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साइकिल

दूर सुदूर गाँव
गाँव की पगडंडी
पर सड़क है पक्की
सीमेंट की डामर की
रौंदती सड़क को
बेख़ौफ़ मोटरें
और बाईं ओर चल रहीं है
तीन साइकिलें
बेफिक्र बेपरवाहकुछ गज की दूरी पर
ठीक उनके पीछे
तीन और साइकिलें
बेफिक्र बेपरवाह
दौड़ता है एक ट्रक
रंभाते हुए
चिल्लाते हुए
डराते हुए

सड़क के बीचोंबीच
बेख़ौफ़ है साइकिलें
न मुड़ती है पीछे
न देखती पलटकर
निडर सी बढ़ रही है
आगे और आगे
कंधे उसके सम्भाले हैं
एक भारी बस्ता
जिसमें सुग़बुगा रही है
सभ्यता
कुलबुला रही है
संस्कृतिदबी रही है वह
झुकी रही है
जिस बोझ से
सदियों से
पर रुकी नहीं है
चलती रही है
डगमगाती हुई
लड़खड़ाती हुई
गाँव की पगडंडी पर
सदियों सेपर अब नहीं
निकल चुकी है वह
डर के आगे के
जीत की ओर
नहीं रुकेगी
न पलटेगी पीछे
न देखेगी मुड़कर
न फँसेगी जाल में
उन रंभाते ट्रकों के
सरसराती मोटरों के
जो रोके उसे
फँसाए फिर से
और ले जाये सदियों पूर्व

उसी खंडहर में
जहां से निकल भागी है वह
इस साइकिल पर
सड़क के बीचोंबीच
दूर सुदूर गाँव में
(डॉ आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ साहित्यिक पत्रिका ‘पुष्पक साहित्यिकी’ की संपादक है।)
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