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प्रो. गणेश देवी को सुनना, यानी इतिहास, भाषा और लोकसंस्कृति के समंदर में गोते लगाना..

मुंबई के बांद्रा कुर्ला कांप्लेक्स में स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा की भव्य ईमारत की चीसरी मंजिल पर खचाखच भरे हाल में पद्मश्री प्रो. गणेश नारायण दास देवी बोल रहे थे तो हाल में बैठे मुंबई भर से आए विभिन्न बैंकों के राजभाषा अधिकारी, व अन्य श्रोता उनके एक एक शब्द को मानो आचमन की तरह पी जाना चाहते थे। ऐसा लग रहा था मानो सभी श्रोता शब्दों और भावों के किसी ऐसे समंदर के किनारे खड़े हैं जिसकी लहरें सबको छू –छूकर एक नए, अद्वितीय इतिहास बोध और भाषायी संस्कारों से सहला रही है।

बैंक ऑफ़ बड़ौदा द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर मुंबई में आयोजित समारोह में पद्मश्री प्रोफेसर गणेश देवी को “महाराजा सयाजीराव लोक भाषा सम्मान” के प्रत्युत्तर में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।

उन्होंने महाराजा सह्याजी राव के नाम से मिलने वाले इस पुरस्कार को दुनिया भर में मिले सैकड़ों सम्मानों और पुरस्करों से एकदम अलग बताते हुए अपनी बात महाराजा सह्याजीराव गायकवाड़ को स्मरण करते हुए शुरु की और बताया कि महाराजा गायकवाड़ ने अपने शासन के दौरान किस दूरदृष्टि के साथ भारतीय भाषाओं को बचाने के साथ ही शिक्षा को आम लोगों तक पहुँचाने के लिए काम किया था। उन्होंने कहा कि महाराजा गायकवाड़ की नीति थी कि किसी भी गाँव में अगर मात्र 8 बच्चे भी हों तो उनके लिए विद्यालय खोला जाए और उन बच्चों को उनकी स्थानीय बोली और भाषा में ही पढ़ाया जाए।

उन्होंने बताया कि महाराजा सह्याजीराव तृतीय मात्र 12 वर्ष के थे और अंग्रेजों ने दत्तक कानून के तहत खांडेराव को बड़ौदा की राजगद्दी से हटा दिया था। सह्याजी राव गाँव से बड़ौदा आए थे। अंग्रेजों ने उनके सामने शर्त रखी कि वे अंग्रेजी सीखेंगे तो ही उनको राजा बनाया जाएगा। अंग्रजों ने उनको अंग्रेजी पढ़ाने के लिए मुंबई से इलियट नामक शिक्षक भेजा। सह्याजीराव ने मात्र चार साल में अंग्रेजी सीख ली। इसके बाद उन्होंने अरविंद घोष को बड़ौदा बुलाकर उनसे फ्रैंच सीखी। इसके साथ ही संस्कृत पर भी अधिकार कर लिया। 19 वर्ष की आयु में जब वे बड़ौदा के राजा बने तो उन्होंने संकल्प लिया कि वे भारतीय भाषाओं को महत्व देंगे। वे जब 1883 में ज्योतिबा फुले द्वारा किसानों की दुर्दशा पर लिखी पुस्तक शेतकर्याचा असूल (किसानों के आँसू) का विमोचन करने पुणे आए तो ज्योतिबा फुले ने उनसे कहा कि वे सबसे पहला काम ये करें कि किसानों को महत्व दें। उज्योतिबा फुले ने उन्हें प्रेरणा दी कि वे हर उस गाँव में विद्यालय खोलें जहाँ भले ही आठ बच्चे हों। 1885 में राजा सह्याजीराव ने हर गाँव में उसी भाषा में विद्यालय खुलवाए जो भाषा गाँव में बोली जाती थी।

उन्होंने एक होनहार नौजवान धर्मानंद कौशंबी जो गोआ का रहने वाला था और पाली भाषा पर शोध कर रहा था, लेकिन उसेक पास पैसे नहीं थे, महाराजा सह्याजीराव ने उसे बड़ौदा बुलाकर उसे 250 रुपये की छात्रवृत्ति प्रदान की। महाराजा ने अपने जीवनकाल में दुनिया भर से 8 लाख किताबें खरीदकर अपनी लायब्रेरी बनाई। कई किताबें उन्होंने पुणे के भंडारकर इंस्टीट्यूट को भी दी।

उन्होंने बताया कि आजादी मिलने के 25 साल पहले देश में इस बात पर विमर्श शुरु हो गया था कि देश आजाद होने के बाद हमारी भाषा क्या होगी, संविधान सभा ने 1946 से 1949 तक इस बात पर जमकर विमर्श हुआ। इस संविधान सभा में हंसा मेहता, केटी शाह बाबा साहब आंबेडकर और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे लोग थे जिन्हें महाराजा सह्याजीराव ने पढ़ने में सहायता की थी, इन चारों लोगों ने महाराजा सह्याजी राव के भाषाई संस्कारों को ही आगे बढ़ाते हुए देश में बहुभाषीय प्रस्ताव का समर्थन किया।

प्रो. देवी बोलते जा रहे थे और पूरे हाल में सन्नाटा पसरता जा रहा था, ऐसा लगता था मानो हर श्रोता उनके एक एक शब्द को पी लेना चाहता है…

प्रो. देवी बताते हैं कि भाषा के आधार पर जब राज्यों का बँटवारा हुआ तो उसका खामियाजा उन करोडों लोगों ने भुगता जो दो राज्यों की सीमा पर रहते थे, क्योंकि उनकी अपनी भाषा थी जो इस बँटवारे की बलि चढ़ गई। महाराष्ट्र और गुजरात अलग प्रांत बनने पर गुजरात में भीली भाषा बोलवने वाले 1 करोड़ 10 लाख लोगों की भाषा पर संकट आ गया। गुजरात के 80 लाख आदिवासियों में 37 भाषाएँ बोली जाती हैं। भाषाई आधार वपर विभाजन की वजह से स्थानीय बोली वाले लाखों लोग एक झटके में भाषाई आधार पर अल्पसंख्यक हो गए। उड़ीसा बंगाल और आंध्रप्रदेश में बोली जाने वाली गौंड भाषा के लोगों पर तो ऐसा अत्याचार हुआ कि अगर कोई आदिवासी अदालत में गौंड भाषा बोलता तो उस पर अपराधिक मुकदमा चला दिया जाता।

उन्होंने बताया कि गरसिया भीलों के अपनी भीली भाषा में चार महाकाव्य लिखे हुए हैं, इसकी सामग्री इतनी विशाल है कि इसे 6 सप्ताह तक लगातार गाया जा सकता है, और भील समाज के लोल आज भी इसे मौखिक गाते हैं। हमने इन माहाकाव्यों पर शोध कर इसे भीली, हिंदी और अंग्रेजी में तैयार किया।

प्रो, देवी ने कहा कि तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच में 1947 में 12 प्रतिशत तोड़डा आदिवासी थे भाषाई विभाजन के बाद ये लोग दर-बदर की ठोकरें खाते रहे और आज उनकी भाषा संस्कृति और लोग सब लुप्त हो रहे हैं।

उन्होंने बताया कि 1961 में हुई जनगणना में देश में 1652 मातृभाषाएँ बोली जाती थी और 1971 में जब बांग्लादेश का युध्द हुआ और 1977 में इस जनगणना की रिपोर्ट रखी गई तो जिन भाषाओँ को बोलने वालों की संख्या दस हजार से कम थी उनको इसमें से हटा दिया गया और मात्र 109 भाषाएँ सरकारी रेकॉर्ड में रह गई। इसका कारण ये था कि कहीं भारत में भी भाषाई आंदोलन न खड़ा हो जाए।

प्रो. देवी जब बोल रहे थे तो ऐसा लग रहा था मानों भाषाओं के अवसान का दुःख उनको लगातार सालता जा रहा है और वे उसी पीड़ा में जी रहे हैं, उनके चेहरे पर एक वक्ता के नहीं किसी पीड़ित के भाव दृष्टिगोचर हो रहे थे। उनका कहना था कि जब एक भाषा मरती है तो उसके साथ हजारों साल की संस्कृति और परंपराएँ भी दम तोड़ देती है। वे कहते हैं, 26 जनवरी 2010 को अंडमान में 85 साल की बो जनजाति की महिला की मृत्यु हुई तो उसके साथ 60 हजार साल की एक परंपरा खत्म हो गई। वह महिला पंछियों से बात कर सकती थी।

प्रो, देवी ने बताया कि हमारी टीम ने जब देश भर में शोध किया तो हमें 780 भाषाएँ जीवित मिली। संविधान की अनुसूचि में मात्र 22 भाषाएँ हैं और बाकी बची 758 भाषाओं को कोई स्थान नहीं है।

उन्होंने कहा कि देश में कई तरह के आंदोलन चल रहे हैं और चलते रहते हैं, आज ज़रुरत है भाषा बचाओ आंदोलन की।

इस कार्यक्रम की खूबसूरती यह थी कि इसमें प्रो. देवी के वक्तव्य के पहले बैंक ऑफ बड़ौदा में कार्यरत मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु और बंगाली और कश्मीरी भाषी अधिकारियों ने अपनी अपनी भाषा के साहित्य और संस्कृति से लेकर संतों, कवियों और रचनाकारों का उल्लेख कर उसी जानकारी को हिंदी में भी प्रस्तुत किया। सुश्री स्नेहा ने मराठी में, श्री भरत चावला ने गुजराती में, श्री पीआर वेंकटेश्वरन ने तमिल में, श्री रवीन्द्र जी ने तेलुगु में, श्री सारस्वत दासगुप्ता ने बांग्ला में और श्री उपेन्द्र कौल ने कश्मीरी भाषा में अपनी भाषाओं पर रोचक तथ्य प्रस्तुत किए।

बैंक ऑफ़ बड़ौदा ने ने लोकभाषाओं के संरक्षण को महत्त्व देते हुए इसी वर्ष से इस सम्मान की शुरुआत की है. इस पुरस्कार के अंतर्गत रु. 1 लाख की राशि एवं स्मृति चिह्न बैंक के कार्यपालक निदेशक श्री शांति लाल जैन ने प्रो. देवी को प्रदान किया. कार्यक्रम के प्रारंभ में महाप्रबंधक (राजभाषा) डॉ. जवाहर कर्नावट ने प्रो. देवी की उपलब्धियों एवं बैंक की भाषागत गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत किया. कार्यपालक निदेशक श्री शांतिलाल जैन ने अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की महत्ता और भाषाओं के संरक्षण पर प्रकाश डाला. समारोह को बैंक के मुख्य सतर्कता अधिकारी, श्री के. एन. नायक तथा महाप्रबंधक (मार्केटिंग) श्री ओ. के. कौल ने भी संबोधित किया. इस कार्यक्रम में बैंक की त्रैमासिक हिंदी पत्रिका ‘अक्षय्यम्’ एवं मुख्य प्रबंधक श्री गौरीशंकर रायकवार द्वारा लिखित पुस्तक ‘10 कहानियां’ का भी विमोचन किया गया तथामराठी शब्दावली एवं भाषा ज्ञान प्रतियोगिता के विजेताओं को पुरस्कृत किया गया. कार्यक्रम का संचालन श्री मुकुल पांडे ने किया तथा श्री वी के सेठी, प्रमुख (रिटेल बैंकिंग) ने आभार प्रदर्शन किया.

प्रो. गणेश नारायण देवी के बारे में

भारत की लुप्त हो रही भाषा और संस्कृति के साथ ही लोक परंपरा को पुनर्जीवित करने में प्रो. देवी ने अकेले ने जो योगदान दिया है वह इस देश के हजारों विश्वविद्यालय मिलकर भी शायद कर पाए। श्री देवी को दुनिया भर के कई देशों से कई सम्मान मिल चुके हैं, लेकिन ये सम्मान उनके योगदान के आगे फीके पड़ जाते हैं।

प्रो. देवी ने भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों पर मंडराते खतरे को देखते हुए अपनी अपनी अंग्रेजी प्रोफेसर की नौकरी छोड़कर इन्हें बचाने के लिए अपना सब-कुछ दाँव पर लगा दिया। प्रो. देवी बड़ौदा के सयाजीराव गायकवाड़ विश्वविद्यालय में पदस्थ थे। नौकरी छोड़क उन्होंने अपनी प्रोफेसर पत्नी सुरेखा देवी की सहायता से भाषा नामक ट्रस्ट की स्थापना की और गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा और बोलियों को बचाने के लिए जी जान से जुट गए।

ये उनकी अथक मेहनत का नतीजा था कि वर्ष 2010 में पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में भारत भर की जीवित 780 भाषाओं का सर्वेक्षण प्रकाशित किया । उन्हें 2004 में पद्मश्री अलंकार प्रदान किया गया। ये सभी भाषाएँ लुप्त हो रही थी और प्रो. देवी की वजह से इनको बचाया जा सका।

प्रो. देवी ने अपनी ये यात्रा 1997-98 में गुजरात के आदिवासी गांवों से शुरु की। इन गाँवों के आदिवासियों से मिलकर उनकी भाषा और बोली को समझा और उनके लिए उनकी ही भाषा में एक जर्नल छापा। एक-एक जर्नल तब 10 रुपए में बिका। कुल 700 कॉपी प्रकाशित की गई आदिवासियों ने जब अपनी भाषा में जर्नल के रूप में किताब छपी देखी तो उनके चेहरे की खुशी देखने लायक थी।

इन आँसुओं से भीगे प्रो. देवी ने धीरे धीरे करके 3500 समर्पित लोगों की टीम बनाई और इस टीम ने 2010 में पीपुल लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया का काम शुरू किया। पहले दो वर्ष संगठन का हर व्यक्ति देश के सुदूर ग्रामों का दौरा करने गया और वहां की भाषाओं को समझा और अपने अनुभवों को विस्तार लिखा। इस अध्ययन से ये चौंकाने वाला खुलासा हुआ कि विगत 50 वर्षों में देश के कई अंचलों से हजारों बोलियाँ लुप्त हो चुकी है। आजादी के बाद से 300 भाषाओं का पता ही नहीं है और आज भी 97 बोलियां तो खत्म होने की कगार पर हैं। आप ये जानकर चौंक जाएंगे कि हिमाचल प्रदेश की कई बोलियों में महज बर्फ के लिए 200 से ज्यादा शब्द हैं।

महाराष्ट्र के कई गांवों में प्रचलन से बाहर हो चुकी पुर्तगाली बोली जाती है। इस सर्वे से ये पता चला कि छोटे से अरुणाचल प्रदेश में देश में सर्वाधिक मातृभाषाएं हैं।

पूरे देश में 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाएं थीं तो 10 साल बाद हुई जनगणना में मात्र 108 ही बताई गई। इसका कारण यह है कि सरकार ने कहा कि उन भाषाओं का खुलासा न करे, जो दस हजार से कम लोग बोलते हैं, क्योंकि पाकिस्तान में तब अलग बंगलादेश की माँग जोर पकड़ रही थी, और भारत सरकार को लगा कि कहीं सब भाषाओं के बारे में अधिकृत आँकड़े आ गए तो देश भर में हर भाषा वाले आंदोलन कर सकते हैं।

प्रो. देवी के अनुसार अंग्रेजी शासन काल में आईरिश विद्वान प्रो. गिअर्सन के समय भाषायी सर्वे हुआ था। उस समय देश में 10 हजार भाषाएँ बोली जाती थी, आज ये मात्र 6 हजार भाषाएँ रह गई है। गिअर्सन के बाद पहली बार प्रो, देवी ने अपनी टीम के साथ देश भर में भाषाओँ पर शोध करवाया तो इनके प्रयासों से 700 भाषाएँ जीवित हुई।

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