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पेटा को रक्षाबंधन में गाय का चमड़ा दिखता है

पेटा जैसे संगठन उस हिंदू समाज को पशुओं की रक्षा करने की सीख देते हैं, जो एक चींटी को भी मारना पाप समझता है। वहीं ये लोग बकरीद, जिसमें करोड़ों पशु मार दिए जाते हैं, उस पर कुछ नहीं बोलते

गत दिनों ‘पेटा इंडिया’ का एक विज्ञापन देखकर देश दंग रह गया। उसमें यह ‘उपदेश’ दिया गया है कि ‘रक्षाबंधन को चमड़ा-मुक्त बनाओ।’ रक्षाबंधन में चमड़े का इस्तेमाल!! दिमाग पर बहुत जोर लगाया, लेकिन यह नहीं समझ आया कि रक्षाबंधन में कहां और कब चमड़े से बनी राखी का प्रयोग होता है। खैर, बात समझ में आ गई कि हर हिंदू त्योहार पर पेटा जैसे संगठन ऐसी शरारत करते हैं।

ये संगठन एक एजेंडा के तहत उस हिंदू समाज को पर्यावरण बचाने का उपदेश देने लगते हैं, जिसने वसुंधरा के प्रति अपना कर्तव्य समझते हुए होली भी जैविक (जो वस्तुत: प्राचीन समय में होती ही थी) कर ली और दीपावली भी। यही नहीं, गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा में भी पर्यावरण हितैषी मूर्तियां स्थापित कर रहा है। वहीं पेटा जैसे संगठन बकरीद जैसे त्योहारों पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं, जिसमें करोड़ों पशुओं की बलि दे दी जाती है। इससे पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचता है, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। पशुओं की अनेक नस्लें भी लुप्त हो रही हैं, लेकिन पेटा को ये सब नहीं दिखता। साफ है कि उसकी मंशा केवल हिंदू समाज को लांछित करने की रहती है।

पेटा जैसे सेकुलर संगठन एक एजेंडा के तहत उस हिंदू समाज को पर्यावरण बचाने का उपदेश देने लगते हैं, जिसने वसुंधरा के प्रति अपना कर्तव्य समझते हुए होली भी जैविक कर ली और दीपावली भी। यही नहीं, गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा में भी पर्यावरण हितैषी मूर्तियां स्थापित कर रहा है। वहीं पेटा जैसे संगठन बकरीद जैसे त्योहारों पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं, जिसमें करोड़ों पशुओं की बलि दे दी जाती है। इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। पशुओं की अनेक नस्लें लुप्त हो रही हैं।

पेटा जैसे संगठन हमें बदनाम करने की कोशिश करते हैं, तो दूसरी ओर विदेशी कंपनियां बड़ी ही चालाकी से हमें अपनी ही रसोई, अपने ही बाजार और अपनी ही संस्कृति से काटने का काम कर रही हैं। यह हम सब महसूस कर रहे हैं कि चाहे रक्षाबंधन हो या दीपावली, दशहरा हो या होली, ‘ग्लोबल’ हमारे ‘लोकल’ में बुरी तरह से घुस आया है। भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन दरअसल श्रावणी पूर्णिमा है। इस दिन राखी वस्तुत: रक्षासूत्र होने के नाते बांधी जाती है। बचपन से चौक बनाकर उस पर पाटा रख कर अपने भाइयों के हाथ में नारियल दे, सिर पर टोपी रख, उन्हें रक्षासूत्र बांध घर की बनी मिठाई खिलाती आ रही हैं बहनें। भाई शगुन देकर आशीर्वाद देते हैं। आज उसी राखी का घर-घर में वैश्विक रूप दिखता है। चीन में निर्मित राखी, अमेरिकी चॉकलेट और भाई से उपहार के नाम पर लैपटॉप, फोन या और कोई गैजेट।

भोजन में पिज्जा या बर्गर। यही हाल दीवाली के हैं, यही होली के। हमारे त्योहार कितने हमारे बचे हैं? और इन सबमें एक स्त्री होने के नाते हमारी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्या हम अपने बच्चों को हर त्योहार से जुड़े महत्व और परंपरा को समझा पा रहे हैं, उन्हें अपनी संस्कृति की डोर से बांधे रख पा रहे हैं?

क्या हम अपनी संस्कृति और त्योहारों का विकृत स्वरूप अपनी अगली पीढ़ियों को देना चाहते हैं? तो हम इस पर क्यों नहीं अपनी तरफ से कुछ करते? वैश्विक होना अच्छा है पर इसके नाम पर अपने घर और संस्कृति को विदेशी चीजों या आदतों का गुलाम बनाना कहां तक ठीक है? आज जब हम आत्मनिर्भर भारत की बात कर रहे हैं तो इस ओर भी हमें ध्यान देना ही होगा। हम जाने-अनजाने अपने तीज-त्योहारों का विदेशीकरण करके विदेशी कंपनियों की जेबें भर रहे हैं और अपनी कलाओं को लुप्त होने के कगार पर ले जा रहे हैं। इन सबके प्रति हमें जागना ही होगा।

(लेखिका जेएनयू में सहायक प्राध्यापक हैं)

साभार- https://www.panchjanya.com से