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‘सूचना के अधिकार’ के दूसरे दशक का आगाज़

 मार्च 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियन संसद में पेश किया गयां. यह 11 मई 2005 को लोकसभा में  144 संशोधनों के साथ पारित हुआ। 12 मई को राज्यसभा ने भी इसे पारित कर दिया 12 जून 2005 को राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति दी। इस तरह,12 अक्टूबर 2005 से सूचना का अधिकार कानून, जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, जहां विधानसभा द्वारा पहले ही सूचनाधिकार कानून पारित एवं लागू किया जा चुका था, पूरे देश में प्रभावी हो गया। इसके अलावा, केन्द्र सरकार से जुड़े निकायों के संबंध में सूचना के अधिकार कानून 2005 के तहत सूचना मांगने का अधिकार जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को भी प्राप्त है। इस तरह इस महत्वपूर्ण जन-क़ानून को लागो हुए दस साल पूरे हो गए हैं। सूचनाधिकार का केन्द्रीय कानून, बनने से पहले, देश के नौ राज्यों में यह अधिकार लोगों को मिल चुका था-तमिलनाडु 1997,गोवा 1997,राजस्थान 2000,कर्नाटक 2000,दिल्ली 2001,असम 2002,मध्य प्रदेश 2002, महाराष्ट्र 2002,जम्मू-कश्मीर 2004।

कर्नाटक ऐसा पहला राज्य है जिसने सूचना का अधिकार लागू करने की कोशिश की। याद रहे कि 5-6 अप्रैल 2001 को ब्यावर के सुभाष गार्डेन में सूचना के अधिकार का प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। शिक्षा और सूचना के अधिकार के लिए काम कर रहे शिव अग्रवाल बताते है कि  इसके विशाल मंच पर बैनर था- ‘‘चोरीवाड़ो घणों होग्यों रे,कोई तो मुण्डे बोलो।’’ यानि लूटखसोट बहुत हो चुकी, कोई तो मुहं से बोले या अपनी जुबान खोले। लिहाज़ा, दो मत नहीं कि सूचना का आधिकार एक आम आदमी के लिए उसके हक़ की आवाज़ है , फिर भी, इस अहसास को एक तयशुदा जुमले की तरह इस्तेमाल करने का एक लंबा दौर हम देख चुके हैं. आरटीआई के विज्ञापननुमा उपयोग में भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे जनता के लिए कोई स्वर्ग ही धरती पर उतर आया हो ! जब कभी किसी सेमीनार में आप जाएँ या फिर कोई औपचारिक चर्चा हो, तब भी आप पायेंगे कि जैसे सूचना के अधिकार को लेकर वक्ताओं में कुछ रटी रटाई या सुनी सुनाई बातों को दोहरा देने की मानसिकता ही उभर कर सामने आती है.

तस्वीर का दूसरा पहलू भी तो है जो कुछ और कहता दिखता है- आजकल अक्सर ये ख़बरें पढी-सुनी और देखी जा रहीं हैं कि सूचना के अधिकार की अर्जियों को लटकाने या भटकाने के नायाब तरीके ढूंढ निकाले गए हैं. आरोप है कि अधिकारी सूचना देना नहीं चाहते. देते भी हैं तो आधी-अधूरी. या फिर ज़वाब ऐसा मिलता है जो आवेदक की समझ के बाहर होता है. यह भी कि जिस शक्ल में सूचना मांगी गई है उस शक्ल में मुहैया कराना या तो विभाग के लिए संभव ही नहीं है या फिर उसके लिए अलग-अलग आवेदन देने की जरूरत होगी. एक और पहलू यह भी कि सूचना देने के लिए इतनी बड़ी राशि की मांग कर ली जाये कि पूछने वाला धड़ाम से गिर पड़े या कदम ही पीछे हटा ले और भविष्य में सूचना की गलियों में कदम रखने की जुर्रत ही न कर सके.

बहरहाल, यह कहने और स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सूचना का अधिकार वास्तव में एक तरह की कड़ी परीक्षा के दौर से गुज़र रहा है. आये दिन इसे लेकर सूचना अटकाने या आवेदक को भटकाने वाली बातें सामने आती है. फिर भी, अनेक ऐसे विभाग और लोक प्राधिकरण हैं जो आरटीआई को पर्याप्त गंभीरता से ले रहे हैं. उनके द्वारा जानकारी बाकायदा दी जा रही है वह भी समय पर. उन्हें न कोई डर है न ही नतीजों की परवाह है. पर साफ़ दिल से सही मांग के अनुरूप सही और समयोचित जानकारी देने के ऐसे उदाहरण प्रायः कम ही मिल पाते हैं.

सूचना के अधिकार को लेकर लगता है कि जनता से ज्यादा सूचनादाता जागरूक हो गया है. पर, जिन्हें शिकायत है उनका कहना है कि उनकी ये जागरूकता सूचना देने से कहीं ज्यादा उसे छुपाने के हक़ में है. इससे हालात बिगड़ते जा रहे हैं. यदि ऐसा ही दौर जारी रहा तो सूचना के सिपाहियों से लेकर सूचना के हितग्राहियों तक का मनोबल टूट सकता है. लिहाजा कोई शक की गुंजाइश नहीं रह जाती कि इससे इस लोक हितैषी क़ानून के प्रति आम धारणा भी प्रभावित हो सकती है. उनका भरोसा खंडित हो सकता है.

दरअसल दायित्व आधारित कार्य प्रणाली के अभाव में उत्तरदायी नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती. काम की पारदर्शिता ही अधिकार का गौरव दिला सकती है. कहीं-न-कहीं दायित्व निर्वहन में किसी कमी के कारण सूचना के अधिकार के स्वप्न पर आघात पहुँच रहा है. दुनिया में आप कहीं भी देखें , लड़ाई अधिकारों के लिए ही जारी है. माना जाता रहा है कि अधिकार हमेशा लड़कर या जूझकर  मिलते हैं. फिर इसमें बुरा भी क्या है ? विशेषकर  तब जब बाकायदा एक लोकतंत्र समर्थित व्यवस्था ही जनता को अधिकार के लिए प्रेरित कर रही हो तब हर जिम्मेदार नागरिक को उसे सफल बनाने आगे आना चाहिए.

याद रहे कि समाज के निचले स्तर पर इस अधिकार को किसी भय के रूप में प्रचारित करते रहने से बचाना होगा. यह भ्रम भी कुछ लोगों ने फैला रखा है कि इससे कुछ ख़ास वर्ग के लोगों या कार्यकर्ताओं को ही फायदा  हो रहा है. इसके निराकरण की जरूरत है। आज के दौर में साफ़ महसूस किया जा सकता है कि हम दायित्व आधारित, अधिकार केन्द्रित व्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं. अब गोपनीयता को गलत नीयत की श्रेणी में गिना जा रहा है. पारदर्शिता को गुण माना जा रहा है। ऐसे में मुखौटों वाली व्यवस्था के पक्षधरों को अब चेत जाना चाहिए. सूचना देने वाले कर्मण्य कर्मचारियों को हतोत्साहित करना उचित नहीं है बल्कि वह एक तरह का अपराध ही है. इससे बाज़ आना चाहिए. जनता को जानकारी प्राप्त करने का जो अधिकार मिला है उससे भयभीत  रहने का कारण केवल तब हो सकता है जब कहीं कोई गड़बड़ी हो. बेहतर यही है कि अपने काम को विश्वसनीय बनाया जाये. फिर विश्वास का गला घोंटने की जरूरत नहीं रह जायेगी.

सूचना के अधिकार की सफलता इस बात पर भी निर्भर है कि आवेदन उन्हीं प्रश्नों को लेकर अधिक से अधिक आयें जिनका सम्बन्ध वास्तव में जन हित से हो. यहाँ तक ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह शिकायत आम होती जा रही है कि आपसी मन-मुटाव या गुटबंदी के कारण सूचना मांगने वाली अर्जियां दाखिल करवाई जा रही हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगनाजरूरी है. चुनाव में हारे हुए या भावी असफलता से डरे हुए लोग ही अर्जियां दाखिल करते रहें ये कहाँ तक सही है ?

अधिकारी अगर ईमानदारी से नोट शीट लिखें तो इसमें डरने की कोई बात नहीं होनी चाहिए। उन्हें अपने मातहतों को भी ईमानदारी से कार्य करने के लिए प्रोत्साहन और पुरस्कार भी देना चाहिए न कि उन्हें प्रताड़ित करें. सूचना के जानकारों को अक्सर सूचनादाता बनाने का ख़तरा कोई मोल नहीं लेना चाहता. ऐसे मुलाज़िमों को अधिकारी अक्सर सूचना और जनहित और जन भागीदारी की कमेटियों से दूर रखना चाहते हैं. यदि ऐसा ही चलता रहा तो आप बेहतर परिणामों की उम्मीद आखिर कैसे कर सकते हैं ? याद रहे कि सूचना का अधिकार एक ताकत है जिसके माध्यम से तंत्र के सही क्रियान्वयन की आशा और जनता के हित की रक्षा के सटीक उपाय किये गए हैं. इसे सफल बनाना हर जागरूक और जिम्मेदार नागरिक का पावन कर्तव्य होना चाहिए। 
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लेखक आरटीआई स्टेट रिसोर्स पर्सन और 
दिग्विजय कालेज,राजनांदगांव में प्रोफेसर हैं। 
 मो.9301054300 ———————————