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हमारा ये इतिहास हमें पढ़ाया ही नहीं गया

बात उस समय की है जब मेवाड़ पर महाराणा राज सिंह सिसोदिया का राज था और मेवाड़ का एक ठिकाना सलूम्बर था जिसके सरदार ‘राव रतन सिंह चुण्डावत’ थे। चूंकि शांति काल था तो महाराणा ने राव को बुलाया और उन्हें कहा “राव! अभी युद्ध तो है नहीं तो आप अपने ठिकाने हो आओ और विवाह कर लो, कुछ दिन दाम्पत्य जीवन का सुख भोगो।”

राव बांका नौजवान था। किसी प्रेयसी पर सब कुछ न्यौछावर करने की मन मे अभिलाषा तो थी मगर किशोरावस्था में ही पिताजी के युद्ध मे खेत हो जाने के कारण पूरे ठिकाने की जिम्मेदारी राव रतन सिंह पर आ गई थी। यौवन तीर तलवारों की भेंट चढ़ रहा था और प्रेयसी सिर्फ स्वप्न ही बन कर रह गयी।

अंततः वह दिन भी आ गया जब ‘हाडी रानी’ बींदणी बन कर राव की हवेली की लक्ष्मी हुई। सुहागरात पर जब राव ने बींदणी का घूंघट उठाया तो स्तब्ध रह गया। ऐसा लग रहा था जैसे साक्षात रति ने पृथ्वी पर अवतार ले लिया हो “ऐसा अप्रतिम सौंदर्य पृथ्वी पर भी हो सकता है?”

आंखों में आंखें पिरोए जब बहुत समय बीता तो रानी के अधर खुले “क्या हुआ हुकुम?” राव झेंप गए, जैसे किसी ने चोरी पकड़ ली हो। अगले ही पल सुंदरता की वो मूर्ति उनके आलिंगन में शर्मा रही थी। राव प्रेम, असमंजस और स्नेह से भाव विभोर हो रहे थे।

प्रेम और समर्पण में रानी के साथ 5 दिन का समय कब बीता, पता ही नहीं चला। राव ने पहली बार किसी स्त्री का सानिध्य अनुभव किया था।

एक दिन रात के तीन पहर बीत चुके थे और दोनों एक दूसरे से आजीवन अनंत प्रेम और समर्पण की बातों में खोए थे। चौथे पहर में रानी की आंखें मूंदी ही थी कि भोर ने दस्तक दी। पक्षियों की चहचाहट और हवेली में होती हलचल से रानी उठी और स्नान आदि ने निवृत हो कर पूजा करने की तैयारी करने लगी। सासु माँ को धोक देकर मुड़ी तो सास ने कहा “बींदणी! रतन को जगा दो।” रानी को जैसे मन चाहा मोती मिल गया क्योंकि एक क्षण के लिए भी राव के पास जाना उसको बहुत सुखदायक लगता था।

रानी की पायल की झंकार से रतन सिंह जाग चुके थे फिर भी सोने का नाटक करते रहे। जैसे ही रानी पास गई रतन सिंह ने फिर से उन्हें अपने आलिंगन में भर लिया। रानी शर्मा रही थी कि सास ने देख लिया तो क्या सोचेंगी।

तभी अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। हालांकि दरवाजा खुला ही था। रतन सिंह बोले “कौन है?” दासी की आवाज आई ““हुकुम! शार्दूल सिंह जी आये हैं शीघ्र मिलना चाहते हैं।” रानी बाहर चली और शार्दूल सिंह अंदर आ गए।

शार्दूल सिंह को देखकर राव समझ गए कि कोई भारी विपत्ति आई है वरना ठाकुर मेरे अंतरंग कक्ष तक नहीं आते। शार्दूल सिंह इस उलझन में थे कि अभी राव की शादी को सिर्फ 5 दिन हुए हैं इनको कैसे बताऊं? राव बोले “ठाकुर! मेवाड़ मेरी माँ समान ही मुझे प्रिय है। आप बताइए बात क्या है? मेरी माँ को मैं कैसे भी बचाऊंगा चाहे जो भी विपदा आयी हो।”

“हुकुम! आप जानते ही हो महाराणा राज सिंह ने शाहजहां से मेवाड़ के छीने हुए क्षेत्र पुनः जीत लिए थे लेकिन अब गद्दी पर शाहजहां का बेटा औरंगजेब है और वो अपने बाप से भी ज्यादा क्रूर है। उसने रूपनगर की राजकुमारी चरूमती से विवाह की इच्छा प्रकट की थी जिसे राजकुमारी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि अगर धरती क्षत्रिय विहीन हो गयी है तो भी मैं म्लेच्छ से शादी करने से बेहतर मरना पसंद करूंगी। उपर से महाराणा ने मेवाड़ में सबको जजिया देने से भी मना कर दिया है।”

शार्दुल सिंह निरंतर बोले जा रहे थे “जैसा कि हुकुम को पता है कि दक्खन में छत्रपति शिवाजी महाराज, मध्य में महाराजा छत्रसाल, मारवाड़ में वीर दुर्गादास और पंजाब में सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने भी मुगलों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है इसी से बौखलाया हुआ आलमगीर राजपूताने पर कब्जे के लिए पागल हुआ जा रहा है। आलमगीर की सेनाएं आगे बढ़ रही थी मगर आपके विवाह के कारण महाराणा आपको यह युद्ध संदेश भेजना नहीं चाह रहे थे किंतु अब कोई विकल्प नहीं बचा है।”

“महाराणा ने अरावली में मुगलों को रोकने के लिए युवराज जय सिंह को भेजा है और अजमेर में राजकुमार भीम सिंह को भेजा है। महाराणा स्वयं वीर दुर्गादास का साथ देने मारवाड़ में औरंगजेब के बेटे अकबर से लड़ने गए हैं परंतु अभी सूचना मिली है कि आलमगीर की मदद हेतु आगरा से एक बड़ी फौज और आ रही है जिसे रोकने का काम हमें करना है, हुकुम!”

शार्दुल सिंह ने झिझकते हुए कहा “आपका विवाह हुए मात्र 5 दिन हुए थे इसलिए झिझक हो रही थी कि आपको ऐसे युद्ध मे जाने को कैसे कहूँ जहां मरना लगभग तय है?”

राव बोले “सौ वर्ष गुलामी में जीने से कहीं बेहतर है कि सौ पल स्वतंत्रता से धरा पर जिया जाए। मेवाड़ स्वाधीन था और सदा स्वाधीन ही रहेगा। जय एकलिंग जी री!!”

रानी सोलह सिंगार कर के आरती का थाल लेकर राव को विदा करने की तैयारी करने लगी। हवेली पर शोक और उत्साह दोनों ही एक दूसरे में ऐसे घुल मिल चुके थे कि अंतर करना मुश्किल था। राव रतन सिंह सेनापति का बाना पहन कर तैयार थे।

बाहर पूरी सेना अपने सरदार के आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी। राव का घोड़ा तैयार था। जब रानी आरती कर रही थी तब राव ने अपने इरादे स्पष्ट करते हुए कहा कि “इस बार केसरिया करना है। मां और पूरे परिवार का ध्यान रखना। कोई चमत्कार ही हुआ तो पुनः मिलेंगे अन्यथा स्वर्ग में ही मिल पाऊंगा।”
रानी विस्मित थी। यह वही वीर था जिसने उसे अपने प्रेम से सराबोर कर दिया था और आज कभी नहीं मिलने की बात कर रहा था। प्रेम और कर्तव्य में से कभी भी वीर कर्तव्य को ही चुनेगा यह बात क्षत्राणी जानती थी मगर मन को कैसे समझाती?

रानी के नेत्रों से स्नेह उष्ण अश्रु बन बाहर आने का प्रयास कर रहा था मगर अपने आंसुओं की बाढ़ में वीर की वीरता न बह जाए इसलिए उन्होंने अपने अहसास घूंघट में ही ढंक लिए। राव को कहीं यह न लगे की क्षत्राणी होकर इतनी कमजोर कैसे है इसलिए आरती पूरी कर, तलवार को तिलक लगा कर त्वरा से अंदर चली गयी।

राव के मन मे भी यही द्वंद चल रहा था “पांच दिन पहले ही तो ब्याही रानी को आज ऐसे छोड़ कर कैसे चला जाऊं? किसके भरोसे छोड़ दूं? मेरे बाद कौन इसका ध्यान रखेगा? इसने मुझ जैसे पत्थर में भी कोमलता पैदा कर दी है। अभी तो इसके पांव का महावर भी नहीं उड़ा है, मेहंदी भी वैसी की वैसी है जैसी पहली रात को थी, पायल की खनक अभी तक भी कानों में गूंज रही है। दो पल इससे दूर जाने की बात भी कर दूं तो इसकी आंखों में आंसू आ जाते है और इसे ऐसे ही कैसे हमेशा के लिए विदा दे दूं?”

पांच दिनों का हर एक क्षण आंखों के सामने से गुजर रहा था। इसका चूड़ा, सिंदूर, हथलेवे की मेहंदी, तिमिनिया, पायल सब मेरे न रहने से छूट जाएगा और यह हवेली किसी पिशाचिनी के घर जैसी इसे काटने दौड़ेगी। क्या इसके प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है? तभी मन के अंदर का क्षत्रिय बोला “रतन! इस जैसी हज़ारों कन्याएं है मेवाड़ में जिन्होंने अभी तरुण अवस्था देखी भी नहीं है क्या उनके प्रति तेरा कोई कर्तव्य नहीं है? क्या वो तेरी कुछ नहीं लगती?”

असमंजस में राव अपना सर पकड़ कर जमीन पर बैठ गए। प्रेम को चुनूँ या कर्तव्य को। “क्या सोच रहे हैं हुकुम?” पीछे से रानी का स्वर गूंजा “माँ भवानी का नाम लेकर युद्ध के मैदान में जाइये। परिवार की तनिक भी चिंता ना कीजिये मैं सब संभाल लूंगी। पिताजी कहते थे कि प्रेम आसक्ति पैदा करता है और आसक्ति हमें किंकर्तव्यविमूढ़ कर देती है किंतु जब फैसला प्रेम और कर्तव्य में करना हो तो हमेशा कर्तव्य का पथ ही वीर को श्रेयस्कर है।”

रानी के शब्दों में गीता का सार था जिसे सुन सरदार ने “जय एकलिंग जी री!” का उद्गोष किया और हवेली से बाहर निकल पड़े।
रानी केसरिया का अर्थ जानती थीं। आंखों के आगे अंधेरा से छा गया। पाँव मणों भारी हो गए। चलने फिरने की सुध न रही बस राव के जाने का दृश्य आंखों में था। पलंग पकड़ जैसे तैसे वहीं बैठ गयी। मन ही मन सोच रही कि जब वैधव्य ही देखना था तो विधाता ने कुछ पलों के लिए इस अथाह प्रेम से परिचय करवाया ही क्यों?

लेकिन फिर राव को किया वादा भी याद आया कि वो सब मेरे भरोसे छोड़ कर गए हैं। मैंने उनके परिवार को संभालने का वचन दिया है और मैं ही ऐसे बेसुध रहूंगी तो राव कैसे लड़ पाएंगे? एक क्षण में आँसू सूख गए और शरीर में सामर्थ्य का संचार होने लगा।

उधर राव जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे मन पीछे छूटा जा रहा था। बार बार रानी का चेहरा याद आता तो सारी हिम्मत पीछे छूट जाती। लगता जैसे रानी की बड़ी बड़ी सजल आंखें पुकार कर कह रही हो कि लौट आओ राव लौट आओ। तुम इतने निष्ठुर हो कर कैसे जा सकते हो जबकि तुमने कल रात ही जन्म जन्म तक मेरा साथ निभाने का वादा किया था। तुम्हारे बिना मेरे जीवन मे शेष क्या रह गया है। मेरी मांग के सिंदूर को ऐसे मिट्टी में मिला कर क्या मिलेगा तुम्हे? लौट आओ राव लौट आओ।

राव से रहा नहीं गया उन्होंने अपने सबसे विश्वासपात्र सिपाही को बुलाया और आदेश दिया “तुरंत हवेली की ओर जाओ और हाडी रानी को कहना कि राव ने कुछ सैनाणी (निशानी) मंगवाई है।” सैनिक ने बिजली की फुर्ती से हवेली की और घोड़ा दौड़ाया और रानी के पास जा कर राव का संदेश सुनाया।

रानी समझ गई कि राव अभी भी प्रेम और आसक्ति में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। ऐसी अवस्था मे वो कैसे मेवाड़ की रक्षा कर पाएंगे? वीर को प्रेम और युद्ध क्षेत्र में से एक का चुनाव करना सीखना ही चाहिए। प्रेम पाने का नहीं सब कुछ त्याग कर के भी कर्तव्य पथ को अनुसरण करने का ही तो नाम है।

रानी अपने कमरे में गई और स्वर्ण थाल और रेशमी वस्त्र लाकर सैनिक को देते हुए कहा “मैं सैनाणी लेकर आती हूँ” जब रानी पुनः बाहर आई तो हाथ में चमचमाती तलवार थी। सोलह श्रृंगार में सजी हाथ में तलवार लिए हाडी रानी साक्षात माँ दुर्गा लग रही थी।

तभी बिजली सी कौंधी और रानी का कटा हुआ सर स्वर्णथाल में जा गिरा। सैनिक इस बलिदान और वीरता को देख कर गर्व और भय के मिश्रित भाव से थरथराने लगा। वीरांगना को प्रणाम कर रानी का मस्तक थाल में सजा कर सैनिक राव की तरफ दौड़ा।

रानी के इस बलिदान को देख कर राव रतन सिंह निर्भीक और असक्तिहीन हो गए। युद्ध में अपनी प्रेयसी से स्वर्ग में मिलने की अभिलाषा में चुण्डावत सरदार ने ऐसी वीरता का प्रदर्शन किया कि मुग़लिया फौज को मुंह की खानी पड़ी।

मेवाड़ का ध्वज गर्व से आकाश छू रहा था। राव रतन सिंह स्वर्ग में अपनी प्रेयसी को अपनी बाहों में लिए उस ध्वज को देख रहे थे और अपनी प्रेयसी की आंखों में मेवाड़ी ध्वज के प्रति गर्व को देख कर आनंदित हो रहे थे।

साभार – http://bharat-parikrama.in/ से