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सिनेमाघरों तक लोगों को लाने के लिए जरूरी हैं कई कदम

– एफएफआई ने सरकार की ओर से कर में राहत समेत कई कदमों की वकालत की
– सिंगल स्क्रीन को बढ़ावा देने और मल्टीप्लेक्स में बदलाव को आसान करने भी मांग

नई दिल्ली। फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया (एफएफआई) की नवनिर्वाचित कार्यकारी समिति ने फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कुछ अहम मुद्दों को उठाने के लिए आज दिल्ली में बैठक का आयोजन किया। इस दौरान सरकारी निकायों में अधिक से अधिक फिल्म उद्योग का प्रतिनिधित्व, अधिक स्क्रीन पुनर्स्थापना व एकल स्क्रीन को फिर से जीवंत करना, स्थानीय पशु कल्याण बोर्ड कार्यालयों की स्थानीय शाखाओं की स्थापना, फिल्म पर्यटन को बढ़ावा देने जैसे मुद्दों पर विमर्श हुआ। यह सभी मुद्दे लंबे समय से एफएफआई के एजेंडा में हैं। इन सभी मुद्दों के बीच भारतीय फिल्म उद्योग का पुनर्वर्गीकरण सबसे अहम मुद्दे की तरह उभरकर सामने आया है।

भारतीय फिल्म उद्योग का पुनवर्गीकरणः भारत सरकार फिल्म उद्योग को ’पाप उद्योग’ की श्रेणी में रखती रही है। बीड़ी, तम्बाकू, शराब आदि उद्योगों की श्रेणी में रखते हुए ही इस पर कराधान की व्यावस्था बनाई जाती रही है। जीएसटी आने के बाद भी इसे 28 प्रतिशत की सबसे ऊंची स्लैब में रखा गया था। हाल में सरकार ने जीएसटी के मोर्चे पर राहत दी है। सिनेमा को 28 से 18 प्रतिशत की स्लैब में कर दिया गया, जो पूरे उद्योग के लिए हितकर कदम है। सरकार ने फिल्म उद्योग के लिए सिंगल विंडो क्लीयरिंग का प्रावधान करने और फिल्म पायरेसी पर अंकुश लगाने की इच्छा भी दिखाई है। एफएफआई के अध्यक्ष फिरदौस-उल-हसन ने कहा, ’एफएफआई अपनी स्थापना के समय से ही सरकार के साथ मिलकर काम करता रहा है। भारतीय सिनेमा को सुदृढ़ बनाने के अपने प्रयासों को मजबूत करने के लिए एफएफआई आगे भी भारत सरकार के साथ कदम मिलाकर चलने को तैयार है।’

फिल्म पायरेसी/अवैध फिल्म व्यवसायः फिल्म पायरेसी का बड़ा कारण यह है कि फिल्में आसानी से लोगों तक नहीं पहुंच पाती हैं। भारत में 2017-18 में लगभग 2000 फिल्मों को प्रमाणपत्र मिला, लेकिन इनमें से केवल 600-700 फिल्मों ने सिनेमा हॉल तक रास्ता बनाने में सफलता पाई। शो की कमी और अप्रतिबंधित टिकट की कीमतों ने (महाराष्ट्र जैसे राज्यों में) जनता तक फिल्मों की पहुंच को और मुश्किल कर दिया। भारत को 30,000 स्क्रीन्स की जरूरत है, जबकि संख्या 10,000 से भी कम है। इस दिशा में निम्नलिखित कदम उठाने जरूरी हैं :- सिंगल स्क्रीन को बंद होने से बचाएं, सिंगल स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स में बदलाव की प्रक्रिया आसान बनाएं।

इस समय जरूरी है कि टैक्स में छूट और अन्य माध्य्मों से टिकटों की कीमत कम की जाए। ऐसा होने से ही लोग सिनेमाघरों की ओर आकर्षित होंगे।

इंडो-बांग्ला फिल्म पुरूस्कारः एफएफआई अध्यक्ष ने कहा, ’पड़ोसी देशों में भारतीय फिल्में बेहद लोकप्रिय हैं। लेकिन अधिकांश इन देशों में भारतीय फिल्मों के आयात, वितरण और प्रदर्शन के लिए उचित – द्विपक्षीय समझौता नहीं है, इसलिए हमारी फिल्मों कि पायरेटेड डीवीडी/कॉपी इन बाजारों पहुँच जाती हैं। उदाहरण के रूप में बांग्लादेश में हमारी फिल्में लोकप्रिय हैं, लेकिन वहां के सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं की जाती हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए हम कदम उठा रहे हैं। इस प्रयास में एफएफआई ने इस साल अक्टूबर में इंडो-बांग्ला पुरस्कार समारोह के आयोजन की योजना बनाई है, जहां दोनों देशों के अभिनेताओं, निर्देशकों और निर्माताओं को सम्मानित किया जाएगा और भारतीय फिल्मों के लिए अनुकूल माहौल बनाने का प्रयास होगा।’

ग्लोबल सिनेमा फेस्टिवलः जितनी मुश्किल भारतीय फिल्मों को अन्य देशों तक पहुंचने में होती है, उतनी ही मुश्किल दुनियाभर की अच्छी फिल्मों को भारत में होती है। एफएफआई फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए बड़े महानगरों के हटकर ऐसे शहरों में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव आयोजित करने की योजना बना रहा है, जहां पहले फिल्मोत्सव का आयोजन नहीं हुआ। एफएफआई स्थानीय फिल्म उद्योग को प्रोत्साहित करने और पर्यटन व शूटिंग को बढ़ावा देने की दिशा में भी प्रयासरत है।

पशु कल्याण बोर्ड (एनिमल वेलफेयर बोर्ड)ः फिल्मों में जानवरों का इस्तेलमाल भी बड़ा मुद्दा है। एफएफआई एनिमल वेलफेयर बोर्ड के महत्व को समझता है, मगर हरियाणा से केन्द्रित इसका संचालन, अनुपालन की प्रक्रिया को उलझा देता है। सालाना करीब 2000 फिल्में प्रमाणन के लिए बोर्ड के समक्ष जाती हैं। एफएफआई का प्रस्ताव है कि फिल्म बिरादरी के कम से कम दो सदस्यों को बोर्ड में शामिल किया जाए ताकि वे जानवरों के इस्तेमाल की प्रक्रिया को समझा सकें और देखभाल और कठिनाइयों का भी संज्ञान ले सकें। साथ ही हम यह भी चाहते हैं कि प्रत्येक क्षेत्र में सेंसर बोर्ड के साथ एक एनिमल वेलफेयर बोर्ड भी खोला जाए, ताकि सीबीएफसी प्रमाणपत्रों के साथ ही एनिमल वेलफेयर बोर्ड से भी प्रमाणपत्र मिल सके।