित्रों के साथ बिताते थे तो इससे एक-दूसरे के बीच समझ विकसित होती थी। परन्तु वर्तमान में मोबाइल से निकटता और खेलों से दूरी ने बच्चों को लेकर चिंता खड़ी की है। परिजनों की जिम्मेदारी है कि बच्चों को खेल खेलने के लिए बढ़ाएं, क्योंकि वे खेलों के साथ वह काफी विकसित होते हैं।

पाश्चात्य जगत की होड़ में हमारी गुरुकुल प्रणाली अब तक धराशायी सी हो गयी है। बच्चे ध्यान इत्यादि से काफी दूर भागने लगे हैं। जबकि ध्यान स्मृति और एकाग्रता में सुधार करता है, अवसाद, तनाव, व्यसनों, आतंक हमलों और चिंता विकारों का प्रभावी ढंग से इलाज करता है। यह सत्यता है कि अब डिजिटल गैजेट्स ने जीवन में हर जगह अपना घर बना लिया है। ऐसे में ध्यान, खेलकूद इत्यादि ही इन सबके बीच स्वस्थ माहौल प्रदान कर सकते हैं इसलिए अभिभावकों को बच्चों में यह गुण विकसित करने के लिए प्रयास करना चाहिए। ताकि वर्तमान की इस व्याधा से भविष्य को बचाया जा सके।

(सौरभ तामेश्वरी, लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ब्लॉगर हैं)