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स्थानीय लोगों की मदद से ही पक्की होगी ‘जीत’

सन 1962 के युद्घ में परास्त होने के बावजूद शांति के मोर्चे पर भारत जीत हासिल कर रहा है जबकि चीन जीतने के बावजूद मैकमोहन रेखा के दोनों ओर चुनौतियों का सामना कर रहा है।

सन 1962 के भारत-चीन युद्घ में किसे जीत हासिल हुई? यह सवाल हास्यास्पद प्रतीत होता है, खासतौर पर उन लोगों को जो 20 अक्टूबर 1962 को नामका चू के निकट शुरू हुए उस युद्घ के 50 साल पूरे होने पर आ रहे निराशाजनक आलेखों से जूझ रहे हैं। लेकिन जरा इस तथ्य पर गौर कीजिए : वर्ष 1962 के बाद से अरुणाचल प्रदेश का जबरदस्त भारतीयकरण हुआ है। उसने निरंतर जोर देकर खुद को भारत का हिस्सा बताया है। इस बीच, तिब्बत का मामला धीरे-धीरे सुलग रहा है क्योंकि चीन, साधारण तिब्बती लोगों से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की ताकत के बल पर निपटने की कोशिश कर रहा है। चीन के सैनिक प्रदर्शनकारियों को विरोध प्रदर्शन शुरू करने से भी पहले गिरफ्तार कर लेते हैं। चीन के हान समुदाय के लोग भारी संख्या में तिब्बत में जननांकीय अतिक्रमण कर रहे हैं और इस तरह वे पशुपालन करके जीवन यापन करने वाले स्थानीय लोगों की संस्कृति को नष्टï कर रहे हैं।

ऐसे में क्या कहा जाए, युद्घ में भीषण पराजय के बाद शांतिकाल में भारत को विजय हाथ लग रही है? और चीन, सन 1962 में भारत को ‘सबक सिखाने के बादÓ और तिब्बत को जबरदस्त दमन के साथ कब्जाए रखने के बाद भी मैकमोहन रेखा के दोनों ओर यानी तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश की ओर से चुनौती का सामना कर रहा है।

तिब्बत में वर्ष 2008 के बाद से ही चीन को लगातार भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। भारत की ओर से उसे सेना के बढ़ते जमाव और तिब्बत की निर्वासित सरकार का सामना करना पड़ रहा है जो चीन द्वारा तिब्बत में किए जा रहे दमन पर सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित कराने में लगी हुई है।

इसके ठीक विपरीत भारत ने अरुणाचल प्रदेश (तत्कालीन नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) में संवेदनशीलता से काम लिया है और सैन्य बल प्रयोग के प्रति अपनी अनिच्छा दिखाई है। परिणामस्वरूप वह भारत के एक अंग के रूप में उन स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब रहा है जिनके मन में सन 1962 की हार काफी भीतर तक घर कर गई थी। ताकत के ख्ुाले आम प्रयोग से बचने की प्रवृत्ति सन 1951 में तवांग पर भारत के कब्जे के वक्त ही प्रत्यक्ष नजर आई थी जब असिस्टेंट पॉलिटिकल ऑफिसर आर काथिंग ने सीमा पर स्थित इस कस्बे में अद्र्घसैनिक बल असम राइफल्स की केवल एक प्लाटून (36 जवान) के साथ परेड की थी।

इसके अलावा सन 1853 में अचिंगमोरी में जब तागिन जनजाति के लोगों ने असम राइफल्स की प्लाटून का कत्लेआम किया था तब असम सरकार के तत्कालीन विशेष सलाहकार नरी रुस्तमजी ने प्रख्यात तौर पर नेहरू को इसका विरोध करने से रोका था। नेहरू ने चुनौती दी थी कि वह तागिन को नष्टï कर देंगे। इसके बजाय रुस्तमजी ने भारी नागरिक अभियान की शुरुआत की और दोषियों को न केवल पकड़ा और बकायदा बांस के बने अस्थायी न्यायालय में प्रक्रिया चलाकर उनको दंडित भी किया गया। यह बात बहुत जल्दी सारे क्षेत्र में फैल गई थी।

लेकिन यह ध्यान देना होगा कि स्थानीय संवेदनशीलता को राष्टï्रीय हित से ऊपर स्थान देने के कारण ही वर्ष 1962 में पराजय का सामना करना पड़ा था। सैन्य शक्ति पर निर्भर नहीं रहने की जिस बात ने स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में मदद की उसी के तहत सेना की तैनाती में अनिच्छा और उसकी अपर्याप्त संख्या ने सन 1962 की पराजय में भी अहम भूमिका निभाई। उस वक्त ‘भविष्य की नीतिÓ के रूप में जो अदूरदर्शी तरीका अपनाया गया और जिसके तहत एकतरफा घोषित सीमाओं पर भारतीय चौकियां बनाई गईं, वह भारत की तीखी पराजय की वजह बनी। इस पराजय ने स्थानीय लोगों के मन में भारत की छवि भी धूमिल की।

आज उस घटना के 50 साल बाद जबकि देश अधिक समृद्घ और आक्रामक है, वह सैन्य शक्ति का अधिक इस्तेमाल करने और जवानों की तैनाती को लेकर भी आश्वस्त है। चीन के किसी भी किस्म के आक्रामक रवैये से निपटने की योजना तैयार करने में सन 1950 के दशक के सबक को याद रखना महत्त्वपूर्ण होगा। पहली बात, सेना की मौजूदगी को लेकर अरुणाचल के लोग बहुत अधिक सहज नहीं है। यह हालत तब है जबकि कई बार दूरदराज इलाकों में सेना ही इकलौती ऐसी सरकारी इकाई होती है जिसे लोग देख पाते हैं। सन 1950 और 1960 की तर्ज पर वर्ष 2010 और 2011 में भी अरुणाचल को भारत का अंग बनाए रखने के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग उतना ही आवश्यक है जितना कि सेना का।

बहरहाल, सैनिकों की संख्या बढ़ाकर सैकड़ों किलोमीटर लंबी पहाड़ी घाटियों वाले इलाके में संपूर्ण सुरक्षा नहीं हासिल की जा सकती है। सैनिकों की संख्या में लगातार इजाफा करके भारत खुद पाकिस्तान के जाल में फंसते जाने का जोखिम बढ़ा रहा है। वह एक ऐसे पड़ोसी के खिलाफ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने की कोशिश कर रहा है जिसके पास आर्थिक संसाधनों तथा सैन्य शक्ति की कोई कमी नहीं है।

इसके बजाय भारतीय सेना को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। उसे सेना की मौजूदगी बढ़ाने के बजाय सन 1950 के दशक की तर्ज पर स्थानीय स्तर की साझेदारी पर भरोसा करना चाहिए। इसके लिए तीन स्तरीय कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। सबसे पहले स्थानीय जनजातियों की 20 प्रादेशिक बटालियन तैयार की जानी चाहिए जो चीन से अपने मातृ प्रदेश की रक्षा करेगी। बजाय कि सेना के उन जवानों पर निर्भर रहने के जो अपने निवास स्थान से हजारों किलोमीटर दूर अनजानी जगहों पर तैनात रहते हैं। रक्षा की प्रथम पंक्ति इन्हीं स्थानीय जनजातीय सेनाओं के जरिये तैयार की जानी चाहिए।

दूसरी बात, सीमा पर चीन की घुसपैठ रोकने के लिए भारी संख्या में जवानों की तैनाती करने के बजाय हमें ऐसे आक्रामक दस्ते तैयार करने चाहिए जो चीन द्वारा किसी भी तरह की घुसपैठ का जवाब तिब्बत में आकस्मिक हमले या घुसपैठ करके दें। हमारे पास हर वक्त 8 से 10 ऐसी योजनाएं तैयार रहनी चाहिए और साथ ही उनको लागू करने के लिए पूरे संसाधन भी हमारे पास होने चाहिए।

तीसरी बात, अरुणाचल प्रदेश और असम में सड़कों और रेलवे का बुनियादी ढांचा विकसित करना जो ऐसे लड़ाकू समूहों का परिवहन तेज करने के काम आएगा। उनको सीमा पर अधिक तेजी से ले जाने में मदद मिलेगी ताकि चीन की किसी भी नकारात्मक योजना को विफल किया जा सके। मेरे खयाल से यह सबसे अधिक जरूरी कदम है क्योंकि इससे सेना और आम जनता दोनों के हित की पूर्ति होगी। मैकमोहन रेखा के आसपास स्थित गांवों में सड़क सुविधा मुहैया कराकर हम वहां के लोगों को वह जीवनरेखा मुहैया करा रहे हैं जो उनको भारत से जोड़ती है।

साभार-बिज़नेस स्टैंडर्ड से.