पाकिस्तान के कट्टर मुसलमानों की पोल खोलती पाकिस्तानी लेखक की किताब ने धूम मचाई

तहज़ीबी नर्गीसीयत पाकिस्तान के वरिष्ठ चिंतक, लेखक, शायर मुबारक हैदर साहब की किताब है। इसका शाब्दिक अर्थ है सांस्कृतिक नार्सिसिज़्म। बात शुरू करने से पहले आवश्यक है कि जाना जाये कि नार्सिसिज़्म है क्या ? यह शब्द मनोवैज्ञानिक संदर्भ का शब्द है जो ग्रीक देवमाला के एक चरित्र से प्राप्त हुआ है।

ग्रीक देवमाला की इस कहानी के अनुसार नार्सिस नाम का एक देवता प्यास बुझाने झील पर गया। वहाँ उसने ठहरे हुए स्वच्छ पानी में स्वयं को देखा। अपने प्रतिबिम्ब को देख कर वो इतना मुग्ध हो गया कि वहीँ रुक-ठहर गया। पानी पीने के लिये झील का स्पर्श करता तो प्रतिबिम्ब मिट जाने की आशंका थी। नार्सिस वहीँ खड़ा-खड़ा अपने प्रतिबिम्ब को निहारता रहा और भूख-प्यास से एक दिन उसके प्राण निकल गए। उसकी मृत्यु के बाद अन्य देवताओं ने उसे नर्गिस के फूल की शक्ल दे दी। अतः नर्गीसीयत या नार्सिसिज़्म एक चारित्रिक वैशिष्ट्य का नाम है।

नार्सिसिज़्म शब्द का मनोवैज्ञानिक अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति, समाज स्वयं को आत्ममुग्धता की इस हद तक चाहने लगे जिसका परिणाम आत्मश्लाघा, आत्मप्रवंचना हो। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि ऐसे व्यक्ति, समाज को स्वयं में कोई कमी दिखाई नहीं देती। यह स्थिति व्यक्ति तथा समाज की विकास की ओर यात्रा रोक देती है। ज़ाहिर है बीज ने मान लिया कि वो वृक्ष है तो वृक्ष बनने की प्रक्रिया तो थम ही जाएगी। विकास के नये अनजाने क्षेत्र में कोई क़दम क्यों रखेगा ? स्वयं को बदलने, तोड़ने, उथल-पुथल की प्रक्रिया से गुज़ारने की आवश्यकता ही कहाँ रह जायेगी ?

किन्तु नार्सिसिज़्म का एक पक्ष यह भी है कि आत्ममुग्धता की यह स्थिति कम मात्रा में आवश्यक भी है। हम सब स्वयं को विशिष्ट न मानें तो सामान्य जन से अलग विकसित होने यानी आगे बढ़ने की प्रक्रिया जन्म ही कैसे लेगी ? हमें बड़ा बनना है, विराट बनना है, अनूठा बनना है, महान बनना है, इस चाहत के कारण ही तो मानव सभ्यता विकसित हुई है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से अहंकार से भरा हुआ है मगर इसकी मात्रा संतुलित होने की जगह असंतुलित रूप से अत्यधिक बढ़ जाये तो ? यही इस्लाम के साथ हुआ है, हो रहा है।

न न न न मैं यह नहीं कह रहा बल्कि पाकिस्तान के एक चिंतक, लेखक, शायर मुबारक हैदर कह रहे हैं। मुबारक हैदर साहब की उर्दू किताबें तहज़ीबी नर्गीसीयत { सांस्कृतिक आत्मप्रवंचना }, मुग़ालते-मुग़ालते { भ्रम-भ्रम }, “Taliban: The Tip of A Holy Iceberg” लाखों की संख्या में बिक चुकी हैं। इन किताबों ने पाकिस्तान और भारत के उर्दू भाषी मुसलमानों की दुखती रग पर ऊँगली रख दी है। उनकी किताब के अनुसार नार्सिसिस्ट व्यक्तित्व स्वयं को विशिष्ट समझता है। क्षणभंगुर अहंकार से ग्रसित होता है। उसको अपने अलावा और कोई शक्ल दिखाई नहीं पड़ती। उसके अंदर घमंड, आत्ममुग्धता कूट-कूट कर भरी होती है। वो ऐसी कामयाबियों का बयान करता है जो फ़ैंटेसी होती हैं। जिनका अस्तित्व ही नहीं होता। ऐसे व्यक्तित्व स्वयं अपने लिये, अपने साथ के लोगों के लिये अपने समाज के लिये हानिकारक होता है। अब वो प्रश्न करते हैं कि ऐसे दुर्गुण अगर किसी समाज में उतर आएं तो उसका क्या होगा ?

वो कहते हैं “आप पाकिस्तान के किसी भी क्षेत्रीय या राष्ट्रीय समाचारपत्र के किसी भी अंक को उठा लीजिये। कोई कॉलम देख लीजिये। टीवी चैनल के प्रोग्राम देख लीजिये। मुहल्लों में होने वाली मज़हबी तक़रीर सुन लीजिये। उन मदरसों के पाठ्यक्रम देख लीजिये, जिनसे हर साल 6 से 7 लाख लड़के मज़हबी शिक्षा ले कर निकलते हैं और या तो पुरानी मस्जिदों में चले जाते हैं या नई मस्जिदें बनाने के लिये शहरों में इस्लाम या सवाब याद दिलाने में लग जाते हैं। रमज़ान के 30 दिन में होने वाले पूरे कार्यक्रम देख लीजिये। बड़ी धूमधाम से होने वाले वार्षिक मज़हबी इज्तिमा {एकत्रीकरण} देख लीजिये, जिनमें 20 से 30 लाख लोग भाग लेते हैं।

आपको हर बयान, भाषण, लेख में जो बात दिखाई पड़ेगी वो है इस्लाम की बड़ाई, इस्लाम की महानता का बखान, मुसलमानों की महानता का बखान, इस्लामी सभ्यता की महानता का बखान, इस्लामी इतिहास की महानता का बखान, मुसलमान चरित्रों की महानता का बखान, मुसलमान विजेताओं की महानता का बखान। मुसलमानों का ईमान महान, उनका चरित्र महान, उनकी उपासना पद्यति महान, उनकी सामाजिकता महान। यह भौतिक संसार उनका, पारलौकिक संसार भी उनका, शेष सारा संसार जाहिल, काफ़िर और जहन्नुम में जाने वाला अर्थात आपको इस्लाम और मुसलमानों की महानता के बखान का एक कभी न समाप्त होने वाला अंतहीन संसार मिलेगा।

इस्लाम अगर मज़हब को बढ़ाने के लिये निकले तो वो उचित, दूसरे सम्प्रदायों को प्रचार से रोके तो भी उचित, मुसलमानों का ग़ैरमुसलमानों की आबादियों को नष्ट करना उचित, उन्हें ज़िम्मी-ग़ुलाम बनाना भी उचित, उनकी स्त्रियों को लौंडी {सैक्स स्लेव} बनाना भी उचित मगर ग़ैरमुस्लिमों का किसी छोटे से मुस्लिम ग्रुप पर गोलियाँ चलना इतना बड़ा अपराध कि मुसलमानों के लिये विश्वयुद्ध छेड़ना आवश्यक। इस्लाम का अर्थशास्त्र, राजनीति, जीवन शैली, ज्ञान बड़ा यानी हर मामले में इस्लाम महान। केवल इस्लाम स्वीकार कर लेने से संसार की हर समस्या के ठीक हो जाने का विश्वास।

ग़ैरमुस्लिमों के जिस्म नापाक और गंदे, ईमान वालों {मुसलमानों} को उनसे दुर्गन्ध आती है। उनकी आत्मा-मस्तिष्क नापाक, उनकी सोच त्याज्य, उनका खाना गंदा और हराम, मुसलमानों का खाना पाक-हलाल-उम्दा, दुनिया में अच्छा-आनंददायक और पाक कुछ है तो वो हमारा यानी मुसलमानों का है। इस्लाम से पहले दुनिया में कोई सभ्यता नहीं थी, जिहालत और अंधकार था। संसार को ज्ञान और सभ्यता अरबी मुसलमानों की देन है।

अब अगर आप किसी इस आत्मविश्वास से भरे किसी मुस्लिम युवक से पूछें, कहते हैं चीन में इस्लामी पैग़ंबर मुहम्मद के आने से हज़ारों साल पहले सभ्य समाज रहता था। उन्होंने मंगोल आक्रमण से अपने राष्ट्र के बचाव के लिये वृहदाकार दीवार बनाई थी। जिसकी गणना आज भी विश्व के महान आश्चर्यों में होती है।

भारत की सभ्यता, ज्ञान इस्लाम से कम से कम चार हज़ार साल पहले का है। ईरान के नौशेरवान-आदिल की सभ्यता, जिसे अरबों ने नष्ट कर दिया, इस्लाम से बहुत पुरानी थी। यूनान और रोम के ज्ञान तथा महानता की कहानियां तो स्वयं मुसलमानों ने अपनी किताबों में लिखी हैं। क्या यह सारे समाज, राष्ट्र अंधकार से भरे और जाहिल थे ?

तो आप बिलकुल हैरान न होइयेगा अगर नसीम हिज़ाजी का यह युवक आपको आत्मविश्वास से उत्तर दे, देखो भाई ये सब काफ़िरों की लिखी हुई झूठी बातें हैं जो मुसलमानों को भ्रमित करने और हीन-भावना से भरने के लिए लिखी गयी हैं और अगर इनमें कुछ सच्चाई है भी तो ये सब कुफ़्र की सभ्यताएँ थीं और इनकी कोई हैसियत नहीं है। सच तो केवल यह है कि इस्लाम से पहले सब कुछ अंधकार में था। आज भी हमारे अतिरिक्त सारे लोग अंधकार में हैं। सब जहन्नुम में जायेंगे। कुफ़्र की शिक्षा भ्रमित करने के अतिरिक्त किसी काम की नहीं। ज्ञान केवल वो है जो क़ुरआन में लिख दिया गया है या हदीसों में आया है। यही वह चिंतन है जिसके कारण इस्लाम अपने अतिरिक्त हर विचार, जीवन शैली से इतनी घृणा करता है कि उसे नष्ट करता आ रहा है, नष्ट करना चाहता है।

चिंतक, लेखक, शायर मुबारक हैदर समस्या बता रहे हैं कि पाकिस्तान की दुर्गति की जड़ में इस्लाम और उसका चिंतन है। वो कह रहे हैं कि हम जिहाद की फैक्ट्री बन गए हैं। यह छान-फटक किये बिना कि ऐसा क्यों हुआ, हम स्थिति में बदलाव नहीं कर सकते। संकेत में वो कह रहे हैं कि अगर अपनी स्थिति सुधारनी है तो इस चिंतन से पिंड छुड़ाना पड़ेगा। उनकी किताबों का लाखों की संख्या में बिकना बता रहा है कि पाकिस्तानी समाज समस्या को देख-समझ रहा है। यह आशा की किरण है और सभ्य विश्व संभावित बदलाव का अनुमान लगा सकता है।

आइये इस चिंतन पर कुछ और विचार करते हैं। ईसाई विश्व का एक समय सबसे प्रभावी नगर कांस्टेंटिनोपल था। 1453 में इस्लाम ने इस नगर को जीता और इसका नाम इस्ताम्बूल कर दिया। स्वाभाविक ही मन में प्रश्न उठेगा कि कांस्टेंटिनोपल में क्या तकलीफ़ थी जो उसे इस्ताम्बूल बनाया गया ? बंधुओ, यही इस्लाम है। सारे संसार को, संसार भर के हर विचार को, संसार भर की हर सभ्यता को, संसार भर की हर आस्था को…….मार कर, तोड़ कर, फाड़ कर, छीन कर, जीत कर, नोच कर, खसोट कर…….येन-केन-प्रकारेण इस्लामी बनाना ही इस्लाम का लक्ष्य है।

रामजन्भूमि, काशी विश्वनाथ के मंदिरों पर इसी कारण मस्जिद बनाई जाती है। कृष्ण जन्मभूमि का मंदिर तोड़ कर वहां पर इसी कारण ईदगाह बनाई जाती है। पटना को अज़ीमाबाद इसी कारण किया जाता है। अलीगढ़, शाहजहांपुर, मुरादाबाद, अलीपुर, पीरपुर, बुरहानपुर और ऐसे ही सैकड़ों नगरों के नाम…….वाराणसी, मथुरा, दिल्ली, अजमेर चंदौसी, उज्जैन जैसे सैकड़ों नगरों में छीन कर भ्रष्ट किये गए मंदिर इन इस्लामी करतूतों के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

आपने कभी कुत्ता पाला है ? न पाला हो तो किसी पालने वाले से पूछियेगा। जब भी कुत्ते को घुमाने ले जाया जाता है तो कुत्ता सारे रास्ते इधर-उधर सूंघता हुआ और सूंघे हुए स्थानों पर पेशाब करता हुआ चलता है। स्वाभाविक है कि यह सूझे यदि कुत्ते को पेशाब आ रहा है तो एक बार में क्यों फ़ारिग़ नहीं होता, कहीं उसे पथरी तो हो नहीं गयी है ? फिर हर कुत्ते को पथरी तो नहीं हो सकती फिर उसका पल-पल धार मारने का क्या मतलब है ? मित्रो! कुत्ता वस्तुतः पेशाब करके अपना इलाक़ा चिन्हित करता है। यह उसका क्षेत्र पर अधिकार जताने का ढंग है। बताने का माध्यम है कि यह क्षेत्र मेरी सुरक्षा में है और इससे दूर रहो अन्यथा लड़ाई हो जाएगी। ऊपर के पैराग्राफ़ और इस तरह की सारी करतूतें इस्लामियों द्वारा अपने जीते हुए इलाक़े चिन्हित करना हैं।

अब बताइये कि सभ्य समाज क्या करे ? इसका इलाज ही यह है कि समय के पहिये को उल्टा घुमाया जाये। इन सारे चिन्हों को बीती बात कह कर नहीं छोड़ा जा सकता चूँकि इस्लामी लोग अभी भी उसी दिशा में काम कर रहे हैं। बामियान के बुद्ध, आई एस आई एस द्वारा सीरिया के प्राचीन स्मारकों को तोडा जाना बिल्कुल निकट अतीत में हुआ है। इस्लामियों के लिये उनका हत्यारा चिंतन अभी भी त्यागने योग्य नहीं हुआ है, अभी भी कालबाह्य नहीं हुआ है। अतः ऐसी हर वस्तु, मंदिर, नगर हमें वापस चाहिये।

राष्ट्रबन्धुओं! इसका दबाव बनाना प्रारम्भ कीजिये। सोशल मीडिया पर, निजी बातचीत में, समाचारपत्रों में जहाँ बने जैसे बने इस बात को उठाते रहिये। यह दबाव लगातार बना रहना चाहिए। पेट तो रात-दिन सड़कों पर दुरदुराया जाते हुए पशु भी भर लेते हैं। मानव जीवन गौरव के साथ, सम्मान के साथ जीने का नाम है। हमारा सम्मान छीना गया था। समय आ रहा है, सम्मान वापस लेने की तैयारी कीजिये।

(इस पुस्तक की भूमिका में लेखक ने बहुत तल्ख शब्दों में पाकिस्तानी मुस्लिम कट्टरवादियों की मानसिकता पर प्रहार किया है)

पिछले कुछ बरसों के दौरान मुसलमानों ने आतंकवाद के सम्बंध में बड़ा नाम कमाया है। लेकिन आतंकवाद की घटनाओं से पहले भी हमारे मुस्लिम समाज विश्व समुदाय में अपने अलगाववाद और आक्रामक गर्व की वजह से प्रमुख स्थिति में रहे हैं।

दुनिया भर में इस्लाम और आतंकवाद के बीच सम्बंध की तलाश जारी है और ज्यादातर समृद्ध या विकसित समाज का दावा है कि जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है, वो इस्लामी सक्रियता के बुनियादी चरित्र का हिस्सा है। दूसरी ओर मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी लगातार स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं कि इस्लाम में हिंसा और आतंकवाद की कोई अवधारणा ही मौजूद नहीं है।

सच क्या है, ये जानने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। खासकर ये सवाल महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम समाज में मौजूदा हिंसा की लहर के खिलाफ विरोध न होने के बराबर क्यों है? जाहिर है कि जो तत्व तबाही पैदा करने की मौजूदा प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उन्हें अपने प्रिय लोगों, अपने पड़ोसियों और अपनी बस्तियों की तरफ से नफरत का सामना नहीं है। अगर किसी समाज के रवैये में किसी अमल से सख्त नफरत मौजूद हो तो वो अमल फल फूल नहीं सकता। जैसे औरत की आज़ादी और मज़हबी आज़ादी के खिलाफ हमारे समाज में नफरत मौजूद है तो इन आज़ादियों के पनपने का सवाल ही पैदा नहीं होगा। इसलिए कहीं न कहीं हिंसा और तबाही को कोई ऐसा समर्थन हासिल है जो उसे ऊर्जा प्रदान करती है।

हिंसा और तबाही का ये अमल जिसने दुनिया भर के मुस्लिम लोगों को विश्व समाज की नज़र में संदिग्ध बना दिया है। यहां तक कि भारतीय उपमहाद्वीप और अफगानिस्तान के मुसलमान भय और नफरत का प्रतीक बन गए हैं। क्या ये अमल कुछ लोगों की सोच बिगड़ने से शुरू हुआ है? क्या मुस्लिम समाज दुनिया के दूसरे समुदायों के साथ चलने को तैयार हैं? क्या भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात् बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के मुसलमान आधुनिक युग की सभ्यताओं के साथ शांतिपूर्वक रह सकते हैं? क्या अफगानियों की भूमिका एक क्षेत्रीय संस्कृति तक सीमित रह सकता है? या प्राचीन विजेताओं की ये क़बायली आबादी मध्य एशिया, चीन, पाकिस्तान और भारत को जीतने की आज भी वैसी ही इच्छा रखती है जैसे हज़ारों साल के दौरान रही है? और सबसे बढ़कर ये कि दुनिया की मौजूदा सभ्यताओं से मुस्लिम संस्कृति का टकराव क्या नतीजा दिखाएगा? क्या वैश्विक आबादी जो मुसलमानों की आबादी से चार गुना बड़ी है और जिसमें अमेरिका, रूस, यूरोप, चीन, जापान और भारत जैसे संगठित और सशस्त्र समाज हैं, अपने देशों की तबाही बर्दाश्त करते रहेंगे?

दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करने वाले मुसलमान यात्रा के दौरान जिस अनुभव से गुज़रते हैं, मैं भी कई बार इस पीड़ा से गुज़रा हूँ। मुझे यातना और अपने प्रिय लोगों, अपने दोस्तों और देशवासियों का सामूहिक अपमान परेशान करता है। अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों की बेबसी और बर्बादी की कल्पना बेचैन करती है। मैं पाकिस्तानियों की उस पीढ़ी से हूँ जिसने एक आधुनिक और सभ्य पाकिस्तान का सपना देखा था। हमने 1960 और 1970 के दशकों में कदम कदम पर उगती हुई उम्मीदों की फसल देखी। फिर अपनी आँखों के सामने अपनी खाक उड़ती देखकर हम बर्बादी के अमल को रोक न सके, हमारा समाज अज्ञानता और नर्गिसियत का शिकार हो गया और राष्ट्रों के आधुनिक मानवीय आंदोलनों से कटता चला गया, नींद में चलते हुए एक काम की तरह जिसे अमल करने वाले ने अपने खेल के लिए सुला दिया हो।

मुझे इस किताबचे की कटुता का एहसास है। मुझे ये भी पता है कि जिस वर्ग को अकास बेल से उपमा दी है और जिन आदरणीय लोगों के विचारों पर आपत्ति की है वो कितने प्रभावशाली और तुनक मिजाज़ हैं और मेरे समाज को कितना तुनक मिजाज़ बना दिया गया है … मुझे डर है कि हमारे समाज को तबाही की ओर धकेलने वाला कारक अपने विचारों की तबाही का विश्लेषण करने पर तैयार नहीं होगा। बल्कि तरह तरह के कारण और आरोप प्रत्यारोप के माध्यम से अपने खेल को जारी रखने की कोशिश करेगा। इसके बावजूद मेरा मानना है कि इस कारक का हाथ रोकना ज़रूरी है, जितना भी हमसे हो सके।

धर्म को राजनीति और रोजगार बनाने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या ईमानदारी से अपने रास्ते को सिराते मुस्तक़ीम (सीधा रास्ता) समझती है। ये सरल लोग आत्ममोह वाले लोग हैं जो मुस्लिम समाज के दूसरे लोगों की तरह कुछ शातिरों की चाल का शिकार हुए हैं, लेकिन धर्म से रोज़गार और सामाजिक सत्ता हासिल होने के कारण ये लोग अपने मौजूदा भूमिका से संतुष्ट हैं, बल्कि गर्व करने की स्थिति में हैं। मेरी कामना और दुआ है कि इस पर ईमानदारी और सरल लोगों के मजमे में से कोई ऐसा आंदोलन जन्म ले जो उन्हें अनावश्यक गर्व से मुक्त करके आत्म आलोचना और सच्ची नम्रता की ओर ले जाए।

मुस्लिम समाज के वो लोग जो आधुनिक सभ्य समाज के नागरिक बन गए हैं, कुछ समय पहले तक अपने पैतृक समाज का मार्गदर्शन किया करते थे। उनकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम और गैर मुस्लिम जनता मानव सभ्यता के विकास को पसंद करने की नज़र से देखते और ईर्ष्या करते थे, लेकिन ये एक बड़ी बदनसीबी है कि आप्रवासी लोग तेज़ी से प्रतिगमन और अज्ञानता के इस आंदोलन से प्रभावित हो रहे हैं जो उन्हें इस्लामी पहचान के नाम पर ज्ञान और चेतना से नफरत पर उकसा रही है और जिसके नतीजे में मुस्लिम जनता के हीरो और रोल मॉडल न तो वैज्ञानिक है न आविष्कारक बल्कि वो क़ारी, मस्जिदों के इमाम उनके लीडर बन गए हैं जिनकी कुल संपत्ति रटी हुई आयतें और कहानियाँ हैं। जिसका अर्थ भी वो पूरी तरह नहीं जानते और जिनके ख़ुत्बों (धार्मिक भाषणों) में झूठे गर्व और वाहियात दावों के अलावा अगर कुछ है तो वो नफरत है जिसका अंजाम मुस्लिम जनता का अकेलापन और पिछड़ापन है … अगर ये किताबचा (पुस्तिका) आप्रवासी मुसलमान युवकों का ध्यान पा सके तो उसे भी खुश नसीबी समझूँगा।

मुस्लिम नौजवानों के मानस पर मदरसा और क़ारी के कल्चर ने कई नकारात्मक प्रभाव छोड़े हैं। लेकिन इनमें संकीर्णता और लोगों को तकलीफ देने में खुशी सबसे महत्वपूर्ण हैं। तोड़फोड़ उन्हीं का ज़हरीला फल है। हम यातना में जीने और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के आदी हो गए हैं। हमारी मस्जिद का इमाम हो या आम मुसलमान गर्व से दावा करता है कि हम ने अमुक को बर्बाद कर दिया। जैसे हमने रूस को बर्बाद कर दिया, हम अमेरिका को बर्बाद कर रहे हैं, हम भारत को भी बर्बाद करेंगे।

चीन को याजूज माजूज कहने की मुहिम जारी है और वक्त आने पर चीन को बर्बाद करने का दावा भी सुना जा सकेगा। लेकिन आप इस इमाम या उस मुक़्तदी के मुंह से ये नहीं सुनेंगे कि हमने किस किस को आबाद किया। उसे अपनी या अपने लोगों की तकलीफें दूर करने में कोई दिलचस्पी नहीं। उसे गर्व है कि वो बर्बाद कर सकता है … यातना देने और मासूम बच्चों पर हिंसा की जिस संस्कृति ने मदरसा में जन्म लिया था, वो बढ़कर युनिवर्सिटी तक आई और अब बाज़ार तक फैल गयी है। हमारे बुद्धिजीवियों सहित हममें से किसी ने भी अपनी आध्यात्मिक नर्गिसियत से निकलकर इस बर्बरता पर आपत्ति नहीं की।

मुझे स्वीकार है कि ये पुस्तिका अपने विषय के विस्तार और गहराई के सामने बहुत अपर्याप्त, बहुत सरसरी और सतही है। फिर भी इसे इस उम्मीद के साथ पेश करने का साहस कर रहा हूं कि मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी और समझदार लोग मेरी कमियों को नज़रअंदाज करके इस विषय पर हमारा मार्गदर्शन करेंगे।

(लेखक जाने माने शायर व कवि हैं और इस्लाम व उर्दू के विशेषज्ञ हैं। अपने यू ट्यूब चैनल https://www.youtube.com/@TufailChaturvedi के माध्यम से कतट्टरपंथियों की पोळ खोलने का अभियान चला रहे हैं)