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नेताजी ने अकेले वो कर दिखाया जो कई संगठन मिल कर भी नहीं कर सकते थे

23 जनवरी पराक्रम दिवस पर विशेष

भारत के महान सपूत महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था। नेता जी आजीवन स्वाधीनता संघर्ष ,युद्ध तथा सैन्य संगठन में रत रहे। सुभाष बाबू के जीवन पर स्वामी विवेकानंद, उनके गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा महर्षि अरविंद के गहन दर्शन और उच्च भावना का प्रभाव था । नेता जी ऋषि अरविंद की पत्रिका आर्य को बहुत ही लगाव से पढ़ते थे। पिताजी की इच्छा का निर्वाहन करते हुए उन्होनें उन दिनों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परीक्षा आईसीएस में बैठने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा मात्र आठ माह में ही परीक्षा उत्तीर्ण कर ली किंतु राष्ट्रीय भाव के चलते उन्होनें आईसीएस की नौकरी का परित्याग करके एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। तब तक आइसीएस के इतिहास में किसी भारतीय ने ऐसा नहीं किया था।

युवा सुभाष 16 जुलाई 1921 को बम्बई में महात्मा गांधी से उनके आवास पर मिले। सुभाष सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर रहे थे और उस नेता से मिलना चाहते थे जिसने सम्पूर्ण देश में अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था। गांधी जी ने सुभाष को कलकत्ता पहुंचकर देशबंधु चितरंजन दास से मिलने का सुझाव दिया। जिसे उन्होनें स्वीकार कर लिया। उस समय देश में गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग की लहर थी तथा अंग्रेजी वस्त्रों का बहिष्कार, विधानसभा, अदालतों एवं शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार भी इसमें शामिल था।

सुभाष ने इस युद्ध में कूदने का निश्चय किया और असहयोग का का नेतृत्व करने लगे । अंग्रेज अधिकारी आंदोलन के स्वरूप को देखकर घबरा गये। उन्होंने सुभाष को साथियों सहित 10 दिसंबर 1921 को संध्या समय गिरफ्तार कर लिया और जेल भेज दिया । एक वर्ष बाद उन्हें जेल से मुक्ति मिली। किन्तु जल्द ही क्रांतिकारी षड़यंत्र का आरोप लगाकर अंग्रेजों ने सुभाष को मांडले जेल भेज दिया। दो वर्ष पश्चात सुभाष को मांडले से कलकत्ता लाया गया जहां उन्हें स्वास्थ्य के आधार पर मुक्त कर दिया गया। सुभाष ने कांग्रेस का प्रथम नेतृत्व 30 वर्ष की आयु में किया जब वे बंगाल प्रांतीय कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

जनवरी 1938 को जब वे विदेश यात्रा पर थे तब उन्हें अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। जो देश की ओर से किसी भारतीय को दिया जाने वाला उच्चतम पद था। उस समय वे मात्र 41 वर्ष के थे। कांग्रेस का नेतृत्व ग्रहण करने पर भारतीय इतिहास एवं सुभाष के जीवन में नया मोड़ आया। गांधीजी ने सीतारमैया को चाहते थे अतः गांधीजी की इच्छा को ध्यान में रखते हुए सुभाष ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और फारवर्ड ब्लाक नामक अग्रगामी दल की स्थापना की।

सुभाष हिंदू – मुस्लिम एकता की समस्या पर जिन्ना के साथ बातचीत करके वीर सावरकर के सदन पहुंच गये। सुभाष का वीर सावरकर के घर पहुंचना एक ऐतिहासिक घटना थी। अभिनव भारत में इस वृतांत का वर्णन किया है। जिसमें उन्होनें सुभाष को सषस्त्र संघर्ष के नेतृत्व की कमान को संभालने के विचार से अवगत कराया है। सावरकर के विचारों को ध्यानपूर्वक ग्रहण करने के बाद दो मास की अनिवर्चनीय कठिनाइयों एवं गोपनीयता दुविधा, चिंता और शारीरिक कष्टों को झेलते हुए विभिन्न रास्ते पार करते हुए 1941 में अप्रैल माह में मास्को होते हुए बर्लिन पहुंचे। नौ माह बाद जर्मनी रेडियो से उन्होनें भारतीयों को संबोधित किया तब यह रहस्य खुला कि वे भारत से काफी दूर पहुंच चुके है। उस समय भारत एवं जर्मनी के मध्य उच्चस्तरीय संबंध स्थापित हो चुके थे। जर्मनी ने सुभाष को अंग्रेजों से लड़ने के लिये सभी प्रकार की गतिविधियों को चलाने एवं उनकी सहायता करने की छूट दे दी थी।

सुभाष बोस ने जर्मनी पहुंचते ही स्वातंत्रय योद्धाओं की परिषद के सहयोग एवं रास बिहारी बोस की अध्यक्षता से आजाद हिंद सरकार गठित की जिसे जापान, जर्मनी, ब्रहम्देष, फिलीपिंस, आइरिश रिपब्लिक, मंचूरिया तथा इटली ने सहायता दी। अब भारत की मुक्ति के लिये सैनिक अभ्यास की तैयारी शुरू हो गयी। फरवरी 1944 में भारत और जापान ने संयुक्त अभियान बर्मा के जंगलों में प्रारम्भ कर दिया । अनेक दुर्गम और जोखिमपूर्ण पड़ावों को पार करते हुए आजाद हिंद फौज ने मार्च में भारतीय सीमा में प्रवेश कर लिया। किंतु उन्हें वापस लौटना पड़ा। नेताजी ने अथक परिश्रम करके सैनिक कार्यवाही की बारीकियों को समझा ।

अभियान की असफलता के पश्चात सैनिकों का मनाबेल बढ़ाने के लिये भारतीयों का विशेष ध्यान रखना पड़ता था। 15 अगस्त 1945 को अमेरिका द्वारा हिरोशिमा एवं नागासकी में परमाणु बम गिराये जाने के बाद जापान की पराजय का समाचार प्राप्त हुआ। अतः नेताजी एवं उनके मंत्रिमंडल में एकमत होकर यह निश्चय किया और अगले दिन प्रातः सिंगापुर, बैंकाक होते हुए रूस अधिकृत क्षेत्र मंचूरिया पहुंच गये। दिन में उन्होनें कर्नल स्ट्रेसी को को बुलाया और स्पष्ट निर्देश दिये कि वे सिंगापुर में समुद्र के किनारे आजाद हिंद फौज स्मारक का निर्माण शीघ्रता से प्रारम्भ करें।

16 अगस्त का प्रातःकाल होने वाला था। नेताजी उठे और शीघ्रता से अपना कुछ निजी सामान और वस्त्रों को संभाला और उस यात्रा के लिये तैयार हुए जिसे वे अज्ञात लक्ष्य की ओर अभियान कह रहे थे। 17 अगस्त 1945 को प्रातः नेताजी बैंकांक हवाई अडडे के लिये लोगों से विदाई लेकर चले। 22 अगस्त 1945 को टोक्यो रेडियो से हुए प्रसारण में फारमोसा द्वीप में हुई वायुयान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु का समाचार सुनकर सम्पूर्ण विश्व स्तब्ध रह गया। लेकिन उनकी यह मौत अभी भी रहस्य की चादरों पर लिपटी हुई है।

आजाद हिंद फौज की अमर कहानी

भारत के स्वाधीनता संग्राम में आजाद हिंद फौज के योगदान की अमर कहानी अभी लिखी जानी शेष है। अंग्रेजी शासनकाल में 1857 के जिस युद्ध को सिपाही विद्रोह कहा जाता था आज इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है।1942 में सुभाष चन्द्र बोस ने आजाहिंद फौज गठित करके पुनः युद्ध घोष बजाया था। इस दूसरे युद्ध को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। 1857 के युद्ध में विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों ने अत्यंत कठोर दमन चक्र चलाया था। हजारें लोगों को फांसी दी गयी थी। संगठित सेना के अभाव में युवकों ने छोटे मोटे दल बनाकर अंग्रेजों को दण्डित करना प्रारम्भ किया। शस्त्र प्राप्त करने के लिये कई युवक विदेशों में गये। क्रांतिकारी बने। यह श्रृंखला चलती रही। क्रांतिकारियों के बलिदान से स्वाधीनता संग्राम की ज्योति निरंतर जलती रही ।

1939 में यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में यूरोपीय देशों के बीच युद्ध छिड़ गया। जिसमें अंग्रेजों की एक के बाद एक हार होने लगी थी। इस युद्ध में शामिल अनेक भरतीय सैनिक बंदी बनाये गये । तब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने बंदी सैनिकों से सम्पर्क करके स्वाधीनता संग्राम हेतु एक सेना का गठन करने का प्रयास करने का निर्णय लिया।

इन दिनों सुभाष अपने घर में ही नज़रबंद थे। 1941 में एक दिन अंग्रेजों को चकमा देकर घर से निकल गये और कठिन मार्ग तय करते हुये बर्लिन जा पहुचे। वहां जर्मनी और इटली की सहायता से उन्होनें भारतीय युद्ध बंदियों से सम्पर्क किया। देखते ही देखते उन्होनें एक सेना खड़ी कर ली। लेकिन जर्मनी और रूस के बीच युद्ध छिड़ जाने से यहां पर उनकी प्रारम्भिक योजना फेल हो गयी। कुछ समय बाद विभिन्न अवरोधो और घटनाओं के बीच जून 1943 में वे पूर्वी एशिया पहुंचे। सबसे पहले वह टौक्यो गये। वहां जापानी प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने उनकी सभी शर्तों को मान लिया और जापानी संसद में भारत की स्वतंत्रता के लिये पूर्ण और बिना शर्तसमर्थन की घोषणा की।

21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के अस्थायी सरकार का औपचारिक शपथ ग्रहण हुआ। अब आजाद हिंद फौज ने युद्ध के लिये प्रयास प्रारम्भ कर दिया। नयी सेना में महिलाओं की रानी लक्ष्मीबाई रेजींमेंट तो थी ही किशोरों के लिये आजाद हिंद बाल सेना की शाखा भी खोली गयी थी। उनका नियमित प्रशिक्षण प्रारम्भ हो गया था। इस नयी सेना में लोगों का प्रवेश नेताजी की अनुमति से ही होता था। इस नयी फौज का नारा ”जय हिंद“ सम्पूर्ण भारत का नारा हो गया था।

23- 24 अक्टूबर की रात्रि को आजाद हिंद सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। सेना को सिंगापुर से रंगून भेजा जाने लगा। रंगून में सेना का सर्वोच्च मुख्यालय स्थापित किया गया। अस्थायी सरकार का मुख्यालय भी रंगून में स्थपित किया गया। जनवरी 1944 तक प्रथम डिवीजन रंगून पहुंच गयी। रानी झांसी रेजीमेंट और बाल सेना की शाखा में गुप्तचर सेवा के सैनिक भी थे। नेताजी ने इस कार्यदल का पुर्नगठन करके इसका संचालन अपने ही आधीन रखा। इसके सैनिक शत्रु की सेना व क्षेत्रों में घुसकर काम करते थे। ब्रिटिष सरकार इन्हें शत्रु का एजेंट कहती थी। जब यह सैनिक पकड़ लिये जाते थे तब इन्हें कठोर यातना सहनी पड़ती थी। इन सैनिकों के बलिदान की पूरी कहानी का पता लगाना बेहद कठिन काम है। ब्रिटिश सरकार और उनके सैनिकों में भय पैदा करने का काम इन्होनें बखूबी किया।आजाद हिंद फौज के सैनिक गुरिल्ला युद्ध में भी निपुण हो गये थे जिसके कारण भी अंग्रेज सैनिकों में भय व्याप्त हो गया था। इन सभी दबावों का परिणाम था कि अंततः अंग्रेजों को भारत को स्वतंत्र करना ही पड़ा।

आजाद हिंद फौज को यदि महात्मा गांधी और तत्कालीन कांग्रेस पार्टी का भरपूर साथ मिला होता तो भारत को आजादी बहुत समय पहले ही मिल गयी होती। कर्नल मलिक के नेतृत्व में आजाद हिंद के सैनिक पूरी वीरता और दमखम के साथ युद्ध करते हुए आगे बढ़ रहे थे। 18 अप्रैल 1944 में मोईरंग में अपना झंडा गाड़ दिया। आजाद हिंद की फौज ने इम्फाल को चारों ओर से घेर लिया था। यहां पर ब्रिटिश सेना आत्मसर्पण करने वाली थी लेकिन उन्हें तभी खबर मिली की कि यहां पर आजाद हिंद फौज के पास रसद समाप्त हो चुकी है और हथियारों की भी कमी हो गयी है तभी ब्रिटिश सेना के लिए नयी कुमुक भेजी गयी।अचानक बढ़े हमले के कारण आजाद हिंद फौज के अनैकों सैनिक मारे गये। बहुत से सैनिक बंदी बना लिये गये। स्वतंत्रता के लिए के इतिहास में आजाद हिंद फौज एक सुनहरा अध्याय बन गयी।

युद्ध समाप्ति होने के बाद जब आजाद हिंद फौज की पूरी कहानी देशवासियों को प्राप्त हुयी तो उसके सैनिकों के प्रति श्रद्धा और सम्मान के प्रति लहर दौड़ गयी। सारा देश जयहिंद और दिल्ली चलो के नारों से गूंज उठा था। ब्रिटिश भारतीय सेना के अफसर भी इससे अछूते नहीं रहे। वे आजाद हिंद फौज के सैनिकों को दण्डित करने का विरोध करने लग गये।अंग्रेज जान गये कि अब वे ब्रिटिश भारतीय सेना के बल पर भारत पर अधिक समय तक राज नहीं कर सकेंगे।

उस समय देश में नेताजी और आजाद हिंद फौज के प्रति सहानुभूति की व्यापक लहर दौड़ रही थी। दमनचक्र के बावजूद देशवासियों का जोश, उत्साह व उमंग देखते ही बन रहा था। ब्रिटिश सरकार डर गयी थी। आजाद हिंद फौज ने जिस प्रकार से देशका वातावरण बनाया उससे अंग्रेजों को साफ पता चल गया था कि अब यहां अधिक समय तक रहा नहीं जा सकता आजाद हिंद फौज का देश की आजादी में अप्रतिम योगदान है जिसे भुलाया नही जा सकता।

देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सम्मान देने के लिए वर्तमान केंद्र सरकार ने एक बड़ा कदम उठाते हुए गणतंत्र दिवस समारोह का शुभारंभ 23 जनवरी से ही करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। यह एक क्रांतिकारी कदम है और इससे देशवासियों को नेता जी के विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिलेगा।

प्रेषकः- मृत्युंजय दीक्षित

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