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भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘काले धन’ और भ्रष्टाचार ने बचाया

बेशक इस पर कोई सवाल नहीं हो सकता कि दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था की दास्ताँ बहुत सकारात्मक रही है. औद्योगिक उत्पादन में आई तेज़ी के दम पर 2015 की तीसरी तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.4 फ़ीसदी दर्ज हुई. यह वृद्धि दुनिया के किसी भी बड़े देश के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा थी.

देश के एक प्रमुख अर्थशास्त्री के मुताबिक़ भारत की सफलता का एक स्याह पक्ष भी है. कौशिक बसु विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री हैं और भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं. वो कहते हैं कि देश के छोटे-मोटे भ्रष्टाचार की परंपरा ने भारत को गंभीर बैंकिंग संकट से बचने में मदद की थी.
पिछले कुछ सालों में दुनिया की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इस समस्या से जूझ रही हैं.

ऐसी प्रभावशाली हस्ती का यह एक असाधारण दावा है. उन्होंने अपनी नई क़िताब ‘एन इकोनॉमिस्ट इन दि रियल वर्ल्ड’ में कहा है कि ‘अर्थशास्त्र कोई नैतिक विषय नहीं है’. उनका यह तर्क है कि काला धन, मसलन अवैध नकदी या फिर कर अधिकारियों से छिपाई गई पूंजी का व्यापक इस्तेमाल ही वो वजह है जिसके कारण बैंकिंग क्षेत्र इस संकट से उभर पाया.

ऐसा क्यों है, मैं आपको बताता हूँ. 90 के दशक के आख़िरी सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था में भी दुनिया के बाक़ी देशों की तरह ही तेज़ी दिख रही थी.
यह हैरान करने वाली बात थी कि 2008 तक लगातार तीन साल तक 9 फ़ीसद की दर से अर्थव्यवस्था में वृद्धि देखी जा रही थी. आवासीय क्षेत्र में नाटकीय तरीक़े से आई तेज़ी ने भारत की वृद्धि में योगदान दिया था.

वर्ष 2002 और 2006 के बीच संपत्ति की औसत क़ीमतों में एक साल में 16 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई. यह औसत आमदनी की वृद्धि से कहीं ज़्यादा था. अमरीका के मुकाबले भी यह बढ़ोतरी अधिक थी. लेकिन भारत के मामले में यह अंतर था कि यह ‘अतार्किक तेज़ी’ किसी बड़े संकट में तब्दील नहीं हुई. अमरीका के मुक़ाबले भारत में सबप्राइम ऋण (आवासीय क्षेत्रों के लिए कर्ज़) ने संकट पैदा नहीं किया, जिससे बैंकिंग क्षेत्र में कोई व्यापक संकट नहीं बना.

लेकिन अहम सवाल यह है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ?

बसु कहते हैं कि भारत के केंद्रीय बैंक आरबीआई के कुछ सख़्त एहतियाती क़दमों का इसमें योगदान ज़रूर था. लेकिन इसका एक अहम जवाब काला धन भी है. दुनिया के अधिकांश देशों में आप जब किसी संपत्ति के लिए भुगतान करते हैं, वह रकम स्थानीय रियल्टर या एस्टेट एजेंट के लिए लिखित रकम जितनी ही होती है.

लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता. भारत में अधिकतर घरों की ख़रीद नकदी या कम से कम आशिक रूप से नकदी के ज़रिए होती है. देश में अधिकतम 1,000 रुपए की वैल्यू वाला नोट मिलता है. यह किसी ख़रीदार के लिए असामान्य बात नहीं है कि वो नोटों से भरे एक सूटकेस के साथ नज़र आए. उदाहरण के तौर पर मान लीजिए आपने कोई घर ख़रीदने के लिए देखा और आपने उसकी 100 रुपए की क़ीमत लगाई. मुमकिन है कि विक्रेता आपको यह कहेगा कि 50 रुपए का भुगतान लिखित में दर्ज हो और बैंकर चैक/ड्राफ़्ट के ज़रिए औपचारिक प्रकिया के तहत किया जाए. बाक़ी की रकम नकदी में ही दे दी जाए. ये नक़द भुगतान ही भारत में ‘काला धन’ है. घर के ख़रीदारों को अक्सर संपत्ति की क़ीमत का कुछ हिस्सा नक़दी में देना होता है.

इसका मतलब यह है कि विक्रेता पूंजीगत लाभ कर को बचा सकता है. ख़रीदारों को भी इसमें फ़ायदा होता है क्योंकि वे संपत्ति की जितनी कम वैल्यू बताएंगे उतना ही कम प्रॉपर्टी टैक्स का भुगतान उन्हें करना होगा. दुनिया के किसी दूसरे हिस्से के मुक़ाबले भारतीय अपनी संपत्ति की वास्तविक क़ीमत के मुक़ाबले कम वैल्यू का कर्ज़ ही लेते हैं.

अमरीका और ब्रिटेन में प्रॉपर्टी में आई शानदार तेज़ी के दौर में यह बेहद सामान्य बात थी कि बैंक, संपत्ति की क़ीमत के 100 फ़ीसद वैल्यू तक के कर्ज़ की पेशकश करते थे. कुछ बैंक तो खरीदारों को 110 फ़ीसद कर्ज़ तक की पेशकश कर देते थे. इसी वजह से जब यह बुलबुला फटा तब बड़े बैंकों की बैंलेसशीट भी प्रॉपर्टी की क़ीमतों के साथ भी एकाएक बैठ गई. इसके विपरीत भारत में घर की औपचारिक क़ीमत पर ही कर्ज़ मिल सकता है. बासु का कहना है कि 100 रुपए की कीमत वाले घर को 50 रुपए या इससे कम की औपचारिक वैल्यू पर ख़रीदा जा रहा था.

ऐसे में भारत में जब 2008 और 2009 में क़ीमतें गिरी तब ज़्यादातर बैंकों के कर्ज़ को ज़्यादा नुक़सान नहीं हुआ, क्योंकि यह कर्ज़ प्रॉपर्टी की औपचारिक लिखित कीमतों के दायरे में था. इसी वजह से भारत सबप्राइम संकट के चपेट में नहीं आया जबकि दूसरे देशों में इससे बड़ा संकट पैदा हुआ. भारत में भी वैश्विक आर्थिक मंदी के संकट की आंच महसूस की गई. लेकिन यह किसी राष्ट्रीय समस्या के नतीजे के तौर पर नहीं उभरा. एक साल के भीतर ही भारत इस संकट से उबरने लगा और 2009 और 2011 के बीच भारत ने क़रीब 8 फ़ीसद वृद्धि के साथ वापसी की.

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि बसु भ्रष्टाचार को स्वीकृति दे रहे हैं. बसु का कहना है कि जो लोग रिश्वत लेते हैं उन्हें ही अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने के लिए बसु अपने विशेष तरीके के लिए मशहूर हैं. वह तरीका है रिश्वत को वैध बना दीजिए.
कुछ साल पहले उन्होंने यह प्रस्ताव दिया था कि रिश्वत देने वाले और रिश्वत लेने वाले, दोनों को अपराधी बनाए जाने के बजाए रिश्वत लेने वालों को अधिक ज़िम्मेदार बनाया जाना चाहिए. यह एक साधारण बदलाव है. लेकिन इससे दोनों पक्षों के रिश्ते में मौलिक बदलाव होता है. अदालती कार्रवाई के जोखिम से मुक्त होकर रिश्वत देने वाले भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करने के लिए प्रोत्साहित होंगे. बसु कहते हैं कि दुर्भाग्य से उनके इस नए सुझाव को भारतीय क़ानून की मुख्यधारा में कोई जगह नहीं मिली है.

साभार – http://www.bbc.com/hindi से