1

हमारा कर्म ही यज्ञ हैः श्री वीरेंद्र याज्ञिक

श्री वीरेंद्र याज्ञिक अपने आपको पंडित, कथावाचक या संत नहीं कहते न ही उनके चाहने वाले कभी उनको इस रूप में देखते हैं, लेकिन जब वे व्यास पीठ पर बैठकर गीता पर चर्चा करते हैं तो उनका प्रखर पांडित्य, भारतीय अध्यात्मिकता के प्रति उनकी गहन दृष्टि, धर्म को लेकर उनकी सामाजिक सोच और हमारी जीवन शैली से लेकर शिक्षा नीति पर उनका सामाजिक बोध एक साथ कई आयाम सामने लाता है। मुंबई के भागवत परिवार से जुड़े धर्म प्रेमियों के एक छोटे से समूह के बीच वे गीता पर अपना व्याख्यान देते हैं तो तीन घंटे कब निकल जाते हैं पता नहीं चलता है।

इस बार उनका व्याख्यान मुंबई के कांदिवली के ठाकुर विलेज के धर्म निष्ठ परिवार श्री एस.पी. गोयल के यहाँ आयोजित था। उन्होंने अपनी पिछली चर्चा को आगे बढ़ाते हुए गीता में कृष्ण अर्जुन संवाद के माध्यम से यज्ञ को कर्मकांड से निकालकर जीवन शैली से जोड़ते हुए कहा कि सात्विक कर्म, कर्तव्य और जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाना ही यज्ञ है। यज्ञ कर्मकांड नहीं बल्कि हमारी दिन-प्रतिदिन की जीवन शैली का ही हिस्सा है। यज्ञ की प्रक्रिया में हम जब हवन कुंड के सामने बैठते हैं तो आहुति देते हैं और इसका लाभ पूरे समाज को, पूरे ब्रह्मांड को मिलता है। ठीक इसी तरह हम जो काम करते हैं वही हमारा यज्ञ है अगर हम सद्कर्मों की आहुति देंगे तो इससे पूरा समाज लाभान्वित होगा।

गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गह उपदेश अंतःकरण की शुध्दि के लिए थे। जब तक हमारा अंतःकरण शुध्द नहीं होगा, हमारे कर्म का नतीजा भी सकारात्मक नहीं होगा।

कृष्ण अर्जुन के सारथी ही नहीं उसके गुरू भी हैं और गुरू शिष्य के मन पर छाया अंधकार दूर करता है, कृष्ण ने पूरी गीता में अर्जुन के मन पर छाए अंधकार को दूर कर उसे युध्द लड़ने के लिए प्रेरित किया।

यह भी पढ़ें – श्री वीरेंद्र याज्ञिक को सुनना यानि…तृप्त होकर अतृप्त रह जाना
गीता के महत्व को आज के सामाजिक परिदृश्य से जोड़ते हुए याज्ञिक जी ने बताया कि कैसे अमरीका की सेना के सबसे बड़े पद मेडिकल जनरल पर नियुक्त विवेक कामत ने अपने पद की शपथ बाईबिल की जगह गीता हाथ में लेकर शपथ ली; इसका कारण बताते हुए विवेक कामत ने कहा कि मेरे जीवन पर गीता का गहरा असर रहा है और मैं आज जहाँ पहुँचा हूँ, वह गीता की वजह से ही पहुँचा हूँ ऐसे में अगर मैं बाईबिल पर शपथ लूंगा तो अपने साथ और अपने काम के साथ न्याय नहीं कर पाउंगा। इस उध्दरण को प्रस्तुत करते हुए श्री याज्ञिक ने अमरीकी सरकार की इस उदारता की भी प्रशंसा की।

श्री याज्ञिक ने कहा कि सेवा तो ज्ञान से बड़ा यज्ञ है। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि शंकराचार्य ने अपने यहाँ शिक्षा ग्रहण करने वाले चार शिष्यों को चार मठों का मठाधीश बनाया। उनके यहाँ उनका एक सेवक भी था, जिसने शास्त्रों की शिक्षा तो ग्रहण नहीं की थी लेकिन सेवा के माध्यम से उसने अपने कर्तव्य का भलीभाँति पालन किया था। शंकराचार्य उसे भी उपकृत करना चाहते थे, तो उन्होंने उसे कहा कि वह सुबह 4 बजे आश्रम के पास स्थित तालाब पारकर उनसे मिलने आए। उस शिष्य ने पहले तो विचार किया कि मुझे गुरू ने ये आदेश क्यों दिया है, लेकिन उसने ये तो सीखा ही था कि गुरू के आदेश पर संदेह नहीं करना चाहिए। तो वह गुरू के आदेश पर सुबह 4 बजे तालाब पार कर दूसरी ओर पहुँचातो वहाँ शंकराचार्य ने उसे गले लगा लिया। यही शिष्य बाद में पाद पद्माचार्य के रूप में विख्यात हुए और उन्होंने संस्कृत में 55 ग्रंथों की रचना की।

अमरीका की पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर निपुण मेहता और उनकी पत्नी की भारत यात्रा का उल्लेख करते हुए श्री याज्ञिक ने बताया कि इस दंपत्ति ने तय किया कि वे भारत में प्रतिदिन मात्र एक डॉलर (60 रु. प्रतिदिन) खर्च कर ही अपनी यात्रा पूरी करेंगे, इस राशि में उनकी यात्रा का खर्च से लेकर खाने तक का खर्च शामिल था। अपनी इस यात्रा के दौरान निपुण मेहता ने अनुभव किया कि भारत के गाँव के लोग कितने उदार, करुणामयी और दूसरों के लिए जीने वाले लोग हैं, जबकि शहरी क्षेत्र में उनका अनुभव एकदम विपरीत रहा। गाँव में लोग उनकी हर तरह से मदद के लिए आगे आए। राजस्थान के एक गाँव में 8 किलोमीटर दूर से पानी ला रही एक ग्रामीण महिला ने उनको प्यासा देख पानी पिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई, तो दूसरी ओर राजस्थान के ही बीकानेर में एक भव्य मंदिर में उनको (प्रसाद) खाना इसलिए नहीं दिया गया कि उन्होंने ईमानदारी से कहा कि वे यहाँ दर्शन करने नहीं आए हैं वे इस जगह रात गुज़ारने के लिए आश्रय लेने आए हैं। लेकिन जब उन्होंने प्रसाद के इंकार के लिए मंदिर के व्यवस्थापकों को मनःपूर्वक धन्यवाद कहा तो दया करके उनको रात गुज़ारने के लिए मंदिर के परिसर में बने शौचालय के पास जगह दी गई और निपुण मेहता व उनकी पत्नी ने बगैर किसी शिकायत के पूरी रात वहाँ गुजारी। इसी तरह एक गाँव में निपुण मेहता देर रात एक गरीब स्त्री के घर जा पहुँचे उस महिला के घर में खाने को कुछ नहीं था, वह पड़ोसी से उनके लिए खाना लेकर आई और उनको खाना खिलाया। निपुण मेहता ने अपने अनुभवों में कहा है कि शहर के लोग उनके इस प्रयास की मजाक उड़ाते थे जबकि गाँव वाले हमारा उत्साह बढ़ाते थे।

जब अपने विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में श्री निपुण मेहता ने अपने ये संस्मरण सुनाए तो उनका व्याख्यान खत्म होने के बाद दो मिनट तक निस्तब्धता छाई रही, और बाद में श्रोताओँ को एहसास हुआ कि व्यख्यान खत्म हो गया है तो उन्होंने उनके सम्मान में खड़े होकर तालियाँ बजाई।

अपने व्याख्यान के दौरान याज्ञिक जी ने बताया कि सूरत के अरबपति कारोबारी श्री सावजी ढोलकिया ने अपने बेटे को यह सिखाने के लिए कि नौकरी पाना और नौकरी करना कितना मुश्किल होता है उसे सूरत से बहुत दूर केरल भेजा कि वह इस अनजानी जगह जाकर अपने लिए कोई काम ढूँढे, जहाँ की भाषा भी उसे नहीं आती थी। अपने बेटे को उन्होंने 7 हजार रु, इसी शर्त के साथ दिए कि वह न तो इन रुपयों का उपयोग करेगा, न मोबाईल का उपयोग करेगा न अपने पिता के नाम का उपयोग करेगा। यदि वह ऐसा कर पाता है तभी कर्म की महत्ता को समझ पाएगा। कोच्चि जाकर उनके बेटे दृव्य ढोलकिया को बड़ी मुश्किल से काम मिला, पहले उसने काल सेंटर पर काम किया, फिर एक जूते की दुकान पर काम किया और फिर मैकडोनॉल्ड पर काम किया। इस दौरान दृव्य को खाने-पीने और ठहरने को लेकर तमाम मुश्किलों का सामना करा पड़ा।

इन उदाहरणों से अपनी बात को स्पष्ट करते हुए याज्ञिक जी ने कहा कि इन दृष्टांतों से गीता के दर्शन को आसानी से समझा जा सकता है। हमे कोशिश करना चाहिए कि दुनिया में जहाँ भी कोई अच्छाई है उसके बारे में जानें, भले ही हम उसको अपने जीवन में न उतार पाएँ; लेकिन अच्छाइयों के बारे में जानकर हम अपने जीवन में एक सकारात्मक सोच पैदा कर सकते हैं।

सोशल मीडिया की चर्चा करते हुए याज्ञिक जी ने कहा कि आज की पीढ़ी सोशल मीडिया की दीवानी है लेकिन हम इसमें ही इतने व्यस्त हो गए हैं कि हमारा परिवार से, समाज से और अपने ही लोगों से संवाद खत्म हो गया है। ये संवादहीनता युवाओँ में अवसाद, चिंता और तनाव पैदा कर रही है। उनको सोशल मीडिया पर उनकी समस्याओँ पर समाधान देने वालों की बजाय उनसे ज्यादा परेशान लोग मिलते हैं और फिर ये आत्म हत्या करने पर उतारु हो जाते हैं।

श्री याज्ञिक द्वारा रोचक और सहज अंदाज में प्रस्तुत इस व्याख्यान को सुनकर 13 वर्षीया प्रेक्षा जोशी ने भी घर आकर एक एक बात को याद करते हुए उसे लिखने का प्रयास कर अपने शब्दों में उसे अभिव्यक्त किया।