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कथा हिन्दू विश्वकोष की

कथा एक विडंबना है। हिन्दू समाज की दशा का आइना भी। हिमालय की तराई के उस तीर्थ में, स्वामीजी के आश्रम के मुख्य द्वार पर, लगभग 8 X 4 मीटर का एक विशाल पोस्टर-चित्र तथा कुछ अन्य चित्र लगे हैं। सभी उसी विश्व-कोष संबंधित विविध अवसरों के चित्र। उन में एक राष्ट्रपति, पूर्व उप-प्रधानमंत्री, कई मंत्री, नेता, उद्योगपति, साधु-संत, समेत अनेकानेक बड़े लोग पहचाने जा सकते हैं। कुछ विदेशी भी। किन्तु सभी चित्रों में ठीक वे नदारद हैं, जिन के बिना कोष नहीं बन सकता था! उन्हें विशेष सम्मान के बदले, विशेष विस्मरण! … जब वहाँ पूछा गया कि वह विश्व-कोष कहाँ मिलेगा? तो सब ने अनभिज्ञता जताई। किसी ने उस के बारे में सुना भी न था!

हे राम, श्रीगणेशाय नमः!

लगभग 37 वर्ष पहले की बात है। हिमालय के नीचे एक तीर्थ में एक बड़ा आश्रम है, जिस की शाखा अमेरिका में भी है। उस के संचालक को अमेरिकी भारतीयों ने कहा कि ‘‘स्वामी जी, इस्लाम और क्रिश्चियनिटी के विश्वकोष (इन्साइक्लोपीडिया) बहुत पहले से दुनिया में हैं जब कि ये हाल के रिलीजन हैं। हिन्दू धर्म विश्व में प्राचीनतम है, किन्तु इस का कोई विश्वकोष नहीं। हमें किसी बात पर जिज्ञासा-शंका होती है, तो कोई तैयार संदर्भ-ग्रंथ नहीं है। कृपाकर हिन्दू धर्म का एक विश्वकोष तैयार करवाएं।’’ इस के लिए उन्होंने सहयोग भी प्रस्तावित किया।

स्वामी जी को बात लगी। हिन्दू धर्म का विश्वकोष होना ही चाहिए। उन्होनें एक विद्वान से संपर्क किया और उन्हें दायित्व सौंपा। जरूरी व्यवस्थाएं कीं। भारत के एक बड़े प्रकाशक से उस के भारतीय संस्करण का प्रकाशन अनुबन्ध भी किया। काम शुरू हुआ। उन विद्वान ने देश-विदेश में अन्य जानकारों को इस परियोजना से जोड़ा, जो लेखन में योग दे सकते थे। सामग्री लिखी जाने लगी।

कुछ वर्ष बाद जब एकत्र सामग्री प्रकाशक को भेजी गई तो प्रकाशक ने बताया कि अधिकांश लेखन स्तरहीन है। प्रकाशन योग्य नहीं। फिर नए सिरे से, एक नए मुख्य संपादक को काम से जोड़ा गया। कुछ वर्ष बाद दूसरी सामग्री प्रकाशक को दी गई। उन्होंने पुनः सूचित किया कि सामग्री उपयुक्त नही, कई चीजें जहाँ-तहाँ से ली गई हैं। कुछ तो मानो टूरिस्टों को ध्यान में रख लिखी गई हैं। फिर क नए विद्वान को संपादक बनाकर कार्य दिया गया। वर्षों बीत गए, किन्तु काम सिरे न चढ़ा। इस तरह बीस-बाइस वर्ष हो गए। स्वामी जी हताश होने लगे। तब उन्हें किसी ने कहा कि प्रसिद्ध भाषा-साहित्यविद प्रो. कपिल कपूर जेएनयू से रिटायर होने वाले हैं। यदि वे भार सँभालें, तो काम हो सकेगा। यह नवंबर 2005 था।

स्वामी जी ने कपूर साहब को फोन कर अविलंब मिलने का अनुरोध किया। फिर अपनी व्यथा और हिन्दू विश्वकोष न बन सकने की राम-कहानी सुनाई। करोड़ों रू. खर्च हो चुकने की बात भी कही। तब तक चार-चार मुख्य संपादक लगकर जा चुके थे। हरेक के साथ दो-चार साल निकल जाते। समय और धन खर्च होता रहा, पर काम जहाँ का तहाँ था। स्वामी जी ने प्रो. कपूर को कहा, ‘‘प्रभो, उद्धार कर दो!’’

तब तक के कागजात देखने-समझने के बाद प्रो. कपूर ने दायित्व स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा कि कोष तैयार होने में सातेक वर्ष लग जाएंगे। पर उन्होंने तीन शर्तें रखीं। एक, वे कोई पारिश्रमिक नहीं लेंगे; दो, स्वामीजी उन के काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे; तीन, केवल वही सामग्री प्रकाशित होगी जिसे प्रो. कपूर ने अंततः पास किया हो। स्वामी जी ने शर्तें मान ली और काम फिर आरंभ हुआ।

अगले सात वर्ष प्रो. कपूर उसी में डूबे रहे। उसे धर्म का काम मानकर पूरे मनोयोग से किया। उसी भावना में कार्यालय के अन्य लोग भी लगे रहे। उसी बीच, प्रो. कपूर ने भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित एक उच्च पद भी ठुकराया। क्योंकि साथ-साथ उस कोष का काम होना असंभव होता। उन तमाम वर्षों में उन्होंने विविध लेखकों के लगभग 9 हजार लेख, वह भी सात-सात बार पढ़े। ताकि उन्हें सुधार, संपादित कर अंतिम रूप दें। कई बार प्रातः से ही वे सोलह-सोलह घंटों तक लगे रहते थे। प्रकाशक भी समर्पित, उसी धर्म-भाव से, प्रूफ आदि में अतिरिक्त सहयोग देते रहे। स्वयं दूर-दूर जाकर कोष के लिए विशेष फोटोचित्र भी लिए।

इस तरह, अंततः हिन्दू धर्म का विश्वकोष दिसंबर 2012 में छप कर आया। गत तीस वर्ष से चल रही परियोजना सफल हुई। प्रकाशक ने प्रो. कपूर को निमंत्रित कर, अपने सभी कर्मचारियों को एकत्र कर, मानो समारोह के साथ ग्यारह खंडों के विश्वकोष की पहली प्रति श्रद्धापूर्वक उन्हें समर्पित की।

उस के बाद की कथा एक विडंबना है। हिन्दू समाज की दशा का आइना भी। हिमालय की तराई के उस तीर्थ में, स्वामीजी के आश्रम के मुख्य द्वार पर, लगभग 8 X 4 मीटर का एक विशाल पोस्टर-चित्र तथा कुछ अन्य चित्र लगे हैं। सभी उसी विश्व-कोष संबंधित विविध अवसरों के चित्र। उन में एक राष्ट्रपति, पूर्व उप-प्रधानमंत्री, कई मंत्री, नेता, उद्योगपति, साधु-संत, समेत अनेकानेक बड़े लोग पहचाने जा सकते हैं। कुछ विदेशी भी। किन्तु सभी चित्रों में ठीक वे नदारद हैं, जिन के बिना कोष नहीं बन सकता था! उन्हें विशेष सम्मान के बदले, विशेष विस्मरण!

जब वहाँ पूछा गया कि वह विश्व-कोष कहाँ मिलेगा? तो सब ने अनभिज्ञता जताई। किसी ने उस के बारे में सुना भी न था! पास एक ऊँची पुस्तक दुकान में भी यही हाल मिला। तब इंटरनेट ने बताया कि कोष वर्षों से अनुपलब्ध है, यानी भारत में। जबकि विदेशों में उस के पाँच संस्करण छप चुके और उपलब्ध है। उसे ऑनलाइन वेबसाइटें 20 से 55 हजार रूपयों तक में बेच रही हैं।

तो यह हमारी स्थिति है। कहाँ तो वह कोष भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध करा, घर-घर पहुँचाने का यत्न करना था! पर यहाँ वह मूल अंग्रेजी में भी दुर्लभ-ही है। आखिर, कमी क्या है? निस्संदेह धनाभाव नहीं। क्षुद्र आत्म-प्रचार और विज्ञापनों में करोड़ों रूपए नियमित लुटाने वाले लोग, संस्थान, नेता, फाऊंडेशन, आदि अनगिनत हैं। हिन्दू धर्म के नाम पर राजनीतिक-व्यवसायिक धंधे वाले भी अनेक। पर हिन्दू समाज सबल बने, बल्कि बचा रहे – यह भी चिन्ता करने वाले महानुभाव नगण्य हैं। दुनिया की कौन कहे, भारत में ही हिन्दू धर्म-समाज को बेधड़क लांछित किया जाता है। हिन्दुओं को तीसरे दर्जे के नागरिक बना देने की प्रतियोगिता-सी चल रही है। सभी दल, सत्ता, और कार्यक्षेत्र केवल गैर-हिन्दुओं को विशेष अधिकार व सुविधाएं देने, तथा हिन्दुओं को वंचित करने की होड़ में हैं। बल्कि ठीक शिक्षा एवं मंदिर प्रबंधन में ही अधिकाधिक वंचित करते जाने में! तब शेष बेपरवाही का क्या कहना।

यह सब आम हिन्दू जनगण का दोष नहीं। वे हरेक न्यायोचित आवाहन को समर्थन देते हैं। किन्तु उन के नेता और विशिष्ट-वर्ग छल करते हैं। अपने स्वार्थ-अहंकार में लिप्त अधिकांश अग्रणी लोग हिन्दू जनता को फार-ग्रांटेड लेते हैं। उसी को उपेक्षित, कमजोर करते, बाँटते रहते हैं। कभी आँख उठाकर नक्शा भी नहीं देखते कि जहाँ-जहाँ से हिन्दू समाज खत्म, कमजोर किया गया वहाँ-वहाँ से हिन्दू नेताओं-संगठनों, पार्टियों, मठों का भी ठौर-ठिकाना जाता रहा।

इस बुनियादी सत्य से गाफिल सभी महानुभाव ‘अपने’ संगठन-पार्टी, ‘अपने’ नेता, ‘अपने’ स्वामी जी, आदि में आत्म-मुग्ध रहते हैं। अपनी मंदअक्ली को अक्लमंदी समझते हैं। फलतः उसी डाल में दीमक लगते जाने से बेपरवाह हैं जिस पर सुख से बैठे हैं। हिन्दू विश्व-कोष की कथा उन के मतिभ्रम का केवल एक उदाहरण मात्र है। ढूँढने पर मिल सकने वाले बिरले ज्ञानियों तक की उपेक्षा उसी का अंग है।

साभार https://www.nayaindia.com/ से