1

1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम की प्रासंगिकता

18 57 का महान स्वतंत्रता संग्राम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उज्जवल एवं गौरवमई संघर्ष की पिथिका थी। 1838 में आंदोलित आंग्ल- अफ़ग़ान युद्ध में ब्रिटिश सरकार की पराजय ने यह संदेश दिया कि ब्रिटिश शासन अपराजेय नहीं है। यह युद्ध सैनिकों में नवीन जोश एवं नूतन ऊर्जा का वाहक बना। ब्रिटेन के प्रसिद्ध नेता बेंजामिन डिजरायली ने 27 जुलाई ,1857ईसवी को ‘ हाउस ऑफ कॉमंस’ में कहा की यह संघर्ष “राष्ट्रीय संग्राम” हैं। भारतीय इतिहासकार अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक “द ग्रेट रिबेलीयन” में इसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया ।विनायक दामोदर सावरकर ने 1909 में लिखित अपनी पुस्तक “द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857” में इसे सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दिया ।

1857 का महान स्वतंत्र संघर्ष अंग्रेजी उपनिवेश के विरुद्ध पहला राष्ट्रव्यापी प्रयास था।स्वतंत्रता संग्राम में सभी वर्ग (सैनिक वर्ग,शासक वर्ग, सामान्य जन, रंक,हिंदू और मुसलमान) सब को एक साथ आवेशित करने वाली शक्ति तात्विक शक्ति थी। इस संग्राम में सभी वर्गों, सभी धर्मों, सभी जातियों एवं सभी संप्रदायों की भूमिका उच्चतम स्तर पर था; वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध इतना प्रबल विरोध कभी नहीं हुआ था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दादागिरी एवं आतंकवादी कृत्य के लिए स्वराज्यिय चुनौती थी ;यह एक ऐसा विलक्षण संग्राम था जो एक दिन में वीस – वीस स्थानों पर सशस्त्र लड़ा गया था। ब्रिटिश नौकरशाही ने अपने राष्ट्रीय सरकार, ब्रिटिश जनता एवं ब्रिटिश उपनिवेश में अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए इसे सैनिक विद्रोह या सैनिक षडयंत्र कहा है।यह ब्रिटिश नौकरशाही के दिमाग की उपज थी।सैनिक संग्राम की उपादेयता यह है कि हमारा शासन एक पतली प्पर्टी पर आधारित है,जो सामाजिक परिवर्तन और क्रांतियों की ज्वालाओं के द्वारा कभी भी ध्वस्त हो सकता हैं।

1857 की क्रांति पर लेख एक हिंदू ने उसी समय इंग्लैंड में प्रकाशित कराया था ,उसमें वह हिंदू कहता है “जिन्होंने अवध के नवाब को जन्म से कभी नहीं देखा था; और ना आगे देखने की संभावना थी ,ऐसे कितने इस सरल और दयालु लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में नवाब पर आ पड़े दुखों को कहने जार- जार रोतें थे, इसकी कल्पना आपको नहीं है ।और ऐसे आंसू बह जाने के बाद, जैसे स्वयं पर ही क्रूर प्रहार हो रहे हो, ऐसा मानकर वाजिद अली शाह के अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा कितने सिपाही प्रतिदिन कर रहे थे, यह भी आपको ज्ञात नहीं है। 18 57 के संग्राम का सामाजिक ,राजनीतिक, आर्थिक धार्मिक एवं सैनिक कारण था,परंतु बृहद स्तर पर अध्ययन से स्पष्ट होता है इसका तात्कालिक मुख्य कारण अंग्रेजी सरकार द्वारा भारतीय जनता का अमानवीय और उत्पीड़क शोषण है।यूरोपीय अधिकारी या श्वेत व्यक्ति भारतीयों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जिसको बाल गंगाधर तिलक ने लिखा है कि “कोई भी आत्मसम्मान युक्त जाति इसे एक घंटे के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकती है”

सामाजिक दृष्टि से अंग्रेजों का व्यवहार भारतीयों के प्रति अमानवीय व अपमानजनक हुआ करते थे। श्वेत लोग भारतीयों को काले एवं शूकर(सूअर) से संबोधित करते थे, इन सभी अमानुषिक कार्य अंग्रेजों के प्रति भारतीयों में अविश्वास का वातावरण बना दिया अर्थात शासक और शासित के बीच अविश्वास का भाव उत्पन्न कर दिया। धर्म परिवर्तन के लिए बल (पुलिस) का सहारा, सैनिक छावनी में ईसाइयत के खुले प्रचार एवं प्रचार के साथ ब्रिटिश सरकार ने बाध्यकारी अग्राह्य एवं दबाव जनित कानून बनाए।जनमानस बेचैन(क्रांति की अवस्था), असंतोष एवं अविश्वास की अवस्था में आ गया था। धार्मिक भावनाओं पर भी सरकार ने कुठाराघात किया था।

सरकार ने अनेक सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों ,परंपराओं एवं परंपरागत प्रथाओं में आमूल- चूल परिवर्तन किए ,इस परिवर्तन के लिए जनता तैयार नहीं थी। इसमें जनमत का सम्मान नहीं किया गया था। जनता की आवाज ईश्वर की आवाज होता है ।अंग्रेजों ने इस संकल्पना पर कुठाराघात किए; जैसे सती प्रथा, बहुविवाह प्रथा और कन्या वध जैसी कानूनों को भी जनता ने संदेश से देखा एवं भारतीयों ने इसे अपने समाज एवं संस्कृति पर क्रूर प्रहार महसूस किया। रेल, तार एवं डाक जैसी कल्याणकारी योजना को धर्म विरुद्ध समझा गया। लॉर्ड डलहौजी द्वारा हिंदुओं में प्रचलित गोद लेने की प्रथा की समाप्ति करने का घोर विरोध हुआ ।व्यक्ति अपने पैतृक संपत्ति से वंचित हो जाता था परंतु नए नियम के अनुसार अब इसाई धर्म अपनाने पर वह संपत्ति का स्वामी बना रहता था। हिन्दू शासक एवं भारतीय जनमानस कंपनी से कुपित व शोषित हुई एवं विरोध के लिए शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर तैयार हुए।

अंग्रेजी सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ही संघर्ष का कारण बना। यह शोषण भूमि व्यवस्था के नए-नए आविष्कार, करों में वृद्धि एवं भारतीय उद्योग धंधों को नष्ट करके किया गया था ।सूखा और बाढ़ आदि के कारण फसलें ना होने पर महाजनों से कर्ज लेकर अदा करना पड़ता था ,कर्ज अदा न करने पर सूदखोर भूमि पर आधिपत्य कर लेते थे। राष्ट्रीय नेताओं, जिनमें गोपाल कृष्ण गोखले ,दादा भाई नौरोजी ,आर पी दत्त एवं आरसी दत्त आदि प्रमुख नेता थे,वों अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों की भर्त्सना किए किए थे। दादा भाई नौरोजी ने 1861 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में “धन निकासी” के सिद्धांत को प्रस्तुत किया था। 18 57 की संग्राम प्रज्वलित करने में नानासाहेब, धुधू पंत,झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ,तात्या तोपे, कुंवर सिंह ,मौलाना एव अजीमुल्ला मौलवी आदि महान संघर्ष वादियों का नेतृत्व प्राप्त हुआ था। 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम पर सभी विद्वानों का मानना है कि संग्राम के पूर्व नियोजित योजना का मुख्य सूत्रधार नाना साहब ही है। नाना साहब अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के अपमान से कुपित थे तथा उन्हें भारत से खदेड़ने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे इस पुनीत कार्य के लिए भारतीय रजवाड़ों, भारतीय सैनिकों एवं भारतीय जनमानस को जोड़ने का महत्व कार्य किए।

1557 के महान संग्राम का दूसरा नेतृत्व नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने किया ,उन्होंने 9 जून 1857 को अपने किलें पर आजादी का तिरंगा लहरा दिया था ।अंग्रेज सेनापति हयुरोज ने उनके प्रचंड संघर्ष,साहस,कौशल एवं नेतृत्व की क्षमता देखकर आश्चर्यचकित था तथा उसने रानी के वीरतापूर्वक कार्यों की उपादेयता को देखकर कहा कि “वह विद्रोहियों में एकमात्र पुरुष “थी ।रानी की युद्ध कौशल व संग्राम के प्रति निष्ठा को देखकर वी डी सावरकर ने उनको “स्वतंत्रता की देवी” की संज्ञा से विभूषित किए थे।

1857 का महान स्वतंत्रता संग्राम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए भारतीय समाज का पहला राष्ट्रीय संघर्ष था। इस संग्राम का भारत के इतिहास में दूरगामी परिणाम प्राप्त हुए; ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अवसान हुआ, अंग्रेजों के शासन संचालन का ढांचा भी बदल गया, शासन तंत्र का परिदृश्य बदल गया हैं।1857 के महान संग्राम के पश्चात राष्ट्रीय चेतना, नव जागृति एवं मानसिक मजबूती का अवयव दिखाई देता हैं।इसके कारण भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप बदलते परिवेश में आया, स्वतंत्रता की चिंगारी इसी महान संग्राम से प्रज्ज्वलित हुई ,1857 के महासंग्राम के कारण अंग्रेजों की मंशा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा था, 1857 के महासंग्राम के पश्चात भारतीयों में स्व धर्म व राष्ट्रीयता का बोधात्मक संकल्पना विकसित हुआ ;और यह महासंग्राम भारत में क्रांतिकारियों, उदार वादियों ,उग्रवादियों एवं गांधीवादी विचारधारा के व्यक्तित्व का मूल प्रेरणा स्रोत बना।1857 के महासंग्राम के कई आयामों पर बहुत कारण बताए जाते हैं ;लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसको स्वतंत्रता संग्राम का पहला महानतम संघर्ष के लिए समकालीन शोध की आवश्यकता है। इस महासंग्राम संघर्ष के उन हुतात्मा के योगदान एवं उपादेयता पर गंभीर शोध किया जाना चाहिए।

(लेखक प्राध्यापक व राजनीतिक विश्लेषक हैं )