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इन घटनाओं पर मुस्लिम समाज चुप क्यों?

महोदय
भारत के मुस्लिम धर्म गुरुऒ, बुद्धिजीवियों व राजनेताओ की यह मिथ्या धारणा बनी हुई है कि आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों की धर-पकड़ होती है और वे इसी पूर्वाग्रह के कारण सरकार पर अपना अनुचित दबाव बना कर उन संदिग्ध मुस्लिम आरोपियों को रिहा करवाना चाहते है । जबकि यह बार बार प्रमाणित होता आ रहा है कि अनेक देशद्रोही आतंकी घटनाओं में उसमे चाहे पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई. एस.आई. का हाथ हो या सिमी, आई एम, लश्कर-ए-तोइबा, अलक़ायदा व इस्लामिक स्टेट आदि आतंकवादी संगठनों का अधिकांशतः में भारतीय मुसलमानों की संलिप्तता पायी जाती रही है।ध्यान देने की बात है कि पिछले लगभग 6 माह में हमारे सुरक्षाबलों ने जितने भी संदिग्ध आतंकवादियों को पकड़ा है प्रायः सभी मुस्लिम समुदाय के है। मुस्लिम राष्ट्र् यू. ए. ई. से भी प्रत्यारोपित किये गए लगभग एक दर्जन आतंकवादी भी इस्लाम धर्म के ही अनुयायी है।उसमें से एक अफशा जमीन तो निकी जोजफ के छदम नाम से भारतीय मुसलमानों का इस्लामिक स्टेट के लिए बहुत बड़े नेटवर्क को तैयार कर रही थी। ऐसी विकट व संकटपूर्ण परिस्थिति में मुस्लिम नेताओं का देश के गृहमंत्री व फिर प्रधानमंत्री से मिलकर यह दबाव बनाना कि भारतीय मुस्लिम समाज का इन जिहादी संगठनो से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है अतः इस (संदेहात्मक स्थिति) में मुस्लिम युवकों की धर-पकड़ न की जाय।

आखिर क्यों? जब देशद्रोही आतंकवादी गतिविधियों में कट्टर मुस्लिम युवा मासूमो व निर्दोषो का रक्त बहा कर और करोडो अरबो की राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट करते है तब कोई मुस्लिम नेता उनको रोकने का प्रयास क्यों नहीं करता ? अनेक बम विस्फोटक घटनाओं में लहूलुहान हज़ारों लोगों के घाव रिसते और प्राण जाते रहे पर किसी मुस्लिम नेता ने आगे आकर इनके प्रति कोई संवेदना व्यक्त नहीं करी तथा न ही ऐसी दर्दनाक आतंकी घटनाओं के प्रति रोष व्यक्त करा।

अब जब सुरक्षा बलो के आपसी तालमेल व सूझबूझ से इन देशद्रोहियों को पकड़ने में निरंतर सफलता मिल रही है तो मुस्लिम समाज के तथाकथित नेता क्यों “चिंतित” हो रहें है।आपको याद होगा कि सन् 2008 में दिल्ली, गुजरात व महाराष्ट्र् आदि प्रदेशो की पुलिस के आपसी प्रयासों से आतंकियों की गिरफ्तारियों में सफलता मिल रही थी और उसी कार्यप्रणाली के चलते बटला हाउस,दिल्ली में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा का बलिदान हुआ था। तब भी आजमगढ़ के कई मुस्लिम युवको का बम विस्फोटों में हाथ होने के कारण पकड़ा-धकडी हुई थी और कई फरार भी हुए थे जबकि शायद एक मारा भी गया था।उस समय आजमगढ़ व कुछ अन्य स्थानों के उलेमाओं ने पकडे गए व फरार आतंकियों के पक्ष में एक पूरी ट्रेन (उलेमा एक्सप्रेस) आजमगढ़ से दिल्ली मुसलमानों की भर कर लाये थे और जंतर-मंतर पर बहुत भारी प्रदर्शन करके सरकार पर दबाव बनाया था । इसके बाद आजमगढ़ में सेक्युलर नेताओं के आतंकियों के परिवारों के प्रति सहानभूति जताने की होड़ लग गयी थी।लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हुआ क्योकि उसके बाद सुरक्षाबलो का मनोबल बहुत टूटा और उनकी आतंकवादियों के प्रति सक्रियता में शिथिलता आ गयी ।आज 8 वर्ष बाद भी जंतर-मंतर पर सितम्बर मास में मुस्लिम उन आतंकियों के लिए प्रदर्शन करते आ रहे है जबकि पिछले दिनों पता चला है कि उन फरार आंतकियो में से आज भी कुछ सक्रिय है।

पर विडम्बना यह है कि मुस्लिम समाज के अन्य नेताओं ने इन आतंकियों का कभी विरोध नहीं किया..क्यों..? प्रायः कट्टरपंथी मुसलमानों का एक ही लक्ष्य होता है कि येन केन प्रकारेण “जिहाद” को आगे बढ़ाओं।उसके लिए षड्यंत्र रचो, धन जुटाओं, युवाओं को प्रशिक्षण दो और फिर बम विस्फोटों से दहशत फैलाओ…और इसमें पकडे जाओ तो उनको छुड़वाने के लिए दबाव की राजनीति करके हर संभव प्रयास करो। यहां तक कि मीडिया में भी घुसपैठ रखो।यह भी जिहाद की ही कार्यशैली का एक भाग है।

संसार का कोई भी सभ्य देश संविधान, नियम व कानूनों के अन्तर्गत ही व्यवस्थित चल कर स्वस्थ रह सकता है। ऐसे में अगर अपराध व आतंकवाद को रोकने के लिए संदेह के आधार पर गिरफ्तारियां की जाती है तो उसमें गलत क्या है ? और जब प्रश्न राष्ट्र की अस्मिता का हो तो सरकार व सुरक्षाबलों की सक्रियता अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। जब संदिग्ध आतंकी दोषी है या निर्दोष का निर्णय देश की कानूनी व्यवस्था के अनुसार होगा तो फिर मुस्लिम समाज के इन नेताओं को अन्य समाज के संदिग्ध अपराधियों के समान धैर्य तो रखना होगा।अतः इन तथाकथित नेताओं को सरकार पर अनावश्यक दबाव डालकर राष्ट्र की सुरक्षा से खिलवाड़ नही करना चाहिये और न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने के अनुचित प्रयास से भी बचना होगा।आज यही हम सभी भारतीयों के लिए समान रुप से हितकर होगा।

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विनोद कुमार सर्वोदय
गाज़ियाबाद