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मातृभाषा माध्यम: बहुत कठिन है डगर पनघट की…

संसदीय राजभाषा समिति द्वारा उच्च शिक्षा के माध्यम को लेकर क्या सिफारिशें की गई हैं, यह तो मुझे नहीं पता। रिपोर्ट प्रकाशित न होने के कारण केवल कयास लगाए जा रहे हैं। अभी तो भारत सरकार द्वारा इस पर व्यापक विचार विमर्श के बाद कोई निर्णय लेना है और तब जाकर राष्ट्रपति जी के आदेश जारी होंगे । अभी तो इसे लेकर काफी अस्पष्टताएं हैं। लेकिन जो होना चाहिए उसे लेकर, मेरा विचार बिल्कुल स्पष्ट हैं।

मूल विचार है मातृभाषा में शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का विकास और व्यक्ति के विकास से राष्ट्र का विकास। इसीलिए तो अंग्रेजी माध्यम के बजाय अपनी भाषाओं के माध्यम की बात है।

अगर मध्य प्रदेश या किसी अन्य हिंदी भाषी राज्य में हिंदी माध्यम से उच्च शिक्षा दी जाती है तो यह सर्वथा उचित है। इस पर जो नेतागण अनावश्यक टीका टिप्पणी कर रहे हैं निश्चय ही उनके मन में खोट है। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि पूरे देश में उच्च शिक्षा हिंदी माध्यम से दी जाएगी। चिदंबरम और स्टालिन जैसों ने तो इसे लेकर सरकार पर हमला भी बोल दिया है। अगर ऐसा है, तो मैं भी इससे सहमत नहीं हूँ। जिस प्रकार अंग्रेजी माध्यम थोपना उचित नहीं वैसे ही किसी हिंदीतर भाषी राज्य में अनिवार्य रूप से हिंदी माध्यम से शिक्षा देने की बात भी तर्कसंगत व न्याय संगत नहीं है। किसी भी राज्य में शिक्षा का माध्यम उस राज्य की भाषा होनी चाहिए। लेकिन इसमें भी एक प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिए ।

मान लीजिए, दिल्ली में किसी क्षेत्र में तमिल भाषी बड़ी संख्या में है और वे अपने किसी स्कूल के माध्यम से शिक्षा तमिल माध्यम से देना चाहें तो किसी को क्या परेशानी होनी चाहिए? इसी प्रकार मुंबई या महाराष्ट्र के किसी हिस्से में गुजराती या हिंदी भाषी बड़ी संख्या में हैं और वे पर्याप्त शिक्षा में विद्यार्थी होने पर अपनी भाषा में शिक्षा देना चाहें तो किसी को एतराज क्यों होना चाहिए। इसी प्रकार कर्नाटक या गोवा के किसी क्षेत्र में मराठी भाषियों की बड़ी संख्या है और पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी भी उपलब्ध हैं और वे मराठी भाषा से पढ़ाना चाहें तो किसी को एतराज क्यों होना चाहिए ? जहां सरकार ऐसी व्यवस्थाएं न कर सकें तो सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय इस प्रकार की व्यवस्था कर सकते हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर संघर्ष भारतीय भाषाओं के बीच नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के बीच है।

लेकिन इस मामले में महत्वपूर्ण उच्च शिक्षा नहीं बल्कि प्राथमिक शिक्षा है। आप प्राथमिक स्तर पर तो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करवाएंगे और कहेंगे कि उच्च शिक्षा हम मातृभाषा में देंगे तो यह बात तर्कसंगत नहीं है। इसे लेकर अनेक लोगों द्वारा प्रश्न भी खड़े किए हैं। इसलिए उच्च शिक्षा के साथ-साथ स्कूली स्तर पर भी मातृभाषा माध्यम की व्यवस्था किया जाना बहुत ही जरूरी है।

मैं पाता हूं कि कहीं भी किसी भी स्तर पर भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर कहीं कोई संघर्ष है ही नहीं। जो भी हिंदी विरोध या किसी अन्य प्रकार के अवरोध की बात कर रहे हैं, अगर ध्यान से देखें तो वे भारतीय भाषाओं के विरुद्ध अंग्रेजी के भक्त हैं। वे भारतीय भाषाओं को परस्पर लड़ा कर बांटो और राज करो की नीति के तहत अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें डर है कि उनके कम प्रतिभाशाली बच्चे भी अंग्रेजी के कारण बाजी मारते रहे हैं अगर भारतीय भाषाओं के माध्यम को सफलता मिली तो उनके बच्चों का क्या होगा ? अब उनके कोट-टाई वाले बच्चे निर्धन वर्ग के बच्चों से अलग दिखाई देते हैं और बड़े पद पाते हैं, उन्हें समान भाषा में शिक्षा स्वीकार्य नहीं होगी।

अगर यूं कहा जाए कि भाषाई संघर्ष मूलतः वर्ग संघर्ष का ही चेहरा है, तो गलत नहीं होगा। इसीलिए सुविधाभोगी संपन्न उच्च वर्ग जिस में राजनीतिक नेताओं और उच्च नौकरशाही की बड़ी भूमिका है। वह भारतीय भाषाओं की राह में रोड़ा बनकर खड़ा हुआ है।

यह वर्ग चाहता है कि दो तरह की शिक्षा प्रणाली चलती रहे। एक अंग्रेजी माध्यम की जहाँ सर्वसुविधा संपन्न महंगे स्कूलों की और दूसरी तरफ वंचित शोषित निर्धन वर्ग के विद्यार्थी जिनकी प्रतिभा को अंग्रेजी की दीवार रोककर रखें।

संसाधनों की ढलान पहले की तरह अंग्रेजी की तरफ बनी रहे ताकि उनके अंग्रेजी माध्यम के बच्चे हर स्तर पर सत्ता और संपन्नता पर काबिज रहें। वे शिक्षा की मूलभूत सुविध विहीन और निम्न स्तरीय शिक्षा और भारतीय भाषाओं की शिक्षा को लेकर उनके चाकर बने रहें। और यह साबित किया जाता रह सके कि अंग्रेजी माध्यम से ही आगे बढ़ा जा सकता है। इसलिए ये कभी नहीं चाहेंगे कि शिक्षा व्यवस्था में समानता का और मातृभाषा का माध्यम लाया जा सके।

यहाँ यह बात भी स्पष्ट है कि अंग्रेजीदां वर्ग की बहुत ही शक्तिशाली लॉबी है और यह लॉबी हर दल में है। अफसरशाही पर तो पूरी तरह इन्हीं का कब्जा है। किसी भी सरकार द्वारा ऐसा परिवर्तन करना आसान नहीं दिखता कि वह प्राथमिक स्तर पर भी शिक्षा अनिवार्य रूप से भारतीय भाषाओं में कर सके। और अगर यह नहीं हुआ तो पूरी की पूरी कवायद ही बेकार हो जाएगी। जहाँ तक एक विषय के रूप में अंग्रेजी पढ़ाने का प्रश्न है, मैं समझता हूं कि जिस प्रकार की व्यवस्था पहले होती थी कि पांचवी तक पूरी तरह मातृभाषा और छठी कक्षा से एक विषय के रूप में अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती थी। वही व्यवस्था सर्वोत्तम थी। बच्चे का मानसिक विकास अपनी भाषा से और आगे चलकर अन्य आवश्यक भाषाएं भी । जिन विद्यार्थियों को अपना भविष्य बनाने के लिए या किसी विशेष क्षेत्र में जाने के लिए अंग्रेजी ही नहीं किसी अन्य विदेशी भाषा को भी पढ़ना है तो उनके लिए उस प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है जिस प्रकार के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विदेशी शिक्षा विभाग बनाए गए हैं।

जिस व्यक्ति को जर्मनी जाकर रहना नहीं, जर्मनी से कोई वास्ता नहीं, उसे जर्मन पढ़ाने का क्या औचित्य है ? यही बात अन्य विदेशी भाषाओं पर भी लागू होती है। लेकिन आवश्यकता की दृष्टि से चाहे फिर मंडोरियन हो, फ्रेंच हो, रूसी भाषा हो या अन्य किसी देश की भाषा उसके शिक्षण की व्यवस्था विश्वविद्यालय स्तर पर अलग विभाग बनाकर की जा सकती है । और जिन्हें कृषि अनुसंधान आदि की दृष्टि से इस क्षेत्र में आगे जाना हो उन्हें उस देश में शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता भी प्रदान की जा सकती है। लेकिन अन्य विद्यार्थियों को भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत बढ़ाई जानी चाहिए जिसमें भारत और भारतीयता की जड़ें निहित हैं।

त्रिभाषा सूत्र आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है। और इसका नया स्वरूप और भी सरल और सहज है, जिसके अनुसार विद्यार्थी न्यूनतम प्राथमिक स्तर पर मात्री भाषा में पढ़ाई करे । कोई भी विद्यार्थी दो भारतीय भाषाएं और एक विदेशी भाषा सीखे। और विदेशी भाषा के रूप में यदि वह अंग्रेजी सीखे तो अंग्रेजी वाली समस्या भी हल हो जाती है।

जहाँ तक भारतीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शिक्षा दिए जाने का प्रश्न है, मुझे लगता है कि इसकी सफलता की चाबी रोजगार में है। यदि राज्य सरकार भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को रोजगार के अवसर भी प्रदान करें तो निश्चय ही बड़ी संख्या में विशेषकर ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों से बड़ी संख्या में विद्यार्थी इस तरफ बढ़ेंगे। और यही नहीं गांव देहात और कस्बों से आने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थी मातृभाषा के माध्यम से बेहतर इंजीनियर, डॉक्टर आदि भी होंगे। इन के माध्यम से मौलिक ज्ञान विज्ञान और आविष्कारों का मार्ग भी प्रशस्त होगा। मातृभाषा माध्यम से चिकित्सा शिक्षा के कारण गांव-गांव में झोलाछाप डॉक्टरों के बजाय शिक्षित – प्रशिक्षित डॉक्टर भी उपलब्ध हो सकेंगे।

लेकिन जिस प्रकार कई राजनीतिक दल इस पहल पर भी दक्षिण के नेताओं के बहाने डंडा लेकर खड़े हो गए हैं और इस अभियान को रोकने के लिए नए-नए तरीके खोज रहे हैं। अंग्रेजीपरस्त अफसरशाही इसे आसानी से आगे बढ़ने देगी, ऐसा लगता नहीं। न्यायपालिका की अंग्रेजियत भी किसी से छिपी नहीं है।

ऐसी स्थिति में तो यही कहा जा सकता है, ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की।’ तथापि मध्य प्रदेश सरकार और प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

अगर मातृभाषा के माध्यम से, गरीब अमीर का भेद किए बिना सभी के लिए समान माध्यम की शिक्षा के साथ आगे बढ़ना है तो इसके लिए प्रबल जनसमर्थन भी बहुत जरूरी है । जो अंग्रेजीपरस्त राजनीतिक दलों, चालाक नेताओं और अफसरशाही का मुकाबला करते हुए इस अभियान को आगे बढ़ा सके।

साभार- वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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