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वेदों में बहु-विवाह आदि विषयक भ्रान्ति का निवारण

वेदों के विषय में एक भ्रम यह भी फैलाया गया है कि वेदों में बहु विवाह की अनुमति दी गयी हैं (vedic age pge 390).

ऋग्वेद १०/८५ को विवाह सूक्त के नाम से जाना चाहता है। इस सूक्त के मंत्र ४२ में कहा गया है कि तुम दोनों इस संसार व गृहस्थ आश्रम में सुख पूर्वक निवास करो। तुम्हारा कभी परस्पर वियोग न हो। सदा प्रसन्नतापूर्वक अपने घर में रहो। (यहाँ तुम दो कहा है। तुम अनेक नहीं कहा गया। )

ऋग्वेद १०/८५/४७ मंत्र में हम दोनों (वर-वधु) सब विद्वानों के सम्मुख घोषणा करते है कि हम दोनों के ह्रदय जल के समान शांत और परस्पर मिले हुए रहेंगे।

अथर्ववेद ७/३५/४ में पति पत्नी के मुख से कहलाया गया है कि तुम मुझे अपने ह्रदय में बैठा लो , हम दोनों का मन एक ही हो जाये।

अथर्ववेद ७/३८/४ पत्नी कहती है कि तुम केवल मेरे बनकर रहो। अन्य स्त्रियों का कभी कीर्तन व व्यर्थ प्रशंसा आदि भी न करो।

ऋग्वेद १०/१०१/११ में बहु विवाह की निंदा करते हुए वेद कहते है कि जिस प्रकार रथ का घोड़ा दोनों धुराओं के मध्य में दबा हुआ चलता हैं। वैसे ही एक समय में दो स्त्रियाँ करनेवाला पति दबा हुआ होता है अर्थात परतंत्र हो जाता है। इसलिए एक समय दो व अधिक पत्नियाँ करना उचित नहीं है।

इस प्रकार वेदों में बहु विवाह के विरुद्ध स्पष्ट उपदेश है।