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महर्षि दयानन्द के सत्संगी शाहपुराधीश नाहरसिंह

यद्यपि शाहपुरा मेवाड़-राज्य का ही एक भाग था, परन्तु अंग्रेज सरकार ने उसे स्वतन्त्र राज्य का दर्जा दिला दिया था, केवल वर्ष में एक बार शाहपुराधोश को उदयपुर के दरबार में उपस्थित होना पड़ता था।

महाराजा नाहरसिंह में भी मेवाड़ के सिसोदिया वंश का रक्त था। अतः वे भी ऋषि दयानन्द की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुए। उदयपुर निवासकाल में ही उन्होंने शाहपुरा पधारने का निमन्त्रण दिया था।

तदनुसार ऋषि दयानन्द उदयपुर से शाहपुरा पहुंचे। वहां संवत् 1939, फाल्गुन कृष्णा 14 से संवत् 1940 ज्येष्ठ कृष्णा 4 (8 मार्च 1883से 26 मई 1883) तक लगभग ढाई मास शाहपुरा रहे।

शाहपुराधीश को छहों दर्शनों के प्रमुख प्रकरण और मनुस्मृति के अध्याय 7-8 पढ़ाये और योग का अभ्यास भी कराया। शाहपुराधीश पर ऋषि दयानन्द का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे पूर्णतया वैदिक धर्म के अनुयायी बन गये।

ऋषि दयानन्द ने उन्हें वैदिक कर्मकाण्ड में विशेषरूप से प्रवृत्त करने के लिए दर्शपूर्णमास आदि श्रौतयाग करते रहने की प्रेरणा दी। यह रीति उनके कुल में निरन्तर प्रचलित रही।
शाहपुराधीश की निर्भयता :

महाराणा सज्जनसिंह के स्वर्गवास होने पर उनके निस्सन्तान होने के कारण देलवाड़ा के फतहसिंह राजराणा उदयपुर की गद्दी पर बैठे। यद्यपि ये भी ऋषि दयानन्द के सम्पर्क में आये थे और इनका ऋषि दयानन्द के साथ पत्र-व्यवहार भी हुया था, परन्तु इन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था।

शाहपुराधीश नाहरसिंह को यद्यपि अंग्रेज सरकार ने राजा की उपाधि प्रदान कर दी थी, परन्तु उन्हें मेवाड़ के जागीरदार के नाते वर्ष में एक बार दरबार में उपस्थित होना पड़ता था।

एक बार प्रसंगवश महाराणा फतहसिंह ने शाहपुराधीश को कहा – आपने अपने पुरखों का धर्म क्यों छोड़ दिया? नाहरसिंह ने विनयपूर्वक कहा – महाराणा जी, मैंने अपने पुरखों का धर्म नहीं छोड़ा, आपने छोड़ा है। महाराणा ने कहा – कैसे? नाहरसिंह ने 2-3 दिन का समय मांगा और अपने सेवक को सांडनी से शाहपुरा भेजकर सत्यार्थप्रकाश की वह प्रति मंगवाई, जिस पर महाराणा सज्जनसिंह ने हस्ताक्षर करके शाहपुराधीश को दी थी। उसे महाराणा फतहसिंह के हाथों में देते हुए कहा कि – आप के पूर्वज महाराणा ने मुझे यह ग्रन्थ दिया है सो मैं तो उनके धर्म पर ही चलता हूं।

यह घटना शाहपुरा में राजकुमारों को धर्मशिक्षा देने के लिये नियुक्त श्री पंडित भगवान् स्वरूप जी, जो पीछे वैदिक यन्त्रालय के प्रबन्धकर्ता बने, ने सुनाई थी। माननीय पण्डितजी ने सत्यार्थप्रकाश को उक्त ऐतिहासिक प्रति को शाहपुरा से लाकर परोपकारिणी सभा को दिया था। यह परोपकारिणी सभा के संग्रह में विद्यमान है। मैंने स्वयं इसे देखा है।

[द्रष्टव्य : ऋषि दयानंद सरस्वती को लिखे गए पत्र और विज्ञापन (2), चतुर्थ भाग, प्रथम संस्करण 1983, पृष्ठ 46-47 प्राक्कथन; संकलन एवं प्रस्तुति : भावेश मेरजा]