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भगवान जगन्नाथ का नवीन स्वरूपः एक अवलोकन

जिस प्रकार पुराने वस्त्रों का त्यागकर मानव नया वस्त्र धारण करता है ठीक उसी प्रकार भगवान जगन्नाथ चतुर्धा देवविग्रह  संग अपने पुराने देव विग्रह का त्यागकर नये देव विग्रह को अपनाते हैं जिसे नवकलेवर कहा जाता है।ऐसी मान्यता है कि जिस वर्ष जोडा आषाढ पडता है(मलमास) उसी वर्ष जगन्नाथ भगवान का पुरी धाम में नवकलेवर होता है। कहते हैं कि प्राचीन काल में दारु(काष्ठ) की पूजा का प्रचलन सुदीर्घ काल से रहा है  क्योंकि उस वक्त  मनुष्य को उसकी आवश्यकता की अधिकांश चींजें दारु(काष्ठ) से ही मिल जातीं थीं।पेड-पौधों से ही मिल जातीं थीं।सबसे रोचक बात यह है कि जगन्नाथ संस्कृति में दारु  का अर्थ –पवित्र नीम की लकडी से है जिससे प्रति मलमास अर्थात् जिस वर्ष दो आषाढ पडता है उस साल पुरी के श्रीमंदिर(जगन्नाथ मंदिर) के रत्नसिंहासन पर विराजमान चतुर्धा देवविग्रहों का नवकलेवर होता है। पुराने चतुर्धा देवविग्रहों को हटाकर नये दारु देवविग्रहों से तैयार चतुर्धा देवविग्रहों को पूरे विधि-विधान से साथ रत्नसिंहासन पर आरुढ कराया जाता है। एक बात का विशेष खयाल रखा जाता है कि पुराने चतुर्धा देवविग्रहों के उनके अपने-अपने ब्रह्मतत्व को निकालकर उनके ही नये दारुविग्रहों में बड़े ही गोपनीय विधि से डाल दिया जाता है,जिसे ही नवकलेवर कहते हैं। इसीलिए यह सच है  कि-

दारुब्रह्म जगन्नाथो भगवान पुरुषोत्तमे।
क्षेत्रे नीलाचले क्षारार्णवतीरे विराजते।।
महाविभूतिमान् राज्यमौत्कलं पालयन्।
व्यंजयन् निज महात्म्यं सदा सेवकवत्सलः।।

स्कंदपुराण के श्लोक सं.28 से लेकर श्लोक सं.39 तक में पुरुषोत्तम महात्म्य का स्पष्ट उल्लेख मिलता है जिसमें भगवान जगन्नाथ को कलियुग के एकमात्र पूर्ण दारुब्रह्म के रुप वर्णन है।ऋग्वेद में महोदधि के तट पर अपुरुषं दारु के प्राप्त होने की जानकारी मिलती है जिससे विष्णु भक्त अवंती नरेश इन्द्रद्युम्न ने चतुर्धा देवविग्रहों का पहली बार पुरी धाम के गुण्डीचा मंदिर में निर्माण कराया था। स्कंदपुराण में यह भी वर्णित है कि पहले शबर राजा विश्वावसु द्वारा नीलमाधव के रुप में भगवान जगन्नाथ के पूजे जाने का उल्लेख है। कालांतर में वह नीलमाधव मूर्ति जब अन्तर्ध्यान हो गई तबसे दारुविग्रह के रुप में चतुर्धा देवविग्रहः जगन्नाथ,बलभद्र,सुभद्रा और सुदर्शन के दारु(पवित्र नीम काष्ठ की लकडी) से निर्माण की जानकारी मिलती है।

भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर की एक शास्त्रीय और सुदीर्घ परम्परा रही है। मान्य परम्परानुसार श्रीमंदिर का भविष्यवक्ता खुरी नाहक सबसे पहले यह जानकारी देता है कि जोडा आषाढ कब पडेगा। उसके उपरांत पुरी के गजपति महाराजा तथा भगवान जगन्नाथ के प्रथम सेवक श्री दिव्य सिंहदेव जी पुरी स्थित विभिन्न मठों के प्रतिनिधियों एवं श्रीमंदिर के मुख्य सेवायतों को बुलाकर उनसे विचार-विमर्श करते हैं। उसके उपरांत नवकलेवर के लिए पवित्र दारुसंग्रह हेतु तिथियां निर्धारित कीं जातीं हैं। जैसेःगत 2015 नवकलेवर के समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष के 10वें दिन अर्थात् 29मार्च,2015 को दोपहर में श्रीमंदिर में पूजा के उपरांत तीन आज्ञामाल लाल रंग के धागे में गुंथा था और जिनके मध्य भाग में निर्माल्या बंधा था उन्हें पति महापात्र दइतापतियों को दिए। सुदर्शन जी का आज्ञामाल  वे स्वयं अपने पास रख लिए।

श्रीमंदिर के भीतरछु महापात्र के सिर पर परम्परानुसार लाल साडी बंधी थी जिसकी लंबाई चार फीट थी जबकि पति महापात्र के सिर पर बंधी साडी थोडी बड़ी थी। उसके उपरांत यह छोटा-सा जुलूस पुरी के गजपति महाराजा के पास गया जहां गजपति महाराजा ने इनकी मंगलमय वनयज्ञ की कामना स्वरुप अपनी ओर से पान-सुपारी प्रदान किये।गौरतलब है कि 2015 के नवकलेवर के लिए वनयज्ञ यात्रा 29मार्च,2015 को आरंभ हुई तथा 22मई,2015 को संपन्न हुई।उस दौरान नवयज्ञ यात्रा दल  सबसे पहले काकटपुर मां मंगला देवी के दर्शन किया। वहां के देउली मठ में जो पवित्र प्राची नदी तट पर है,वे वहां ठहरे। देवी मंगला उनसे प्रसन्न होकर उन्हें देवविग्रहों के दारु-संग्रह हेतु निर्देश दीं।गौरतलब है कि नवकलेवर प्रति जोडा आषाढ कम से कम 8वर्ष,11वर्ष और अधिक से अधिक 19 वर्ष के अंतराल में पडता है उसी वर्ष ही भगवान जगन्नाथ का नवकलेवर होता है।कहते हैं कि पुरी धाम में जिस पवित्र दारु(लकडी) से नवकलेवर देवविग्रह तैयार होता है वह पवित्र नीम की लकडी का होता है।
यह भी ज्ञातव्य हो कि प्रतिवर्ष आषाढ शुक्ल द्वितीया को अनुष्ठित होनेवाली भगवान जगन्नाथ विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा की तरह ही उनके नवकलेवर वर्ष की रथयात्रा होती है लेकिन उस दौरान देवस्नान पूर्णिमा के दिन चतुर्धा देवविग्रहों के महास्नान के उपरांत जब उन्हें उनके बीमार कक्ष में रखा जाता है तो कुल 45 दिनों तक जबकि प्रतिवर्ष रथयात्रा के दौरान देवस्नान पूर्णिमा के दिन महास्नान के उपरांत देवविग्रहों को मात्र 15 दिनों तक ही उनके बीमारकक्ष में रखकर उनका आर्युर्वेदसम्मत उपचार होता है। 2015 वर्ष भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर का वर्ष था इसीलिए उस साल की देवस्नान पूर्णिमा 02जून,2015 को थी जबकि नवकलेवर रथयात्रा 18जुलाई,2015 को थी।इस प्रसंग में सबसे रोचक बात यह है कि भगवान जगन्नाथ का पूरा जीवन एक साधारण मानव की तरह है न कि किसी देवता की तरह और न ही संसार के स्वामी की तरह। वे यात्रा(पुरी में यात्रा को उत्सव कहा जाता है) प्रिय हैं।भोजन प्रिय हैं(कुल 56प्रकार के भोग वे प्रतिदिन ग्रहण करते हैं।वे वस्त्र प्रिय हैं(प्रतिदिन वे नये-नये वस्त्र धारण करते हैं।) वे जल प्रिय हैं क्योंकि रथयात्रा के दौरान वे अक्षयतृतीया से लेकर पूरे 21 दिनों तक बाहरी चंदनयात्रा करते हैं और उसके उपरांत श्रीमंदिर के भीतर। भगवान जगन्नाथ की देवस्नानपूर्णिमा यह स्पष्ट करती है कि वे सबसे अधिक जल प्रिय हैं।यही नहीं,पूरा पुरी धाम भक्तों का एक धर्मकानन है जहां पर भक्ति ही कलियुग में भगवान जगन्नाथ की कृपा से जीवित है तथा उसके दोनों पुत्रःज्ञान और वैराग्य भी जीवित हैं।
एक तरफ जगन्नाथ भगवान के नवकलेवर के दिन रथारुढ दर्शन मोक्षप्रदायी दर्शन होता है ठीक उसी प्रकार विश्व मानवता को  शांति,एकता और  मैत्री का जीवित संदेश है।ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर के अवसर पर भक्तों को अपने जीवन को सार्थक बनाने हेतु अवश्य दर्शन करने चाहिए। भगवान जगन्नाथ जी का आगामी नवकलेवर वर्षः2034 है जिसकी प्रतीक्षा उनके समस्त भक्त अभी से ही लगाए हुए हैं।