अंग्रेज सरकार की चूलों हिला देने वाला संथाल विद्रोह

1855 को ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध महान संथाल विद्रोह हुआ था। संथाल विद्रोह को संताली भाषा में ‘संताल हूल’ कहते हैं। संथाल परगना का पूर्ववर्ती नाम ‘दामिनी को’ था यह नाम ब्रिटिश शासकों ने दिया था। ‘दामिनी को’ क्षेत्र पहले बीहड़ जंगल था। अंग्रेज शासक जंगल की कटाई कर खेती लायक जमीन बनाने के लिए आसपास के क्षेत्र के संताल आदिवासियों को मजदूरी करने के लिए प्रलोभन देकर लाए थे।

आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ व घाटशिला के पूर्व विधायक सूर्य सिंह बेसरा बताते हैं कि इतिहासकारों के मुताबिक काफी संख्या में संताल या संथाल जनजाति के लोग हजारीबाग, सिंहभूम मानभूम और बीरभूम क्षेत्र से जाकर वहां जीविकाेपार्जन के लिए बसने लगे थे। संथाल आदिवासियों ने पहले अंग्रेजी हुकूमत के आदेशानुसार जंगल-झाड़ साफ किया और खेती लायक जमीन बनाई। उस जमीन पर जब संथालों ने खेती करनी शुरू की तो ‘दिकू महाजन’ लगान वसूलने लगे। इसके साथ ही ब्रिटिश पुलिस संथालों पर अत्याचार व शोषण करने लगे।

जब संथालों पर ब्रिटिश ओं का हुकूमत शोषण जुल्म अन्याय अत्याचार की अति हो गई, तब संथालों को विद्रोह के लिए विवश होना पड़ा। उस समय दुमका स्थित बरहेट प्रखंड के अंतर्गत भोगनाडीह गांव में चुन्नू मुर्मू की छह संतान, जिनमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं। चार भाइयों और चार बहनों जिनका नाम सिदो मुर्मू, कान्हू मुरमू, चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू था। इन सगे भाई-बहनों ने संथाल समाज के लोगों को जागृत किया। संगठित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के लिए ललकारा।

1855 में 30 जून काे भोगनाडीह गांव स्थित एक विशाल मैदान में संथाल जनजाति के लोग एकत्र हुए थे, जिसका नेतृत्व सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू कर रहे थे। उस दिन दोनों भाइयों ने ब्रिटिश शासकों को ललकारा और संथाल हूल के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया। उसी दिन यह संकल्प लिया गया कि हमारी मेहनत की कमाई खेती-बाड़ी जल-जंगल-जमीन हमारा है। अंग्रेजों की गुलामी अब हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। इस उद्घोष के साथ उसी दिन से संथाल विद्रोह की शुरुआत हुई।

कहा जाता है कि सिदो मुर्मू और कानू मुर्मू को अलग-अलग जगह फांसी दी गई थी, जबकि चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू और दोनों की बहन फूलो मुर्मू व झानो मुर्मू लड़ाई में शहीद हुई थीं।