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मालिश महापुराण :सुशील सिद्धार्थ

सुशील सिद्धार्थ का व्यंग्य संग्रह ‘मालिश महापुराण’ को पढ़ते समय सैकड़ों बिम्बों प्रतिबिम्बों, मुहावरों, प्रसंगों, तथ्यों और कथ्यों का सामना करना पड़ा. जिनसे एक पाठक कोतो नहीं लेकिन एक लेखक को रोज बे रोज सामना करना पढता है . सुशील सिद्धार्थ ने लेखक, साहित्य, लेखन, समीक्षा और आलोचना पर इतना कठोर व्यंग्य किया है जिसके कारण “मालिश पुराण” आधुनिक साहित्य के तमाम मठों को समझने के लिए एक एक जरुरी पुस्तक बन गयी है.

सुशील भाई ने आधुनिक समीक्षा लेखन पर हमें जो ज्ञान दिया है यदि उसको ध्यान में नहीं रखा गया तो उसका नतीजा समीक्षक को तो भुगतना ही पढता है -“किसी भी किताब पर लिखने-बोलने से पहले इतनी बार सोचों जितने पृष्ठ उस किताब में हों. लोग जानना चाहेंगे कि इसी किताब पर क्यों ? लेखक किस दल का है यह जानना जरूरी है. मान लो लेखक ‘अ’ पर लिखता हो. अ के ब से अच्छे रिश्ते नहीं हैं, तुम तो फंस गये. ब तुमसे कुछ नहीं कहेगा. पर उसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाले संपादक तुमको छापना बंद कर देंगे”.

हिंदी साहित्य धडों, दलों और मठों से प्रभावित होता रहा है. इस व्यंग संग्रह की सबसे ज्यादा खूबी इसी बात में दिखाई देती है कि तमाम लेखों में मठों, मठाधिसों और उनके अनुयाइयों तीखा व्यंग प्रहार लेखक ने किया है . “कलयुग केवल मालिश पर केन्द्रित है. सबकी मालिस एक है ज्ञान तर्क और व्यक्तिगत कर्म आदि जहाँ दम तोड़ देते है. वहीँ इसकी ताकत शुरू होती है. इसीलिए मालिश महापुराण के विद्वान ही इस युग में सफल होते है”

इस पुस्तक में व्यंग इतनी गहराई लिए हुए है , जो भी इसके दायरे में आयेगा बिना सामन्ती गली के वो रह नहीं सकता. संवाद शेली में मालिश पुराण विचरण करती हुई,कभी वह नयी कहानी, आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता ,प्रगतिशील आन्दोलन एवं नव सर्जन तक की विकास यात्रा करती रहती है.

यदि पाठक को इन आन्दोलन के बारे में पता है तो उनको पढने में बहुत मजा आयेगा अन्यथा एक आम पाठक को इसे समझने के लिए किसी सुधी व्यक्ति की आवश्यकता पढेगी क्योंकि इस व्यंग संग्रह के पात्र और घटनाये असली है. ‘कुछ अनुभवी बताते हैं कि लेखक संगठन भी कई बार विचारधारा के नाम पर आँखें फोड़ देते हैं या हाथ-पाँव कटवा देते है. उनमें शामिल लेखक सामने दिखते यथार्थ पर तभी दृष्टिपात करते हैं जब पार्टी कहे. पार्टी की आँख से ही देखने को ही वरीयता दी जाती है. अपवाद हर जगह है….. जब कोई लेखक अपनी आँख से देखकर व्यापक जीवन के भीतर उड़ना चाहता है तो उसके पर कतरे जाने लगते हैं… राम विलास जैसे बड़े साहित्यकार पर सबसे बड़ा कलंक यही माना जाता है कि उन्होंने मुक्तिबोध के पर कतरने चाहे. आज की बात करें तो उदय प्रकाश के पीछे भांति-भांति के उस्तरे पड़े हुए हैं ….हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने अपनी बीमार पुस्तक में कुछ लोगों के पर कतर दिए.”

सुशील सिद्धार्थ ने साहित्य जगत की कुनबापरस्ती के चाल-चलन और इसके मिजाज को बहुत अच्छी तरह से समझा है. उन्होंने पुरानी कहावतों में फेर-बदल करके नवीन मुहावरों को गढ़ने की कोशिश की है. उसी प्रकार मैं भी एक कहावत में फेर बदल करने का दुस्साहस कर रहा हूँ. जैसे-पुलिस वालों से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मालिश महापुराण पढने के बाद मैं यह दावा करता हूँ कि ‘ साहित्यकारों से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी.’

“निर्झर बाबा की किरपा” साहित्यिक मठों पर कब्ज़ा जमाये बैठे उन मठाधिसों पर सीधा प्रहार किया है जिनके बिना आज भी सम्मलेन, गोष्ठी और पुरुस्कार इत्यादि संभव नहीं है. मठाधिसों के अनुयाई अपने बाबाओं और आकाओं के आगे पीछे लगे रहते है क्योंकि उन्हें अपना नाम सिलेबुस या पुरुस्कार के लिए आगे बढ़ाना है . दूसरी तरफ अनुयाई भी कम नहीं वे भी आस्था और दोस्ती मोबाइल की तरह से बदलते रहते है

“कुल मिलकर” लेखन जगत की त्रासदी का एक महावाक्य बन गया है जिसमे लेखन, सम्मलेन, पुरुस्कार और समीक्षाएं…फिल्मों की तरह अंत में….. कुल मिलाकर ठीक हो जाते हैं . व्यंगकार ने ठीक ही कहा है कि योग्य व्यक्ति के लिए इसी दर्शन का ही सहारा है.

“बातन हाथी पाइए” “सवाल कैसे कैसे” और “क्या क्या दिख रहा है” में लेखक, लेखन और उसके घ्रणित दृष्टिकोणों को अलग अलग व्यंग शिल्प में ढाला गया है जिनकी मार बहुत दूर और गहराई तक जाती जो समझ सकते हैं वो जरुर समझें “अच्छे-अच्छे वाक्य लिखने वाले लोग भले आदमी के सबसे बड़े सत्रु है”

साहित्य जगत में लेखकों की गरिमा बढ़ने वाली एक शिक्षण-प्रशिक्षण की पाठशाला भी है. गरिमा बढ़ाने का पूरा पैकेज है- “आजकल ऐसे कार्यक्रम पैकेज डील के तहत तय होते हैं. एक पुराना अध्यक्ष एक या दो संभावित प्रपंची एक चतुर चाटुकार चैतन्य संचालक खर्चा इतना मिल गया तो डन.” गरिमा बढ़ाने का सीधा सरल नुस्खा- कहानी पर बोलते हुए पांच चुटकुले दो शेर, चार अफाह का गोला बनाते दो-चार वाक्य कहानी पर भी कहे जाते.”

सुशील सिद्धार्थ आधुनिक व्यंग्य परम्परा के एक ऐसे प्रतिनिधि हैं जिस बात को कहने से लोग डरते है वही बात उन्होंने अपने व्यंग्य संग्रह में ठोस तथ्यों को कथ्यों के साथ अनकही बात को कहने का साहस दिखाया है. जिसकी भाषा शैली सरल एवं कथनों में मुहावरों और कहावतों का प्रयोग कर व्यंग शिल्प कला को एक स्तर तक पहुँचाने में कामयाब हुए हैं.

सुशील सिद्धार्थ इस व्यंग्य संग्रह द्वरा आधुनिक लेखक के पारिवारिक, नए-पुराने साहित्यिक और गैर-साहित्यिक गुरु, शिष्य, आधुनिकता और प्रगतिशीलता के प्रतिनिधियों की बेबाकी से खबर ली हैं. इस व्यंग संग्रह की जमीन बहुत मजबूत है. व्यंग की तकनीक को विकसित किया गया है लेकिन विचारधारात्मक स्तर पर कुछ जगह हिचकोले भी खाती है
हमारे गाँव में ‘मालिश’ का अर्थ- मरम्मत करना, ठीक करना, कोने में लाना इत्यादि भी होता है अर्थात मालिश पुराण ने लेखन और लेखक की खूब मरमत की है.

मालिश महापुराण : सुशील सिद्धार्थ : किताब घर :150