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भारत के तीन युवा वैज्ञानिक जिनका काम दुनिया की तीन बड़ी चुनौतियों का हल दे सकता है

जर्मनी हर साल ‘हरित प्रतिभा पुरस्कार’ (ग्रीन टैलेन्ट्स अवार्ड) देता है. यह सम्मान विश्व की उन युवा वैज्ञानिक प्रतिभाओं को ऐसे शोधकार्यों के लिए प्रोत्साहित करने के लिए दिया जाता है जो विकास और पर्यावरण संरक्षण दोनों के साथ न्याय करते हों. 2009 से दिए जा रहे इन पुरस्कारों के विजेताओं का चयन जर्मनी के शिक्षा एवं शोध मंत्रालय द्वारा गठित देश के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का एक उच्चस्तरीय निर्णायकमंडल करता है.

हर वर्ष अक्टूबर में विभिन्न देशों के 25 युवा वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार दिया जाता है. ये ऐसे वैज्ञानिक होते हैं जिन्होंने अपने देशों की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कोई ऐसी खोज की है या उस पर काम कर रहे हैं, जिससे पर्यावरण प्रदूषण को घटाने के साथ-साथ सतत विकास भी संभव हो. इस वर्ष 100 से अधिक देशों से 736 आवेदन आए थे. उन के बीच से 21 देशों के 25 विजेताओं को चुना गया.

पुरस्कार का पहला भाग जर्मन सरकार के निमंत्रण पर अक्टूबर में जर्मनी की दो सप्ताह की यात्रा के रूप में होता है. सभी विजेताओं को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जर्मन कंपनियों, प्रयोगशालाओं, शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जा कर उन्हें देखने और वहां के वैज्ञानिकों से बातें करने का अवसर मिलता है. पुरस्कार के दूसरे हिस्से के तौर पर हर विजेता – एक बार फिर जर्मन सरकार के ही ख़र्च पर – अगले वर्ष किसी भी समय एक से तीन महीने के लिए फिर जर्मनी जा सकता है और अपनी पसंद के किसी भी जर्मन शोध या उच्चशिक्षा संस्थान में अपने शोधकार्य को आगे बढ़ा सकता है.

पिछले वर्ष की ही तरह इस वर्ष भी भारत अकेला ऐसा देश था, जिसके तीन उभरते हुए शोधकर्ताओं को जर्मनी के ‘हरित प्रतिभा पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. लगातार दूसरी बार एक साथ तीन पुरस्कार विजेता किसी और देश के नहीं थे. इससे पता चलता है कि भारत के प्रतिभावान युवा दुनिया के किसी भी देश के अपनी आयु के शोधकर्ताओं से टक्कर लेने की क्षमता रखते हैं.

ग्रैफ़ीन से औद्योगिक जलशोधन

27 वर्षीय ईशानी खुराना दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही हैं. वे ग्रैफ़ीन-आधारित ऐसी जलशोधक सामग्रियां बनाने पर काम कर रही हैं, जो कपड़ा मिलों जैसे उद्योगों के ग़ंदे पानी में घुले रंजकों (डाइ) इत्यादि को पानी से अलग कर सकें. ऐसे उद्योग अपना ग़ंदा पानी अक्सर बिना किसी शोधनक्रिया के नदी-नालों में बहा देते हैं. ईशानी खुराना का कहना है कि वे ग्रैफ़ीन-आधारित जिस तकनीक का विकास करने में लगी हैं उसमें पानी को रंजकों से मुक्त करने में बिजली या किसी दूसरे ऊर्जास्रोत की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

ग्रैफ़ीन कागज़ पर लिखने की पेंसिल में लगने वाले ग्रेफ़ाइट की तरह का कार्बन का ही एक ऐसा अपरूप (ऐलोट्रॉप) है, जो अपने चमत्कारिक गुणों से वैज्ञानिकों को बहुत चकित कर रहा है. उसकी केवल एक परमाणु जितनी मोटी परत भी हीरे से भी कठोर और इस्पात से भी मज़बूत होती है. ऐसी हर परत के परमाणु आपस में एक षट्भुज (हेक्सागॉन) बनाते हुए किसी पारदर्शी जालीदार झिल्ली की तरह जुड़े होते हैं.

ग्रैफ़ीन एक चमत्कारिक अर्धधातु

ग्रैफ़ीन को एक ऐसी अर्धधातु भी कहा जा सकता है जिसके अनेक गुणों के बारे में सबसे नयी खोज यह है कि उसे बिजली के परमसुचालक (सुपर कंडक्टर) के तौर पर भी इस्तोमाल किया जा सकता है. परमसुचालक बिजली के ऐसे सुचालक को कहते हैं जिससे हो कर बिना किसी प्रतिरोध (ज़ीरो रेज़िस्टंस) और क्षय के बिजली प्रवाहित हो सके. वैज्ञानिक लंबे समय से एक ऐसे परमसुचालक की तलाश में हैं, जो बिना ठंडा किये, सामान्य तापमान पर भी परमसुचालक बना रहे. समझा जाता है कि ग्रैफ़ीन ही शायद इस प्रश्न का भी उत्तर है.

ग्रैफ़ीन की परमाणविक बनावट

ईशानी खुराना अपने प्रयोगों में ग्रैफ़ीन ऑक्साइड और अन्य धातुओं के मेल से नैनोमीटर (एक मीटर के एक अरबवें हिस्से) जितने बड़े कणों वाले मिश्रण बनाने का प्रयास कर रही हैं. उनकी सहायता से वे प्रदूषित पानी में से विषैले नाइट्रो-ऑर्गैनिक यौगिकों को अलग कर दूर करेंगी. नाइट्रो-ऑर्गैनिक ऐसे यौगिकों को कहते हैं, जिनकी रासायनिक संरचना में एक या एक से अधिक -N2O ग्रुप शामिल हों. रंगाई के काम आने वाले रंजकों और कुछ विस्फोटकों के निर्माण में भी नाइट्रो-ऑर्गैनिक यौगिकों का प्रयोग होता है.

ग्रैफ़ीन का ऑक्सीकरण

सत्याग्रह के लिए एक बातचीत में ईशानी खुराना ने बताया, ’सामान्य ग्रेफ़ाइट बहुत सारी परतों का बना होता है. उसको तराशते हुए यदि बहुत ही पतली महीन परत बना दें, तो वह ग्रैफ़ीन होगा. उस को जब ऑक्सीकृत (ऑक्सिडाइज़) कर देते हैं, तो उसमें ऑक्सीजन का गुण आ जाता है और तब वह ग्रैफ़ीन-ऑक्साइड बन जाता है. ऑक्सीकृत करने के लिए ऑक्सीजन या ओज़ोन के साथ या किसी अम्ल (ऐसिड) के साथ उसकी अभिक्रिया कराई जाती है.’’

ईशानी खुराना के मुताबिक पानी साफ़ करने से पहले ग्रैफ़ीन ऑक्साइड के पाउडर को चुंबक से आकर्षित होने वाले लोहे के लवण (आयरन क्लोराइड, आयरन फ़ॉस्फेट इत्यादि) या चुंबकीय सक्रियता वाली किसी दूसरी चीज़ के साथ मिलाते हैं. इस सामग्री को गंदे पानी में डालने पर पानी की नाइट्रो-ऑर्गैनिक अशुद्धियां उससे जुड़ जाती हैं. इसके बाद चुंबक लगा कर इस सामग्री को पानी से अलग कर लिया जाता है. लोहे का कोई लवण मिलाकर चुम्बक से आकर्षित होने लायक उसे इसीलिए बनाया जाता है, ताकि ग्रैफ़ीन ऑक्साइड को अलग कर फिर से इस्तेमाल किया जा सके. इस तरह पानी भी साफ हो जाता है और उसे साफ़ करने वाली सामग्री को बार- बार इस्तेमाल भी किया जा सकता है. अपने अध्ययन में उन्होंने उसे पांच बार तक इस्तेमाल किया है.

फ़िल्टर की आवश्यकता नहीं

इस विधि में पानी को साफ़ करने के लिए उसे किसी फ़िल्टर से छाना नहीं जाता. छानना तब काम आता है, जब छानने लायक कोई पदार्थ या कीटाणु पानी में हों. किंतु पानी में जब रंजकों जैसी रासायनिक अशुद्धियां हों तो वे छानने से अलग नहीं की जा सकतीं. उन्हें तो रासायनिक क्रिया द्वारा ही अलग करना पड़ता है. ईशानी खुराना की नैनोमीटर ग्रैफ़ीन ऑक्साइड विधि में प्रदूषित पानी की नाइट्रो-ऑर्गैनिक अशुद्धियां ग्रैफ़ीन ऑक्साइड द्वारा सोख ली जाती हैं और फिर उन्हें चुंबक द्वारा खींचकर पानी से अलग कर दिया जाता है. ईशानी खुराना का कहना है, ‘अशुद्धियों वाले इस ग्रैफ़ीन ऑक्साइड पर एथेनॉल (एथाइल अल्कोहल) डालने से वह दोबारा इस्तेमाल करने लायक साफ़ हो जाता है. किसी दूसरे आक्रामक, महंगे या ख़तरनाक रसायन की ज़रूरत नहीं पड़ती.’

ईशानी खुराना के अनुसार भारत में यह विधि अभी प्रयोगशाला स्तर पर ही है, पर भारत के बाहर यह इस्तेमाल हो रही है, जैसे कि ऑस्ट्रेलिया में. वे चाहती हैं कि औद्योगिक ग़ंदे पानी से रंजकों को अलग करने के लिए बड़े पैमाने पर ऐसे ग्रैफ़ीन-ऑक्साइड फ़िल्टर बनाये जाएं जो सस्ते हों, बार-बार इस्तेमाल हो सकें और सही तरह के प्रदूषकों को दूर कर सकें. इस काम के लिए उन्हें ऐसी कंपनियों या निवेशकों की ज़रूरत है जो इस तकनीक को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हों.

नैनो टेक्नॉलॉजी का सुपर कपैसिटर

राजस्थान के मोहित श्राफ आईआईटी इंदौर में सामग्री विज्ञान यानी मैटीरियल साइंस के अंतर्गत नैनो टेक्नॉलॉजी में पीएचडी कर रहे हैं. वे नैनोमीटर आकार वाली ऐसी सामग्रियों की खोज कर रहे हैं, जो विद्युत ऊर्जा के संचय के लिए सुपर कपैसिटर (महाधारित्र) बनाने के काम आ सकें. कपैसिटर भी बैटरी जैसा ही एक उपकरण है जिससे ज़रूरत पड़ने पर विद्युत ऊर्जा यानी बिजली प्राप्त की जा सकती है. दोनों में कुछ समानताएं हैं, तो कुछ अंतर भी हैं. बैटरी में रासायनिक क्रिया से बिजली बनती है, जबकि कपैसिटर में मुख्यतः बनी-बनाई बिजली भर कर संचित की जाती है. साधारण बैटरी एक बार ख़ाली हो गयी, तो उसे फेंक देना पड़ता है, जबकि किसी कपैसिटर को बार-बार री-चार्ज किया जा सकता है. बैटरी एक स्थिर मात्रा में ऊर्जा काफ़ी देर तक देती है, जबकि कपैसिटिर काफ़ी अधिक ऊर्जा बहुत थोड़े समय के लिए मुक्त करता है. यही मुख्य अंतर है, जिसके कारण दोनों की भीतरी बनावट भी थोड़ी अलग होती है.

इसे समझाते हुए मोहित श्राफ कहते हैं, ‘बैटरी की एनर्जी-डेंसिटी (ऊर्जा-घनत्व) बहुत ज़्यादा होती है, लेकिन पावर-डेंसिटी (चार्ज/ आवेश-घनत्व) कम होती है. कपैसिटर की पावर-डेंसिटी बहुत ज़्यादा होती है लेकिन एनर्जी-डेंसिटी बहुत कम होती है. एनर्जी-डेंसिटी का अर्थ है एनर्जी स्टोर (संचित) करने की क्षमता. पावर-डेंसिटी के साथ प्रश्न यह होता है कि आप किसी काम के लिए विद्युत ऊर्जा को किस तेज़ी से मुक्त कर पाते हैं. उदाहरण के लिए एक धावक है, जो 1000 मीटर की रेस में दौड़ रहा है, तो इस दौड़ के लिए सुपर कपैसिटर काम आयेगा. यह दूरी बहुत लंबी नहीं है, इसलिए धावक को शुरू से ही बहुत तेज़ी से अपनी गति बढ़ानी होगी. इस दूरी के लिए एनर्जी एकसमान रह या थोड़ी-बहुत बदल भी सकती है, लेकिन उसे तेज़ी से त्वरण चाहिये, जिसके लिए सुपर कपैसिटर काम आयेगा.’’

बैटरी और सुपर कपैसिटर का मेल

मोहित आगे जोड़ते हैं, ‘लेकिन वही धावक यदि 1500 मीटर की लंबी दौड़ में भाग ले रहा है, तो ज़ोर रहेगा एनर्जी- डेंसिटी पर, क्योंकि लंबी दौड़ के लिए एकबारगी अधिक ऊर्जा के बदले लंबे समय तक सतत ऊर्जा की ज़रूरत होगी. इसके लिए बैटरी काम आयेगी. आजकल बैटरी और सुपर कपैसिटर के बीच मेल बैठाते हुए उनके गुण जोड़ने की बात हो रही है. यानी एनर्जी भी बढ़े और पावर- डेंसिटी भी बढ़े. तो आजकल यही प्रयास हो रहा है कि कोई ऐसी डिवाइस बनायी जाये, जिस में सुपर कपैसिटर के भी गुण हों और बैटरी के भी, ताकि एक ही चीज़ दोनों काम कर सके. इन साधनों की ऊर्जा-संचय क्षमता मूल रूप से इसी पर निर्भर करती है कि सामग्री क्या है, उसके गुण क्या हैं. मेरे काम का फ़ोकस भी यही है कि सही सामग्रियां क्या होंगी और हम किस प्रकार उनके गुणों को बढ़ा सकते हैं. जर्मनी में मुझे कई चीज़ें देखने को मिली हैं, जिन्हें मैं भारत लौट कर अपनी रिसर्च में इस्तेमाल करने की कोशिश करूंगा.’

मोहिक श्राफ ने बताया कि उन्होंने कुछ तो अपनी नयी सामग्रियां बनाई हैं और कुछ दूसरी सामग्रियों के गुणों में सुधार लाने पर भी काम किया है, जैसे कि कॉपर ऑक्साइड, निकिल-कोबाल्ट ऑक्साइड या मेटल-ऑर्गौनिक फ्रेमवर्क पर. उन्होंने ग्रैफ़ीन के साथ भी कुछ प्रयोग किए हैं. उनके परिणाम इस समय उपलब्ध साहित्य से काफी़ तुलनीय हैं. उनकी कोशिश है पहले एक व्यापक अध्ययन द्वारा यह मालूम किया जाए कि किस सामग्री से सबसे अच्छा परिणाम मिल सकता है और वह किस तरह इस्तेमाल हो सकती है.

पर्यावरण के लिए अहानिकारक सामग्री

सही क़िस्म की सामग्रियों के संश्लेषण में मोहित श्राफ की एक कसौटी उनकी गुणवत्ता और कार्यकुशलता का अच्छा होना तो है ही, वे पर्यावरण के लिए हानिकारक भी नहीं होनी चाहिए. आजकल की बैटरियों के भीतर पारे, सीसे या कैडमियम के रूप में जो इलेक्ट्रोलाइट (विद्युतअपघट्य) सामग्री होती है और उनके इलेक्ट्रोड (विद्युदग्र) जिन चीज़ों के बने होते हैं, वे पर्यावरण के लिए बहुत हानिकारक हैं. मोहित श्राफ के सुपर कपैसिटर मुख्य रूप से सौर ऊर्जा के संचय पर लक्षित होंगे. वे चाहते हैं कि उनके सुपर कपैसिटर के लिए आवश्यक कच्चा माल सस्ता हो और दुनिया में प्रचुर मात्रा में मिलता हो.

उनके मुताबिक इसीलिए अब ‘लीथियम अायन’ बैटरी की जगह एल्युमिनियम अायन बैट्री और मैग्नेशियम अायन बैट्री जैसी कुछ दूसरी बैटरियां भी आने लगी हैं, क्योंकि लीथियम बहुत दुर्लभ धातु है और कुछ गिने-चुने देशों में ही उसकी खानें हैं. अपनी सारी स्कूली पढ़ाई हिंदी में करने वाले राजस्थान के मोहित 2019 में तीन महीनों के लिए फिर जर्मनी की यात्रा करेंगे और वहां के किसी शोध संस्थान के लोगों के साथ अनुभवों का आदान-प्रदान करेंगे.

जैविक तरीके से भूमि- प्रदूषण का समाधान

विशाल त्रिपाठी गोरखपुर के निवासी हैं और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पर्यावरण विज्ञान और तकनीक में पीएचडी कर रहे हैं. वे खेती-बागबानी के काम आने वाली मिट्टी की क़िस्मों और जैविक तरीके से उन्हें प्रदूषण-मुक्त करने के उपायों की खोज कर रहे हैं. उनका कहना है, ‘भारत में मिट्टी पर आधारित हमारे 37 प्रतिशत संसाधन प्रदूषित हो गये हैं. यह प्रदूषण भौतिक क़िस्म का भी हो सकता है और रासायनिक क़िस्म का भी. मेरा फ़ोकस उस भूमि को प्रदूषण से मुक्त करने पर है, जो कीटनाशकों के काऱण मिट्टी में पैदा हो जाता है.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘इस दिशा में पहला काम जो मैंने किया है, वह है ऐसे इन्डिकेटर (संकेतक) विकसित करने का जिनसे हम जान सकें कि कहां कितनी भूमि प्रदूषित हो चुकी है, उसमें कौन-कौन से कीटनाशक या दूसरे प्रदूषक हैं और उनका अनुपात क्या है. इन बातों से हिसाब लगाया जा सकता है कि उस भूमि की पुनःअनुकूलन क्षमता कितनी है और उसे साफ़ करने के लिए हमें कौन सी तकनीक इस्तेमाल करनी चाहिये.’

पौधे और सूक्ष्म जीवाणु

विशाल कहते हैं, ‘फिर मैने काम किया ऐसे पौधों ओर माइक्रोब्स (सूक्ष्म जीवाणुओं) को लेकर, जिनमें विशेष रूप से ‘हेक्साक्लोरो-साइक्लोहेक्ज़ेन’ नाम के कीटनाशक से प्रदूषित मिट्टी का उद्धार करने की क्षमता हो. उन पौधों और जीवाणुओं की गुणवत्ता का आकलन किया जो इस कीटनाशक से प्रदूषित मिट्टी को ठीक करने के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हों.’

30 वर्षीय विशाल त्रिपाठी का कहना है कि जिस जगह की मिट्टी कीटनाशकों से प्रदूषित होती है, वहां या उसके आस-पास ऐसे सूक्ष्म जीवाणु भी हो सकते हैं, जिनमें प्रदूषण के हानिकारक तत्वों को सहने या उनसे लड़ने की क्षमता भी हो. विशाल कहते हैं, ‘उन्हें पहचानना होता है. वे प्रदूषणकारी तत्वों को विघटित करने के सक्षम भी हो सकते हैं. उनकी सहायता से प्रदूषित मिट्टी को फिर से उपजाऊ बनाया जा सकता है.’ विशाल त्रिपाठी ने उत्तरी भारत में पाये जाने वाले इस प्रकार के कई सूक्ष्म जीवाणुओं की पहचान कर उनके गुणों का वर्गीकरण किया है. उन्होंने ऐसे कई पौधों की भी पहचान की है जो प्रदूषकों को अपने भीतर बांध कर मिट्टी को साफ कर देते हैं. कीटनाशकों से प्रदूषित मिट्टी में ऐसे पौधे उगा कर उसे प्रदूषणमुक्त किया जा सकता है.

एक पंथ, दो काज

विशाल बताते हैं, ‘हम दो-तीन प्रकार के माइक्रोब्स पर काम कर रहे हैं जिन्हें प्रदूषण निवारण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और जो साथ ही साथ उर्वरक का काम करने की क्षमता भी रखते हैं. उनके साथ जब हम पौधे को ज़मीन में लगाते हैं तो उनके बीच एक सिम्बियॉटिक (सहजीवी) संबंध बन जाता है और पौधे को उत्तम विकास मिलता है.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘किसी स्थान विशेष की खेती और उसके लिए उपयुक्त जलवायु को ध्यान में रखते हुए हमें यह जांच भी करनी पड़ती है कि हमारा माइक्रोब किस पौधे के साथ बेहतर ढंग से काम कर रहा है. इसके लिए हमने बायोएनर्जी (जैव-ऊर्जा) देने वाले कुछ पौधों के साथ परीक्षण किये. उदाहरण के लिए, जट्रोफ़ा ल्युत्सीना (जमाल घोटा/ जंगली अरंडी) के साथ परीक्षण में हमें बहुत अच्छे परिणाम मिले हैं. सूर्यमुखी के साथ भी हमने प्रयोग किये हैं और हमें अच्छे परिणाम मिले हैं.’ उल्लेखनीय है कि जट्रोफ़ा के बीज में 40 प्रतिशत तक ऐसा तेल होता है जिसे भारत में बायोडीज़ल के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है.

2050 तक खाद्य उत्पादन 70 प्रतिशत बढ़ाना होगा

अपने शोधकार्य के पर्यावरण और सतत विकास के व्यापक महत्व को रेखांकित करते हुए विशाल त्रिपाठी का कहना था, ‘2050 तक हमारी वैश्विक जनसंख्या साढ़े नौ अरब हो जायेगी. उसमें से एक अरब 60 करोड़ लोग भारत में रह रहे होंगे. इसका मतलब है कि हमें अपना खाद्य उत्पादन क़रीब 70 प्रतिशत बढ़ाना होगा. इसलिए हमें अभी से सोचना है कि हम अपने संसाधनों का टिकाऊ ढंग से उपयोग कैसे करें. हमें केवल खाद्यपदार्थों की ही चिंता नहीं करनी है. बायोएनर्जी या कुछ और पैदा करने की बात भी सोचनी है. भारत में 80 प्रतिशत किसान कम ज़मीन वाले छोटे किसान हैं. उनकी आजीविका उनकी ज़मीन पर ही निर्भर करती है. इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि हम उनकी ज़मीन उपजाऊ बनाये रखने में सहायक बनें.’

भारत के इन तीनों विजेताओं का कहना था कि उन्हें पहली बार जर्मनी आने का मौक़ा मिला है. दो हफ्ते में उन्हें बहुत-से नामी शोध संस्थाऩों और विश्वविद्यालयों में जाने और वहां के लोगों से खुल कर बातें करने का असर मिला. नके मुताबिक लोग बहुत ही दोस्ताना हैं और वे जानकारी साझा करना चाहते हैं. पूछने पर ठीक से उत्तर मिलते हैं. स्वाभविक ही है कि भारत के तीनों विजेता 2019 में एक बार फिर जर्मनी की यात्रा के लिए उत्सुक हैं.

साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से