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खबरिया चैनल की बहस बनाम कुएँ और हेंडपंप पर औरतों के झगड़े

कोई खबरिया चैनल खोलो या अखबार का पन्ना हर जगह किसी न किसी दो कौडी के नेता के बयान सुर्खियों में रहते हैं। खबरिया चैनल वाले अपने कैमरे लेकर उन नेताओं को खोजते रहते हैं जो दो कौड़ी के बयान देकर सुर्खियाँ बटोरने में सिध्दहस्त हो चुके हैं। ये नेता सुबह उठते ही ये तैयारी कर लेते हैं कि आज किसके खिलाफ क्या बयान देना है, चैनल वाले उसका बयान लपककर फिर जिसके खिलाफ बयान दिया है उसके पास जाकर उसकी प्रतिक्रिया लेने पहुँच जाते हैं। फिर शाम को स्टुडिओ में बैठकर दो दो कौड़ी के विशेषज्ञों को बुलाकर उन बयानों की चीर-फाड़ की जाती है। अगर गौर से देखें तो पूरा दृश्य किसी गाँव के पनघट या शहरों में उग आए हैंडपंपों और टैंकरों पर पानी भरने वाली महिलाओं के बीच होने वाले लड़ाई झगड़े जैसा लगता है।

सुबह सभी औरतें पानी भरने को लेकर लड़ती-झगड़ती है और फिर बाकी औरतें जो इस युध्द भूमि पर मौजूद होने का सुख नहीं ले पाई थी, वो लड़ाई-झगड़ा करने वाली वीरांगनाओँ से उनकी बहादुरी के किस्से सुनकर उसकी विरोधी महिला के चरित्र से लेकर खानदान तक के बारे में अपनी पूरी रिसर्च और ज्ञान उसे दे दे ती है ताकि अगले दिन जब नल पर या हैंडपंप पर फिर मोर्चा जमें तो इसका बखान किया जा सके। और मजे की बात ये है कि ये औरतें जहाँ पूरी ताकत से एक दूसरे के खानदान से लेकर उसके चरित्र का बखान करती है वहीं उनके बच्चे बगल में ही आपस में मस्ती से एक दूसरे के साथ खेलते-कूदते रहते हैं। जब इन महिलाओँ की नज़र इन बच्चों पर पड़ती है तो वे गंदे बच्चों के साथ नहीं खेलने की नसीहत देकर खींचकर अपने साथ ले जाती है, घर पहुँचने के बाद महिला जैसे ही घर के काम में व्यस्त होती है बच्चे एक बार फिर साथ खेलने लगते हैं।

ये पूरा रूपक रोज टीवी चैनलों पर दोहराया जाता है। बस इसमें महिलाओं की जगह देश के घाघ बुध्दिजीवी, पुरस्कार पाने वाले, पुरस्कार लौटानेवाले, इनका विरोध करने वाले, इनका समर्थन करने वाले और क्रिकेट से लेकर तमाम विषयों के विशेषज्ञ ऐसा ज्ञान परोसते हैं कि गूगल भी पानी माँग ले। हाँ बच्चों की जगह इनके तथाकथित प्रशंसकों को शामिल किया जा सकता है। कुछ पार्टियों के प्रवक्ता तो बकायदा हर चैनल पर शाम 6 बजे से लेकर रात 11 बजे तक मौजूद रहते हैं। इनको ये पहले से पता रहता है कि टीवी के एंकर का मूड क्या रहेगा। टीवी के एंकरों ने भी हर प्रवक्ता और बहस में शामिल होने वाले विशेषज्ञों को शह और मात देने के दिन फिक्स कर रखे हैं। एक दिन किसी को शह दी जाती है तो दूसरे दिन उसको मात दे दी जाती है। ऐसा लगता है पूरा खेल किसी पूर्व लिखित पटकथा पर चलता रहता है। इन प्रवक्ताओं को देखकर ऐसा लगता है जैसे कबूतरों को दाना डालने वाले को देखते ही कबूतरों का झुंड उसके आसपास मंडराने लगता है।

मेरी कल्पना है कि टीवी पर खुलकर एक-दूसरे के साथ कबड्डी-खो-खो खेलने के बाद ये सब लोग वापस जरुर मिलते होंगे और कहते होंगे यार तूने वो जो डॉयलॉग मारा था उसके बारे में वो एंकर ने मुझे पहले नहीं बताया था जबकि मेरा डॉयलॉग तो एंकर ने तुझे पहले से बता दिया था। तुमने इस बार मैच फिक्सिंग कर ली, दूसरा बोलता होगा, आज तेरा मौका है तू मैच फिक्सिंग कर लेना।

और सबसे बड़ी बात ये है कि किसी भी चैनल पर किसी भी बहस को सुन लो, शुरु से आखरी तक ये पता ही नहीं चलता है कि बहस का मुद्दा क्या था, और कौन पक्ष में था और कौन विरोध में। कई बार तो लोग बेचारे अपने दोस्तों को फोन करके पूछते हैं कि फलाँ चैनल पर जो बहस चल रही थी वो किस बात पर थी, दादरी पर थी, गौ हत्किया पर थी कि, पुरस्कार वापस करने पर थी, कि राम मंदिर बनाने पर थी, कि क्रिकेट पर, कि पाकिस्तान पर। अगर किसी स्कूल में दूसरे दिन सामान्य ज्ञान के प्रश्न में बच्चों से ये पूछ लिया जाए कि कल किस टीवी चैनल पर किस मुद्दे पर बहस थी और कौन पक्ष में था और कौन विरोध में तो सब बच्चे फैल हो जाएँ।

पूरी बहस सुनने के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी बूफे मे खाना खत्म होने के बाद एक प्लेट में जहाँ से जो मिले वो प्लेट में डाल लेते हैं और खाते समय पता ही नहीं चलता है कि सब्जी में जलेबी की चासनी ने अपनी जगह बना ली है, दही बड़े के दही पर सब्जी के झोल ने कब्जा कर लिया है और रसगुल्ला आलू की सब्जी के साथ गठबंधन सरकार बना चुका है। हर चीज अपना मूल अस्तित्व को खोकर दूसरे के साथ गठबंधन कर भारतीय राजनीति और चैनलों की बहस का एक सार्थक रूपक पेश कर देती है।