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जल प्रबंधन में महिलाएं: अनदेखी धाराएं और हाथ से निकले मौक़े!

आज जब भारत टिकाऊ विकास की जटिलताओं से जूझ रहा है, ऐसे में अधिक समतावादी भविष्य के निर्माण के लिए पानी के क्षेत्र में लैंगिक समानता सुनिश्चित करना एक महत्वपूर्ण धुरी के तौर पर उभरा है।

पानी, बाल्टी में टपकी एक बूंद भर नहीं है। ये लगातार टपकता रहता है। दुनिया भर के लोग पीने, नहाने धोने, खेती और बिजली बनाने के लिए पानी के भरोसे रहते हैं। हालांकि, पानी के संसाधनों का रख-रखाव एक जटिल और बहुआयामी चुनौती है। अक्सर इससे निपटने के लिए आपसी तालमेल वाली कोशिशों और नए नए समाधानों की ज़रूरत होती है। विश्व जल दिवस 2024 पर यूनेस्को के वर्ल्ड वॉटर एसेसमेंट प्रोग्राम ने वर्ल्ड वॉटर डेवेलपमेंट रिपोर्ट जारी की। इसका शीर्षक, ‘शांति और समृद्धि के लिए पानी का लाभ उठाना’ है। ये रिपोर्ट इस साल के जल दिवस की थीम ‘शांति के लिए जल’ के अनुरूप ही है। पिछले वर्षों की तरह इस साल भी यूनेस्को की इस रिपोर्ट के ज़रिए यूएन-वॉटर ने ऐसे ख़ास सुझावों और सबसे अच्छे व्यवहारों को बताया है, जो पूरी दुनिया में देशों, संगठनों, समुदायों और व्यक्तिगत स्तर पर द्वारा पानी को संघर्ष का स्रोत बनाने के बजाय स्थिरता लाने वाली शक्ति के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकें।

पानी की क़िल्लत या फिर अच्छे जल संसाधनों के असमान वितरण ने कई तरह के संघर्षों को जन्म दिया है। इनमें जल के साझा संसाधनों को लेकर दो देशों के बीच सीमा के आर-पार के संघर्षों से लेकर क्षेत्रीय या फिर समुदाय के स्तर पर ग़लत आवंटन या तालमेल के अभाव को लेकर टकराव शामिल हैं। हालांकि, पानी के प्रशासन से जुड़े सभी स्तरों के प्रमुख भागीदार अक्सर एकजुट होकर इन संघर्षों के समाधान के लिए काम करते रहे हैं। इनसे सुरक्षित पीने का पानी उपलब्ध कराने, आसानी से साफ़-सफ़ाई करने, खाद्य और पोषण की सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में लचीलापन, आपदा के जोखिम में कमी और ऐसे ही कई अन्य लाभ मिले हैं। लेकिन, इस पहेली का एक पहलू ऐसा भी है, जिसे हमेशा ही अनदेखा कर दिया जाता है: ‘शांति के लिए जल’ के इस्तेमाल में महिलाओं का योगदान। जब बात पानी की आती है, तो महिलाएं हमेशा ही गुमनाम नायिकाएं साबित होती आई हैं। वो दिन का अच्छा ख़ासा वक़्त स्थायी विकास के लक्ष्य 6 (SDG 6) यानी 2030 तक सबको पानी और साफ़-सफ़ाई की सुविधा देने के मामले में प्रगति की रफ़्तार तेज़ करने में लगाती रही हैं।

हालांकि उन्हें अपनी इस अपरिहार्य भूमिका निभाने के एवज़ में भारी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है, जिसे जानकार ‘वक़्त की ग़रीबी’ कहते हैं। इसका मतलब ऐसा चलन है, जिसकी वजह से महिलाओं को अपने निजी विकास, मनोरंजन या फिर आर्थिक गतिविधियों के लिए या तो बहुत कम या फिर ज़रा भी वक़्त नहीं मिल पाता है। इस लेख में हम जल प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी के उनके आमदनी बढ़ाने पर पड़ने वाले प्रभाव की गहराई से पड़ताल कर रहे हैं, और इस तरह जल प्रबंधन के लिए ऐसे विकल्पों को बढ़ावा देने के आर्थिक तर्क पेश कर रहे हैं, जिससे इनका इकतरफ़ा बोझ महिलाओं पर ही न पड़े।
जल प्रबंधन की परिचर्चाओं के बीच अक्सर महिलाओं के महत्वपूर्ण योगदान की अनदेखी कर दी जाती है।

ऐतिहासिक रूप से महिलाओं ने अपने परिवार और समुदायों के लिए जल संसाधनों की उपलब्धता और उनके स्थायित्व को सुनिश्चित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई है। पानी जुटाने से लेकर सिंचाई व्यवस्था के प्रबंधन तक महिलाएं, पानी से जुड़ी गतिविधियों के अग्रिम मोर्चे पर खड़ी होती रही हैं और वो अपने ज्ञान, कौशल और जन्मजात ख़ूबी का इस्तेमाल अपने परिवारों और समुदायों की पानी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए करती रही हैं। दुनिया के 61 देशों से जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि पानी की क़िल्लत या अभाव वाले 80 प्रतिशत घरों में, परिवार के स्तर पर पानी के प्रबंधन का मुख्य ज़िम्मा ज़्यादातर महिलाएं और लड़कियां उठाती हैं। इन हालात में साफ़ पानी तक पर्याप्त पहुंच के न होने से महिलाओं पर वक़्त की मार पड़ती है। इससे वो शैक्षणिक अवसरों में भाग लेने की क्षमता गंवा देती हैं, जिससे वो आमदनी बढ़ाने की गतिविधियों में शामिल नहीं हो पाती हैं।

जल प्रबंधन से जुड़ी मेहनत में ये लैंगिक बंटवारा अक्सर मौजूदा असमानताओं को और बढ़ा देता है, जिससे संसाधनों तक पहुंच, निर्णय लेने की प्रक्रिया और आर्थिक अवसरों को भुनाने के मामलों में भेदभाव होता है। पानी के रख-रखाव की वजह से वक़्त की जो ग़रीबी पैदा होती है, वो कुछ महिलाओं पर पड़ने वाले ‘दोहरे बोझ’ को भी रेखांकित करती है, क्योंकि उन्हें एक साथ कई ज़िम्मेदारियां निभाने के बीच तालमेल बिठाना पड़ता है। इनमें पानी लाने, घर के दूसरे काम करने, बच्चों की देखभाल और घर की आमदनी बढ़ाने वाली गतिविधियां शामिल हैं। समय की ये कमी न केवल महिलाओं की आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी को सीमित करती है, बल्कि ग़रीबी और कमज़ोर तबक़े का हिस्सा बने रहने के दुष्चक्र को भी जारी रखती है।

पानी के रख-रखाव की वजह से वक़्त की जो ग़रीबी पैदा होती है, वो कुछ महिलाओं पर पड़ने वाले ‘दोहरे बोझ’ को भी रेखांकित करती है, क्योंकि उन्हें एक साथ कई ज़िम्मेदारियां निभाने के बीच तालमेल बिठाना पड़ता है।

2019 के वक़्त के इस्तेमाल से जुड़े सर्वे के मुताबिक़, पानी के प्रबंधन से जुड़े बिना भुगतान वाले घरेलू सेवाओं में गुज़ारे गए वक़्त के मामले में भारत एक स्पष्ट मिसाल बनकर सामने आया था। इससे संकेत मिलता है कि महिलाएं अपने कामकाज के रोज़ाना के घंटों का काफ़ी बड़ा हिस्सा इन्हीं कामों में ख़र्च करती हैं, और औसतन उन्हें दिन में पांच घंटे ऐसे कामों में बिताने पड़ते हैं, जबकि उनकी तुलना में पुरुषों को केवल डेढ़ घंटे का वक़्त घर के कामों में ख़र्च करना पड़ता है। सच तो ये है कि ग्रामीण और शहरी भारत के जिन घरों के भीतर पानी का स्रोत नहीं है, उनमें से 80 प्रतिशत से ज़्यादा घरों की महिला सदस्य पानी की व्यवस्था करने संबंधी घरेलू गतिविधियों में लगाती हैं, और इसके बदले में उन्हें पैसे भी नहीं मिलते। इसकी तुलना में इन घरों में केवल 20 फ़ीसद मर्द ही इन घरेलू ज़रूरतों में अपना वक़्त ख़र्च करते हैं।

‘वक़्त की ग़रीबी’ की ये लैंगिक असमानता के आर्थिक दुष्परिणामों को रेखांकित करते हुए हाल ही में किया गया एक अध्ययन संकेत करता है कि भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पानी के प्रबंधन से जुड़े बिना मेहनताने वाले कामों में महिलाओं के लग जाने से उनके श्रमिक वर्ग की भागीदारी में 17 प्रतिशत तक की गिरावट आती है। इसलिए, रोज़गार की दर में लैंगिक समानता और पुरुषों की तुलना में महिलाओं के कामगार तबक़े में भागीदारी की निचली दर के बावजूद स्त्रियों की आर्थिक भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए, ये ज़रूरी हो जाता है कि श्रम के बाज़ारों में महिलाओं के दाख़िले को प्रोत्साहन देने के लिए पुरुषों की तुलना में ज़्यादा मजदूरी दी जानी चाहिए। हालांकि, ज़मीनी हक़ीक़त इससे बिल्कुल उलट है।

जल प्रबंधन में लैंगिक भूमिकाओं और महिलाओं की आर्थिक भागीदारी की आपस में जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए एक व्यापक नज़रिए की ज़रूरत है, जिसमें पानी के क्षेत्र में महिलाओं के बिना मेहनताने वाले योगदान के बहुआयामी असर को स्वीकार करके इसके प्रभाव को कम करने का प्रयास किया जाए। पानी के प्रशासन और प्रबंधन में महिलाओं को सशक्त बनाना सामाजिक न्याय का भी एक काम है और ये पानी की परियोजनाओं की कुशलता बढ़ाने और परिवारों की अतिरिक्त आमदनी में इज़ाफ़ा करके आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की एक सामरिक ज़रूरत भी है। भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के आकलन ये बताते हैं कि अगर पानी के क्षेत्र में महिलाओं की वक़्त की ग़रीबी में 10 से 50 प्रतिशत तक की भी कमी की जाए, तो इससे आमदनी की संभावनाओं में बढ़ोत्तरी होगी और काफ़ी आर्थिक लाभ भी हो सकते हैं। (नीचे Figure 1 देखें)

इन संभावित आर्थिक फ़ायदों को हासिल करने के लिए नीति निर्माताओं, सामुदायिक नेताओं और पानी के सेक्टर के तमाम भागीदारों के द्वारा सघन प्रायास करने की ज़रूरत होगी, ताकि महिलाओं को सशक्त बनाने वाली रणनीतियां लागू हो सकें, उनकी वक़्त की ग़रीबी कम हो सके और इस तरह अर्थव्यवस्था में उनकी मज़बूत भागीदारी को बढ़ावा मिल सके। ज़िम्मेदारियों का फिर से वितरण करने वाली रणनीतियां अपनाकर और पानी के अच्छे संसाधनों तक सबकी पहुंच को बढ़ावा देकर हम महिलाओं पर पड़ने वाले भारी बोझ को कम कर सकते हैं और पानी के रख-रखाव के अधिक टिकाऊ और समावेशी तरीक़ों को बढ़ावा दे सकते हैं।

पानी के प्रबंधन से जुड़े मामलों में, निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना ज़रूरी है, तभी उनकी आवाज़ और नज़रियों को सुना जाएगा और फिर उन्हें नीतियों और कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया जा सकेगा। एक अहम रणनीति तो ऐसे मूलभूत ढांचे और तकनीकों में निवेश की हो सकती है, जो पानी से जुड़े कामों और विशेष रूप से पानी इकट्ठा करने और उसके भंडारण में लगने वाली मेहनत और वक़्त को कम कर सकें।

यही नहीं, पानी के प्रबंधन से जुड़े मामलों में, निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना ज़रूरी है, तभी उनकी आवाज़ और नज़रियों को सुना जाएगा और फिर उन्हें नीतियों और कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया जा सकेगा। पानी के टिकाऊ प्रबंधन वाले तौर-तरीक़ों के मामले में महिलाओं के ज्ञान और उनके हुनर को बढ़ावा देने वाली पहलों के क्षमता निर्माण से भी महिलाओं को सशक्त बनाया जा सकता है, ताकि वो वक़्त की कोई भारी क़ीमत चुकाए बग़ैर जल प्रबंधन में अपनी सक्रिय भूमिकाएं निभाना जारी रख सकें।

जल प्रबंधन में लैंगिक समानता लाने वाले इन वैकल्पिक तरीक़ों को अपनाकर हम अधिक समतावादी और टिकाऊ जल व्यवस्थाएं बना सकते हैं, जो महिलाओं, पुरुषों और समुदायों के लिए लाभप्रद हों। आज जब भारत टिकाऊ विकास की जटिलताओं से जूझ रहा है, तो अधिक समतावादी और समृद्ध भविष्य के निर्माण के लिए पानी के मामले में लैंगिक समानता सुनिश्चित करना एक प्रमुख तत्व के रूप में उभरता है।
साभार -https://www.orfonline.org/hindi/ से