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समुद्र की गहराई को मापने वाले, मॉर्शल आर्ट को विकसित करने वाले महर्षि अगत्स्य

२६०० ई.पू. लगभग संसार कांस्य युग से गुजर रहा था तथा विभिन्न जातियों में नई जगहों की खोज की होड़ लगी हुई थी। कोई पूरब तो कोई पश्चिम की ओर जा रहा था। संसार में तीन स्थान मेसोपोटामिया, मिस्र तथा भारत की सभ्यताओं में उथल पुथल मची हुई थी। भारत में इस उथलपुथल तथा जातियों के आवागमन का केंद्र था दक्षिण भारत जिस पर राक्षस फैलते जा रहे थे तथा दक्षिण की द्रविड़ जातियाँ संकट में थीं। पामीर स्थित सुमेरु पर्वत के देवों तथा दक्षिण स्थित रक्ष गणों के बीच में बाधा बनकर खड़ा था विंध्याचल पर्वत व उसकी जातियाँ।

देवगण असहाय हो चुके थे तथा तभी उन्हें एक बौने ऋषि का स्मरण हुआ। एक ऐसे ऋषि का स्मरण जो आने वाले समय में व्यक्ति से अधिक “संस्थान” बन गये।

-ऋषि जिन्होंने तमिल व्याकरण की रचना की, -ऋषि जिन्होंने प्रथम मार्शल आर्ट को विकसित किया, -ऋषि जिन्होंने कई नवीन अस्त्र शस्त्रों का निर्माण किया, -ऋषि जिन्होंने विद्युत व सैल निर्माण का सिद्धांत दिया,

-ऋषि जिन्होंने समुद्र की गहराइयों को नाप दिया।

महर्षि अगस्त्य नाम था उनका जिनकी ऊंचाई के सामने विंध्याचल भी घुटनों पर आ गया था। महर्षि अगस्त्य आर्यों की उस महान ऋषि परंपरा से थे जिनके द्वारा स्थापित पीठ के उत्तराधिकारी भी उनके नाम से ही जाने गये। भारत में “आदि शंकराचार्य” द्वारा स्थापित चार पीठें इस परंपरा का आधुनिक उदाहरण हैं जिसपर आसीन प्रत्येक संन्यासी “शंकराचार्य” ही कहलाता है।

अन्य “ऋषि पीठों” की तरह “अगस्त्य पीठ” में कितने अगस्त्य हुये यह तो नहीं पता है लेकिन कम से कम चार अगस्त्यों का विवरण स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है।

प्रथम अगस्त्य थे वह जो अत्यंत उदार होने के साथ-साथ वे अत्यंत स्वाभिमानी तथा आदित्यों के समर्थक भी थे तथा यही कारण था कि “इंद्र पद पर अभिषिक्त” होने के पश्चात घमंडी व कामांध बन चुके नहुष को उन्होंने अपदस्थ करने में संकोच नहीं किया।

द्वितीय अगस्त्य थे- “मैत्रावरुण” । अगस्त्य, अप्सरा उर्वशी के पुत्र व वसिष्ठ के अग्रज। अगस्त्य के पिता जहाँ वरुण थे वहीं वसिष्ठ के पिता मित्र थे। दोंनों भाई अपने पितृयुग्म की तरह मैत्रावरुण कहलाते थे। उनकी अप्सरा माँ दोंनों भाइयों को किसी बड़े कुंभ जैसे पात्र में छोड़कर चली गई अतः उन्हें “कुंभज” भी कहा गया।

उनके छोटे सौतेले भाई “रक्त शुद्धतावादी” सिद्धांत के प्रतिपादक होकर “वसिष्ठ पीठ” के कुलपति बने वहीं ज्येष्ठ मैत्रावरुण उदारता तथा सामाजिक मिश्रण के पुरस्कर्ता होकर “अगस्त्य पीठ” के संस्थापक बने। उन्होंने महर्षि भारद्वाज की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया जो स्वयं भी ऋषिका थीं।

इस युग में अफगानिस्तान से लेकर नर्मदा तक के क्षेत्र में गणसंघों का युग चल रहा था। पूर्व में इक्ष्वाकु गणसंघ, पश्चिम में हैहय गणसंघ तथा उत्तरी क्षेत्र में भरत गणसंघ व पुरुओं का दबदबा था। जबकि नाग, गरुड़ जैसी कुछ जातियों को छोड़ दिया जाये दुर्गम वनों से घिरा दक्षिणी भारत प्रायः खाली था इसीलिये बाहरी जातियाँ दक्षिण भारत में विस्तार कर रहीं थीं।

वहीँ सर्वप्रथम आये द्रविड़ भाषाई परिवार के लोग जो आज भी दक्षिण भारत में आधिक्य में हैं। तत्पश्चात आदित्यों से पराजय के पश्चात के बचेखुचे रक्षों ने लंका को अपना गढ़ बनाया तथा दक्षिण भारत में फैलने का प्रयास करने लगे। तारकासुर वध के पश्चात राक्षसों ने लंका व पूर्वी एशियाई द्वीपों को गढ़ बनाकर आदित्यों के विरोधी अन्य कश्यप गोत्रीय राक्षसों को बसने के लिये आमंत्रित करना शुरू कर दिया था जिनमें सबसे भयंकर थे “कालिकेय”। केवल यही नहीं बल्कि उन्होंने दक्षिणी जातियों से राक्षस सेनाओं की भर्ती भी शुरू कर दी थी।

इधर देवगण दक्षिण में प्रवेश नहीं कर पा रहे थे क्योंकि विंध्याचल की पर्वतीय जातियाँ व कबीले “विंध्यराज” के नेतृत्व में एक हो गये थे तथा किसी को भी, विशेषतः सुमेरु के प्रवासियों को विंध्य क्षेत्र में प्रवेश नहीं करने देना चाहते थे। इसीलिये उन्होंने सभी रास्तों की नाकाबंदी कर दी। दक्षिण स्थित देवों के सैनिक स्कंधावारों व व्यापारिक बस्तियों से संपर्क कट गया तथा लंका में स्थित राक्षसों ने छापे मारने शुरू कर दिये।

तब स्वयं देवराज इंद्र वरुण के इस ज्येष्ठ पुत्र के पास सहायता मांगने पहुँचे। आर्यत्व के प्रसार के लिये सदैव संकल्पित ऋषि मैत्रावरुण अपने आश्रम सहित दक्षिण की ओर चल पड़े।

कुछ समय अवश्य लगा लेकिन अगस्त्य अपनी उदार व सहिष्णु वृत्ति के कारण विंध्यराज का ह्रदय जीतने में सफल रहे। विंध्यराज मैत्रावरुण के चरणों में झुक गये तथा आवागमन का मार्ग प्रशस्त हुआ। मैत्रावरुण कहलाने लगे “अगस्त्य”।

अगस्त्य सुदूर दक्षिणी सिरे पर पांड्यों के राज्य स्थित कुमार कार्तिकेय के स्कंधावार जैसे आश्रम में पहुंचे जो तारकासुर का वध करने के पश्चात महारुद्र से रूठकर तमिल भाषी जनसमूहों के बीच आ बसे थे। वहां उनके जनहितकारी कार्यों ने उन्हें लोक में इतना पूजित कर दिया कि उन्हें स्थानीय देवता “मुरुगन” के रूप में ही पूजा जाने लगा था। यहाँ उन्होंने कुमार कार्तिकेय के चरणों में बैठकर स्थानीय भाषा तमिल सीखी तथा विभिन्न युद्ध कलाओं का अभ्यास रुद्रों की परंपरा में नये सिरे से किया।

स्वयं कद में छोटे होने के कारण उन्होंने महारुद्र शिव द्वारा विकसित विश्व की पहली मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण कार्तिकेय से लिया तथा उसे स्थानीय आबादी को भी सिखाया ताकि वे राक्षसों के हमले व जंगली पशुओं से स्वयं का बचाव कर सकें। उनके द्वारा प्रचारित यह शैली “वर्म्मक्कलै” के नाम से कलारी आर्ट का पहला स्कूल बनी।

दक्षिण का द्वार खुल जाने के कारण वानर, ऋक्ष, जैसी टॉटेम आधारित किंपुरुष जातियाँ वर्तमान कर्नाटक के किष्किंधा क्षेत्र में बसने लगीं। गरुड़ों की बस्तियां गोमांतक अर्थात गोआ क्षेत्र में तथा यक्ष बस्तियां आंध्र क्षेत्र में फैलने लगीं।

लंका स्थित राक्षसों ने खतरा भांप लिया तथा दक्षिण भारत पर आक्रमण किया लेकिन देवगण पहले ही पहुंच चुके थे। राक्षस बुरी तरह पराजित हुये तथा लंका के दुर्ग को खाली करके भाग गये।

लेकिन कालिकेय अभी भी शक्तिशाली थे तथा वे नौकाओं में आकर तटवर्ती क्षेत्रों में बसे तमिल जातियों के गांवों में हत्या, लूट तथा बलात्कार के तांडव मचाकर वापस समुद्र में भाग जाते।

इंद्र ने एक सैन्य टुकड़ी भेजी लेकिन कालिकेय उनके हाथ नहीं आ रहे थे। एक बार फिर अगस्त्य से संपर्क किया गया।

अगस्त्य ने नारियल के तनों के चपटे बेड़ों व विशाल नावों पर आधारित “जन-नौसेना” का निर्माण किया।

कालिकेय फिर आये पर इस बार आर्य, देव तथा तमिल सेनायें अगस्त्य के नेतृत्व में तैयार थीं। कालिकेय पीछे हटे लेकिन नावों के बेड़ों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। ऐसे ही एक बेड़े पर कमर तक पानी में खड़े अगस्त्य को नेतृत्व करते देख मिथक जन्मा कि उन्होंने समुद्र को पीकर सुखा दिया तथा समुद्र केवल उनकी कमर तक गहरा था।

चारों ओर शांति स्थापित हो गई तथा अगस्त्य भी रचनात्मक कार्यों में व्यस्त हो गये।

उन्होंने तमिल व्याकरण की रचना की, पांड्यों के यहाँ प्रथम संगम का निर्देशन किया। स्थानीय तमिल जातियों को उन्नत कृषि, गोपालन की उच्च तकनीकें तथा नौ परिवहन सिखाया।

चारों ओर शांति स्थापित हुई लेकिन यह शांति आने वाले एक ऐसे भयानक तूफान से पहले की शांति भर थी जो बाली से लेकर अफ्रीका के तटों तक तथा लंका से अफगानिस्तान तक अपना असर छोड़ने वाला था।

हुआ कुछ ऐसा कि सुदूर उत्तर से पुलस्त्य कुल के कुछ आर्य कबीले भी आंध्र में आ बसे थे जिनके कुलपति थे विश्रवा। विश्रवा के दो पुत्र हुये जो बहुत योग्य निकले।

छोटे पुत्र ने कैलाश पर महारुद्र के संरक्षण में शिक्षा प्राप्त की। वह यक्षों के संरक्षक पद “कुबेर” पर नियुक्त किया गया तथा निर्जन पड़ी लंका में यक्षों के साथ बस गया।

इधर ज्येष्ठ पुत्र ने अगस्त्य आश्रम में शिक्षा प्राप्त की तथा द्वितीय अगस्त्य के रूप में पीठ के कुलपति बने। उन्होंने पूर्व अगस्त्य द्वारा विदर्भ के राजा को गोद गई एक अनाथ कन्या से विवाह किया तथा उसे पूर्व कुलपति पत्नी की ही उपाधि दी-”लोपामुद्रा”।

लोपामुद्रा द्वारा धन की इच्छा व्यक्त करने पर उसे पूरा करने के प्रक्रम में उन्होंने अपनी यात्रा प्रारंभ की तथा वर्तमान महाराष्ट्र में बादामि नामक स्थान पर इल्वल तथा वातापि नामक दो राक्षस व्यापारियों के आतंक से संसार को मुक्ति दिलाई जो भोजन निमंत्रण के बहाने छलपूर्वक ऋषियों की हत्याएं करवा रहे थे।

साभार- https://www.indictoday.com/ से