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पाकिस्तानी फौज के आतंक का नंगा नाच बलूचिस्तान में

सुबह-सुबह का वक्त। टूटे-फूटे रोशनदान से झांकती सूरज की रोशनी आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही थी। बढ़ती तपिश की वजह से ख्वाब का सिलसिला टूटता है और आंखें खुल जाती हैं। जैसे-जैसे नजरों के सामने की चीजें साफ होती जाती हैं, उसके चेहरे पर दर्द की लकीरें गहरी होती जाती हैं। सुबह बिल्कुल नई, लेकिन दर्द वही पुराना। रात में आंख लगने के साथ कहीं खो जाने वाला दर्द हर रोज सूरज की रोशनी के साथ चेहरे पर ताजा हो उठता है। उस औरत की जिंदगी के दिन एक-एक करके ऐसे ही तमाम हो रहे हैं। उसका यह दर्द अपनों से जुदा होने का है। बरसों पहले पाकिस्तान की फौज ने उसके किसी अपने को उठा लिया था। बेहतरी की उम्मीद में बीतते दिनों के साथ उसके चेहरे पर गम और बेबसी के निशान पुख्ता होते चले गए। ग्वादर, लास बेला, मकरान से घिरे अवारन में यह किस्सा घर-घर का है। इन हालात से वाकिफ होने के लिए एक-दो वाकयों पर गौर फरमाना मुनासिब होगा।

शब्बीर बलोच एक छात्र थे। यहीं अवारन में रहते थे। वे बलूचिस्तान स्टूडेंट्स आॅर्गनाइजेशन (बीएसओ) के मरकजी (सेंट्रल) सूचना सचिव थे। बात 4 अक्तूबर, 2016 की है। वे अपने परिवार में किसी की शादी में शरीक होने के लिए गोर्कुक गए थे। उसी दरम्यान वहां पाकिस्तान की फौज ने आॅपरेशन चलाया। सैकड़ों गाड़ियों में भरकर फौजी आए और पूरे इलाके को घेर लिया। वे नौजवानों को खोज-खोजकर उठा ले गए। इनमें शब्बीर बलोच भी थे। शब्बीर जिस घर की शादी में शरीक थे, उसमें कोई जवान नहीं बचा। इनमें से ज्यादातर आज भी लापता हैं। शब्बीर की भी खबर नहीं। उस आॅपरेशन के एक चश्मदीद ने कहा, ‘‘जमीनी फौज को आसमान से कवर देने के लिए तीन हेलिकॉप्टर थे और वे ऊपर से नजर भी रख रहे थे। अंदाजा है कि वे फौजी तुरबत से लाए गए थे, क्योंकि गोर्कुक आॅपरेशन से ठीक पहले तुरबत से फौज की भारी मूवमेंट हुई थी।’’

बीवी-बहन ने नहीं छोड़ी उम्मीद

उस शादी में शब्बीर बलोच की बीवी भी थीं। वे खुद को निहायत बेबस महसूस कर रही थीं, जब उनके सामने से फौजियों ने उनके शौहर को उठा लिया। वे शौहर की खोज-खबर के लिए उनकी तस्वीर लेकर कई जगहों पर विरोध कर चुकी हैं। शब्बीर की बहन का नाम है सीमा बलोच। न सिर्फ एक भाई, बल्कि एक इनसान के तौर पर भी वह शब्बीर की तारीफ करती हैं। उनकी नजर में शब्बीर ऐसा इनसान था जो पूरे इलाके, पूरे कौम की बेहतरी की बात किया करता था। शब्बीर की खोज-खबर के लिए उनकी बीवी और बहन दर-दर की ठोकरें खा रही हैं।

2013 में बलूचिस्तान में जलजला आया था। तब यहां बड़ी तबाही मची थी। बीएसओ ने तमाम इलाकों में शिविर लगाए थे। ऐसे ही शिविर अवारन में भी थे। शब्बीर बड़ी संजीदगी से इन शिविरों में रह रहे लोगों का ख्याल रखते। उस शिविर में रह चुके एक बुजुर्ग ने कहा, ‘‘वह बड़ा नेकदिल और जज्बाती इनसान था। बेशक शिविर उसकी तंजीम की ओर से लगाया गया था, लेकिन वह लोगों की देखभाल ऐसे करता जैसे वह अपने किसी बड़े के काम आ रहा हो। वह शिविर में रहने वाले एक-एक इनसान के पास जाता और देखता कि उनके मुश्किलात कम करने के सूरतेहाल क्या हो सकते हैं।’’

शब्बीर के साथ बिताए दिनों को याद करते हुए उसके एक पड़ोसी ने कहा, ‘‘वह अक्सर इनसानी हुकूक की बातें करता था। वह कहा करता था कि वे लोग खास होते हैं, जिन्हें खुद कुदरत कुछ सिखाती हो। हमारे इलाके में जीने के हालात मुश्किल तो हैं, लेकिन ये बताते हैं कि अगर हाथ में हाथ डालकर चलोगे तो सफर आसान होगा।’’

वालिद का ख्वाब टूटा

अवारन से ही ताल्लुक था सगीर अहमद बलोच का। वे कराची विश्वविद्यालय में तालीम ले रहे थे। 20 नवंबर, 2017 को उन्हें विश्वविद्यालय की कैंटीन से अगवा किया गया। तब उनकी परीक्षाएं चल रही थीं। उनकी बहन हमीदा बलोच कहती हैं, ‘‘मैं हॉस्टल में थी जब सगीर के अगवा किए जाने की खबर मिली। वह मेरी जिंदगी का सबसे बुरा दिन था। मैं यह सोच भी नहीं सकती थी कि कभी हमारे परिवार के साथ ऐसा कुछ होगा। वालिद ड्राइवर हैं और उनकी ख्वाहिश थी कि सगीर ऊंची तालीम लेकर बड़ा आदमी बने ताकि हमारी जिंदगी बेहतर हो सके। लेकिन उस शाम ने हमसे हमारी उम्मीदें छीन लीं। पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया और मीडिया ने हमारी बात छापने से।’’ तमाम दूसरी बहनों की तरह हमीदा भी सगीर की तस्वीर वाली तख्ती और भाई को छुड़ाने की गुजारिश लिए कराची की सड़कों पर मारी-मारी फिर रही हैं। जब कहीं से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने अदालत में याचिका दाखिल की। लेकिन सगीर के बारे में अब तक कोई पता नहीं चला कि वह कहां है? किस हालत में है? सगीर के वालिद जिस तकलीफ में हैं, उसे लफ्जों में बयान करना आसान नहीं है।

पाकिस्तान फौज के जुल्म

अब आइए, अगले वाकये का रुख करें। जमील अहमद बलोच। उम्र पचास से कुछ ऊपर। वह खेती और मजदूरी करते थे। अवारन के ही तीरतेज गांव में रहते थे। वह निहायत आम इनसान थे। किसी भी तंजीम से कोई वास्ता नहीं। सियासत से दूर, लोगों के साथ मिल-जुलकर रहने वाले नेकदिल इनसान। इसी वजह से लोग उन्हें पसंद भी करते थे। जमील को 29 अप्रैल, 2013 को कई लोगों की मौजूदगी में फ्रंटियर कॉर्प्स (एफसी) वाले उठा ले गए। फिर उनका कोई पता नहीं चला। एक चश्मदीद ने बताया, ‘‘चार-पांच फौजी थे। उन्होंने जमील की कोई सफाई नहीं सुनी और उसे अपने साथ ले गए।’’ इसी तरह, 29 अप्रैल, 2017 को वजदाद इलाके से सत्तार को फौज ने घर से उठा लिया। उनका भी कोई पता नहीं। इस तरह के सैकड़ों वाकये हैं जो महज अवारन तहसील के हैं। पाकिस्तानी फौज बरसों तक लोगों को हिरासत में रखती है और इनके साथ जेहनी, जिस्मानी तौर पर दरिंदगी की जाती है। कुछ लोग वापस आए भी तो उनकी दिमागी तवाजन (संतुलन) वैसी नहीं रही।

रियासती दहशतगर्दी

1948 में बलूचिस्तान पर जबरन कब्जा करने के बाद से ही यह इलाका रियासती जबर का शिकार रहा है। यह सिलसिला अवारन में भी देखा गया। यहां भी पाकिस्तान की फौज, उसकी मिलिटरी इटेंलिजेंस, एफसी की रियासती दहशतगर्दी के खिलाफ लोगों में जज्बानियत (गुस्सा) है। अगर बेगुनाह लोगों पर जबर करते रहेंगे तो उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे इसके खिलाफ आवाज बुलंद न करें। इस मामले में अवारन में भी वैसा ही माहौल है, जैसा बलूचिस्तान के दूसरे इलाकों में है। लोगों के साथ जो हो रहा है, उसे लेकर वे एक-दूसरे से बातें करते हैं। अपनी तकलीफें साझा करते हैं। अगर कोई इसे फौजी आॅपरेशन की वजह मानता हैं तो यह उसकी जहालत है। पहाड़ी के उस पार एक बुजुर्ग रहते हैं। उनके नौजवान बेटे को एफसी ढाई साल पहले उठा ले गई। यहां-वहां चक्कर काटे, पर एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। वे कहते हैं, ‘‘आप जुल्म करते बाज न आओ और हम उफ्फ भी न करें? हमारी मजबूरी है कि गायब कर दी गई औलाद के वास्ते औरों को जोखिम में नहीं डाल सकते। लेकिन कब तक इसका नाजायज फायदा उठाते रहेंगे? कब तक हमारी सहालियत और सब्र का इम्तिहान लेंगे?’’

मोटे तौर पर हर ओर ऐसा ही माहौल है। इलाके में शायद ही कोई ऐसा घर मिलेगा जिसे फौज के जबर का कोई तजुर्बा न हो। किसी के घरवाले को उठाया गया, किसी की औरत के साथ बदसलूकी की गई, किसी के घर में घुसकर सामान तोड़-फोड़ दिया गया तो किसी के माल-मवेशी ले गए। ऐसे माहौल में अवारन में वही हो रहा है, जो कहीं और होता। यहां के ज्यादातर लोगों में पाकिस्तान की हुकूमत के लिए नफरत पैदा हो गई है।

इंसाफ की उम्मीद बेमानी

छात्र नेता शब्बीर अहमद बलोच के गायब होने के बाद उनके घरवालों और साथियों को एफआईआर दर्ज कराने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी। वे तीन माह तक इधर से उधर दौड़ते रहे, लेकिन कोई फायदा न हुआ। उस दरम्यान बीएसओ से जुड़े कुछ छात्र शब्बीर के घर वालों से बराबर संपर्क में रहे। उनके साथ हुकूमती अदारों (सरकारी संस्थाओं) के चक्कर काटते रहे। उन्हीं में से एक ने कहा, ‘‘वे किसी कीमत पर एफआईआर दर्ज करने को तैयार नहीं थे। कोई-न-कोई बहाना बना देते। बाद में हम अदालत गए, तब एफआईआर दर्ज हुई।’’ जिस मुल्क में एफआईआर दर्ज कराने के लिए भी इतनी मशक्कत करनी पड़े, वहां के हालात का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। लोगों में इस बात की ज्यादा उम्मीद नहीं है कि पाकिस्तानी अदारें उन्हें इंसाफ दे देंगी, लेकिन कुछ लोग हैं जो अपनी आवाज, अपनी तकलीफ, अपने साथ हुई नाइंसाफी को रिकॉर्ड में लाना चाहते हैं। उन्हें महसूस होता है कि शायद यही एक रास्ता है, जिससे दुनिया जान पाएगी कि बलूचिस्तान के लोगों के साथ हुक्मरानों ने कैसा सलूक किया। दुनिया को समझना होगा कि आखिर क्यों पाकिस्तान की अदारों से इंसाफ की उम्मीद बेमानी है। दरअसल, बलोच-नस्लकुशी में ये सारे रियासत के साथ हैं। चूंकि बात फौज के खिलाफ है, इसलिए कोई नहीं चाहता कि उनके खिलाफ शिकायत दर्ज हो। इलाकाई एजेंसियों की तो बात छोड़िए, लापता लोगों की खोज-खबर, उनके मामलों की तफ्तीश के लिए बनी मरकजी कमीशन की नीयत पर भी सवालिया निशान हैं। उसने बलूचिस्तान की सरजमीं पर आकर हालात का जायजा लिए बिना फैसला सुना दिया कि लापता लोगों में से 70 फीसदी आतंकी गतिविधियों में मशगूल रहे। ये सब बातें अवारन की अवाम समझने लगी है। इसी वजह से इसमें हुकूमत के लिए जज्बाती तौर पर नापसंदगी आ गई है। कराची विश्वविद्यालय में तालीम लेने वाले यहां के एक छात्र ने कहा, ‘‘हुकूमत दो चीजों पर चलती है- तरीका और तरीकाकार। पाकिस्तान में ये दोनों होंगे, लेकिन बलूच लोगों के लिए न तो कोई तरीका है और न तरीकाकर। उनके लिए तो फौज, एमआई, आईएसआई, एफसी…यही सब हैं।’’

बलूचिस्तान के लोगों को महसूस होता है कि पाकिस्तानी जुल्म और जब्र अपनी इंतिहा पर है। किसी खास कौम या तबके से लोगों को अगवा नहीं किया जाता है। इनमें छात्र, जमींदार, सियासी वर्कर, खेती-बाड़ी करने वाले व माल-मवेशी पालकर गुजर-बसर करने वाले हैं। वे यहां खौफ की हुकूमत चलाना चाहते हैं। इसलिए वे हर तबके के लोगों को निशाना बनाते हैं। उनका मकसद है- दहशतगर्दी से बलूचों में खौफ पैदा करना व धीरे-धीरे उनकी नस्लकुशी कर देना ताकि बलूच अपनी कौमी आजादी से महरूम हो जाएं। हुकूमत को इस बात पर गौर करना होगा कि पीछे खिसकते हुए गर पीठ दीवार से सट जाए तो बहुत कुछ अपने अख्तियार में नहीं रह जाता।

फौज को आसमान से हिफाजत देने के लिए तीन हेलीकॉप्टर ऊपर मंडराते रहे

जिस वक्त मैं यह रपट तैयार कर रहा हूं, इलाके में फौजी आॅपरेशन चल रहा है। फौज ने इलाके को घेर रखा है। वैसे तो फौज ने यहां कई जगहों पर ठिकाने बना रखे हैं, जो हमेशा बने रहते हैं। लेकिन जब भी उन्हें आॅपरेशन करना होता है तो ऐसी कई फौरी छावनियां आनन-फानन में बना ली जाती हैं। जैसे ही इस तरह की हरकतें दिखती हैं, लोग समझ जाते हैं कि अब फौज आॅपरेशन करने वाली है। आज ह्यूमन राइट्स (मानवाधिकार) को अहमियत देने वाले इस दौर में शायद ही सुनने में आए कि किसी मुल्क ने अपने ही लोगों पर हवाई हमला किया हो। लेकिन यहां सब वाजिब है। यहां जमीनी हमले तो होते ही हैं, उसके साथ आसमान से हेलिकॉप्टर भी गोलियां और बम बरसाते हैं। बेशक, बाहर के लोगों के लिए यह अजूबा हो, लेकिन बलूचिस्तान के लोगों के लिए तो यह आएदिन की बात है।

अभी चंद रोज पहले की बात है, दुरास्की चोको बाजार इलाके में फौजियों ने आॅपरेशन किया और वहां से कम-से-कम छह लोगों को अगवा कर लिया। चश्मदीदों के मुताबिक, फौजी बड़ी तादाद में आए थे और उन्होंने कई घरों में घुसकर तलाशी ली और सामान वगैरह खराब कर दिया। उस दौरान औरतों के साथ बदसलूकी की गई और बच्चों को खौफजदा किया गया। एफसी वाले जिन लोगों को उठाकर ले गए, वे हैं- असदुल्लाह वल्द अल्लाह दाद, जमान वल्द असीम, कादिर वल्द मूसा, असुमी वल्द शाहदाद, निजाम वल्द मोहम्मद उमर और इबरार वल्द हजूर बख्श। ये सभी एक ही इलाके के थे। इन लोगों को उठाने के दौरान एफसी ने हमेशा की तरह ही किसी को कोई वजह बताने की जरूरत नहीं समझी और उन्हें मवेशियों की तरह ले गए। फौजी पेशबंदी को देखते हुए लगता है कि बहुत जल्द वे लोग इलाके में फिर से आॅपरेशन करने वाले हैं। लोग भी जानते हैं कि फौजी आए हैं तो कुछ-न-कुछ तो करेंगे ही। हां, उन्हें यह नहीं पता होता कि किसी घर में घुसकर तोड़-फोड़ करेंगे, माल-मवेशी हांक ले जाएंगे या फिर उनमें से किसी को उठा ले जाएंगे।

खुदमुख्तारी के लिए आजादी जरूरी

1948 से लेकर आज तक बलूचिस्तान के लोगों के प्रति पाकिस्तान का रुख ऐसा रहा है जैसे वह आका हो और ये गुलाम। वे इस बात के ख्वाहिशमंद थे, और हैं कि यहां के लोग उनकी हर बात को सरखैम तस्लीम करें। पर ऐसा होना मुश्किल है। अवारन में लोगों को उनके हक के लिए खबरदार करने वाले एक शख्स कहते हैं, ‘‘हमारी जिंदगी जिन हालात में गुजर रही है और गुजर जाएगी, इससे कहीं महत्वपूर्ण यह है कि हम आने वाली नस्लों के लिए कैसी दुनिया तैयार कर रहे हैं। हमें इस बात का मुकम्मल तरीके से इल्म है कि हालात ऐसे ही रहे तो हम अपनी आने वाली नस्लों के लिए एक खराब, गुलामी भरी और खतरनाक दुनिया छोड़ने जा रहे हैं। इसी वजह से हम हालात को बदलने की जद्दोजहद कर रहे हैं। हमें अहसास है कि पाकिस्तान की गुलामी में हमें आजादी-खुदमुख्तारी हासिल नहीं हो सकती।’’

साभार- http://www.panchjanya.com से