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कहानियों की अंजुरी में आंसू , प्रेम और संघर्ष लिखने वाले नवनीत

जैसे मां का मीठा दूध। वैसी ही मीठी कहानियां। जब हम विद्यार्थी थे , हम उन्हीं की तरह बनना चाहते थे। उन्हीं की तरह बोलना और लिखना चाहते थे। तब के दिनों वह गोरखपुर में स्टार हुआ करते थे । लखनऊ से गए थे लेकिन आकाशवाणी , गोरखपुर की समृद्ध आवाज़ हुआ करते थे। एकदम नवनीत हुआ करते थे । एक समय हमारे लिखे रेडियो नाटकों में वह नायक बन कर उपस्थित हुए। फिर भी हम उन की तरह न बन पाए , न उन की तरह लिख पाए। पर उन का स्नेह खूब पाया है। कोई चार दशक से अधिक समय से वह मुझे अपने स्नेह की अविरल डोर में बांधे हुए हैं। अविकल। जी हां , हमारे अग्रज और मुझे ख़ूब स्नेह करने वाले , अदभुत कथा शिल्पी , अपनी कहानियों में बार-बार रुला देने वाले , पुरकश आवाज़ और अंदाज़ के धनी , सरलमना , आदरणीय नवनीत मिश्र की बात कर रहा हूं। वह सत्तर के दशक का आख़िर था। 1978 -1979 का समय था। सर्दियों की कोई शाम थी। गोरखपुर के रेलवे स्टेडियम में आकाशवाणी द्वारा श्रोताओं के समक्ष आयोजित ग़ज़लों का कार्यक्रम था। नवनीत मिश्र के खड़े होने का अंदाज़ , माइक पकड़ने की वह उन की वह नाज़ुक अदा , जैसे कोई षोडशी अपने लंबे केश संभाले और ठहरी हुई आवाज़। काली सी दाढ़ी में हल्के से एकाध सफ़ेद बाल। सर्दियों की उस शाम में वह लरजती हुई आवाज़ और वह अंदाज़ आज भी किसी झील से निकलते भाप की तरह मन में टंकी और बसी पड़ी है। यह नवनीत मिश्र थे। ग़ज़लों को या किसी भी बात को अपनी आवाज़ में परोसना कोई नवनीत मिश्र से सीखे। गायक नहीं हैं वह पर उन की आवाज़ में जो सुरीलापन है , खरापन है , गायक की गायकी को एक नया ठाट दे देती है। नया रंग और नया संग दे देती है। उन के संचालन का अंदाज़ , नाज़ में बदल जाता है। ऐसे जैसे शराब का कोई जाम हो और पैमाने से नाज़ छलक रहा हो। नाज़ , अदा और अंदाज़ का यह कोलाज नवनीत मिश्र की थाती है। सच कहूं तो वह बा अदब हैं और मैं बा नसीब।

सचमुच अपने नाम के अनुरुप वह नवनीत हैं। बिलकुल टटका मक्खन। कोमल , मुलायम , सर्वदा नई धज में उपस्थित। नवनीत मिश्र। उन की भाषा में चमक और आवाज़ में खनक देखते बनती है। तिस पर उस में ख़ास किस्म का ठहराव। सोने पर सुहागा इसी को तो कहते हैं। मेरे लिए कई बार यह तय करना कठिन हो जाता है कि नवनीत मिश्र की आवाज़ और भाषा में किसे आगे बताएं। और अंतत: दोनों ही को बराबरी में पाता हूं। हालां कि नवनीत का पहला पैशन आवाज़ ही है। पहले-पहल उन की आवाज़ का ही दीवाना हुआ मैं फिर कहानियों का। नवनीत मिश्र की आवाज़ में जो कशिश है वह भुलाए नहीं भूलती। जब कि उन की कहानियों में स्त्री संवेदना की जो तड़प है , जो दबिश है वह जब-तब रुलाती रहती है। हिला कर रख देती है। नवनीत मिश्र की कहानियां स्त्रियों की आवाज़ बन जाती हैं। स्त्री , दुःख से कातर , हत्या से भयभीत वह कोई हिरणी भी हो सकती है , परिवार की कोई सदस्य भी। यह तो कोई खेल न हुआ कहानी में नवनीत मिश्र जैसे हिरनी के भीतर बैठ जाते हैं। या यह कहूं कि हिरनी उन के भीतर बैठ जाती है और अपनी कहानी , अपने पालतू हो जाने की कहानी , अपनी मां की हत्या की कहानी इस मार्मिक ढंग से परोसती है कि हत्यारे शिकारी भी पढ़ें तो शायद द्रवित हो जाएं। हिरनी के पास शोक में लिपटा दुःख भी है , अपनी मां के लिए विलाप भी , हत्यारों के प्रति आक्रोश भी। अपनी मां के रंज , अपनी यातना और हत्यारे पर तंज में वह कैसे तो क्षण-क्षण टूटती और क्षरित होती हुई पाठक के भीतर रेशा-रेशा दाखिल होती जाती है। इतना कि पाठक भी हिरनी बन जाता है। टूट-टूट जाता है। नवनीत की कहानियों का रंग इन्हीं और ऐसे ही कच्चे रंगों से पगा मिलता है जो मन में बैठ कर पक्के हुए जाते हैं। नवनीत अपनी दोनों हथेलियां , दोनों कान पर रख कर अपनी आवाज़ को थाहने के लिए अकसर आज़माते रहते हैं। अपनी कालजयी कहानियों को आज़माने के लिए वह क्या उपाय करते हैं , नहीं मालूम।

नवनीत मिश्र की ज़िंदगी में संघर्ष बहुत है। मोड़ भी बहुत। समतल ज़िंदगी नहीं है उन की । ऊबड़-खाबड़ बहुत है। नवनीत मिश्र की कहानियों में भी इस संघर्ष और मोड़ के अक्स बहुत हैं। किरिच-किरिच टूटते हुए। टूटे हुए शीशे के मानिंद भीतर , बहुत गहरे चुभते हुए। ख़ास कर नवनीत के यहां स्त्री चरित्र जब पानी की तरह बहती हुई , तमाम तोड़-फोड़ करती हुई अनायास रुलाती मिलती हैं। बात-बेबात। नवनीत के यहां बहुत कम कहानियां हैं जिस में स्त्री पात्र हाशिए पर हों या ज़िक्र भर की हों। ज़्यादातर कहानियां स्त्री संवेदना में भीगी हुई हैं। स्त्री की रचनात्मकता और ऊष्मा में सनी हुई नवनीत की कहानियां कई बार बेबस कर देती हैं। अवश कर देती हैं। पढ़ते-पढ़ते घिग्घी बंध जाती है। आंख भर-भर जाती है। लेकिन यह नवनीत मिश्र की कहानियां ही हैं जिन में हम आधी रात में ओस का गिरना भी सुन पाते हैं। पत्तों पर , खिड़की की शेड पर , कमरे के बाहर वरांडे की टीन पर। गुसलखाने में पानी में भीगती हुई स्त्री आंसुओं के साथ झरझर-झरझर नहाती हुई मिलती है।

व्यक्तिगत डायरी : कृपया इसे न पढ़ें कहानी में कई बार मौन भी बोलता है। ऐसे , जैसे ओस। मसूरी में हनीमून मनाती स्त्री जब पति द्वारा खजुराहो की मूर्ति कहने पर इतरा-इतरा जाती है। बाथरुम के केम्पटी फॉल में भी रुध जाती है। फिर कैंसर , कीमोथिरेपी से टूटती यही स्त्री नारीत्व के सिहासन से उतरती हुई अपनी देहयष्टि पर जिस पर वह बहुत गुमान करती थी , कैसे तो टूटती जाती है। यह टूटना , टूटने की इबारत को जुबां देना ही नवनीत की कहानियों की कैफ़ियत है। शिनाख्त है। मणियां और जख्म , किया जाता है सब को बाइज्जत बरी जैसी कहानियां बड़ी बारीक़ी से स्त्रियों के दुःख की तुरपाई करती मिलती हैं।

‘ लेकिन अम्मा , हम जाएं कैसे ? ‘ जैसे कातर संवादों और कथ्य में डूबी कहानी अपने विरुद्ध जैसे आंसुओं में ही डूब जाने के लिए नवनीत ने लिखी है :

‘ लेकिन तीन साल ही बीते थे कि इन बातों को याद करके हँसने और ठहाके लगाने का समय हमसे छिटक कर बहुत दूर जा खड़ा हुआ। तीन साल में हम दोनों जितना हँसे थे उसे आँसुओं के मोटे व्याज सहित वसूल करने के लिए समय हमारे दरवाजे पर आ डटा था।

सुदर्शन से मेरे भैया की, कार एक्सीडेंट में क्षत-विक्षत हो गई देह, जिस दिन घर पर लाई गई उसके अगले दिन मुझे सवेरे इन्स्टीट्यूट में छुट्टियाँ होने के कारण घर आना था। पहाड़ टूटना किसे कहते होंगे मैंने भाभी को देख कर जाना। मेरे पहुँचने से पहले, पोस्टमार्टम के बाद अस्पताल के सफेद कपड़े में सिल कर घर लाई गई भैया की देह ने भाभी को एकदम चुप कर दिया था। इससे पहले उन्हें रुलाने की सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं। उनके कानों में, ‘तुम विधवा हो गई हो’ का पिघलता सीसा उड़ेला गया, भैया की लाश के सामने खड़ा करके, ‘देखो, ये मर गए हैं की मिचें आँखों में झोंकी गई और शादी के अल्बम में दोनों की तस्वीरें दिखा- दिखा कर, ‘अब ये तुम्हें कभी नहीं मिलेंगे’ की लाठियाँ बरसाईं गईं लेकिन पत्थर की-सी बन गई भाभी ऐसे हर प्रहार पर बीच-बीच में भीतर से उठती हूक से छटपठा उठने सिवाय किसी भी प्रतिक्रिया से दूर ही बनीं रहीं। वह चीत्कार करके रोईं तब, जब मैं घर पहुँची। ‘अरे, ये देखो क्या हो गया’ कह कर मुझे देखते ही भाभी विलाप करती हुई पागलों की तरह मुझसे लिपट गई। ‘उनके बिना तो हम मर जाएँगे कहते हुए भैया की लाश पर हाथ पटक-पटक कर चूड़ियाँ तोड़ने से मैंने उन्हें नहीं रोका, भैया की देह से लिपट कर पछाड़ खाने में मैंने कोई बाधा नहीं दी। चुपचाप, पानी की झिलमिलाती दीवार के उस पार सौभाग्या को अभाग्या बनते देखती रही, सुख से भरे दिनों का दूर से मुँह चिढ़ाना सहती रही और पके हुए फोड़े का सारा मवाद निकल जाए इसके लिए भाभी के ऊपर भैया की यादों के नश्तर चलाने की बेरहमी करती रही। ‘

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प्रेम और संघर्ष नवनीत की कहानी के स्थाई भाव हैं। पर जाने क्यों नवनीत मिश्र की कहानियों की अंजुरी में आंसू बहुत हैं। फ़रियाद के स्वर कम , सितम उठाने और सहने के स्वर बहुत ज़्यादा। मौन स्वर। सुबह-सुबह जैसे हरसिंगार झरे और ओस में भीग जाए। भीग कर आंसू की कैफ़ियत बताए। लेकिन बनाने वाले इस हरसिंगार से भी कई रंग बना लेते हैं। ख़ास कर जुलाहे। नवनीत गोया वही जुलाहे हों। कबीर की तरह कहानी का तानाबाना बुनते-बुनते दुःख के धागे में लिपटी कहानी कह जाते हैं। कई-कई कहानी। स्त्री के दुःख की कहानी। कहानी की रुह में दुःख का रंग अनायास वह चटक करते चलते हैं कि सायास। आज तक मैं नहीं समझ पाया। क़ैदी कहानी में नवनीत ने हीरामन तोते के बहाने स्त्री को पिंजरे के क़ैदी का रुपक रचा है। स्त्री अपनी क़ैद को हीरामन की तरह देखती है। अपने को हीरामन की जगह रख कर देखने-समझने लगती है। एक दिन अचानक वह घर में हीरामन को पिंजरे से बाहर निकाल देती है। ताकि वह उड़ जाए , अपने आकाश में। गोया हीरामन के बहाने ख़ुद उड़ जाना चाहती हो ! लेकिन हीरामन तो उड़ा ही नहीं। पिंजरे में रहते-रहते उड़ना वह भूल गया है। स्त्री भी शायद इसी तरह पुरुष सत्ता के पिंजरे में क़ैद हो कर रह गई है। उड़ना चाह कर भी उड़ नहीं पाती। इस नाज़ुक बात को नवनीत अपनी कहानी में इतनी आहिस्ता से कहते हैं कि शायद हीरामन भी सुन-समझ नहीं पाता। निःशब्द रह जाता है। यह निःशब्दता ही नवनीत की कहानियों की ताक़त है। पर यह निःशब्दता ही मन में भारी शोर बन कर उपस्थित हो जाती है। किसी तेज़ बारिश की तरह मन में बरसती हुई। हीरामन उड़ता तो वह भी उड़ती। पर हीरामन को तो वह उड़ने के लिए पिंजरे से बाहर निकाल देती है , ख़ुद नहीं निकल पाती। न हीरामन उड़ पाता है , न स्त्री। दोनों ही छटपटा कर रह जाते हैं। अवश और लाचार। अपनी-अपनी क़ैद भुगतते हुए।

सिक्के का दूसरा पहलू भी कभी-कभार नवनीत के यहां दाखिल हो जाता है। जैसे बू तो उसे आई ही कहानी में यह पढ़िए :

“प्रेमिका अपने प्रेमी को ‘टेलिस्कोप’ से देखती है और दूर से आते खतरों से पहले ही आगाह हो जाती है। पत्नी अपने पति को ‘माइक्रोस्कोप’ से देखती है और उन छोटे खतरों को भी बड़ा करके देखती है जो ऊपर से यूँ नजर तक नहीं आते।” शोभन ने हँसते हुए कहा और उसे अपने पास समेट लिया ।

बू तो उसे आई ही कहानी की यह इबारत एक साथ जैसे बहुत कुछ कहती हुई कई सारे संकेत कर जाती है।

“पियार…?” भाभी के चेहरे पर व्यंग्य से भरी मुस्कान की छाया उतरी । मोमबत्ती का जलता धागा, आँच से पिघलकर बह निकले मोम के समानांतर लेटकर जलने लगा था। अब इसके बाद मेज की लकड़ी के जलने की बारी आने वाली थी। भाभी ने अँगूठे से दबाकर जलते धागे को बुझा दिया। हाथ को हाथ दिखाई न दे कमरे में ऐसा घुप अँधेरा छा गया।

“पियार? आदमी बहुत अधिक बुद्धिमान हो जाता है तो उसका पियार ओ किसान जइसा हो जाता है जो गोड़ने, जोतने, पाटा चलाने, मिट्टी को भुरभुरी करके खेत तैयार करने और बीज डाल देने भर को किसानी समझने लगता है…”

अँधेरे में कैसे देखता कि यह बात कहने के बाद भाभी ने मुँह पर धोती का पल्ला लगाया या नहीं। हाँ, कुर्सी खिसकाकर उनके उठने की आहट मैंने जरूर सुनी।

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इतना अंधेरा क्यों है कहानी के यह संवाद बताते हैं कि नवनीत की कहानियों की अंजुरी में सिर्फ़ आंसू ही नहीं , पारिवारिक संत्रास और उन से उपजी त्रासदी भी आर-पार दिखती है। स्त्री यहां भी केंद्र में आती है पर पिता जैसे गोद में बैठे किसी शिशु की तरह झांकने लगते हैं। छूटना जैसी कहानी में पिता-पुत्र की इबारत में पुत्र के कैरियर में पिता कैसे तो छूटता ही जाता है। छूटते जाने की यातना , विदा होने का भय भी मिलता है :

‘ नहीं-नहीं, तुम मन मत छोटा करो। मैं अमेरिका की उड़ान भरने वाले जहाज के रन-वे पर लेट नहीं जाऊँगा। मैं, एयरपोर्ट पर जाकर देखूँगा कि मेरे बेटू को मुझसे दूर लिये जा रहे जम्बोजेट के ऊपर जलती-बुझती लाल विजय पताकाएँ सचमुच कैसे आसमान में लहरा-लहराकर मुझे चिढ़ाएँगी, कि रोक लिया तुम्हारे प्यार ने? ये देखो, तुम्हारे बेटू को तुमसे इतनी दूर उड़ा ले जाने से मुझे कोई नहीं रोक सका। ‘

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टारगेट कहानी भी बाज़ार और नौकरी के बोझ से दबे युवाओं की यातना की तफ़सील बड़ी शिद्दत से बांचती मिलती है। पुत्र के पॉलिसी बेचने के टारगेट में जैसे पिता भी निरंतर पिसता रहता है। पिता ही क्यों , जैसे समूचा परिवार बंटू का टारगेट पूरा करने के लिए बैल की तरह जुत जाता है :

नौकरी शुरू हुए पाँच महीने हो चुके थे। अभी तक वह न कोई तीसरा एडवाइजर बना पाया था और न उसे कोई बिजनेस मिल सका था। हमेशा कुछ-कुछ बतियाने और हँसी-मजाक करने वाला बंटू चुप होता जा रहा था। सोमेश्वर बाबू बंटू को चिन्ता में डूबे देखते तो मन में कचोट-सी महसूस करने के बावजूद बंटू के सामने सामान्य बने रहते ।

‘देखो, मैं कोशिश करता हूँ। और सुनो, तुम्हारी भी तो तमाम सहेलियाँ हैं, उनको जरा ट्राई करो’ – सोमेश्वर बाबू ने एक रात खाना खाते समय पत्नी और बेटी से कहा ।

‘पाँच लाख का टारगेट है’- बंटू ने खाने की थाली एक ओर सरकाते हुए निराशा में भरकर कहा ।

‘अरे तो ठीक है, होगा पाँच लाख का टारगेट । तुम इतना परेशान क्यों होते हो?’ सोमेश्वर बाबू ने बंटू को हिम्मत बँधाते हुए कहा और खिसकाई गई थाली वापस बंटू के सामने वापस रखी।

नौकरी अकेले बंटू की थी लेकिन अगले दिन से ही घर के तीन और सदस्य बैंक की सेवा में लग गए। एडवाइजर भर्ती करने के अभियान में पूरा घर जुट गया। सोमेश्वर बाबू, उनकी पत्नी और उनकी बेटी ने अपने जानने वालों को घेरना शुरू किया। चिरौरी करके बताया कि इस समय इस परिवार को उनकी कितनी सख्त जरूरत है। शुरू में लोग आश्वासन देते, सोचकर बताने की बात कहते और फिर कन्नी काटने लगते। बंटू को जहाँ कहीं भी पॉलिसी मिलने की उम्मीद दीखती वह दौड़कर जाता और शाम को मुँह लटकाए वापस आ जाता। सबके अथक प्रयासों से दो एडवाइजर और बन गए थे। बंटू के पास अब कुल चार एडवाइजरों की पूँजी थी।

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देवेंद्र कुमार की कविता पंक्ति है :

याददाश्त के रुप में

जहां दिमागी चट्टानों के टूटने तक

कविता को अच्छी होने के लिए

उतना ही संघर्ष करना पड़ता है

जितना एक लड़की को औरत होने के लिए

तो नवनीत की कहानियां दिमागी चट्टानों को तोड़ कर अच्छी होने के लिए किसी लड़की के औरत होने जैसा ही संघर्ष करती हैं। नवनीत के यहां वैसे भी तोड़फोड़ बहुत है। कई बार वह अपनी ही कहानियों का सांचा भी तोड़ डालते हैं। उन के यहां फिर उसी जगह से के नंदलाल पुरोहित और श्रेया पुरोहित जैसे चरित्र भी उपस्थित हैं :

पहले श्रेया पुरोहित और नन्द लाल पुरोहित के बीच बातें ही बातें थीं जो रात-रातभर एक-दूसरे पर फिसलती हुई नयी-नयी राहें बनाती थीं। अब एक तो बीमारी का चिड़चिड़ापन और दूसरे अपने से बरती जा रही गोपनीयता से उपजे शक का नतीजा था कि कोई एक छोटी-सी भी बात दो कदम चलते ही बहस और झगड़े के गढ़े में गिरने लगी। चिकनी बाँह की जो कसी हुई खाल पहले चुटकी से पकड़ में नहीं आती थी अब उठाने पर बहुत देर तक अपनी जगह पर वापस जाने का नाम नहीं लेती।

श्रेया पुरोहित अधेड़ अवस्था में भी एक शानदार औरत थीं। एक ऐसी औरत जो भीड़ में खड़ी हो जाए तो सबसे अलग दिखाई दे। इस उम्र में भी उनको देख कर लगता था कि पहनती तो सभी हैं लेकिन झमकाती कोई-कोई ही हैं। श्रेया पुरोहित को नन्द लाल पुरोहित की अकूत धन-दौलत से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं था क्योंकि अब वह एक तरह की ऊब पैदा करने लगी थी। वो जान रही थीं कि सोने के पत्तर की रोटी कोई नहीं खाता।

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हतक कहानी में डाक्टर जोखू प्रसाद तिवारी का चरित्र भी नवनीत के यहां खदबदाते हुए मिलता है। किसी की हिप्पोक्रेसी को तार-तार करना नवनीत बख़ूबी जानते हैं। जैसे नश्तर चला देते हैं। हतक में अपनी श्रेष्ठता ग्रंथि में ऊभ-चूभ जोखू प्रसाद तिवारी को अपने को अंगरेज कहे जाने से भिनभिनाना भी हैरत में डालता है। क्यों कि वह ख़ुद को अंगरेजों से भी श्रेष्ठ स्कॉटिश मानते हैं :

तभी होटल के एक बेटर ने मेजबान के कान में फुसफुसाकर कुछ पूछा।

“जरा हम भी तो सुनें, क्या कह रहे हैं आप चुपके-चुपके?” हमेशा खिलंदड़े और खिले खिले मूड में रहनेवाले डॉ. जोखू प्रसाद ने बेटर से पूछा । “यह पूछ रहा है कि क्या साहब अँगरेज हैं?” मेजबान ने मुग्ध भाव से जोखू

प्रसाद की ओर देखते हुए बताया।

“अरे यार, तुमने तो मेरी इन्सल्ट कर दी, गाली दे दी तुमने मुझे।” डॉ. जोखू प्रसाद ने ‘ठक’ की आवाज के साथ गिलास मेज पर रखते हुए कहा । महफिल में सन्नाटा खिंच गया। लोग गम्भीर हो गये। वेटर सकपका गया। सभी लोगों को लगा कि एक भारतीय को अपने आपको अंगरेज कहे जाने से तकलीफ पहुँची है, उसने अपने आपको अपमानित महसूस किया है।

“नहीं, मेरे दोस्त, मैं अँगरेज नहीं हूँ, मैं स्कॉटिश हूँ।” जोखू प्रसाद, जे. पी., बीस बिस्वा की आँकवाले चट्टू के तिवारी, कनौजिया

बामन, डॉ. जोखू प्रसाद तिवारी ने वेटर को उसकी भूल सुधारते हुए बताया। और ऐसा करते समय उनके जरा-सा मुस्करा देने से चेहरे पर चढ़ गये गुस्से के मुखौटे पर दरार-सी पड़ती दिखाई दी, जिससे पता लगता था कि उन्होंने वेटर को उसके इस अपराध के लिए क्षमा कर दिया है।

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कैसे हो पार्टनर कहानी में भी नवनीत मिश्र हिप्पोक्रेसी की बखिया इस तुर्शी से उधेड़ते हैं कि पूछिए मत। गणेश प्रसाद से जिप्पी बन चले क्रांतिकारी हैं। घर में पूजा-पाठी हैं। बाहर क्रांतिकारी। आस्तिक-नास्तिक की भूमिका में जिप्पी की जद्दोजहद देखने लायक़ बनती है :

अगर साथियों को पता चल जाए कि पार्टनर पूजा-पाठ में फँस गया है तो सब मिल कर मेरे ऊपर टूट ही पड़ेंगे। मैंने पार्टी के लिए उसके सिद्धांतों के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया। घर, बूढ़ी माँ, उषा और अच्छे भले बन सकते कैरियर की तरफ से पीठ फेर लेने के बावजूद यह लाँछन लगते जरा देर नहीं लगेगी कि जिप्पी बाहर से कुछ और दिखता है भीतर से कुछ और है… ‘ऊं त्रयंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्… वैसे कौन जाने वो सब भी चुपके- चुपके करते ही हों पूजा… जैसे मैं कर रहा हूँ… कौन जाने क्या? कामरेड आदित्य ने लड़की की शादी की थी तो निमंत्रण पत्र के ऊपर गणपति विराजमान ही थे… ‘ऊं त्रयंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् … भीतर की इबारत भी ‘गजाननं भूतगणादिसेवितम् कपित्थ जम्बूफल चारुभक्षणम्’ से ही शुरू थी फिर अगर मैं अपने संस्कारों को पकड़े रह कर पूजा कर रहा हूँ तो कौन सा गुनाह कर रहा हूँ… ॐ त्र्यंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्… नहीं, मेरे पूजा करने की बात पता न चले वही अच्छा है।

नवनीत मिश्र जैसे जिप्पी की हिप्पोक्रेसी की कई फांक कर देना चाहते हैं। ऐसे जैसे भाला लग जाए :

अभी माँ की स्तुति के मन्त्र की कुछ आवृतियाँ शेष थीं और मुँह में आचमन का जल भरा था। उन्होंने जल मुँह में भरे-भरे कान के पास तर्जनी को गोल-गोल घुमाकर जनेऊ चढ़ाने का संकेत करते हुए माँ को समझाना चाहा कि वह फोन करने वाले को बता दे कि जिप्पी शौचालय में है। एकदम अलग संस्कारों में पलकर पली-बढ़ी और अब बूढ़ी हो चुकी माँ तो सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि जिप्पी पूजा करने के स्थान पर शौचालय भी ला सकते हैं। उन्होंने तो यही समझा कि जिप्पी कान के पास गोल-गोल अँगुली घुमाकर यह कहने को कह रहे हैं कि फोन करने वाला जरा देर में फिर फोन घुमा ले।

‘जिप्पी भैया पूजा कइ रहे हैं। को बोलि रहा है? पूजा खतमै होए वाली है भइया जरा देर बाद फिर फोन कइ लियो’- जिप्पी ने माँ को कहते सुना तो उनके तन-बदन में आग लग गयी। आचमन के लिए मुँह में भरा जल पान की पीक की तरह पिच्च से एक तरफ थूका और दाँत पीसते हुए गुस्से में भरकर सोचा- औरत की जात । इशारा समझने की अकल होती तो औरत क्यों होती।

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सच के सिवा सब कुछ जैसा उपन्यास लिखने वाले नवनीत मिश्र ने उस मकान पर छत नहीं थी कहानी भले लिखी है पर उन की कहानियों की छत बेमिसाल है। उन की इस छत को छूना आसान नहीं है किसी कहानीकार के लिए :

“मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,” उसने कहा और कंगनवाला उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया।

एकाएक जैसे ऋतु परिवर्तन हो गया हो या जैसे सँभलने का मौका दिये बगैर किसी ने पीछे से औचक दबोच लिया हो। एक छोटा-सा वाक्य था जो सारी दिशाओं से लौट-लौटकर उसके कानों में बजने लगा। घटित क्षण की साक्षी के रूप में खड़ी दीवारें उसी एक वाक्य को दोहराती – सी लगने लगीं। उसकी हँसी थम गयी और चेहरे पर तॉंबई-सा कुछ उतर आया।

“अब आये हो। इतने बरस जब मैं तपते रेगिस्तान में अकेली नंगे पाँव चल रही थी, तब कहाँ थे?” उसने कंगन वाला अपना हाथ उसके हाथों में ही रहने दिया। “क्यों, इस आने को आना नहीं मानोगी ?”

“अब क्या?”

“क्यों?” उसने उसकी अँगुली में पड़ी अँगूठी को घुमाते हुए पूछा । “समय बीत गया,” उसने अपना सिर उसके सामने झुकाते हुए कहा । “प्रेम करने का समय तो हमेशा आगे खड़ा प्रतीक्षा करता है,” उसका वाक्य अधूरा छूट गया।

बाहर सड़क पर क्रिकेट शुरू हो गया था। बैट से चोट खायी गेंद आकर चारदीवारी के अन्दर गिरी और एक-दो टप्पे खाने के बाद झाड़ियों में गुम हो गयी। गेंद के गिरने की आवाज उन दोनों ने भी सुनी। अभी गेंद उठाने कोई बच्चा आएगा, सोचकर दोनों अलग हटकर खड़े हो गये। एक बच्चा आया और गेंद खोजकर निकाल ले गया।

‘बच्चों के जाते ही उसने उसे बाँहों में जकड़ लिया। उसके कोट में नैथिलीन की हल्की-सी गन्ध थी। उसका ऊष्म स्पर्श उसे भला लगा। उसने अपनी एक हथेली पर उसका चेहरा उठाया। उसकी मुँदी हुई पलकें प्रतीक्षा करती-सी जान पड़ीं। उसने अपने होठ, उसके होठों पर रखे और एक क्षण जैसे स्वीकृति के स्पन्दन की प्रतीक्षा-सी की….

“ये किस ऋतु में आये तुम मेरे आँगन!” उसने सोचते हुए न तो अपना चेहरा या और न प्रत्युत्तर में उसे चूमा। क्षण ऐसे ही बाँधे रखा।

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झूठी-सच्ची हथेलियां , मैंने कुछ नहीं देखा जैसी नवनीत की कहानियां कहीं गहरे तक धंस जाती हैं। सगे-संबंधी कहानी तो जैसे तोड़ ही डालती है। एक बेरोजगार नौकरी के संघर्ष के साथ ही ट्रेन पकड़ने की जद्दोजहद से जान लड़ा देने की हद तक चला जाता है , क्यों कि उस के पास और पैसे नहीं हैं :

मुझे कुछ भी करके ट्रेन पकड़नी ही थी और वह भी प्लेटफार्म खत्म होने से पहले क्योंकि एक तो गिट्टियों पर दौड़ना मुश्किल हो जाएगा दूसरे प्लेटफार्म से बाहर निकलने के बाद बोगी का दरवाजा मेरी पहुंच से बहुत ऊंचा हो जाने वाला था। मैं जितनी तेज दौड़ सकता था दौड़ रहा था। ट्रेन की रफ्तार भी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। एक जगह ठोकर भी लगी, मैं गिरने से बच गया और दौड़ते हुए आखिर एक बोगी तक पहुंच ही गया।

अब रफ्तार पकड़ने लगी ट्रेन के पहियों और उसका पीछा करते मेरे टूट रहे पैरों के बीच होड़ शुरू हो गई कि कौन किसको हराएगा? अपने भीतर की सारी ऊर्जा एकत्र करके मैंने अपना अन्तिम प्रयास किया

और किसी तरह होलडॉल और अटैची डिब्बे के भीतर ठेलने में सफल हो गया। सामान बोगी के भीतर जा चुका था और अब तो मुझे डिब्बे में किसी भी तरह घुसना ही था। गाड़ी प्लेटफार्म से बाहर निकलने को ही थी जब मैंने डिब्बे में चढ़ने के लिए डंडा पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह ठंडा लोहा मेरे हाथ से फिसल गया। मेरा एक पैर फुटबोर्ड पर था, दूसरा हवा में और चिकना, ठंडा, स्टील का रॉड मेरे हाथ से फिसल चुका था। तभी पलक झपकते मिट्टी से गंदा, हड्डियों के ढांचे जैसा एक बदसूरत हाथ झपटते हुए मेरी तरफ बढ़ा। उस हाथ ने मजबूती से मेरी बांह को पकड़कर अपनी ओर खींचा और सहारा देकर इस लायक बना दिया कि मैं सांस वापस आने तक पांवदान पर खड़ा रह सकूं। यह सब सेकेण्ड के सौवें हिस्से में जिस तरह से हो गया था, वह अविश्वसनीय था। जब मेरा हाथ डंडे को पकड़ने में असफल हो गया तब मैं उस एक क्षण में सामान बोगी में रह जाने या गाड़ी छूट जाने के बारे में नहीं सोच रहा था। मैं सिर्फ इतना

सोच रहा था कि मैं गिट्टियों पर गिरू, कहीं गाड़ी के पहिये के नीचे न चला जाऊं हालांकि यह बात मैं मरने से बच जाने के बाद सोच रहा हूं कि मैंने ऐसा सोचा होगा। उन क्षणों में मेरे मन में ऐसा कोई विचार आया भी होगा मुझे इसमें सन्देह है।

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‘तुमरी महतारी रोटी बनावै से पहिले जरूर चंदिया सेंकिन हुइहैं-‘ उस हड्डहे हाथ वाले ने कहा जो मैंने अपने होलडॉल पर बैठकर हांफते हुए सुना ।

उसकी बात से मुझे अचानक अम्मा की याद हो आयी । बचपन में मैंने अपनी मां को रोटियां सेंकना शुरू करने से पहले अट्ठन्नी के सिक्के के बराबर आकार की आटे की पतली सी रोटी सेंकते देखा था जिसे वह चंदिया कहती थीं। बेलने के बाद के बाद वह उस चंदिया को आग पर जरा सा सेंकती थीं और उस पर थोड़ा सा घी लगातीं थीं। उसके बाद वह चंदिया को चूल्हे की आग में डाल देती थीं। एक बार पूछने पर उन्होंने बताया कि इस चंदिया से आग को भोग लगाया जाता है। यह चंदिया परिवार की रक्षा करती है।

मैंने उसकी चंदिया वाली बात का कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ सहमति जताते हुए सिर हिला दिया। मेरी सांस तब तक लौटी नहीं थी और मैं तब तक उस दहशत से उबर नहीं पाया था, जिसका थोड़ी ही देर पहले मैंने सामना किया था। कुछ भी और बोलने से पहले मैं उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहता था। बोगी में बैठे बहुत सारे लोगों ने वह सब देखा था और उनमें से कोई मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए मुझे सांत्वना देते हुए सहज करने की कोशिश कर रहा था और कोई इस बात के लिए प्रभु को धन्यवाद दे रहा था कि एक अनहोनी टल गई ।

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नवनीत मिश्र की एक कहानी है , कुछ भी नहीं। सत्तर के दशक में पढ़ी थी। इस की नवयौवना नायिका छत पर टहल-टहल कर संस्कृत के रुप रटा करती है , साथ ही दूसरी छत पर उपस्थित अपने प्रियतम से भी आंखें चार करती रहती है। ठीक इसी तरह नवनीत की कहानियां मन की छत पर टहलती हुई पाठकों के बीच गश्त करती रहती हैं। अपने भिन्न-भिन्न रुप और अविकल पाठ में आकाशवाणी सी करती हुई। वाणी तो उन की है ही , अविस्मरणीय। रेडियो नवनीत मिश्र की ज़िंदगी है। पहला प्यार है। रेडियो के लिए बहुत कुछ छोड़ आए नवनीत वाणी-आकाशवाणी जैसी अविस्मरणीय कृति के रचनाकार भी हैं। आकाशवाणी की नई-पुरानी तमाम कहानियों को जैसे जीवंत कर के नवनीत ने अनूठा काम किया है। ख़ास कर निराला के कुछ रेडियो के क़िस्से तो दुर्लभ हैं। आकाशवाणी के इतने सारे संस्मरण और जानकारियां हैं , सीख हैं कि पढ़ कर आदमी समृद्ध हो जाता है।

नवनीत मिश्र अपने पिता से बहुत प्रभावित मिलते हैं। ख़ास कर बचपन में घर आए किसी आगंतुक से , आप का शुभनाम पूछने का सिलसिला जब वह बताते हैं तो मन रोमांचित हो जाता है। पिता लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी के आचार्य थे। पर उन का असमय निधन हो जाने के बाद छोटे होने के बावजूद घर की सारी ज़िम्मेदारियां ओढ़ लीं। कम लोग होते हैं जो बड़े भाई की पढ़ाई की फीस और खर्च भी उठाएं। पर नवनीत मिश्र ने छोटे-छोटे काम कर के भी बड़े और छोटे भाई को पढ़ाया। अपनी पढ़ाई भी पूरी की। यह नवनीत ही हैं जो सारी कमाई लुटा कर कैंसर के गाल में समाई पत्नी को मौत के मुंह से निकाल लाते हैं। नवनीत तब आकाशवाणी रामपुर में उदघोषक हुआ करते थे। एक बार आकाशवाणी पर बोलते-बोलते वह बेहोश हो कर गिर गए। आकाशवाणी का प्रसारण कुछ देर के लिए सही , थम गया। भाग कर लोग स्टूडियो में गए तो नवनीत बेहोश पड़े थे। अस्पताल ले जाया गया। पता चला कि नवनीत मिश्र ने तीन-चार दिन से कुछ खाया ही नहीं था। पानी पी-पी कर दिन काट रहे थे। तब वह वहां कैजुअल अनाउंसर थे। समय पर पैसा नहीं मिला। और उन्हों ने किसी से पैसा मांगा नहीं। एक समय जब चकबंदी का ज़माना था तब नवनीत को चकबंदी विभाग में नौकरी मिल गई। ज़िंदगी आराम से गुज़र रही थी। पर मन में रेडियो का सपना था। ज्यों अवसर मिला , चकबंदी की नौकरी को लात मार कर आकाशवाणी पहुंच गए। रामपुर , लखनऊ और गोरखपुर के आकशवाणी केंद्रों में स्टार हुए। आवाज़ के बादशाह के रुप में ख़ूब ख्याति बटोरी। लेकिन नवनीत मिश्र ने आप का शुभ नाम ? की अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी कभी। स्टार तो वह हिंदी कहानी के भी हैं पर यह और बात है कि हिंदी आलोचना सूचीबद्ध, तयशुदा एवं ‘उपयोगी’ कहानीकारों में व्यस्त हैं।

साभार
http://sarokarnama.blogspot.com/2023/03/blog-post.html
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