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आत्मनिष्ठा और सहनशीलता का अनुपम अनुष्ठान है संथारा – डॉ.जैन

राजनांदगांव। जैन धर्म के नियमानुसार ली जाने वाली संथारा व संलेखना समाधि पर इन दिनों चर्चा जारी है। लोगों में सहज जिज्ञासा है कि संथारा आखिर क्या है ? इस सन्दर्भ में हाल ही में बिलासपुर में हुई एक परिचर्चा के दौरान दिग्विजय कालेज के राष्ट्रपति सम्मानित प्रोफ़ेसर डॉ.चन्द्रकुमार जैन ने बताया कि श्रमण संस्कृति की अति प्राचीन और अहम धारा जैन धर्म की परम्परा में संलेखना और संथारा को सदैव बहुत उच्च साहसिक त्याग का प्रतीक माना गया है। जैन समाज में यह पुरानी प्रथा है कि जब किसी तपस्वी व्यक्ति को लगता है कि वह मृत्यु के द्वार पर खड़ा है तो वह स्वयं अन्न-जल त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को संथारा कहा जाता है। इसे जीवन की अंतिम साधना के रूप में स्थान प्रदान किया है।

डॉ.जैन ने कहा कि अंतिम समय की आहट सुन कर सब कुछ त्यागकर मृत्यु को भी सहर्ष गले लगाने के लिए तैयार हो जाना वास्तव में बड़ी हिम्मत का काम है। जैन परम्परा में इसे वीरों का कृत्य माना जाता है। यहां वर्धमान से महावीर बनाने की यात्रा भी त्याग, उत्सर्ग और अपार सहनशीलता का ही दूसरा नाम है। यह समझना भूल है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का अन्न जल जानबूझकर या जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है। संथारा में व्यक्ति खुद भोजन का त्याग धीरे-धीरे करता जाता है। अन्न जब अपाच्य हो जाय तब स्वतः सर्वत्याग की स्थिति बन जाती है।

डॉ.जैन ने स्पष्ट किया कि जैन धर्म-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा प्रथा। यहाँ धैर्य पूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला का नाम है संथारा। यह आत्महत्या नहीं, आत्म समाधि की मिसाल है और समाधि को जैन धर्म ही नहीं, भारतीय संस्कृति में गहन मान्यता दी गई है। मरते समय कौन नहीं चाहेगा कि मेरे मुख से प्रभु-नाम निकले? गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में एक चौपाई लिखी है, “कोटि-कोटि मुनि जतन कराहिं। अन्त राम कहि आवत नाहिं॥” बस इसी मंगल भावना का साकार रूप सल्लेखना अथवा संथारा है जिसमें अहिंसा अपनी पराकाष्ठा पर होती है और सारे व्रत अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं।