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लिंगायत हिंदू नहीं तो कौन?

कर्नाटक में लिंगायत समाज राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि से अति सम्मानित स्थान रखता है। धर्म-आस्था और सांस्कृतिक सूत्रों के अनुसार लिंगायत हिन्दू धर्म का ही अंग हैं।

लिंगायत समाज को हिंदू धर्म से अलग कर कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने स्वतंत्र पंथ बनाने का निर्णय लिया है। हालांकि इस पर अंतिम निर्णय केंद्र सरकार को लेना है। फिर भी सवाल उठता है कि क्या किसी पंथ के संदर्भ में कोई सरकार ऐसा निर्णय ले सकती है? इस पर जो भी निर्णय होगा, वह तो समय बताएगा। फिलहाल अधिकांश देशवासी में यह जानने को उत्सुक हैं कि वीरशैव लिंगायत समाज हिंदू धर्म की एक शाखा है या स्वतंत्र पंथ!  जो लोग भगवान शिव के उपासक हैं, जो लोग दशहरा, दीपावली, महाशिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, गुड़ी पड़वा (उगादि), मकर संक्रांति, होली, नाग पंचमी आदि त्योहार मनाते हैं, जो शक्ति की अर्चना-पूजा करते हैं और बसव, सिद्धराम आदि शिवभक्तों पर श्रद्धाभाव रखते हैं, ऐसे वीरशैव लिंगायत हिंदू धर्म से भला कैसे अलग हो सकते हैं?

वीरशैव पंथ महात्मा बसवेश्वर के पहले से ही विद्यमान है। स्वयं बसवेश्वर ने जातवेद मुनि से दीक्षा ली थी। बसवेश्वर धर्म सुधारक थे, पंथ संस्थापक नहीं।

—डॉ. ईरेश स्वामी

सोलापुर विद्यापीठ के पूर्व कुलपति

इन प्रश्नों के उत्तर पाने से पहले एक पत्र की चर्चा। यह पत्र 14 नवंबर, 2013 को भारत के महापंजीयक (रजिस्ट्रार जनरल) ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को लिखा था। उन दिनों गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे थे। लिंगायत मामले पर गृह मंत्रालय ने महापंजीयक की राय मांगी थी। महापंजीयक ने लिंगायतों को स्वतंत्र पंथ का दर्जा देने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। उन्होंने मुख्य रूप से इसके दो कारण बताए थे— एक, लिंगायत हिंदू धर्म का ही एक अंग है। इसके लिए महापंजीयक ने सरकार द्वारा लिए गए पूर्व निर्णय, कर्नाटक उच्च न्यायालय की राय और पहले की जनगणना का हवाला दिया था। लिंगायतों को पहले वीरशैव कहा जाता था, यह हिंदू धर्म की एक जाति है। दूसरा, लिंगायतों को स्वतंत्र पंथ का दर्जा दिया गया तो इस समाज के अनुसूचित जातियों के लोगों को वर्तमान में मिल रहे आरक्षण से वंचित होना पड़ेगा।

इसके बाद यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया था। लेकिन अब कर्नाटक विधानसभा के चुनाव से ठीक पहले इस मुद्दे को क्यों गरमाया जा रहा है, यह  बताने की जरूरत नहीं है। इसे स्वतंत्र पंथ बनाने की मांग करने वाले दावा करते हैं कि लिंगायत मत की स्थापना महात्मा बसवेश्वर ने 12वीं सदी में की थी, किंतु यह सत्य नहीं है। लिंगायत समाज महात्मा बसवेश्वर के पूर्व से विद्यमान है। इसका स्पष्ट प्रमाण महात्मा बसवेश्वर द्वारा स्थापित ‘अनुभव मंतप’ के प्रमुख रहे शिवशरण यानी शिवयोगी सिद्धराम के प्रवचनों में बार-बार दिखाई देता है। महात्मा बसवेश्वर समाज सुधारक थे। उन्होंने तत्कालीन समाज में धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथाओं पर प्रहार किया था। उन्होंने समाज प्रबोधन के लिए साहित्य की रचना की थी। लिंगायत समाज को अलग पंथ बनाने की मांग करने वाले जान-बूझकर उनके साहित्य के कुछ प्रसंगों का गलत अर्थ लगाकर उन्हें पंथ संस्थापक सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

बसवेश्वर ने जातिभेद जैसी प्रथाओं को नकारा। उनके प्रवचनों और उपदेशों को गहाराई से पढ़ने पर पता चलता है कि उन्होंने उपनिषदों के सार तत्वों को ही लोकभाषा में प्रस्तुत किया। उनके प्रवचनों से ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि उन्होंने अलग पंथ की स्थापना की थी। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘‘युवको, गीता पढ़ने से अच्छा है मैदान जाकर फुटबॉल खेलो।’’ इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि स्वामी विवेकानंद गीता के विरोधी थे। इसी तरह उपनिषदों के तत्वों को अपनी समझ से लोगों तक ले जाने का अर्थ यह नहीं है कि वे उपनिषदों  के विरोधी थे या उन्होंने अलग पंथ की स्थापना कर दी थी।

लिंगायत को स्वतंत्र पंथ बताने वाले कहते हैं, ‘‘लिंगायत समाज पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत को नहीं मानता। इसलिए  वह हिंदू धर्म से अलग है।’’  लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। शिवयोगी सिद्धराम ने 68,000 वचनों की रचना की है। उसमें से 3,000 वचन आज भी उपलब्ध हैं। उनमें से एक वचन इस तरह है, ‘‘इन्नु निम्म शरणुवोक्के नागि, ना निम्मनेंदू…’’ अर्थात् अनेक बार जन्म लेने के बाद भी मैं आपके सत्य स्वरूप को नहीं समझ पाया। मेरा जीवन व्यर्थ गया। अब मैं आपकी शरण में आया हूं। हे कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुन, मुझे कर्मबंधन से मुक्त कर दो, यही एक माँग है। लिंगायत गले में शिवलिंग धारण करें, ऐसा अपेक्षित होता है। परंतु प्रत्येक लिंगायत लिंग धारण करता ही है, ऐसी आज की स्थिति में नहीं है। सिद्धराम ने वचनों के जरिए कहा भी है कि आचरण शुद्ध हो तो लिंग धारण करें या न करें, चलेगा, लेकिन अशुद्ध आचरण वाले लिंग धारण कर भी लें तो भी उनके लिए वह किसी काम का नहीं है।  हिंदू धर्म में आगम और निगम का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है।

‘परमेश्वरागम पटल’ के खंड एक का 58वां  श्लोक इस प्रकार है-
‘ब्राह्मण:, क्षत्रिया, वैश्या:, शूद्रा येच अन्यजातय:। लिंगधारणमात्रेण शिवएव न संशय:।।’

अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अन्य कोई भी जाति का हो तो भी लिंग धारण करने के बाद तो उसे शिव ही समझें, इस पर कोई संदेह नहीं। इस आशय को प्रस्तुत करने वाले अनेक श्लोक आगम में विद्यमान हैं। लिंग धारण, स्त्री-पुरुष समानता, वर्ण-जातिभेद को समाप्त करना, आगम की ये शिक्षा वीरशैव संप्रदाय के लिए बताई गई है। 12वीं सदी में शैव संप्रदाय में कुछ कमी आई। तब महात्मा बसवेश्वर ने लिंगायत समाज में लोकभाषा में नवीन चेतना का संचार किया। उन्होंने किसी नए पंथ की स्थापना न करके कहा, ‘‘मैं शैव था, अब वीरशैव बन गया।’’

कुछ नेताओं ने लिंगायत समाज को यह कहकर भड़काने की कोशिश की है कि लिंगायत समाज को स्वतंत्र पंथ की मान्यता मिल जाने से उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में आरक्षण का लाभ मिलेगा। शैक्षिक संस्थान चलाने वाले कुछ लिंगायतों को लगता है कि ऐसा होने से उनके संस्थानों को अल्पसंख्यक दर्जा मिल जाएगा और उस नाते अनेक सरकारी सुविधाएं मिलेंगी।

सोशल मीडिया में चल रही चर्चा को देखें तो ध्यान में आता है कि हिंदू धर्म के प्रति घृणा रखने वाले लोग और संगठन स्वतंत्र लिंगायत पंथ की मांग का जोरदार समर्थन कर रहे हैं। लिंगायतों के प्रति उनका बहुत प्रेम है, ऐसी बात नहीं है, बल्कि हिंदू धर्म में फूट डालने में उन्हें अधिक आनंद मिलता है। ये तत्व गत दो-तीन दशक  से कुछ लिंगायतों के साथ मिलकर स्वतंत्र पंथ के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन राहत की बात है कि लिंगायत समाज में मान्यता प्राप्त केदार, काशी, उज्जैन, रंभापुरी और श्रीशैलम इन पांचों धर्मपीठों के शिवाचार्यों ने कहा है कि लिंगायत हिंदू ही हैं।

फिलहाल इस बात की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी कि लिंगायत समाज को अलग पंथ का दर्जा देकर हिंदू धर्म से अलग किया जाएगा या वह एक रह कर हिंदू विरोधियों को परास्त करेगा।

साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से