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तीर्थों से पुण्य ही नहीं रोज़गार भी मिलता है

फेसबुक पर एक बहुत बड़े विद्वान पत्रकार हैं और तथाकथित ‘ब्राम्हणवाद’ के प्रबल विरोधी हैं? आखिर इस‘ब्राम्हणवाद’ की परिभाषा क्या है इसकी सही और सटीक व्याख्या अब तक किसी ने नहीं की है। जहां तक मैं इन महापुरुष महान पत्रकारों और विद्वाणों का पोस्ट देखता हूं तो उसमें सीधा हमला एक जाति विशेष यानि ब्राम्हण पर ही होता है। ब्राह्मण को निशाने पर लेकर ये कहना कि हम तो ब्राह्मणवाद का विरोध करते हैं ना कि ब्राम्हणों का ये मेरे समझ से बाहर की बात है। खैर, आज उन्होंने लिखा की बाघेश्वर धाम वाले बाबा के आश्रम की जमीनों की जांच होनी चाहिए…मैं भी सहमत हूं जरूर जांच होनी चाहिए लेकिन मेरा प्रश्न है कि क्या सिर्फ साधु संन्यासियों व हिंदू धर्म के प्रचारकों की जमीन और संपत्ति की जांच होनी चाहिए? क्या दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम और जामा मस्जिद के आसपास के अवैध कब्जा किए हुए जमीन की जांच नहीं होनी चाहिए?

दूसरी बात की इनके ही पोस्ट पर मैंने एक सामाजिक कार्यकर्ता का कमेंट पढा जिसमें उन्होंने ये बताया की आज बाघेश्वर धाम वाले बाबा से मिलने आ रहे हजारों लाखों श्रद्धालुओं के चलते ये पूरा इलाका एक अच्छे खासे बाजार में तब्दील हो गया है। उस सामाजिक कार्यकर्ता ने ये भी जानकारी दी की इसका सीधा लाभ वहां रह रहे दलित बंधुओं व आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को मिल रहा है। दर्शनार्थियों की भारी भीड़ उमड़ती है तो सबने अपने अपने घर के सामने या सड़कों पर ही छोटा मोटा दुकान लगा लिया है। 10-15 साल पहले जिस क्षेत्र में कोई बाहरी आदमी जाता तक नहीं था आज वहां हजारों लोग पहुंच रहे हैं तो स्वाभाविक है कि चाय पान, धूप धूमन अगरबत्ती, फूल प्रसाद, चाय नाश्ता व अन्य जरूरत के सामानों की अनगिनत दुकानें खुल गई है।

एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा, दरभंगा जिले का एक छोटा सा गांव है मधुपुर। मेरे इस गांव में श्यामा मैय्या का एक विशाल मंदिर का निर्माण किया गया है। प्रत्येक साल 5 दिवसीय पूजनोत्सव के अवसर पर यहां मेला का आयोजन किया जाता है और इस मेले में छोटे मोटे लगभग 100 दुकानदार अपना स्टॉल लगाते हैं। कचड़ी मूरही से लेकर मिठाई और खेल खिलौने पान चाय की दुकानों से मेला सज जाता है। 5 दिन में अपनी लगाई पूंजी से कई गुना आमदनी बटोर कर ये दुकानदार खुशी खुशी वापस लौटते हैं। कुछ प्रखर बुद्धिजीवी इसको धर्म के नाम पर दुकानदारी कह देते हैं लेकिन अगर ये वाकई में दुकानदारी है भी तो मैं इस दुकानदारी का समर्थन करता हूं। समर्थन इसलिए करता हूं कि क्योंकि देश भर में लाखों परिवारों का पेट इसी धार्मिक दुकानदारी के दम पर चलता है। आप वृंदावन धाम में चले जाइये…तिलक लगाने वाले भी 500 रुपया प्रतिदिन कमा लेते हैं।

धार्मिक पर्यटन के चलते सरकार को भी भारी राजस्व की प्राप्ति होती है। आपको इस बात पर एतराज होता है कि पंडित और पंडे ही क्यों कमाते हैं लेकिन आपकी सोच गलत है। देवघर जाने वाले कांवड़िये अपने बटुआ में अगर 10 हजार लेकर घर से निकलते हैं तो पूरे रास्ते खाने पीने में खर्च करने के बाद, बाबा बैद्यनाथ का दर्शन करने के उपरांत पेड़ा प्रसाद खरीदते हैं, इसके अलावा अन्य कई खर्च भी कर देते हैं। देवघर पहुंचने के बाद उनका पंडा बाबा पूरी आवभगत करता है और बदले में दक्षिणा के नाम पर उनको 501 या 1100 रूपया तक ही प्रदान करते हैं। बदनाम हो जाता है पंडा लेकिन आप सोचिए कि उस 10 हजार में पंडा के अलावा बाकी के 9 हजार रुपये कहां और किन लोगों के पास खर्च हुए।

इस देश में अगर धार्मिक पर्यटन बंद हो जाए तो सिर्फ पंडा या पंडित भूखे नहीं मरेंगे बल्कि उसके साथ साथ लाखो परिवार पर भी रोजी-रोजगार का भीषण संकट छा जाएगा। और हां इस लाखों परिवारों में सभी जाति और समुदाय के लोग शामिल होते हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि किसी भी धार्मिक जगहों पर कोई जाति पूछकर किसी दुकानदार से फूल अगरबत्ती या प्रसाद नहीं खरीदता है। वृंदावन चले जाओ तो सब कहेंगे राधे राधे, देवघर चले जाओ तो सब एक दूसरे को कहेंगे बोलबम, मेरे गांव मधुपुर चले जाओ तो सब कहेंगे जय श्यामा माई, खाटू चले जाओ तो सब एक दूसरे को संबोधित करेंगे कि जय श्री श्याम।

किसी मॉल में एक छोटी सी दुकान लगाने के लिए लाखों की पूंजी चाहिए लेकिन धार्मिक जगहों पर 100 रुपये की चंदन रोली से भी आप तिलक लगाने का काम शुरू कर सकते हैं। 2000 के फूल से भी आप अपना व्यवसाय शुरू कर सकते हैं। अब अगर आपको गरीबों व समाज के पिछड़े लोगों की इतनी ही फिक्र है तो अपनी बुद्धिजीवीता चमकाने के लिए धार्मिक स्थलों पर निशाना नहीं साधे। किसी ने कहा था कि धर्म सबसे बड़ा अफीम है…चलिए अफीम ही सही लेकिन इस अफीम से किसी का पेट भर जाता है, किसी गरीब के तन पर कपड़ा हो जाता है तो ऐसी अफीम बहुत अच्छी। भंडारे से आपको भले एतराज हो लेकिन आज भी कई जगहों पर भंडारा का पता चलते ही कई भूखे लोगों का दिल प्रसन्न हो जाता है।

मेरे गांव में हाल ही में मकर संक्रांति के अवसर पर लगभग 400 कंबल वितरित किया गया। धर्म के नाम पर ही सही, सबने छोटा मोटा योगदान दिया लेकिन इसका लाभ किसे मिला, उन जरूरतमंदों को ही कंबल बांटा गया ना। धार्मक कार्यक्रम से सामाजिकता बढ़ती है, मेलजोल बढ़ता है। मुझे नहीं पता की भगवान को जो भोग चढ़ाया जाता है वो भगवान खाते हैं या नहीं लेकिन देश भर में भगवान के नाम पर चढाए जा रहे प्रसाद का टर्नओवर ही करोड़ों मे होता है। कौन बेचता है ये प्रसाद…वो हमारे और आपके बीच का ही तो है ना…आपको क्यों एतराज है कि प्रसाद बेचने से किसी के परिवार का भरण पोषण हो रहा है?

साभार- https://www.facebook.com/pankajprasoonjha से