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लेह-लद्दाख- ठिठुरन के बीच उत्साह जगाता लोसर

लद्दाख में मनाया जाने वाला नववर्ष बौद्ध समाज में जहां उत्साह और उमंग का संचार करता है वहीं संस्कृति और परंपरा के प्रति आस्था भी जगाता है।

अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं को सहेजने वाला लेह-लद्दाख अंचल गर्मियों में पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। मई-जून से लगाकर सितंबर-अक्तूबर तक यहां पर्यटकों की धूम रहती है। लेकिन ठंडक के आगमन के साथ ही जीवन बदल जाता है। क्या सर्दियों के आने पर लद्दाख उदासियां ओढ़ लेता है? शायद नहीं। क्योंकि नववर्ष सर्दियों की शुरुआत के साथ ही नया जोश लेकर उपस्थित हो जाता है। लद्दाख के नववर्ष को स्थानीय भोट भाषा में लोसर कहा जाता है। लोसर भोट भाषा के दो शब्दों ‘लो’ और त्सर’ से मिलकर बना है। ‘लो’ का अर्थ होता है- नया, और ‘त्सर’ का अर्थ होता है-वर्ष। लोसर पर्व की शुरुआत भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि से हो जाती है। यह पर्व ग्यारहवें महीने की पांचवीं तिथि तक चलता रहता है। दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि को ले-पे-लोसर की शुरुआत होती है। यह मुख्यत: धार्मिक अनुष्ठान होता है, जिसमें विनय के नियमों का पाठ होता है। इस दिन को गेलुग संप्रदाय के विद्वान भिक्षु ग्यालवा लोजंग टकस्पा के स्मृति-दिवस के रूप में भी जाना जाता है। दसवें माह की पच्चीसवीं तिथि को ‘गलदेन डाछोद’ का पर्व होता है। यह भी लोसर का पूर्वानुष्ठान होता है। गेलुग संप्रदाय के प्रवर्तक महासिद्ध चोंखापा को स्मरण करते हुए इस दिन गोंपाओं में 35 बुद्धों की पूजा होती है। लोग अपने-अपने घरों में दीप जलाकर खुशियां मनाते हैं। इस दिन छोरतेनों में भी दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं।

सामान्य रूप से लोसर दिसंबर माह में ही पड़ता है। यह माह ऐसा होता है जब एक तरह से सारा काम खत्म हो जाता है। क्योंकि यहां किसानों को सिर्फ एक मौसम ही मिलता है जिसमें वह अपनी खेती-किसानी करते हैं। नवंबर खत्म होते-होते किसान अपने कृषि कार्यों को समाप्त कर लेता है। नई फसल के अनाज से सत्तू और आटा भी तैयार हो जाता है। पूजा-अनुष्ठान के लिए एक ओर नई फसल से तैयार सामग्री उपलब्ध होने और दूसरी ओर कार्यों की व्यस्तता न होने के कारण लोसर पर्व का उत्साह दोगुना हो जाता है। इस दिन यहां बौद्ध दीपावली की तरह अपने-अपने घरों में दीप जलाते हैं।

ऐसी मान्यता है कि लद्दाख में लोसर का पर्व पहले तिब्बती पंचांग के अनुसार ही मनाया जाता था, मगर लद्दाख के प्रतापी शासक जमयड नामग्याल के साथ जुड़ी एक घटना के कारण लोसर का पर्व तिब्बती लोसर से पहले मनाया जाने लगा। माना जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में राजा जमयड नामग्याल के शासक बनते ही बल्टिस्तान में विद्रोह हो गया। यह घटना लोसर के आगमन से पूर्व घटी थी और ऐसी संभावना थी कि इसके आगमन से पूर्व युद्ध समाप्त नहीं हो पाएगा। इस कारण राजा ने युद्ध में जाने से पूर्व ही लोसर मनाने की घोषणा कर दी। इस तरह भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने से ही लोसर पर्व के आयोजन की परंपरा चल पड़ी और आज भी इस परंपरा को देखा जा सकता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार लद्दाख का ठंडा मौसम, यहां की कृषि-व्यवस्था और विशिष्ट स्थिति के कारण इस पर्व के आयोजन की तिथियों में अंतर है। कारण चाहे जो हो, मगर ठंडक की दस्तक के साथ ही उल्लास और उमंग से भरा यह पर्व पुरातनकाल से ही अपनी विशिष्ट पहचान और अनूठी परंपराओं को संजोए हुए है। ऐसी अनूठी परंपरा का एक अभिन्न अंग लोसर पर्व में बनने वाला विशिष्ट व्यंजन गु-थुग है। लोसर पर्व के क्रम में दसवें माह की उन्तीसवीं तिथि को गु-थुग का निर्माण किया जाता है। इसमें कोयला, मिर्च, नमक, चीनी, रुई, अंगूठी, कागज और सूर्य तथा चंद्रमा की आटे की बनी आकृतियां भी डाली जाती हैं। गु-थुग को वितरित किया जाता है और जिस व्यक्ति के हिस्से में जो वस्तु आती है, उसी के अनुसार उसके स्वभाव और गुण का निर्धारण किया जाता है। अगर किसी व्यक्ति के हिस्से में कोयला आता है, तो यह माना जाता है कि उसका मन काला है, उसके विचार ठीक नहीं हैं। मिर्च पाने वाला कटुभाषी, रुई पाने वाला सात्विक, कागज पाने वाला धार्मिक, सूर्य की आकृति पाने वाला यशस्वी, चंद्रमा की आकृति पाने वाला सुंदर और अंगूठी पाने वाला कंजूस माना जाता है। जिस व्यक्ति के हिस्से में अच्छी वस्तु आती है, उसे पुरस्कृत किया जाता है।

दसवें माह की अमावस्या को प्रात:काल लोग अपने-अपने घरों से मृतकों के लिए भोजन लेकर उनके समाधि-स्थल पर जाते हैं और शाम के समय गोपाओं, छोरतेनों और घरों में दीप प्रज्जवलित करते हैं। अमावस्या की रात जगमगाते दीपों के बीच लद्दाख की धरती जगमगा उठती है। ग्यारहवें मास की प्रतिपदा अर्थात पहली तिथि को लोग नए-नए परिधान पहनकर अपने-अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं। सगे-संबंधी और परिचित-मित्र एक-दूसरे के घर शुभकामनाएं देने जाते हैं। ग्यारहवें मास की द्वितीया को पगङोन (महाभोज) का आयोजन होता है, जिसमें सभी लोग बिना किसी भेदभाव के शामिल होते हैं। इस अवसर पर अनेक लोकगीत गाए जाते हैं, जिनमें भक्ति के साथ ही वीररस से भरे गीत भी होते हैं।

लद्दाख अंचल का भौगोलिक विस्तार जितना अधिक है, यहां उतनी ही विविधताएं भी देखी जा सकती हैं। नुबरा, चङथङ, झांस्कार और शम आदि क्षेत्रों में लोसर पर्व के साथ जुड़ी लोकपरंपराओं के अलग-अलग रंग देखे जा सकते हैं। इन लोकपरंपराओं में अत्यंत रोचक है, यहां की स्वांग की परंपरा। इस स्वांग की परंपरा को स्थानीय भाषा में ‘गु’ कहा जाता है। प्राचीनकाल में ‘गु’ उत्सव की परंपरा समूचे लदाख में अलग-अलग तरीके से मनाई जाती थी, मगर आधुनिक जीवन-शैली के कारण यह परंपरा लद्दाख अंचल के दूरदराज के गांवों में ही सिमटकर रह गई है। ‘गु’ उत्सव के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म के स्वांग करने की परंपरा है। लेह शहर के निकट चोगलमसर गांव में होने वाला अबी-मेमे; बसगो, अलची गांवों में होने वाला लामा-जोगी; हेमिशुगपाचन में होने वाला खाछे-कर-नग; स्क्युरबुचन में होने वाला अपो-आपी और वनला में होने वाला दो बाबा नामक स्वांग अत्यंत प्रसिद्ध है। इन स्वांगों में लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इनमें नसीहतें ही नहीं, इतिहास की झलक भी देखी जा सकती है और लद्दाख अंचल के साथ जुड़े धार्मिक-सांस्कृतिक संबंधों को भी देखा जा सकता है।

लामा-जोगी नामक स्वांग में उस पुरातन लद्दाख को देखा जा सकता है, जिसमें कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए आने वाले जोगी या साधु-संन्यासियों की उपस्थिति है। बौद्ध भिक्षु, अर्थात् लामा के जैसा ही जीवन जीने वाले साधु-संन्यासियों को देखकर ही संभवत: लामा-जोगी स्वांग की परिकल्पना विकसित हुई होगी। इस स्वांग में नवमी तिथि को लामा-जोगी अभिमंत्रित अन्न लेकर गांवों में भ्रमण करते हैं और अभिमंत्रित अन्न छिटककर विघ्न-बाधाओं को दूर करते हैं। वे प्रत्येक घर पर जाते हैं। घर का मुखिया लामा-जोगी के माथे पर सत्तू का तिलक लगाता है और ऊनी मुकुट पर ऊन अर्पित करता है। लामा-जोगी के आशीष से घर-परिवार में, गांव में बुरी शक्तियों का विनाश होता है और सुख समृद्धि आती है। लामा-जोगी का यह स्वांग अतीत के भारत के साथ लद्दाख अंचल के विशिष्ट और अभिन्न सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक सहकार को प्रकट करता है।

लोसर का पर्व अपनी विविधताओं के साथ, उमंग और उल्लास के साथ सर्दियों की ठिठुरन के बीच नया जोश, नई उमंगें भर जाता है। अपने सीमित संसाधनों के साथ, जीवन की जटिलताओं के बीच लोसर के पर्व पर थिरकते पांव बताते हैं कि जीना भी एक कला है और अपनी तहजीब के विविध रंगों को समेटकर उन्हें लोसर के दीपों की जगमगाहट के बीच बिखेर देना ही कठिन जीवन की कड़ी चुनौतियों के लिए सटीक जवाब है।

साभार-साप्ताहिक पाञ्चजन्य से