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नई दिल्‍ली। देश के किसी भी आईआईटी और एम्स में ‘कंफर्म ऐडमिशन’ वाला विज्ञापन नहीं निकलता है। मगर, मीडिया में एमबीबीएस सीट के विज्ञापनों की भरमार रहती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि यदि ऐडमिशन मेरिट के आधार पर होता है, तो कोई ‘डायरेक्ट ऐडमिशन’ का वादा कैसे कर सकता है।

एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित खबर में दावा किया गया है कि ऐसा प्राइवेट कॉलेजों की मेडिकल सीटों के ब्लैक मार्केट के चलते होता है। कॉलेज मैनेजमेंट और एजेंट मिलकर प्राइवेट कॉलेजों में 30 हजार से ज्यादा एमबीबीएस और करीब 9,600 पीजी की सीटें बेचते हैं। इन सीटों में हर साल करीब 12 हजार करोड़ रुपए की ब्लैक मनी का खेल होता है।

भारत में 422 मेडिकल कॉलेज में आधे से अधिक यानी करीब 224 प्राइवेट हैं। इनमें एमबीबीएस की 53 फीसद सीटें रहती हैं। इसमें से कई कॉलेजों में काफी कम सुविधाएं हैं। इसके बावजूद भी डॉक्‍टर बनने के ललक में छात्र यहां एडमिशन ले लेते हैं। एमबीबीएस की एक सीट की कीमत बेंगलुरु में एक करोड़ रुपए और यूपी में 25 से 35 लाख रुपए होती है।

रेडियोलॉजी और डर्मेटोलॉजी की एक सीट तीन करोड़ रुपए तक में बिकती है। इन सीटों के लिए ‘पहले आओ-पहले पाओ’ का प्रावधान होता है। पहले से बुक करने पर कीमत में छूट भी दी जाती है। हालांकि, मेडिकल प्रवेश परीक्षा के नतीजे घोषित होने पर प्राइवेज कॉलेजों में सीटों की कीमत दोगुनी हो जाती है।

केवल एमबीबीएस की सीटें हर साल नौ हजार करोड़ रुपए में बिकती हैं। डीम्ड यूनिवर्सिटी या प्राइवेट कॉलेज अपने एंट्रेंस एग्जाम खुद कराने का दावा करते हैं ताकि मेरिट के आधार पर छात्रों का चयन हो। हालांकि, कई राज्यों में इसका खुलासा हो चुका है कि पैसे वाले उम्मीदवारों को कम नंबर आने या एग्जाम में नहीं बैठने पर भी सीटें मिल जाती हैं।