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जगेंद्र सिंह की शहादत से उठे सवाल

शाहजहांपुर में जिस तरह से जगेंद्र सिंह नाम के स्वतंत्र पत्रकार की आग से जलाकर हत्या की गई, उसने एक बार फिर भारत को प्रेस-विरोधी देशों की अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया है। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की प्रेस फ्रीडम सूची में भारत 180 देशों में 136वें पायदान पर है। प्रेस की आजादी और मानवाधिकारों की निगरानी करने वाली दुनिया भर की संस्थाओं ने जगेंद्र की हत्या की भर्त्सना की है और मामले की निष्पक्ष जांच कराने की अपील भी। लेकिन निष्पक्ष जांच कहां से होगी? खबर यह आ रही है कि एक अन्य पत्रकार को एक नेता द्वारा जबरदस्त यातना देने के बाद लखनऊ के अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा है, वहीं पीलीभीत में एक टीवी पत्रकार को मोटरसाइकिल से बांधकर घसीटने के समाचार मिल रहे हैं। जगेंद्र के मामले में जैसी ढिलाई बरती जा रही है, उसके बाद उम्मीद के लिए ज्यादा कुछ नहीं बचता।

आखिर ऐसा क्यों है कि छोटे शहरों-कस्बों में पत्रकारिता करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है? पुलिस, अफसर और राजनेता क्यों पत्रकारों को हिकारत भरी निगाह से देखते हैं? इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इक्का-दुक्का पत्रकारों की रहस्यमयी हत्याएं पहले भी होती थीं, लेकिन अब अक्सर इस तरह की खबरें आने लगी हैं। पहले पत्रकारों के पक्ष में समाज खड़ा रहता था। संपादक स्वयं पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ जाया करते थे। पत्रकार-संगठन हमेशा पीछे खड़े रहते थे। सरकारों के भीतर भी ऐसे लोग हुआ करते थे, जो पत्रकारीय मूल्यों से इत्तिफाक रखते थे। जब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर कोई संकट आता, समाज उसके पक्ष में ढाल बनकर खड़ा हो जाता था।

लेकिन आज पत्रकार पिट रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं। समाज का थोड़ा-सा भी भय होता, तो क्या जगेंद्र को इस तरह से जलाकर यातनाएं दी जातीं? जगेंद्र तो किसी अखबार से संबद्ध भी नहीं था, फिर भी इतनी असहिष्णुता? सहिष्णुता लगातार कम क्यों हो रही है? सत्ता-केंद्रों में बैठे लोग तनिक भी अपने खिलाफ नहीं सुन सकते। सत्य की दुर्बल से दुर्बल आवाज से भी वे खौफ खाए रहते हैं। जैसे ही उन्हें लगता है कि कोई उनकी सच्चाई उजागर कर रहा है, वे उसे निपटाने में लग जाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि स्थानीय पत्रकारिता में मूल्यों का स्खलन भी कम नहीं हुआ है। पत्रकारिता का अतिशय फैलाव होने से इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में ‘दलाल’ उतर आए हैं। उन्हीं की वजह से यह पेशा बदनाम होता जा रहा है। समाज में उसका आदर घटता जा रहा है। इसीलिए अब किसी पत्रकार को पिटता हुआ देखकर कोई बचाने नहीं आता। यह स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। बड़े शहरों की बात नहीं कहता, छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति हद से बाहर हो रही है। खासकर हिंदीभाषी क्षेत्र में, जबकि यही हिंदी पत्रकारिता की बुनियाद है। इसे बचाया जाना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं, लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

(साभार : हिन्दुस्तान से )