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पं. दीनदयाल उपाध्यायः राजनीतिक शुचिता का एक कीर्ति स्तंभ

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित “एकात्म मानववाद” औऱ “अंत्योदय” का वैचारिक सूत्र दिया। यह उनके जन्म सदी के वर्ष पर न सिर्फ मान्य है बल्कि “न्यू इंडिया” के निर्माण के लिए व्यवहार कुशल सिद्धांत है। दोनों ही मौलिक सिद्धांत विकासवाद के झंझावात में उलझे शासकीय व्यवस्था को सार्थक दिशा देने में आज भी पर्याप्त है। एकात्म मानववाद में मानव को संपूर्णता में एक इकाई मानकर उसकी जरूरतों को समझने और उसकी संतुलित आपूर्ति का सिद्धांत निहित है, तो अंत्योदय की अवधारणा शासकीय व्यवस्था से आग्रह करता है कि विकास को अमलीजामा पहनाते वक्त वह अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की सुध को प्राथमिकता दे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जन धन औऱ उज्जवला जैसी योजनाओं की सफलता के जरिए पं.दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय को व्यवहार में उतारकर दिखा दिया है।

आगे इसके आधार पर ही “न्यू इंडिया” के निर्माण की तैयारी जारी है। भारतीय जनसंघ पंडित जी अकेले प्रधानमंत्री के ही नहीं बल्कि उन जैसे लाखों कर्मयोगी के लिए प्रेरक है। उन सबके वैचारिक नायक हैं जिनकी पृष्ठभूमि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की रही है। जिनके संस्कार में राष्ट्रीयता कूट कूटकर भरी है। भारत उत्थान के गौरव का जिनको भान है। पं. दीनदयाल उपाध्याय मूलत पत्रकार थे। उनके खुद का जीवन राष्ट्रभक्ति में समर्पित था।

सबल और सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण कैसे हो ? सदियों की गुलामी के बाद उठ खड़े होने को तैयार हो रहे भारतीयता की अलख फिर से कैसे जले ? यह सदैव उनके चिंतन और जतन का मूलतत्व था। इसके लिए उन्होंने “अंत्योदय” की अवधारणा का प्रतिपादन किया। “अंत्योदय” की वजह से भारतीय जनसंघ को “पार्टी विद डिफरेंस” की पहचान दी गई।

आजादी के बाद से समाजवादी तरीके से सर्वोदय को विकास का अवलंब बनाया गया। सर्वोदय से विकास की रफ्तार सुस्त रही। भ्रष्टाचार ने घर कर लिया। सुचिता के संस्कार पर आधारित अंत्योदय को विकास रफ्तार को गतिमान करने का तरीका बताया गया। अंत्योदय की व्याख्या करते हुए दीनदयाल जी ने कई बार कहा कि हमारी नजर सबसे अंत में खड़े व्यक्ति पर रहनी चाहिए। हमारी समझ और प्रयास में अंत में फंसे व्यक्ति का विकास होना चाहिए। अंत में खड़े व्यक्ति का अगर भला होता है, उसे संतुष्टी मिलती है, उसे विकसित कर दिया जाता है, तो विकासवाद की एक सशक्त कड़ी बनती है। जिसका कभी अंत नहीं होगा। अंत के व्यक्ति को उठाकर विकासित किए जाने के बाद फिर जो अंत में बचता है उसे लीजिए, उसका भला कीजिए। फिर उसके बाद अंत में खड़े व्यक्ति को लीजिए। अनंत काल तक ऐसा करते जाईए। यह काम कभी खत्म नहीं होगा।

आज के मिसाल के तौर पर अगर अकालग्रसित कालाहांडी या बुंदेलखंड के किसी सुदुर गांव में विकास की किरण पहुंचनी है, तो उसका रास्ता अंत में खड़े व्यक्ति के उत्थान से बनना चाहिए। वहां अंत में कोई न कोई खड़ा मिलेगा। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के व्हाईट हाउस प्रांगण में जाईए। वहां भी अंत कोई खड़ा है। उस अंतिम व्यक्ति के उत्थान या उदय का प्रयास जारी रहे, तो विकासवाद की गाड़ी अविरल चिरकाल तक दौड़ाती रहेगी।

पंडित जी महान चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे। आज की भारतीय जनता पार्टी का संस्कार पंडित दीनदयाल उपाध्याय के निर्धारित नियमों से लिया गया है। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। वह नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। अद्भूत लेखन प्रतिभा के धनी पंडित जी ने केवल एक बैठक में ही चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था।

पंडित जी के अंत्योदय की अवधारणा उस वक्त चर्चा में आई जब मध्यम मार्गी सर्वोदय या समाजवादी उदय कर लेने की धारणा राजनीति में बुलंदी पर थी। लोकाचार में भ्रष्टाचार घर कर रहा था। सर्वांगीण विकास का काम अवरुद्ध हो रहा था। आजादी के बाद से समाजवादी विकास की ही धारणा थी जिससे समय दर समय देश के विकास के चक्के में घुन लगता गया। अमीर अमीर होते गए गरीब की गरीबी बढ़ती गई। इससे व्याप्त असंतोष के समाधान के लिए बीते दशक में गुजरात मॉडल को अपनाने की दलील दी गई। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय के सिद्धांत को व्यवहार में लाकर काफी बदलाव किया था।

गुजरात ने समग्र विकास का जो रुप देखा, उसे 2014 में राष्ट्रव्यापी सहमति मिली। अंत्योदय की अवधारणा में यकीन करने वाले विचारधारा का प्रभुत्व कायम हुआ। औऱ यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में बदलाव की बयार बह रही है। यह बात शनै शनै साबित हुई जा रही है कि सर्वोदय के चक्कर में फंसकर सबका भला नहीं किया जा सकता है लेकिन अंत्योदय की धारणा के तहत जब आप अंत में खड़े व्यक्ति की पहचान कर लेते हैं, तो उसकी जरुरत को समझकर हल निकालने का काम आसान हो जाता है। सबका साथ, सबका विकास की मूलभूत परिकल्पना को साकार किया जा सकता है।

राष्ट्रनिर्माण के साथ ही पंडित जी चाहते थे कि मानवीय गुण और सरोकार का भाव मानव में सर्वोपरि रहे। इसके लिए उन्होंने एकात्म मानववाद की अवधारणा दी। आरंभ में उनकी अवधारणाओं को अव्यवहारिक बताया गया। विभिन्न मंचों से माखौल उड़ाया गया। जाहिर तौर पर पंडित जी को पीड़ा हुई होगी। उस समय मुख्यधारा में शामिल लोगों ने पंडित जी के अंत्योदय को कागजी संकल्प बताकर काफी भला बुरा कहा। धज्जियां उड़ाईं लेकिन उससे विचलित होने के बजाय वह अपनी अवधारणा को निरंतर मथते रहे। उन्होंने वही किया जो राष्ट्रधर्म के अनुकुल था। भावी पीढ़ी के लिए डटकर युगद्रष्टा बने रहे। उसका नतीजा सामने है। पंडितजी की समझ और सोच आज भारतीय सोच की मुख्यधारा बन गई है। अपने अंत्योदय औऱ एकात्म मानववाद को व्यवहारिक अंजाम तक पहुंचाने के लिए उन्होने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के व्यक्ति निर्माण की पाठशाला की मदद ली। बेहतरीन नतीजे को देखकर सहज भाव से अहसास होता है कि दीनदयाल जी सच में बड़े दूरदृष्टा थे।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय पर गुलामी के अभिशाप से पीड़ित भारत को फिर अपना पुराना गौरव हासिल कराने का दायित्व था। भारत अपना वैभव कैसे हासिल करे? इसका रास्ता निकालने में वह अनवरत उधेड़बुन करते रहे। उन्होंने सत्यापित किया कि भारतीय संस्कृति में गहरी आस्था रखते हुए राजनीति में कथनी और करनी के अंतर को मिटाया जा सकता है। वह हिंदुत्व को चिंतन का आधारबिंदु मानते थे।

राष्ट्र के सजग प्रहरी व सच्चे राष्ट्र भक्त के रूप में भारतवासियों के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। राष्ट्र की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले दीनदयालजी का यही उद्देश्य था कि वे अपने राष्ट्र भारत को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक क्षेत्रों में बुलंदियों तक पहुंचा देख सकें पंडित जी की मेधावी प्रतिभा शक्ति का परिचय तब हुआ, जब उन्होंने अजमेर बोर्ड से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान लेकर उत्तीर्ण की । फिर पिलानी राजस्थान से इंटरमीडियट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण होने के बाद उत्तर प्रदेश के कानपुर पहुंच गए। वहां के सनातन धर्म कॉलेज से प्रथम श्रेणी में बी०ए०, फिर आगरा के सेंट जोन्स कॉलेज से एम०ए० की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करके अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया । विद्यार्थी जीवन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित होकर उसमें शामिल होने का निर्णय ले लिया। एकनिष्ठ भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे। लखीमपुर से जिला प्रचारक के रूप में 1942 में पद भार लेकर आजीवन उन्हीं के सिद्धान्तों पर चलते रहे । डॉ. श्यामा प्रसाद मुर्खजी ने जब सन 1951 में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण किया, तो पत्रकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय उसके उत्तर प्रदेश इकाई के संगठन मन्त्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन् 1953 में उपाध्यायजी अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री निर्वाचित हुए और लगभग पंद्रह वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। श्यामा प्रसाद मुर्खजी के निधन के बाद अखिल भारतीय जनसंघ के काम को परवान चढ़ाने के काम में रत रहे। फिर कालीकट अधिवेशन (दिसम्बर 1967) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।