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मैक्समूलर के विचार परिवर्तन में महर्षि दयानन्द का प्रभाव

मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी, पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं। पत्र-लेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग-लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं।

प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं-
१. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता है- “वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्त्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।”

२. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है- “संसार की सब धर्मपुस्तकों में से ‘नई प्रतिज्ञा’ (ईसा की बाइबिल) उत्कृष्ट है। इसके पश्चात् कुरान जो आचार की शिक्षा में ‘नई प्रतिज्ञा’ का रूपान्तर है, रखा जा सकता है। इसके पश्चात् पुरातन प्रतिज्ञा (यहूदी बाइबिल) दाक्षिणात्य बौद्धत्रिपिटक, …वेद और अवेस्ता आदि हैं।”

३. १६ दिसम्बर सन् १८६८ में भारत सचिव ड्यूक ऑफ आर्गाइल को एक पत्र में मैक्समूलर लिखता है- “भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा?”
४. मैक्समूलर लिखता है- वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या परम बालिश, जटिल, अधम और साधारण है।

५. मैक्समूलर के नाम उसके घनिष्ठ मित्र ई.बी. पुसे का पत्र- “आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के यत्न में नवयुग लानेवाला होगा।”
वाह क्या कहना? जैसा मैक्समूलर वैसा ही उसका मित्र? ऐसों के लिए ही तो कहावत है-
उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा:।
वस्तुतः इस काल के जो भी ईसाई, यहूदी, वेद और संस्कृत भाषा पर काम कर रहे थे उन सबके मस्तिष्क में ईसाई, यहूदी मत का पक्षपात कार्य कर रहा था। मोनियर विलियम्स ने संस्कृत-अंग्रेजी कोश की रचना की, इसके पीछे भी ईसाइयत की भावना काम कर रही थी। उसने उक्त कोष भारतीयों को ईसाई बनाने में, अपने देशवासियों को सहायता पहुंचाने के लिए लिखा था। वह कोश की भूमिका में लिखता है-
“That the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion.” (भूमिका पृष्ठ ९)

हमारा प्रयोजन मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों को प्रस्तुत करना था, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया। अब हम उसके उत्तरकालीन विचारों को प्रस्तुत करते हैं-
उत्तरकालीन विचार- मैक्समूलर के उत्तरकालीन विचारों का संकलन हम उसके उन व्याख्यानों से उद्धृत करते हैं, जिन्हें उसने भारत में प्रशासकीय सेवा में आने वाले उम्मीदवारों के सम्मुख सन् १८८२ में ‘INDIA WHAT CAN IT TEACH US’ (हम भारत से क्या सीखें?) शीर्षक व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किया था।

सबसे पहले तो हमारा ध्यान उक्त व्याख्यानमाला का शीर्षक ही आकृष्ट करता है। यह शीर्षक ही मैक्समूलर के विचारों में आये परिवर्तन की घोषणा करता है। अन्यथा भारतीयों को असभ्य जाहिल माननेवाले व्यक्ति को तो भारत में प्रशासन चलाने आनेवाले व्यक्तियों को बताना चाहिए था कि तुम्हें वहां जाकर असभ्य भारतीयों को कैसे सभ्य बनाना है, न कि उन्हें यह बताया जाये कि ‘हम भारत से क्या सीखें?’। अब हम इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद से कतिपय विचार उद्धृत करते हैं-
वैदिक धर्म ने कोई भी बाह्य प्रभाव ग्रहण नहीं किया- “वैदिक साहित्य को ऐतिहासिक महत्त्व देने में जब कोई आपत्ति नहीं मिल सकी तो भी अकारण आलोचकों ने एक महती और अन्तिम आपत्ति उठायी। ऐसे लोगों ने बल देकर कहना प्रारम्भ किया कि वैदिक काव्य यदि सम्पूर्णरूपेण विदेशी नहीं तो उस पर विदेशी प्रभाव और विशेषकर सेमेटिक प्रभाव तो अवश्य ही है। संस्कृत विद्वानों ने वेद के अनेक आकर्षक तत्त्वों का वर्णन किया है। उन्हीं के अनुसार वेद का सर्वाधिक आकर्षक तत्त्व यह है कि यह केवल धार्मिक विचारों की अति प्राचीन स्थिति से ही हमें परिचित नहीं कराता वरन् वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसने अपने सम्पूर्ण विकासकाल में कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं ग्रहण किया तथा संसार के सभी धर्मों की तुलना में वह सर्वाधिक शताब्दियों तक निर्बाध रूप से चलता रहा है।”

वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म वा यज्ञ पर कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं है- “प्राचीन भारतीय साहित्य पर विदेशी प्रभाव सिद्ध करने के लिए जितने तर्क दिए जा चुके हैं उन सबको कसौटी पर कस लेने के पश्चात् अब हम इस स्थिति में आ गये हैं कि हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य प्रभाव वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म या यज्ञ पर नहीं है। वह जिस किसी भी रूप में हमारे सामने है उसका उसी रूप और उसी देश में विकास हुआ है जो उत्तर में अगम्य पर्वतश्रेणियों से, पश्चिम में सिन्ध तथा रेगिस्तान से, दक्षिण में अगाध सागर से एवं पूर्व में गंगा से पूर्णरूपेण रक्षित था। हमारे सामने एक ऐसा काव्य (वैदिक धर्म) है जो वहीं जन्मा और वहीं विकसित हूं” (पृष्ठ १४५)

बहुदेवतावाद वा एकदेवतावाद- “यदि आप हमसे यह पूछ बैठें कि वैदिक धर्म एकदेववादी है या बहुदेववादी। तो इसका उत्तर दे सकना मेरे लिए कम कठिन नहीं होगा। एकदेववाद का जो अर्थ लगाया जाता है, उस अर्थ में तो वैदिक धर्म एकदेववादी नहीं है। यद्यपि अनेक ऋचाएं ऐसी हैं जिनमें एकदेववाद की बात जितना बल देकर कही गयी है उतना बल देकर तो ओल्ड टेस्टामेण्ट में भी नहीं कही गयी है। न्यू टेस्टामेण्ट एवं कुरान की भी यही स्थिति है। एक वैदिक ऋषि का कथन है कि वह एक है, सन्त जन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं जैसे अग्नि, यम, मातरिश्वन्।” (पृष्ठ १४८)

“यदि एकदेववाद या बहुदेववाद में निर्णय करना हो तो प्रथम दृष्टि में तो यही प्रतीत होगा कि वैदिक धर्म बहुदेववादी है, परन्तु बहुदेववाद से हम जो अर्थ लगाते हैं, उस अर्थ में यह शब्द वैदिक धर्म का विश्लेषण नहीं बन सकता। वास्तव में बहुदेववाद की विचारधारा को हमने ग्रहण किया है रोम और यूनान से। हम समझते हैं कि बहुदेव में देवताओं का एक संगठित रूप होता है, जिनमें प्रत्येक की शक्तिमात्रा दूसरे से भिन्न होती है और वे सब-के-सब उस परमेश्वर के सहायक हैं, जिसे वे जीसस या जुपिटर कहते हैं। वेदों का बहुदेववाद इससे भिन्न है। वह न केवल यूनानियों या रोमवालों से भिन्न है वरन् वह पॉलिनेशियन, अमेरिकन तथा अफ्रीकन भावनाओं से भी भिन्न है और यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे स्वशासनाधिकार प्राप्त ग्रामों का संघ राजतन्त्रीय शासन से भिन्न होता है।” (पृष्ठ १४९)

केवल एक ही देव- “…ऋषियों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि यद्यपि ये नाम केवल नाममात्र हैं और जिसके ये नाम हैं वह एक है और केवल एक है।” (पृष्ठ १५१)
“उसी विद्वान् लेखक (यास्क) का कथन है कि देव तो वास्तव में एक ही है…ये ढेर सारे देवता उसी आत्मन् के विभिन्न सदस्य हैं।” (पृष्ठ २२३)

वेद का चरम लक्ष्य- “मैं तो यहां तक कह सकता हूं कि भारत का दर्शनशास्त्र ही वहां का सर्वोच्च धर्म है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत प्राचीनतम दर्शनशास्त्र का प्राचीनतम नाम है- वेदान्त अर्थात् वेद का अन्त, वेद का लक्ष्य या वेद का सर्वोच्च उद्देश्य।” (पृष्ठ २२३)

“लोगों ने वेद की महत्ता को कम करने के कम प्रयत्न नहीं किए हैं, पर उसका महत्त्व आज भी वैसा ही है।” (पृष्ठ २२७)

“वेदान्तदर्शन के अनेक प्रमुख अङ्ग गंवई गांव के निरक्षर व्यक्ति भी पूरी तरह समझते हैं।” (पृष्ठ २२७)

मैक्समूलर ने अपने व्याख्यानों की समाप्ति ‘शापनहावर’ के उपनिषद् विषयक उद्गारों को उद्धृत कर इस प्रकार किया-
“यदि आप यह समझते हों कि मेरे द्वारा प्रस्तुत विवरण अतिरञ्जित हैं तो मैं आपके समक्ष एक महान् दार्शनिक-आलोचक के कुछ शब्द रखूंगा। उस विद्वान् की यही विशेषता थी कि दूसरों के विचारों की व्यर्थ प्रशंसा करना उसके स्वभाव के विपरीत था। इस प्रसिद्ध विद्वान् शापनहावर ने उपनिषदों पर अपना विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि- समूचे संसार में कोई भी अध्ययन इतना लाभजनक और ऊंचा उठाने वाला नहीं है जैसा कि उपनिषदों का अध्ययन। यह मेरे जीवन का सन्तोष रहा है और यही मेरी मृत्यु का भी सन्तोष रहेगा।” (पृष्ठ २३०)

इन उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि इन व्याख्यानों के समय (सन् १८८२) तक भारत, भारतीय धर्म और वेद के विषय में मैक्समूलर के विचारों में बहुत अन्तर हो गया था, परन्तु यह अन्तर किन कारणों से हुआ, क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य इसमें कारण था वा नहीं, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य सम्बन्धी कार्य से मैक्समूलर भली प्रकार परिचित था और स्वामी दयानन्द सरस्वती भी अपने वेदभाष्य सम्बन्धी कार्य के विषय में मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स की प्रतिक्रिया जानने को सदा उद्यत रहते थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं और इनके मध्य श्यामजीकृष्ण वर्मा जो संस्कृत अध्यापन के लिए लन्दन गए हुए थे, सम्पर्क माध्यम के रूप में भूमिका निबाह रहे थे। इन सब घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मैक्समूलर के विचारों में परिवर्तन का प्रमुख कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य अवश्य रहा होगा। इसकी पुष्टि मैक्समूलर के निम्न कथन से भी होती है-
“ऋग्वेदकाल से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेदादिभाष्य की भूमिका लिखे जाने के समय तक के सहित्य को दो भागों में बांट सकते हैं। यहां यह भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।” (हम भारत से क्या सीखें -पृष्ठ १०२)

सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में मैक्समूलर के वे ही विचार पढ़ाये जाते हैं, जो उसने प्रारम्भिक काल में ईसाई मत के जोश में लिखे थे। मेरा सुझाव है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में जिसमें भी संस्कृत भाषा से सम्बद्ध विषय पढ़ाये जाते हैं, वहां कम से कम मैक्समूलर के ‘INDIA WHAT CAN IT TEACH US’ (हम भारत से क्या सीखें?) शीर्षक व्याख्यान-संकलन पाठ्यपुस्तकों में अवश्य रखा जाय तभी मैक्समूलर-भक्त अपनी अन्धभक्ति को त्यागकर कुछ प्रकाश पा सकेंगे।

[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का जनवरी (द्वितीय) २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]