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मन की अनकही ‘सुलगता मौन’ से सार्थक हुई

साहित्य की कुशल कारीगरी का नमूना है ‘सुलगता मौन’। कोटा के प्रख्यात, प्रतिभावान, ऊर्जावान और सक्रिय साहित्यकार विजय जोशी जी का पांचवा कहानी संग्रह है यह। विजय जी की कहानियाँ सदैव सामाजिक समस्याओं पर विचारणीय तथ्यों को समेटकर सटीक संवादों, शानदार शिल्प, कसे हुए कश्य, प्रस्तुत परिवेश और सुधड़ शीर्षक के साथ आती हैं। अब मौन को सुलगता कौन कह सकता है। जो यह जानता है कि मौन जब सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो जैसे सूखी लकड़ी लू के थपेड़ों से सुलगने लगती है वैसे ही मौन भी कटाक्ष सहते-सहते सुलगने लगता है।

संग्रह में ग्यारह कहानियाँ हैं। सभी कहानियाँ संवेदनाओं की गहरी पड़ताल लेकर सामने आती हैं। संकलन का शीर्षक उनके अन्य संकलनों जैसा ही अनूठा है -‘सुलगता मौन’, कभी सोचा है हम में से किसी ने कि मौन जो शांति, धैर्य और शीतलता का प्रतीक है वह सुलगता हुआ भी हो सकता है। संकलन के शीर्षक वाली कहानी वृद्ध दम्पती की अपनी ही समस्याओं, उलझनों, सवालों और वेदनाओं को पाठक के समक्ष कुछ इस रूप में परोसती हैं कि पाठक कभी रुंआसा होता है, कभी खीझता है, कभी डरता है तो कभी मौन साधता है। कुछ ऐसी ही कहानी है ‘आस के पंछी’ भी। राधाकिशन जी के चार बेटे होते हुए भी वे अकेले रहने को विवश है। बेटे अपना फर्ज नहीं निभाते बल्कि माता-पिता से संबंध तक समाप्त कर होते हैं। और यही सिल्सिला अपनों को पराया कर देता है। संग्रह की एक और मार्मिक कहानी है ‘अपनों से पराये’ जिसमें बहादुर सिंह अपने पुत्र को अपनी नौकरी तक दे देता है लेकिन बदले में उसे भी अपमान ही झेलना पड़ता है।

माता-पिता अपनी संतान के लिए सर्वस्व बलिदान कर देते हैं। बड़े से बड़ा कष्ट सहते हैं, छोटी से छोटी इच्छा को समाप्त कर लेते हैं, आँखों की नींद और पेट की भूख को जाहिर नहीं होने देते। किन्तु वही संतान जब अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए तो, माता- पिता अपने ‘सीमे हुए अरमान’ किस धूप के आगे तपाएँ।

स्त्री मन के भावों को भी विजय जी ने इतनी गहराई से कहानियों में उकेरा है कि उनके निष्पक्ष साहित्यकार होने पर प्रसन्नता हो उठती है। ‘अब ऐसा नहीं होगा’ लिंग असमानता पर आधारित कहानी है। माता-पिता बनने वाला युगल जब अस्पताल के उस दृश्य को जीताहै तो अमिता अनायास ही अपने गर्भ में पल रही संतान के प्रति आशंकित और भयभीत हो उठती है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है। शिक्षित और आधुनिक कहलाने वाला मनुष्य समाज, आज भी बालिका को द्वयं स्थान पर रखता है तथा संतान के रूप में पुत्र का ही आकांक्षी रहता है। कथाकार ने उपकथानक का सहारा लेकर केन्द्रीय भाव को इतना मज़बूत मोड दिया है कि साधारण सी कहानी भी महिला सशक्तिकरण को स्पष्ट कर गई।

वर्तमान प्रजातांत्रिक स्थितियों, पाखण्डों और घोटालों का नाटक उजागर करती कहानी ‘नाटक’, प्रतीकों के रूप में वास्तविक स्थितियों को दर्शाती है। आज किसी भी प्रतियोगिता में आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया को नाटक के रूप में ही पूरा किया जाता है, और वास्तव में चयन तो पहले ही तय हो चुका होता है।

रोज़मर्रा की आपाधापी, तमाम दुनिया की व्यस्तताओं, जीवन की छोटी बड़ी जिम्मेदारियों, घर बाहर के मुश्किलात और नाते-रिश्तों की उलझनों से परे संकलन की एक कहानी इतनी विचारणीय लगी कि मन कह उठा ऐसे कथ्य पर लिखना एक दृष्टि सम्पन्न और अनुभवी साहित्यकार के ही बस का है। जैसी स्थिति और द्वन्द्व कहानी के नायक के ह्रदय को विचलित कर गए संभवतया वही द्वन्द्व विजय जी ने भी झेला ही होगा क्योंकि ऐसे द्वन्द्व का हल वे ही निकाल सकते हैं।

पति-पत्नी के संबंधों की एक दुविधापूर्ण किन्तु समझदारी भरी कदमताल को समेटे कहानी ‘कदमताल’ भी वास्तव में पठनीय है। यहाँ नारी की उलझनों को विजय जी ने तर्कपूर्ण तरीके परिभाषित किया है।

यूँ तो संग्रह की सभी कहानियाँ विजय जी की सूक्ष्म दृष्टि और आलोचनात्मक लेखनी की कसौटी पर कसी हुई हैं किन्तु एक कथाकार के रूप में कहीं-कहीं वे भी संवेदनाओं की सरिता में बह गए और मूल कथ्य को सुस्पष्ट नहीं कर सके। दो एक कहानी की छोटी लंबाई भी कथ्य के साथ न्याय नहीं कर पाई।

परिवेश का वर्णन तो इतना बारीकी से किया, है कि एक दृश्य सा आँखों के सामने उभरने लगता है।परिवेश वर्णन में वाकई विजय जी कुशल चितेरे हैं।

हिन्दी में इन्हें केवल चार ही माना गया है -आरम्भ, विकास, चरमोत्कर्ष और अन्त। लघुकथा इन नियमों से परे है किन्तु एक पूर्ण कथा इन नियमों से बँधी हुई है। हालांकि इनका अक्षरश: पालन आवश्यक नहीं है यदि कहानी रोचक है तो, पर फिर भी कहानी की शुरुआत हुई है तो पाठक को जोड़े रखने हेतु घटनाओं का चरमोत्कर्ष और उतार के साथ अन्त जरूरी है अन्यथा कहानी अन्तहीन बन कर पाठक को उलझन में डाल – देती हैं।

संग्रह की कुछ कहानियाँ एक उलझन के साथ ही समाप्त हो गई पर विजय जी ने जिस संवेदनशीलता के साथ उलझनों को उकेरा है पाठक उन्हें गहरे तक अनुभूत करता चलता है। सामाजिक, और पारिवारिक मुद्दों पर कथानक रचना यूं भी विजय जी की खूबी है और इस संग्रह में तो उन्होंने इन अनछुए पहलुओं को लिपिबद्ध कर पाठक को इन विसंगतियों के प्रति सावचेत किया है।

पुस्तक – सुलगता मौन
कथाकार – विजय जोशी
प्रकाशन – साहित्यागार, जयपुर
प्रथम संस्करण – 2020
पृष्ठ – 96
मूल्य – 200/-रुपए