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मनुष्य को मनुष्य बनाने का उपक्रम है अणुव्रत

जीवन यानि संघर्ष, यानि ताकत, यानि मनोबल। मनोबल से ही व्यक्ति स्वयं को बनाए रख सकता है वरना करोड़ों की भीड़ में अलग पहचान नहीं बन सकती। सभी अपनी-अपनी पहचान के लिए दौड़ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। कोई पैसे से, कोई अपनी सुंदरता से, कोई विद्वता से, कोई व्यवहार से अपनी स्वतंत्रा पहचान के लिए प्रयास करते हैं। पर हम कितना भ्रम पालते हैं। पहचान चरित्र के बिना नहीं बनती। बाकी सब अस्थायी है। चरित्र एक साधना है, तपस्या है। जिस प्रकार अहं का पेट बड़ा होता है, उसे रोज़ कुछ न कुछ चाहिए। उसी प्रकार चरित्र को रोज़ संरक्षण चाहिए और यह सब दृढ़ मनोबल से ही प्राप्त किया जा सकता है। चरित्र को संरक्षण देने के लिये स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ। जैन संत आचार्य तुलसी के मन की उपज है यह आन्दोलन।

अणुव्रत का प्रारंभ आचार्य तुलसी द्वारा 1 मार्च 1949 में राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ। अणुव्रत आन्दोलन का मुख्य ध्येय एक आदर्श समाज निर्माण का आकार देना था, व्यक्ति केवल भौतिक उन्नति ही नहीं करे, नैतिक धरातल भी मजबूत बनाये। उस समय एक ओर देश सांप्रदायिक ज्वाला में जल रहा था, वहां दूसरी ओर सभी प्रमुख लोग देश के भौतिक निर्माण में विशेष अभिरूचि ले रहे थे। अणुव्रत आन्दोलन ने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सभी धर्म-सम्प्रदाय के प्रमुख -पुरुषों को एक मंच पर लाकर यह समझाने की कौशिश की गयी कि धर्म के मौलिक सिद्धांत एक हैं। जो भिन्नता दिखाई दे रही है वह या तो एकांत आग्रह की देन है या फिर सांप्रदायिक स्वार्थों के कारण उसे उभरा जा रहा है। इस दृष्टि से विशाल सर्वधर्म सदभाव सम्मेलन आयोजित किये गए और अणुव्रत का मंच एक सर्वधर्म सद्भाव का प्रतीक बन गया। भारतीय धर्म सम्प्रदायों के अतिरिक्त ईसाई तथा मुसलमान सम्प्रदायों के साथ भी एक सार्थक संवाद बना और अनेक ईसाई तथा मुसलमान लोगों ने भी अणुव्रत के प्रचार-प्रसार में रूचि दिखाई। जगद्गुरु शंकराचार्य, दलाई लामा, ईसाई पादरी, मुसलमान संतों ने भी इसमें भाग लिया।

आचार्य तुलसी ने अणुव्रत को असाम्प्रदायिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया उनका कथन है “इतिहास में ऐसे धर्मों की चर्चा है, जिनके कारण मानव जाति विभक्त हो गयी है। जिन्हें निमित्त बनाकर लड़ाइयां लड़ी गई है किन्तु विभक्त मानव जाति को जोड़ने वाले अथवा संघर्ष को शान्ति की दिशा देने वाले किसी धर्म की चर्चा नहीं है। क्यों ? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता, जो संसार के सब मनुष्यों को एक सूत्र में बांध सके। अणुव्रत को मैं एक धर्म के रूप में देखता हूं पर किसी सम्प्रदाय के साथ इसका गठबन्धन नहीं है। इस दृष्टि से मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि अणुव्रत धर्म है पर यह किसी वर्ग विशेष का नहीं। अणुव्रत जीवन को अखण्ड बनाने की बात करता है। अणुव्रत के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मन्दिर में जाकर भक्त बन जाय और दुकान पर बैठकर क्रूर अन्यायी। वे मानते थे कि भारत की माटी के कण-कण में महापुरूषों के उपदेश की प्रतिध्वनियां है। यहां गांव-गांव में मन्दिर है, मठ है, धर्म स्थान है, धर्मोपदेशक है फिर भी चारित्रिक दुर्बलता का अनुत्तरित प्रश्न क्यों हमारे समक्ष आज भी आक्रान्त मुद्रा में खड़ा है।

नैतिकताशून्य धर्म ने धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दिया। धर्म गौण हो गया, सम्प्रदाय मुख्य हो गए। अपेक्षा यह है कि धर्म मुख्य रहे और सम्प्रदाय गौण हों। इस संदर्भ में अणुव्रत ने एक नया दृष्टिकोण दिया। उसने सम्प्रदायमुक्त धर्म कि अवधारणा दी। अणुव्रत केवल धर्म है, वह सम्प्रदाय नहीं। किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रतिनिधि भी नहीं है। यह जैन, बौद्ध, वैदिक, इस्लाम और ईसाई धर्म नहीं है। इस दृष्टि से इसे एक निर्विशेषण धर्म या मानव धर्म कहा जा सकता है। अणुव्रत के अनुसार नैतिक हुए बिना धार्मिक नहीं हो सकता। उपासना धर्माराधना का माध्यम है। अणुव्रत के अनुसार उपासना का स्थान दूसरा है और धर्म का पहला।

अणुव्रत के आधार पर नैतिकता का मानदंड है संयम। संयम आत्मामुखी भी है तथा समाजाभिमुखी भी है। अपनी इन्द्रियों पर संयम करना आत्माभिमुखी कार्य भी है, वह नैतिकता भी हो सकता है। अणुव्रत का मूल मन्त्र है ‘संयमः खलु जीवनम’ अर्थात संयम ही जीवन है। इसका अर्थ है नैतिक कार्य वही है जहाँ संयम है। इसके अनुसार जिस कार्य में साथ संयम नहीं है, उस कार्य को कभी नैतिक नहीं कहा जा सकता।

हम गहराई से देखें तो दुनिया में अच्छाई और बुराई अलग-अलग दिखाई देगी। भ्रष्टाचार के भयानक विस्तार में भी नैतिकता स्पष्ट अलग दिखाई देगी। आवश्यकता है कि नैतिकता की धवलता अपना प्रभाव उत्पन्न करे और उसे कोई दूषित न कर पाये। इस आवाज को उठाने के लिए अणुव्रत आन्दोलन सदा ही माध्यम बना है। नैतिकता का प्रबल पक्षधर बना है। जिन लोगों के हाथ में अर्थ की शक्ति है, राज्य की शक्ति है, उनसे हटकर केवल संयम, शांति और नैतिकता की शक्ति पर विश्वास करने वाले लोग का संगठन है अणुव्रत।

उत्पादन एवं विकास दर बढ़े, कोई भूखा न रहे, कोई बीमार न रहे, कोई बेकार न रहे और सभी को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हांे, यह एक आर्थिक क्रांति होगी। ”अब पंक्तियां मिटें-“ किसी को पंक्ति में खड़ा न होना पड़े। सभी पंक्तियां मिटें, भेद-भाव की भी। भौतिक विकास के साथ-साथ हमारा मन बदले, मस्तिष्क बदले, मनुष्य-मनुष्य बने, मात्र मशीन नहीं बने। वरना विकास बेमानी होगा।”अणुव्रत“ मनुष्य को मनुष्य बनाने की मात्र कल्पना ही नहीं, बल्कि कार्यक्रम है, आन्दोलन है, प्रायोगिक उपक्रम है। सामाजिक अन्याय मिटे। अतः आवश्यक है कि विकास की दर की तरह ”मनुष्य“ बनाने की दर में भी वृद्धि हो। ‘अणुव्रत-मिशन’ की 68 वर्षों की यह ‘युग यात्रा’ मनुष्य को मनुष्य बनाने एवं नैतिक प्रतिष्ठा का एक अभियान है। जहां दोष एवं दुश्मन दिखाई देते हैं वहां संघर्ष आसान है। जहां ये अदृश्य हैं, वहां लड़ाई मुश्किल होती है। नीति का प्रदूषण, विचारों का प्रदूषण हटाकर प्रामाणिकता का पर्यावरण लाने के लिये यह अभियान ज्यादा प्रभावी रहा है। इसके प्रणेता आचार्य तुलसी ने कितने वजन वाली बात कही थी कि ”अगर प्रेरणा देनी है, तो स्वयं प्रेरित हों। किसी को शुद्ध बनाना है, तो स्वयं शुद्ध बनो।“

हम देखें… कहीं हम स्वयं गुड़ खाकर दूसरे को गुड़ न खाने को तो नहीं कह रहे हैं। प्रबुद्ध मत है कि गांधीजी ने नैतिकता दी, पर व्यवस्था नहीं। जो नैतिकता दी वह एक महान् राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष की नैतिकता थी। हालांकि गांधीजी ने उस नैतिकता को स्थायी जीवन मूल्य बनाया था। पर सत्ता प्राप्त होते ही वह नैतिकता खिसक गई। जो व्यवस्था आई उसने विपरीत मूल्य चला दिये। हमारी आजादी की लड़ाई सिर्फ आजादी के लिए थी–व्यवस्था के लिए नहीं थी।

आज हमारी व्यवस्था चाहे राजनीति की हो, सामाजिक हो, पारिवारिक हो, धार्मिक हो, औद्योगिक हो, शैक्षणिक हो, चरमरा गई है। दोषग्रस्त हो गई है। उसमें दुराग्रही इतना तेज चलते हैं कि गांधी बहुत पीछे रह जाता है। जो सद्प्रयास किए जा रहे हैं, वे निष्फल हो रहे हैं।

आज अनेक समस्याएं हैं जो मनुष्य को घेरे हुए हैं। विश्वस्तर पर जो बड़ी समस्याओं के बिन्दु हैं, उनमें प्रमुख हंै नशीले पदार्थों का व्यापक स्तर पर प्रयोग और गैर-कानूनी व्यापार। इतना फैल चुका है इसका व्यापार, आपूर्ति, उपलब्धता और उपयोग कि पर्यावरण, धरती, पानी, बचाने के अभियान से पहले अब मनुष्य को बचाने की आवाज उठ रही है।

रेल में, बस में, किसी पार्टी में, किसी समारोह में पहली बात जो होती है, मौसम की, राजनीति की, चुनाव की। ये अस्थायी बिन्दु हैं। पर एक विषय है जो सदा चर्चा में रहता है, चाहे वह व्यक्ति कम पढ़ा-लिखा हो, चाहे प्रबुद्ध हो, वह है राष्ट्र के जीवन मूल्यों में गिरावट। विचारों की अभिव्यक्ति में फर्क हो सकता है। पर असंतोष, निराशा और पीड़ा में कोई फर्क नहीं रहता। पूरा राष्ट्र ढलान पर है। कब सुधरेगा हमारा देश? कोई कहता है अभी और गिरेगा। एक व्यापारी ने कहा अभी सुधार की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। एक उच्च शिक्षा अधिकारी ने कहा मेरे नीचे साढ़े तीन लाख शिक्षक हैं, जो राष्ट्र के निर्माता का बैज लगाए हुए है, पर शिक्षक कहां? सिर्फ मांगें, हड़ताल और शोर। मैं बहुत अपसेट हूं। आदर्श की बात जुबान पर है, पर मन में नहीं। उड़ने के लिए आकाश दिखाते हैं पर खड़े होने के लिए जमीन नहीं। दर्पण आज भी सच बोलता है पर हमने मुखौटे लगा रखे हैं।

ऐसी निराशा, गिरावट व अनिश्चितता की स्थिति में एक रोशनी अणुव्रत के रूप में दिखाई देती है। यह विचार है, एक मिशन है। और 68 वर्ष के लंबे सफर का पगडंडियों, राजमार्गों, गांवों और महानगरों का, झोपड़ियों और भवनों का अनुभव अपने में समेटे वह मनुष्य के बदलाव की सोच रहा है। विवेकानन्द के शिकागो भाषण की शताब्दी पर शिकागो घोषणा-पत्र की अंतिम पंक्तियां ”जब तक व्यक्ति का रूपांतरण नहीं होता, समाज का रूपांतरण नहीं हो सकता“ यही बात ”अणुव्रत“ कह रहा है। इस रूपान्तरण के लिये अणुव्रत आचार संहिता बनाई गयी। इससे प्रभावित होकर स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि आज के युग में जबकि मानव अपनी भौतिक उन्नति से चकाचैंध होता दिखाई दे रहा है और जीवन के नैतिक व आध्यात्मिक तत्वों की अवहेलना कर रहा है वहां अणुव्रत आन्दोलन द्वारा न केवल मानव अपना सन्तुलन बनाये रख सकता है बल्कि भौतिकवाद के विनाशकारी परिणाम से बचने की आशा कर सकता है। आज के विसंगति एवं विषमतापूर्ण वातावरण में चारों ओर अनैतिकता एवं मूल्यहीनता की काली छाया व्याप्त है, ऐसे समय में अणुव्रत आन्दोलन की ज्यादा जरूरत है।

(ललित गर्ग)
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