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रवीश कुमार संघ की होली से बगैर रंगे ही चले आए

बात एक मार्च 2015 की है। नोएडा स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय ‘प्रेरणा’ में आयोजित होली मिलन समारोह में जुटे लोगों में टीवी के जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार की उपस्थिति वाकई चौंकाने वाली इसलिए रही कि वैचारिक धरातल पर संघ की अवधारणा जिनकी समझ से परे रही है, उनमें एक वह भी माने जाते हैं। जैसे ही उनका आगमन हुआ, हलचल सी मच गयी। रवीश के चेहरे पर भी छायी घबराहट साफ देखी जा सकती थी। किसी ने पूछा तो रवीश कुमार का सहज जवाब था कि बुलाया तो आ गया। लेकिन, जैसे ही कार्यक्रम आरंभ हुआ और होरी गायी जाने लगी, रवीश के पसीने छूटने लगे और जब फोटो ली जाने लगी तो यह कहते हुए भाग खड़े हुए कि जिंदगी खराब हो गयी..!!

नहीं भाई रवीश! आप मौका चूक बैठे, आप रहते तो आप के लिए संघ की विचारधारा को नजदीक से परखने का यह बेहतरीन मौका था और यह भी कि भारत माता और उच्च संस्कारों की चर्चा से भी आप दो-चार होते। आपको यह भी पता चलता कि होली कोई पौराणिक गाथा नहीं, जीवंत इतिहास का हिस्सा है। संघ जिस छद्म सेक्यूलरिजम की बात करता है, यह त्यौहार उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। रवीश क्या, खुद मुझे भी जानकारी नहीं थी कि होली जैसे मदनोत्सव का उद्गमस्थल मुलतान है, जो पाकिसतान में है और जिसे आर्यों का बतौर मूलस्थान भी कभी जाना जाता था।

मैं पहली बार 1978 में जब पाकिस्तान गया था, तब वहां के सैन्य तानाशाह जियाउल हक ने मुल्तान किले के दमदमा(छत) पर भारतीय क्रिकेट टीम का सार्वजनिक अभिनंदन किया था। तब मैं इस स्थान की ऐतिहासिकता से रूबरू नहीं हो सका था, पर 1982-83 की क्रिकेट सीरीज के दौरान पाकिस्तानी कमेंट्रीकार मित्र चिश्ती मुजाहिद के सौजन्य से जान पाया कि जहां मैं गोलगप्पे खा रहा हूं, वह प्रहलाद पुरी है.!! क्या…प्रहलाद..? कौन भाई? चिश्ती का जवाब था, ‘ हां वही तुम्हारे हिरण्यकश्प वाले….!! यह क्या बोल रहे हैं? हतप्रभ सा मैं सोच रहा था कि चिश्ती बांह पकड़कर ले गये एक साइनबोर्ड के नीचे, जो पाकिस्तान पर्यटन की ओर से लगाया गया था-There is a Funny storey से शुरुआत और फिर पूरी कहानी नरसिंह अवतार की। खंडहर मे तब्दील हो चुकी प्रहलाद पुरी में स्थित विशाल किले के भग्नावशेष चीख-चीखकर उसकी प्राचीन ऐतिहासिकता के प्रमाण दे रहे थे। वहां उस समय मदरसे चला करते थे और एक क्रिकेट स्टेडियम भी था।

पूरी कहानी यह कि देवासुर संग्राम के दौरान दो ऐसे अवसर भी आए जब सुर-असुर( आर्य-अनार्य) के बीच संधि हुई थी, एक भक्त ध्रुव के समय और दूसरी प्रहलाद के साथ। जब हिरण्यकश्प का वध हो गया, तब वहां एक विशाल यज्ञ हुआ और बताते हैं कि हवन कुंड की अग्नि छह मास तक धधकती रही थी और इसी अवसर पर मदनोत्सव का आयोजन हुआ, जिसे हम होली के रूप में जानते हैं। यह समाजवादी त्यौहार क्यों है, इसका कारण यही कि असभ्य-अनपढ़-निर्धन असुरों को पूरा मौका मिला देवताओं की बराबरी का। टेसू के फूल का रंग तो था ही, पानी, धूल और कीचड़ के साथ ही दोनों की हास्य से ओतप्रोत छींटाकशी भी खूब चली..उसी को आज हम गालियों से मनाते हैं। मुल्तान की वो ऐतिहासिक विरासत अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वंस के बाद उग्र प्रतिक्रिया में जला दी गयी। बचा है सिर्फ वह खंभा जिसे फाड़कर नरसिंह निकले थे। गूगल में प्रहलादपुरी सर्च करने पर सिर्फ खंभे का ही चित्र मिलेगा।

यह कैसी विडंबना है कि हमको कभी यह नहीं बताया गया और न ही पाठ्यक्रम में इसे रखा गया। पाकिस्तान में तो विरासतें बिखरी पड़ी हैं पर हम बहुत कम जानते हैं। उसको छोड़िए कभी यह बताया गया हमें कि श्रीलंका और नेपाल का भारत के साथ साझा इतिहास है? नहीं….! आड़े आ गया होगा सेक्यूलरिज्म। तो भाई रवीश, कुछ देर तो प्रेरणा में समय बिताया होता, ढेर सारी गलतफहमी दूर हो गयी होती और उनमें एक यह भी कि संघ के किसी कार्यक्रम-बौद्धिक में कभी मुसलमानों के खिलाफ कुछ नहीं बोला-सुना जाता। आरोपों का संघ भी खुलकर कभी जवाब क्यों नहीं देता? यह मेरे लिए भी अभी तक एक अबूझ पहेली है।

(साभार- वरिष्ठ पत्रकार पदमपति पदम की फेसबुक वॉल से)