शांति निकेतन का गौरवशाली इतिहास

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्वभारती की कल्पना एक ऐसे विश्वविद्यालय के रूप में की जो भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो जहां तपोवन की अवधारणानुसार स्वावलम्बन हो कला और ज्ञान के विविध पक्षों का विकास होने के साथ-साथ प्रकृति से मानव का निकट संपर्क हो। विश्वभारती की संकल्पना से भी पूर्व रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ने 1888 में कलकत्ते से लगभग 150 कि.मी. दूर बोलपुर में शांतिनिकेतन आश्रम की नींव रखी। यह आश्रम उन्होंने ध्यान केन्द्र के रूप में स्थापित किया। यहाँ पर एक विद्यालय और पुस्तकालय भी बनाया गया।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यहां विद्यालय का प्रारम्भ 1901 ई० में किया। 21 दिसम्बर को हुए उद्घाटन समारोह में आश्रमवासी एवं पांच विद्यार्थी थे। चार लड़के कलकत्ते के और पांचवे थे रवीन्द्रनाथ के पुत्र रथीन्द्रनाथ उद्घाटन समारोह मंदिर में हुआ और सभी छात्रों को लाल रेशमी धोतियां और चादरें दी गई। सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने प्रार्थना सभा आयोजित की।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की साकार कल्पना थी यह विद्यालय जहां उन्होंने प्रकृति को और अधिक नजदीक से देखा। प्रकृति के नैकट्य भाव के कारण रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन में सहज तथा सरल जीवन शैली को बढ़ावा दिया। आडंबर और कृत्रिमता सहज जीवन से दूर करने के साधन हैं। आश्रम जीवन के बारे में रवीन्द्रनाथ ने लिखा है “आश्रम में कोई जूता-चप्पल नहीं पहनता था। केशतेल या दंतमंजन वर्जित थे” उनकी माँ मृणालिनी के लिए वह परीक्षा की घड़ी थी जब रवीन्द्रनाथ ने अपने पुत्र को छात्रावास में रहने के लिए कहा।

प्रारंभिक दिनों में शांतिनिकेतन विद्यालय की छवि कलकत्ते के भद्रलोक समाज में हास्यस्पद थी। कविगुरु की अव्यावहारिक कल्पना, भद्रजनों के मुख पर तिर्यक मुस्कान का कारण थी। वे लोग छात्रों का झोंपड़ियों में रहना, वृक्षों की छाया में अध्ययन-अध्यापन, जल- आपूर्ति की समस्या की आलोचना करते थे, क्योंकि व्यावहारिक दृष्टि से यह विद्यालय कपोल- कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं था, जो टैगोर की कवि प्रकृति को व्यक्त करता था ।

अपने इंगलैंड प्रवास (सितम्बर 1878 से फरवरी 1880) के अनन्तर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने पाश्चात्य संस्कृति को नजदीक से देखा और समझा। भारतीय संस्कृति की शिक्षा व्यवस्था के विषय में भी वे सतत् चिन्तनरत थे। शांतिनिकेतन न केवल उनकी कल्पना बल्कि उनकी व्यावहारिक चिन्ताधारा को निरूपित करने वाला विद्यालय बना। वे भारतीय शिक्षा पद्धति से असंतुष्ट थे । वे परम्परागत स्कूली व्यवस्था के विरोध में थे। बच्चों का ज्ञान सिर्फ बाल-साहित्य तक ही सीमित रहना चाहिए, वे इससे असहमत थे क्योंकि बाल मनोविज्ञान से पूर्णतः अनभिज्ञ लेखक भी बाल साहित्य की रचना करते हैं और बच्चों को मूर्ख एवं अज्ञानी बनाते हैं। रथीन्द्रनाथ की पुस्तक ऑन द ऐजेज ऑफ टाइम के अनुसार रथीन्द्रनाथ और बेला (पुत्र एवं पुत्री) ने बंगला संस्कृति और अंग्रेजी के कई महत्वपूर्ण गद्य-पद्य को शीघ्र ही स्मरण कर लिया। उनकी पत्नी मृणालिनी दोनों बच्चों को गृहकार्य में दक्ष करती थीं। वे नौकरों को प्रति रविवार को छुट्टी दे दिया करती थीं और बच्चे पाक कला सीखा करते थे ।

शांतिनिकेतन के पांच अध्यापकों में से तीन ईसाई मतावलंबी थे। यह विद्यालय प्राचीन भारतीय तपोवन की आधुनिक अवधारणा का प्रतिरूप था जातिप्रथा जैसे मुद्दे को टैगोर निजी चुनाव का विषय मानते थे। 1915 में जब महात्मा गांधी शांतिनिकेतन आए तब तक ब्राह्मण छात्र अन्य छात्रों से पृथक भोजन करते थे। टैगोर की यह धारणा थी कि जाति और धर्म व्यक्ति के निजी चुनाव के प्रश्न हैं, किसी बाह्य दबाव के नहीं। वैसे भी उन्होंने धर्म की अपेक्षा सौंदर्य-बोध, सुरुचि और सरल जीवन शैली पर ज्यादा बल दिया ।

महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के देहवसान के बाद शांतिनिकेतन, जिसमें विद्यार्थियों से कोई फीस नहीं ली जाती थी, के लिए धन को एकमात्र स्रोत त्रिपुरा के महाराज का कोश था। इसके अतिरिक्त रवीन्द्रनाथ की निजी सम्पत्ति, उनकी रचनाओं के प्रकाशन से हुई आय से विद्यालय को आर्थिक सहायता मिलती थी।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर को 1913 में गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार पाने वाले वे पहले एशियाई थे।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन को विश्वविद्यालय के रूप में विस्तृत करने की योजना बनाई। सन् 1918 से मृत्युपर्यन्त विश्वभारती ही उनके मन-मस्तिष्क को आच्छादित किए रही। रवीन्द्रनाथ ने इसे विश्वभारती का नाम दिया। विश्वविद्यालय का सिद्धान्त वाक्य यत्र विश्वं भवत्येक नीड़म् जहां समूचे विश्व का मिलन एक नीड़ में होता है।

विश्वभारती के बारे में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने विचार पहली बार व्यवस्थित ढंग से ‘भारतीय संस्कृति का केन्द्र’ शीर्षक निबंध में रखे। रवीन्द्रनाथ ने लिखा था – ” विश्वभारती पश्चिम और पूर्व के अध्येताओं का केन्द्र बनेगी। साथ ही यह एशिया के अतीत और वर्तमान की वाहक होगी जिससे प्राचीन विचारधाराओं एवं शिक्षण को आधुनिकता से जोड़ा जा सकेगा।”

विश्वभारती के सिद्धान्तों के विषय में विश्व को बताना जरूरी था। इस प्रक्रिया में उन्होंने सभी संस्कृतियों में अपने विश्वास की धारणा को पुष्ट किया। संस्कृति की अक्षुण्णता और गतिशीलता के लिए बाह्य झटके और दबाव अनिवार्य हैं। भारतीय मेधा की जीवंतता और जीवन शक्ति के लिए यूरोपीय संस्कृति के दलान का उन्होंने स्वागत किया। यह बात दूसरी श्री कि तत्कालीन बंगला समाज ने उनके विचारों को समझे बिना ही उन्हें पाश्चात्य संस्कृति का प्रशंसक सिद्ध कर दिया। टैगोर ने कहा कि “यूरोपीय संस्कृति हमारे निकट न केवल जानकारी के साथ आई है, बल्कि उसके आगमन में गति भी है।

प्रारंभ में शांतिनिकेतन में तीन विभागों की स्थापना की गई जो आज भी विश्वविद्यालय के प्रमुख विभाग हैं-‘कलाभवन’ – जिसे अवनीन्द्रनाथ के सर्वाधिक योग्य शिष्य नंदलाल बसु ने संचालित किया, ‘संगीतभवन’ जिसके संचालन का भार दिनेन्द्रनाथ टैगोर ने संभाला। तीसरा विभाग ‘भारत विद्या’ इण्डोलोजी का था, जिसकी स्थापना बौद्ध साहित्य, वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत, पाली, प्राकृत और आगे चलकर तिब्बती और चीनी शिक्षा के लिए हुई, जिसकी ओर बहुत से विदेशी छात्र आकर्षित हुए।

कालान्तर में विश्वभारती विविध विषयों के अध्ययन का केन्द्र बनने लगी। चीन भवन, निप्पन भवन में जहाँ चीनी, जापानी भाषाओं का शिक्षण बोध होने लगा वहीं विद्या भवन कला विषयों की स्नातक एवं स्नातकोत्तर शिक्षा एवं शोध कार्य के लिए स्थापित हुआ। शिक्षा भवन विज्ञान विषयों को उच्च शिक्षा के लिए, विनय भवन शिक्षण प्रविधि के लिए, पद्य भवन बंगला, इतिहास आदि विषयों की उच्च शिक्षा के लिए स्थापित हुए।

ये विभाग रवीन्द्रनाथ के बाद भी निरंतर स्थापित एवं विकसित हो रहे हैं, हाल ही में सूचना एवं संप्रेषण कला, पत्रकारिता के लिए नए विभाग की स्थापना हुई है। इन विभागों की स्थापना और भवन- निर्माण के पीछे गुरुदेव के प्रशंसकों, शांतिनिकेतन की नीतिगत धारणाओं में आस्था रखने वाले लोगों का योगदान रहा है। उदाहरणार्थ हिन्दी भवन, जिसकी स्थापना ऐण्ड्रयूज के प्रयासों के फलस्वरूप हुई। दीनबंधु सी. एफ. ऐण्ड्रयूज 1913 में शांतिनिकेतन आए और जीवन के शेष दिनों तक यहीं रहे।

शांतिनिकेतन के संचालन में वे गुरुदेव का हाथ बँटाते रहे। 16 जनवरी, 1938 को रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी भवन प्रतिष्ठा उत्सव में जनमंडली को संबोधित करते हुए कहा ‘हिन्दी भाषा के प्रति मेरा आंतरिक अनुराग है। इसके माध्यम से लक्ष लक्ष मनुष्य अपना मनोभाव प्रकट करते हैं। शांतिनिकेतन में हिन्दी भवन की प्रतिष्ठा करने में जिन्होंने सहायता की है, उनके प्रति मैं धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ।’

दीनबंधु एण्ड्रयूज ने हिन्दी भवन का शिलान्यास किया। अपने वक्तव्य में हिन्दी भवन के उद्देश्यों और हिन्दी भाषा के भविष्य की चर्चा की ‘हिन्दी भवन केवल हिन्दी भाषा की शिक्षा देने के लिए हो नहीं प्रतिष्ठित होगा, यहाँ अतीत की हिन्दी भाषा का गवेषण कार्य होगा तथा भविष्य की हिन्दी भाषा बनेगी। यहाँ अरबी और फारसी भाषाओं की भित्ति पर निर्मित उर्दू तथा संस्कृत भाषा की भित्ति पर गठित हिन्दी भाषा के बीच घनिष्ठता स्थापित करने की चेष्टा की जायेगी और इससे सरल और बोध्य राष्ट्रीय भाषा हिन्दुस्थानी के प्रचलन की व्यवस्था होगी।’ इस उद्धरण से स्पष्ट है कि गुरुदेव और उनके सहयोगियों का उद्देश्य शांतिनिकेतन को एशिया का एक प्रमुख शैक्षिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र बनाना था।

विश्वभारती के स्वप्न को यथार्थ रूप देने की दिशा में पहला कदम रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1919 ई. में उठाया था। अग्रणी यूरोपीय विचारकों और कलाकारों के साथ, जिनमें आइंस्टाइन भी थे। स्वतन्त्रता के घोषणापत्र ‘लॉ डिक्लेरेशन फौर इंडिपेंडेंस डी ला स्पिरिट’ पर हस्ताक्षर किए। यह घोषणापत्र 1915 ई. के नोबेल पुरस्कार विजेता रोमां रोलां के मस्तिष्क की उपज थी। रोमां रोलां पूर्व और पाश्चात्य संस्कृतियों के मेल के पक्षधर थे। रवीन्द्रनाथ और रोमां रोलां में अक्सर विचार-विनिमय हुआ करता था।

1935 के मध्य तक आते आते विश्वभारती की दशा शोचनीय हो गयी थी। सी. एफ. एण्डूल के कहने पर टैगोर ने गांधी जी को विश्वविद्यालय की आर्थिक दुरवस्था के बारे में बताया कि उनके प्रयास और निवेदन अपने ही लोगों के हृदय में अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं उत्पन्न कर सके हैं। गांधीजी ने अपने त्वरित उत्तर में कहा “आवश्यक धन के लिए आप मेरे परिश्रम पर निर्भर रह सकते हैं. आपको इस वय में धन उगाहने के लिए शांतिनिकेतन से बाहर नहीं जाना चाहिए।” स्पष्ट रूप से महात्मा का संकेत कविगुरू के गिरते स्वास्थ्य की ओर था। मार्च, 1936 में दिल्ली में जी. डी. बिड़ला ने गांधीजी के कहने पर विश्वभारती को 60,000 रु. की वित्तीय सहायता दी ( ध्यातव्य है कि लगभग इतनी ही राशि सन् 1905 में राष्ट्रीय कोष के लिए टैगोर ने मात्र एक सभा में एकत्रित की थी।

इस धन से विश्वभारती की वित्त संबंधी सभी समस्याओं का समाधान हो गया हो, ऐसा नहीं था। वित्त हेतु परमुखकातरता से टैगोर अपमानित अनुभव करते थे। फरवरी 1937 में टैगोर ने गांधी जी से विश्वभारती का ट्रस्टी बनने का अनुरोध किया था जिसे समयाभाव के कारण महात्मा गांधी ने अस्वीकार कर दिया था। महात्मा गांधी द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘भिक्षाटन यात्रा’ (टैगोर की वित्तीय अनुदान प्राप्त करने के उद्देश्य से की गई यात्राएं) पर टैगोर ने आपत्ति करते हुए लिखा था “मेरी यात्राएँ भारत की वित्तीय समस्याओं के समाधान के लिए ही नहीं, बल्कि मानव मस्तिष्क को संस्कृति से समाविष्ट करने के लिए हैं।”

टैगोर अपनी कविताओं और नाटकों द्वारा भारतीय सौंदर्य बोध और संवेदना की पहचान शेष विश्व में बनाना चाहते थे। अतएव ये यात्राएँ दोहरे उद्देश्य को लेकर की गईं। टैगोर ने जीवन को अंतिम घड़ी तक कलासाधाना से नाता नहीं तोड़ा। यहाँ तक कि उनका स्वस्थ्य निरन्तर गिरता गया। रवीन्द्रनाथ और आत्मीयों का आग्रह भी उन्हें नाटकों और रिहर्सलों से दूर नहीं रख पाता था।

गांधी जी से तमाम मतभेदों के बावजूद उनका संबंध बहुत घनिष्ठ था। 1937 में गांधी जी ने आश्रम के लिए कुछ और वित्तीय अनुदान जुटाए और 1940 में वे विश्वभारती का उत्तरदायित्व संभालने के लिए सहमत हो गए।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच की दूरी को रेखांकित करते हुए इस संदर्भ में यूरोपीय शिक्षण पद्धति की अनुशंसा की टैगोर विश्वभारती के माध्यम से शिक्षण व्यवस्था का आदर्श भारत एवं विश्व के सम्मुख रखना चाहते थे। वे स्वयं छात्रों के निकट रहकर उनसे रोजमर्रा की समस्याओं पर बातचीत किया करते थे आश्रम में अध्यापकों और विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था एक साथ ही थी।

प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजित रे ने लिखा है- “मैं अपने जीवन में शांतिनिकेतन प्रवास के तीन वर्षों को विशेष फलप्रद मानता हूँ ऐसा केवल रवीन्द्रनाथ के नैकट्य के कारण ही नहीं है-इससे पहले मैं बिल्कुल पाश्चात्य कला, संगीत और साहित्य से प्रभावित था। शांतिनिकेतन ने मुझे पूर्व और पश्चिम का सम्मिश्रण बनाया। एक फिल्मकार होने के नाते मैंने शांतिनिकेतन से जितना ग्रहण किया है उतना ही अमेरिकन और यूरोपीय सिनेमा से।”

शांतिनिकेतन में संस्कृति के जिस बीजवृक्ष का रोपण टैगोर ने किया था उसको सुगंध जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा को भी खींच लाई इंदिरा नेहरू ने 1934-35 का समय यहाँ व्यतीत किया। उन्हें आश्रम का भोजन कभी रुचिकर नहीं लगा। उन्होंने लिखा है- “गुरुदेव के व्यक्तित्व के सभी पक्षों में मेरी रुचि थी केवल कवि के तौर पर नहीं जब वे चित्र आँकते थे तब भी बहुत सी चीजें जो आज चलन में हैं उनके बारे में उन दिनों किसी ने सुना भी नहीं था।

उदाहरण के लिए पर्यावरण और पर्यावरण के प्रति गुरुदेव की चिन्ता गुरुदेव पर्यावरण के लिए शांतिनिकेतन और श्रीनिकेतन में कार्य कर रहे थे। वे मेरा अंश बन गई थीं ये हो सकता है कि ये विचार मुझमें पहले से ही रहे हों और शांतिनिकेतन में इन्हें अभिव्यक्ति का मार्ग मिला हो-मैं कह नहीं सकती मैं सोचती विश्वसंस्कृति की मिलन स्थलों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

धीरे-धीरे शांतिनिकेतन के प्रति लोगों की धारणा बदली थी। आश्रम में आकर बसने वाले लोग गुरुदेव की अवधारणा के व्यवहारिक स्तर पर परिचय पा सके सुविधाओं के साथ सादगी का समन्वय आश्रम की विशिष्टता थी। प्रमुख साहित्यिक आलोचक बुद्धदेव बसु ने लिखा, “यह ध्यातव्य है कि कोई स्थान विदेशियों को किस प्रकार अपने में समेट लेता है, उन्हें सच्चे राष्ट्र व की शिक्षा देता है कि कैसे वे एक सच्चे अंग्रेज, सच्चे चीनी, बन सकते हैं.. • शांतिनिकेतन वह स्थान है।

विश्वभारती के सभी भवनों में गुरुदेव ने लिखा है, मैं श्यामला धरणी का वरपुत्र हूँ। श्यामल मिट्टी के साथ मेरा संबंध अधिक है। वहीं मेरा आकर्षण है। पक्के घर में रहना क्या मेरे लिए शोभादायक है। अपने इस मिट्टी के घर में मिट्टी हो कर रहूँगा, एक दिन मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो जाऊंगा यही उचित है, पहले से ही इससे संबंध घनिष्ठ कर लूँ।

इसी श्यामली गृह में गुरुदेव की कल्पना में अल्पव्ययी मिट्टी के घर बनाने की योजना ने आकार लिया। इस तरह के घर ग्रामीण समाज की आवासीय समस्याओं का व्यावहारिक समाधान थे । गुरुदेव विश्वभारती के आसपास के ग्रामों के स्वावलंबन और विकास के लिए चिंतनरत थे । वस्तुतः वे विश्वभारती को केवल बौद्धिक संस्कृति का केन्द्र नहीं, बल्कि अर्थ का केन्द्र भी बनाना चाहते थे । कृषि और पशुपालन की संस्कृति ने प्राचीन भारत को समृद्धि के शिखर पर पहुँचाया था। टैगोर ने श्रीनिकेतन में ग्राम्य विकास केन्द्र की स्थापना की – यह शांतिनिकेतन का ही विस्तार है ।

सहकारिता के आधार पर स्वावलंबन और रोजगार के अवसरों के लिए श्रीनिकेतन में हथकरघा, चमड़े की वस्तुएँ बनाने का कारखाना, कृषि विकास केन्द्र, नर्सरियाँ आदि खोली गईं। इन केंद्रों में उद्योगों का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है, साथ ही सहकारिता के आधार पर बैंक, दुकानें भी खोली गई जो सैंकड़ों लोगों के जीवनयापन का आधार बनीं। टैगोर ने ऐसे सांस्कृतिक संस्थान की कल्पना करते हुए लिखा था – “ऐसे संस्थान को आसपास के गांवों को भी साथ लेकर चलना होगा। उनकी आवासीय सुविधाएँ, सफाई- स्वास्थ्य, चारित्रिक और बौद्धिक विकास के कार्य संस्थान के सामाजिक प्रकार्य का एक पक्ष होना चाहिए। एक वाक्य में, इसे कभी जलने वाली उल्का के समान शेष विश्व से विलग एवं अपूर्ण न होकर अपने-आप में एक सम्पूर्ण विश्व होना चाहिए – स्वनामधन्य, स्वावलंबी, नितनूतन जीवन-धन से सम्पन्न । ”

विश्व को जोड़ने और कर्मशील जीवन का सामंजस्य आनंद से करने के लिए उत्सव और अनुष्ठान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन आश्रम की आनंदमयी धारा के मुख्य स्रोत के रूप में उत्सवों की कल्पना की – ” आनन्द रूपम् अमृतम् यद्विभातिः ।” इन उत्सव – अनुष्ठानों पर रवीन्द्रनाथ की विशिष्ट छाप है । कर्मयोग के साथ आनंद का सम्मिश्रण जीवन को नीरस नहीं बनने देता। शांतिनिकेतन के ये उत्सव और अनुष्ठान कर्म और आनंद का अभूतपूर्व सम्मिश्रण करते हैं ।

इन उत्सवों के तीन आयाम हैं (1) ऋतु उत्सव; (2)महामानव स्मरण; (3) विभिन्न धर्मों का मांगलिक स्वरूपोद्घाटन । इन उत्सव अनुष्ठानों का उद्देश्य मनुष्य के मनु, प्रकृति की विभिन्न ऋतुएँ और जीवन के नित्यप्रति के क्रियाकलापों में सामंजस्य स्थापित करना है।

ये उत्सव वर्ष भर आयोजित होते हैं। जिनमें सर्वप्रथम पहला वैशाख है, यह बंगला नववर्ष का प्रारंभ दिवस है। महर्षि देवेन्द्रनाथ ने ब्रह्म समाज में इस उत्सव का प्रवर्तन सामाजिक सूत्रबद्धता के माध्यम के रूप में किया। मानव-मानव को एकात्म करने के उद्देश्य से यह उत्सव आश्रम में बनाया जाता है। रवीन्द्रनाथ के देहावसान के बाद इसे रवीन्द्रनाथ के जन्मदिन के रूप में मनाया जाने लगा। नववर्ष की प्रभात बेला में सभी आश्रमवासी रवीन्द्र-गान करते हुए छातिम तल्ला और मंदिर परिसर की परिक्रमा करते हैं और एक दूसरे से शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं।

बंगीय वर्ष 1325 से वर्षा मंगल नामक ऋतु उत्सव का प्रारंभ हुआ। काशी में प्रचलित ऋतु उत्सवों से गुरुदेव प्रभावित थे। उनकी इच्छा को ध्यान में रखते हुए आचार्य क्षितिमोहन सेन वर्षा मंगल का आयोजन कराया जो अत्यंत सफल रहा। सावन मास के अंतिम सप्ताह में इस उत्सव को आयोजित किया जाता है। वर्षा ऋतु के गीत-नृत्य आवृत्ति के भिन्न-भिन्न रूप प्रस्तुत किए जाते हैं। श्रावण में घने काले मेघ घिर-घिरकर आश्रम के कण-कण, पत्ते-पत्ते को सिक्त कर देते हैं। फूल-पत्ते पौधे, घास के विविध रंग, हरियाली एक अनूठा दृश्य उपस्थित कर देती है। कोपाई नदी जल से भरकर खिलखिलाने लगती है।

आषाढ़ के काले मेघ, शांतिनिकेतन को ढक लेते हैं, समूचे आकाश को कंपाती हुई तड़ितझंझा में बुद्ध पूर्णिमा के दिन धर्म चक्र का अनुष्ठान होता है। श्रावणमास में वृक्षारोपण एवं हलकर्षण का अनुष्ठान होता है। वृक्षारोपण रवीन्द्रनाथ के महाप्रयाण के बाद से 22 श्रावण (गुरुदेव का तिरोधान दिवस) को मनाया जाता है। इस अनुष्ठान का वर्णन करते हुए उन्होंने प्रतिमा देवी को लिखा था – “तुम्हारे गमले के बकुलपेड़ से वृक्षारोपण अनुष्ठान सम्पन्न हुआ। पृथ्वी पर किसी पेड़ का ऐसा सौभाग्य नहीं। सुंदर बालिकाएँ परिष्कृत वेश भूषा में शंख बजाती, गीत गाती पेड़ के साथ चलकर यज्ञ स्थल पर पहुँची।

वृक्षारोपण के अगले दिन हलकर्षण उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कृषि औजार और कृषकों की भूमिका प्रमुख होती है।

भाद्र के महीने में आश्रम का एक प्रमुख उत्सव शिल्पोत्सव मनाया जाता है। विश्वकर्मा पूजा के दिन शिल्पसदन श्रीनिकेतन के छात्र वेदमंत्रों और शिल्पोपयोगी नाना औजारों के साथ मंडप में आते हैं। इस दिन शिल्पसदन में वहाँ की निर्मित शिल्प सामग्री और ग्राम्य कलाओं की प्रदर्शनी आयोजित होती है।

शरद ऋतु के आगमन पर आश्रम में शरदोत्सव की कल्पना गुरूदेव ने की थी। शरद ऋतु में प्रकृति अपने पूरे सौंदर्य के साथ उपस्थित होती है। लगभग तीन सप्ताह तक (पूजा की छुट्टी के पहले) नाट्य घर, सिंह सदन, मुक्ताकाश में नाटक, आवृत्तियाँ, काव्य पाठ आदि चलते रहते हैं। अंतिम दिन आनंद / बाजार का आयोजन होता है। जिसमें स्कूल यूनिट के छात्र अपनी हस्तकलाओं का प्रदर्शन करते हैं। लाभांश को निर्धन छात्रों के लिए निर्मित कोष में जमा कर दिया जाता है।

पौष उत्सव — शांतिनिकेतन का एक प्रमुख और प्रसिद्धतम उत्सव है। सातवीं पौष महर्षि देवेन्द्रनाथ का दीक्षा ग्रहण दिवस है। नाथ ने इस दिन समस्त जगत की अनुकूलता से विमुख होकर ईश्वरीय सत्य की खोज की थी। पौष मेले में दूरस्थ ग्रामों के लोग अपनी शिल्पकलाओं का प्रदर्शन करते हैं। मूर्तिकला, काष्ठकला-सजावट का सामान विविधोपयोगी वस्तुएँ इस मेले में प्रदर्शित एवं विक्रय की जाती हैं। नगर एवं ग्राम की संस्कृतियों का सुंदर मिलन यहाँ दिखाई देता है। साथ ही भूतपूर्व आश्रमवासियों, विद्यार्थियों के पुनर्मिलन का सुयोग भी इस मेले में जुटता है — आश्रम जैसे अखिल विश्व हो जाता है।

नंदन मेला विश्वभारती के कलाकारों का मेला है। यह आश्रम के कलाभवन के छात्रों द्वारा आयोजित किया जाता है। सितंबर की पहली तारीख को लगने वाले इस मेले का उद्देश्य कला भवन के लिए अर्थकोष निर्मित करने के साथ-साथ भारतीय चित्रकला के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर नंदलाल बसु को याद करना भी है। तीन दिसंबर 1883 को जन्मे नंदलाल बसु ने भारतीय चित्रकला को विशिष्ट पहचान दी। यह मेला, नंदलाल बसु के प्रति श्रद्धा ज्ञापन एवं आगंतुकों और आश्रमवासियों के समक्ष कलाभवन के छात्रों की वर्षभर की कला को प्रस्तुत करता है । कलाभवन के छात्र अपनी बनाई कलाकृतियाँ प्रदर्शित करते हैं।

सतोत्सव या दोल आश्रम का एक महत्वपूर्ण उत्सव है, जो होली के दिन मनाया जाता है। नाच-गान और गुलाल अबीर से दोल मनाया जाता है – बसंत की प्रकृति अपनी छटाएँ दिखाती है सेमल, कंचल शाल, पलाश – विविध रंगी पुष्पों से लद जाते हैं। गुरुदेव के अनेक गीत नवीन, अरुपरतन, चित्रांगदा, नाटक इसी वसंत को लेकर लिखे गए हैं।

इन अनुष्ठानों के अतिरिक्त प्रत्येक बुधवार को प्रातः मंदिर में वैतालिक का आयोजन होता है, जिसमें आश्रमवासी बड़े अनुशासन के साथ श्वेत वस्त्रों में सुसज्जित होकर प्रार्थना सभा भाग लेते हैं। गांधी पुण्याह का आयोजन महामानव गांधी जी को स्मरण करने के उद्देश्य से किया जाता है। 1915 में गांधीजी शांतिनिकेतन आए थे। उनके आगमन की स्मृति में इसे (10 मार्च) कर्मदिवस के रूप में मनाया जाता है।

चैत्र मास के अंतिम दिन वर्ष के अन्त का उत्सव प्रारम्भ होता है “वर्ष समाप्त हो गया दिन की समाप्ति भी हो चली, चैत का अवसान।” चैत का अंतिम दिन मंदिर में प्रकाश-सज्जा से शेष वर्ष पूरे वर्ष को भावभीनी विदाई दी जाती है ” शेष नाहि जे, शेष कथा के बोलवे ।” मंदिर में उपासना की जाती है; टैगोर के गीतों के साथ उत्सव और अनुष्ठानों का वर्ष भर चलने वाला चक्र समाप्त होता है, अगले वर्ष से पुनः प्रारंभ होने के लिए।

गुरुदेव की विश्वभारती अब केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पा चुकी है। आनंद पाठशाला – जहाँ किंडरगार्डन स्तर पर छोटे बच्चे खेल-खेल में शिक्षित होते हैं। पाठभवन जहाँ बच्चे कक्षा दस तक की शिक्षा पाते हैं उत्तरशिक्षा सदन जहां ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षाएं पढ़ाई जाती हैं। स्नातक, स्नातकोत्तर एवं शोध स्तर की उपाधियों के लिए विविध विषयों के अलग- अलग विभाग हैं जो विभिन्न भवनों में हैं।

अत्याधुनिक सुविधा संपन्न शिक्षा भवन- जहां विज्ञान की पढ़ाई होती है- जैविकी एवं रसायन विज्ञान के क्षेत्रों में नूतन आविष्कारों का प्रमुख केंद्र है। हिन्दी भवन एकमात्र ऐसा भवन है जिसे विभाग नहीं भवन कहा जाता है, यहाँ हिन्दी की उच्च शिक्षा की व्यवस्था है- आज विश्वभारती छात्रों, शोधकर्ताओं और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है । दूरस्थ देशों के छात्र यहां शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। भारतीय नृत्य-संगीत, कला, भाषा को सीखने-सिखाने में विश्वभारती अपूर्व योगदान दे रही है।

https://www.indiaculture.gov.in/ की पत्रिका से




बावेश जनवलेकर मराठी फिल्म्स जी स्टुडियो के प्रमुख बने

जी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइजेज लिमिटेड’ (ZEEL) ने बावेश जनवलेकर (Bavesh Janavlekar) को मराठी फिल्म्स, जी स्टूडियो का बिजनेस हेड नियुक्त किया है। अपनी इस भूमिका में वह पूरी मराठी मूवी डिवीजन की जिम्मेदारी संभालेंगे, जिसमें जी टॉकीज, जी युवा, जी चित्रमंदिर और अब जी स्टूडियो मराठी शामिल है।

कंपनी की ओर से जारी एक प्रेस रिलीज में कहा गया है, ‘बावेश को मीडिया, एंटरटेनमेंट और एफएमसीजी सेक्टर्स में काम करने का 26 साल से ज्यादा का अनुभव है। उन्होंने जी मराठी और जी टॉकीज के मार्केटिंग हेड के रूप में जॉइन किया था, इसके बाद उन्हें जी टॉकीज के बिजनेस हेड के तौर पर प्रमोट किया गया था। इस दौरान उन्होंने जी टॉकीज, जी युवा और जी चित्रमंदिर की सफलता को आगे बढ़ाने में अपना अहम योगदान दिया है। इनमें बाद के दो चैनल्स उनके नेतृत्व में ही लॉन्च किए गए थे।’

अपनी नई भूमिका में जी स्टूडियो मराठी के साथ-साथ वह जी टॉकीज, जी युवा और जी चित्रमंदिर में भी पहले की तरह अपनी जिम्मेदारी निभाना जारी रखेंगे। वह जी मराठी मूवी डिवीजन में कंटेंट प्रॉडक्शन, अधिग्रहण और डिस्ट्रीब्यूशन के लिए जिम्मेदार होंगे।

कंपनी के अनुसार, ‘बावेश जनवलेकर जी टॉकीज कॉमेडी अवार्ड्स और संगीत सम्राट जैसी नई पहलों के पीछे प्रेरक शक्ति रहे हैं। बवेश के नेतृत्व में जी स्टूडियो मराठी विकास और इनोवेशन के नए युग में प्रवेश के लिए तैयार है। उनके नेतृत्व में बेहतर कंटेंट के प्रॉडक्शन को बढ़ावा मिलने और मराठी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में एक अग्रणी प्लेयर के रूप में ज़ी स्टूडियो मराठी की स्थिति को मजबूती मिलने की उम्मीद है।’

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समकाल में भारत- बांग्लादेश संबंध

भारत और बांग्लादेश के संबंध 21वीं सदी के लिए महत्वपूर्ण है। भारत पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की गतिशीलता और सुधार की दिशा में अग्रसर है। वैश्विक राजनीति में कहा जाता है कि दोस्ती स्थाई नहीं होती है। भारत के लोकप्रिय कवि, विषम परिस्थितियों में धैर्य धारण करने वाले व्यक्तित्व एवं पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी कहते थे कि ” मित्र बदले जा सकते हैं,लेकिन पड़ोसी नहीं” ।

राष्ट्र – राज्यों के परस्पर संबंध आर्थिक लाभ और विकास की राजनीति पर ज्यादा निर्भर होता है। भारत और बांग्लादेश व्यापार समझौते, बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं और क्षेत्रीय चुनौतियों का मिलकर सामना करने में सहयोगी की भूमिका में है। दोनों देशों के संबंध सांस्कृतिक कारकों और लोगों के बीच संबंध मजबूत होने के कारण हुए हैं। ऐतिहासिक , भाषाई और दोनों देशों के मध्य पारिवारिक संबंधों ने पारस्परिक रिश्ते को गर्म जोशी और ऊर्जावान बनाने में सहयोग किया है।

भारत और बांग्लादेश के बीच संबंधों का मुख्य कारक व्यापार है, जो समय के साथ बढ़ता जा रहा है। मोदी सरकार ने पड़ोसियों में विशेष रूप से बांग्लादेश के साथ व्यापार संबंधों को बढ़ाने, इसके राजनीतिक महत्व और आर्थिक संबंधों के उन्नयन पर केंद्रित रहा है।इस अवधि में व्यापार सुविधा, बुनियादी ढांचे के विकास और क्षेत्रीय कनेक्टिविटी में उल्लेखनीय प्रगति देखा जा रहा है।

भारतीय उपमहाद्वीप में बांग्लादेश भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है।भारत बांग्लादेश के लिए दूसरा सबसे बड़ा निर्यात भागीदार है ,जो उसके कुल निर्यात का 12% बनता है। वित्तीय वर्ष 2022 – 24 में दोनों देशों के बीच कुल व्यापार कारोबार प्रभावशाली 14.22 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था ।यह आर्थिक संबंध बांग्लादेश के बीच गहरे संबंध और परस्पर निर्भरता को उजागर करता है। अधिकांश बांग्लादेशी उत्पादों का भारतीय बाजार तक आसान पहुंच भारतीय माल को बांग्लादेश के माध्यम से बांग्लादेशी परिवहन का उपयोग करके उसके पूर्वी क्षेत्र को उसके सुदूर- पूर्वी क्षेत्र में उपयोग किया जाता है।

मोदी शासन के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में निरंतर वृद्धि देखी जा रही है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में दोनों देशों के बीच व्यापार लगभग 10.2 बिलियन डॉलर था ।यह मोदी के शासनकाल का उन्नयन कल है, जो दोनों देशों देशों को करीब लाने का करण कारक है। रेल कनेक्शन के बढ़ने के कारण दोनों देशों के बीच व्यापार को सुविधाजनक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है।

सुंदरबन के विकास जैसी पहल ने भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार संबंधों के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पर्यटन के विकास के दृष्टि से सुंदरबन की विशेष उपादेयता है। यह पर्यावरण पर्यटन की दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है ।भारत और बांग्लादेश में पर्यटन और कृषि के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं ।भारत और बांग्लादेश ने कार्गो परिवहन क्षमता को पहचान कर विकास किए हैं। पूर्वोत्तर भारत से बांग्लादेश तक रेलवे लाइन की स्थापना व्यापार संबंधों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है।

बेहतर रेल कनेक्शन सुंदरबन के क्षेत्र का विकास नदी मार्गों का विकास और नई रेलवे लाइनों की स्थापना जैसी माध्यमों से दोनों देशों ने आर्थिक सहयोग और पारस्परिक समृद्धि की दिशा में काम किया है। भारत और बांग्लादेश के बीच 54 साझा नदियां हैं और इसको लेकर दोनों देशों में कई तरह के सहयोग चल रहा है। जल बंटवारे के मुद्दे को समाधान करने के लिए गठित विशेष रूप से गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों से संबंधित है। संयुक्त नदी आयोग जल संसाधन प्रबंधन पर बातचीत और सहयोग की सुविधा प्रदान करता है, जिससे दोनों देशों को लाभ हो रहा है।

बांग्लादेश का चीन की ओर झुकाव भारत की क्षेत्रीय स्थिति और रणनीतिक आकांक्षाओं के लिए हानिकारक है। 2017 में चीन ने बांग्लादेश को दो मिग पनडुब्बियों की आपूर्ति की थी। इसके अतिरिक्त बांग्लादेश चीन के बेल्ट एवं रोड पहल का क्रियाशील सदस्य है, जिसके तहत चीन में भारी निवेश कर रहा है। स्ट्रिंग का पर्ल्स रणनीति के अंतर्गत चीन भारतीय उपमहाद्वीप में भारत के उभरते शक्ति का घेराबंदी करना चाहता है। इस राजनीतिक स्थिति पर पूर्व राजनयिक मचुकंद दुबे के अनुसार” भारत को चीन का मुकाबला करने के लिए अपने पड़ोसी राज्यों में अधिक निवेश करने की आवश्यकता है”।

भू – राजनीतिक दृष्टि से उत्तर – पूर्व की सुरक्षा के लिए दक्षिण पूर्व एशिया के लिए वैश्विक स्तर पर संचार की समुद्री लाइनों को सुरक्षित करना ,आतंकवाद और कट्टरवाद से लड़ने के लिए और मुखर चीन को संतुलित करने के लिए भारत को बांग्लादेश का बदलते परिवेश में अति आवश्यक है। चीन को संतुलित करने के लिए बांग्लादेश अति आवश्यक पड़ोसी राज्य है ,क्योंकि चीन का वृहद निवेश पाकिस्तान और बांग्लादेश में है ।भारत का परंपरागत तौर पर पाकिस्तान से संबंध सामान्य होने के आसार कम है, लेकिन बांग्लादेश पड़ोसियों में वैदेशिक स्तर पर भारत से मित्रता के लिए दिल से आकांक्षी है।

दक्षिण एशिया में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बांग्लादेश है, जबकि भारत बांग्लादेश का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है । वित्तीय वर्ष 2023 – 24 में दोनों देशों के मध्य कुल व्यापार 15.36 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है । भारत ने 2011 से दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र (SAFTA) के तहत तंबाकू और शराब को छोड़कर से सभी वस्तुओं पर बांग्लादेश को शुल्क मुक्ति प्रदान किया है। दोनों देशों के मध्य व्यापक आर्थिक साझेदारी को पर्याप्त रूप से बढ़ाने के लिए व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (CEPA) पर हस्ताक्षर करने की भी तैयारी कर रहे हैं। इससे दोनों देशों के मध्य रोजगार का अवसर बढ़ेगा और दोनों दोनों देशों के नागरिकों का जीवन गुणात्मक होगा।

यह प्रयास राजनीतिक, आर्थिक और वैदेशिक संबंधों के उन्नयन में अग्रणी भूमिका का निष्पादन करेगा। व्यापारिक संबंधों का उन्नयन करने का भारत को अपार संभावना है जिसका वृद्धि कर सके और बांग्लादेश अपने व्यापारिक संबंधों को और गहरा कर सके । इन दोनों देशों के मध्य संबंध उन्नयन में कपास उत्पादन ,चिकित्सीय विनिर्माण और कृषि उत्पादों का भी व्यापार सम्मिलित है।

भारत और बांग्लादेश का ऊर्जा क्षेत्र में भी अच्छा संबंध है। समकालीन में बांग्लादेश भारत से 116 गीगावॉट ऊर्जा आयात करता है। बिजली के सीमा पर व्यापार में द्विपक्षीय सहयोग प्रदान करने के लिए संस्थागत ढांचा प्रदान करने के लिए संयुक्त कार्य समूह (JWG) और संयुक्त संचालन समिति(JSC) की स्थापना की गई है। दोनों देशों में इस प्रकार समझौता करने से दोनों देशों के बीच ऊर्जा क्षेत्र में अधिक बढ़ोतरी होगी।

भारत और बांग्लादेश के बीच संबंधों के उन्नयन में पर्यटन महत्वपूर्ण क्षेत्र है। बांग्लादेश से बड़ी मात्रा में लोग इलाज के लिए भारत आते हैं। बांग्लादेश से 35% से अधिक लोग भारत इलाज के लिए आते हैं। यह चिकित्सा पर्यटन से भारत के राजस्व का 50% से अधिक का योगदान देते हैं। भारत और बांग्लादेश से दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन(SAARC), और हिंद महासागर रिम संगठन (IORA) जैसे कई क्षेत्रीय बहुपक्षी संगठनों में भागीदार है।

कोविद-19 के दौरान दोनों देशों ने दक्षिण एशिया के देशों में वैश्विक महामारी का मुकाबला करने के लिए संकटकालीन प्रतिक्रिया कोष की स्थापना में एकजुटता दिखाई है। वैश्विक मंचों पर भारत और बांग्लादेश विभिन्न मुद्दों पर एकजुटता दिखाते हैं। बांग्लादेश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में स्थाई सीट के लिए भारत की दावेदारी का प्रबल समर्थन करता है।

भारत और बांग्लादेश समकालीन में एक अच्छे सहयोगी पड़ोसी देश हैं। दोनों देश जल क्षेत्र, पर्यटन क्षेत्र, सामरिक क्षेत्र और ऊर्जा क्षेत्र के प्रमुख सहयोगी हैं ।दोनों देश दूरदर्शी संबंधों पर काम कर रहे हैं ।भारत बांग्लादेश संबंध की निकटता चीन को घेराबंदी करने में सहायक है । दोनों देशों के बीच का संबंध उपलब्धियां को स्वीकार करके ,चुनौतियों को समाधान करके और राजनीतिक जुड़ाव का एक रास्ता तैयार करके दूरदर्शी योजना पर कार्य कर सकते हैं। दोनों देशों के संबंध उभरते वैश्विक संदर्भ में पारस्परिक विकास, स्थिति और समृद्धि का स्तर बड़ाने मेंकर रहे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के जानकार हैं)




नारियल की खोल ने दिखाई पैसे कमाने की राह

लखपति बनने के लिए मेहनत और तैयारी लगती है। आज हम आपको एक ऐसी महिला के बारे में बता रहे हैं जिसने कचरे के रूप में फेंके गए नारियल की खोल से आय का एक नया साधन खोजा।

इस महिला का नाम मारिया कुरियाकोस है।

मारिया ने 2019 में ठेंगा कोको नामक एक कंपनी की स्थापना की। यह कंपनी नारियल शील्ड से टिकाऊ, पर्यावरण के अनुकूल हस्तनिर्मित आइटम बनाती है। केरल में महिला नेतृत्व वाले इस उद्योग ने कई लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान किए हैं।

2019 में मारिया कुरियाकोस ने केरल के त्रिशूर जिले में नारियल कवच इकट्ठा करना शुरू किया था। मारिया ने इसको एक अच्छा साफ किया। उसके बाद उस पर सैंडपेपर का उपयोग करके उसकी सतह चिकनी बना दी।

नारियल कवच का उपयोग कचरे के लिए टिकाऊ, पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा और हस्तनिर्मित घर-निर्मित उत्पाद के लिए किया गया था। मारिया ने इस व्यवसाय का नाम ठेगा कोको रखा है। मल्लयालम भाषा में ठेंगा शब्द का अर्थ है नारियल।नारियल का पेड़ खास है। इसे कल्पना वृक्ष भी कहा जाता है। इस पेड़ का हर भाग उपयोगी है। मारिया ने 2016 में सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई से अर्थशास्त्र में डिग्री की पढ़ाई की। फिर वह आगे की शिक्षा के लिए स्पेन चली गई।

मारिया ने 2017 में एओन हेविट, मुंबई में एक सलाहकार के रूप में काम किया। उसका दिमाग हमेशा उसके दिमाग में था कि नौकरी से बेहतर व्यापार है। उनके दिमाग में कुछ अलग करना था जिससे पर्यावरण और समाज को लाभ मिले। उसके बाद, एक साल में, मारिया ने एक अच्छी कमाई वाली नौकरी छोड़ दी और मैना महिला फाउंडेशन शुरू किया।

मारिया द्वारा शुरू किए गए उद्योग में केरल के विभिन्न क्षेत्रों के किसानों और कुशल श्रमिकों का नेटवर्क है। इसमें कोट्टायम, कोंडुगल्लूर, मेटुपालयम और एलीपी शामिल हैं। इनकी कंपनी में 30 से ज्यादा लोग काम करते हैं जिनमें 80% महिलाएं हैं।

इन महिला श्रमिकों को है 20 से 25 हजार प्रति माह वेतन मारिया के कंपनी के उत्पादों की मांग चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई, अहमदाबाद, कोलकाता और दिल्ली जैसे शहरों में होती है। इसके अलावा डेनमार्क, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे देशों में काफी मांग है। हाल ही में देश में मांग से ज्यादा विदेश में मांग बढ़ी है।




फिल्मी दुनिया में जिहादियों की पकड़ कितनी गहरी

 

आपने कभी ध्यान दिया है कि फ़िल्मों मे 90 के बाद से गायकों का करियर ग्राफ़ कैसा रहा है??
याद है कुमार शानू जो करियर मे पीक पर चढ़कर अचानक ही, धुँध में खो गये। फिर आये अभिजीत, जिन्हें टाप पर पहुँचकर अचानक ही काम मिलना बंद हो गया। उदित नारायण भी उदय होकर समय से पहले अस्त हो गये। उसके बाद सुखविंदर अपनी धमाकेदार आवाज से फलक पर छा गये और फिर अचानक ही ग्रहण लग गया। उसके बाद आये शान, और शान से बुलंदियों को छूने के अचानक ही कब नीचे आये पता ही नही लगा।

फिर सोनू निगम कब काम मिलना बंद हुआ, लोग समझ ही नही पाये। उसके बाद अरिजीत सिंह, जिनकी मखमली आवाज ने दिलों में जगह बनानी शुरू ही की कि सलमान खान ने उनहे पब्लिकली माफ़ी माँगने के बाद भी ‘जग घूमया’ जैसा गाना नही गवाया और धीरे धीरे उसका करियर खतम करने की साज़िश चलने लगी। सारे ही गायकों को असमय बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

इसके उल्टा इसके पहले चीख़ कर गाने वाले, क़व्वाल नुसरत फ़तेह अली खान को क़व्वाली गाने के लिये बुलाया जाता है, और पाकिस्तानी गायकों के लिये दरवाज़े खोल दिये गए। उसके बाद राहत फ़तेह अली खान आते हैं और बॉलीवुड में उन्हे लगातार काम मिलने लगता है और बॉलीवुड की वजह से सुपरहिट हो जाते है। फिर नये स्टाईल के नाम पर आतिफ़ असलम आते हैं जिसकी आवाज को ट्यूनर मे डाले बग़ैर कोइ गाना नही निकलता है, उन्हे एक के बाद एक अच्छे गाने मिलने लगते हैं। अली जाफ़र जैसे औसत गायक को भी काम मिलने में कोई दिक़्क़त नही आती।

धीरे धीरे पाकिस्तानी हीरो हीरोइन को भी बॉलीवुड मे लाकर स्थापित किया जाने लगा और भारतियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा। पर उरी हमले के बाद, बैक डोर से चुपके से उन्हे लाने की यह चाल, कुछ भारतीयों की नज़र में उनकी यह चाल समझ में आ गयी और उन्होंने निंदा करने की माँग करने की, हिमाक़त कर डाली जो उन्हे नागवार गुज़री और वो पाकिस्तान वापस चले गये।

क्या आपको लगता है कि यह केवल संयोग है तो आप से बड़ा भोला कोई नहीं।
पूरा बॉलीवुड डी कंपनी या पी कंपनी (पाकिस्तान) के इशारों पर चलता है,

गुलशन कुमार जी को इन्होंने सरेराह मरवा दिया और उनके बाद बॉलीवुड से तो जैसे भजन और हिन्दू धार्मिक संगीत अदृश्य हो गया, और संगीत के नाम पर अश्लीलता और धर्म के विरूद्ध एक षड्यन्त्र काम करने लगा और नई युवा पीढ़ी को पथभ्रमित करने का कार्य विशेष रूप से किया गया।

गुलशन कुमार को हटाकर भजन कीर्तन का बॉलिवुड से खात्मा किया गया। अब केवल अली अली मौला बचा है।
खान गैंग ने ये सब पूरी प्लानिंग से किया और कम्युनिस्टों के इशारे पर किया।

https://www.facebook.com/vipin.k.sharma.121




पश्चिम रेलवे द्वारा 03 जोड़ी स्‍पेशल ट्रेनों के फेरे विस्‍तारित

मुंबई। पश्चिम रेलवे द्वारा यात्रियों की सुविधा तथा अतिरिक्त भीड़ को देखते हुए विशेष किराये पर 03 जोड़ी स्‍पेशल ट्रेनों के फेरे विस्‍तारित किये गये हैं।

पश्चिम रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी श्री विनीत अभिषेक द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार इन ट्रेनों का विवरण इस प्रकार है:

• ट्रेन संख्‍या 03418/03417 उधना – मालदा टाउन (साप्ताहिक) स्पेशल
ट्रेन संख्‍या 03418 उधना – मालदा टाउन स्पेशल जिसे पहले 02 जुलाई, 2024 तक अधिसूचित किया गया था, अब उसे 30 जुलाई, 2024 तक बढ़ा दिया गया है।

इसी तरह, ट्रेन संख्‍या 03417 मालदा टाउन – उधना स्पेशल जिसे पहले 30 जून, 2024 तक अधिसूचित किया गया था, अब उसे 28 जुलाई, 2024 तक बढ़ा दिया गया है।

• ट्रेन संख्‍या 09057/09058 उधना – मंगलुरु (द्वि-साप्ताहिक) स्पेशल

ट्रेन संख्‍या 09057 उधना – मंगलुरु स्पेशल जिसे पहले 30 जून, 2024 तक अधिसूचित किया गया था, अब उसे 30 अक्टूबर, 2024 तक बढ़ा दिया गया है।
इसी तरह, ट्रेन संख्‍या 09058 मंगलुरु – उधना स्पेशल जिसे पहले 01 जुलाई, 2024 तक अधिसूचित किया गया था, अब उसे 31 अक्टूबर, 2024 तक बढ़ा दिया गया है।

• ट्रेन संख्‍या 03110/03109 वडोदरा – सियालदह (साप्ताहिक) स्पेशल
ट्रेन संख्‍या 03110 वडोदरा – सियालदह स्पेशल जिसे पहले 27 जून, 2024 तक अधिसूचित किया गया था, अब उसे 01 अगस्त, 2024 तक बढ़ा दिया गया है।

इसी तरह, ट्रेन संख्‍या 03109 सियालदह – वडोदरा स्पेशल जिसे पहले 25 जून, 2024 तक अधिसूचित किया गया था, अब उसे 30 जुलाई, 2024 तक बढ़ा दिया गया है।

ट्रेन संख्या 03418, 09057 एवं 03110 के विस्तारित फेरो की बुकिंग 28 जून, 2024 से सभी पीआरएस काउंटरों और आईआरसीटीसी वेबसाइट पर शुरू होगी। ट्रेनों के ठहराव के समय और संरचना के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए यात्री कृपया www.enquiry.indianrail.gov.in  पर जाकर अवलोकन कर सकते हैं।




भुवनेश्वर में नादब्रह्म दो दिवसीय संगीत उत्सव आयोजित

भुवनेश्वर ।  स्थानीय गीत गोविंद सदन में सामाजिक-सांस्कृति उत्थान संस्था नादब्रह्म के सौजन्य से दो दिवसीय (25-26 जून की शाम में) संगीत उत्सव आयोजित हुआ जिसमें बतौर मुख्यअतिथि भुवनेश्वर एकाम्र के नवनिर्वाचित विधायक बाबू सिंह ने योगदान दिया। उन्होंने अपने संबोधन में आडिशी संगीत,ओडिशी फोक ऑर्ट तथा डाइंग आर्ट को सतत जीवित और विकसित करनेवाली संस्था के प्रमुख प्रो.जगन्नाथ कुंवर को बधाई दी तथा उनके आमंत्रण पर अपनी-अपनी अद्वितीय कला की प्रस्तुति से सभी को मंत्रमुग्ध करनेवाले संगीत कलाकारों जैसेः गुरु नीमाकांत रुतराय,महापात्रा मिनती भंज,जयमिता कुंवर,महाप्रसाद कर,भाग्यश्री राउत,देवेंद्र गौड़ तथा अन्य नामी कलाकारों को बधाई देते हुए सम्मानित किया।

आयोजक प्रो.जगन्नाथ कुंवर ने बताया कि महाप्रभु के अणासरा के अवसर पर आयोजित दो दिवसीय नादब्रह्म संगीत उत्सव में अनेक संगीतप्रेमी उपस्थित होकर कलाकारों का उत्साह बढ़ाए। कार्यक्रम का सफल संचालन डॉ मृत्युंजय रथ ने किया।




इमर्जेंसी की क्रूरता के खिलाफ महाराष्ट्र के समाजसेवी प्रभाकर शर्मा ने 1976 में कर लिया था आत्म दाह

जो नेता गण हाल के वर्षों में यह आरोप लगाते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में अघोषित इमर्जेंसी लगा रखी है,वे असली इमर्जेंसी की एक असली कहानी को यहां पढ़ लें।

 

यह कहानी कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक ‘रविवार’ (9 दिसंबर 1979)में छप चुकी है। कहानी यानी आत्मदाह से ठीक पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के नाम प्रभाकर शर्मा की मार्मिक चिट्ठी में वर्णित  कहानी> याद रहे कि शर्मा ने उस पत्र की प्रति ‘सरकारी संत’ विनोबा भावे को भी भेजी थी। पर विनोबा ने उस पत्र की किसी से चर्चा तक नहीं की।  महात्मा गांधी के आह्वान पर प्रभाकर शर्मा ग्राम सेवा क्षेत्र में कूदे थे।
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आपातकाल की जन विरोधी क्रूरता और सत्ताधारियों के नग्न नाच से संतप्तं होकर प्रभाकर शर्मा ने 14 अक्तूबर 1976 को महाराष्ट्र के वर्धा के निकट सुरगांव में अपने शरीर पर तेल छिड़क कर आत्म दाह कर लिया था।

याद रहे कि इमर्जेंसी में विनोबा की पत्रिका ‘‘मैत्री’’ को भी महाराष्ट्र पुलिस ने जब्त कर लिया था।विनोबा उसके संपादक थे। जबकि अभूतपूर्व दमनकारी आपातकाल के समर्थन में विनोबा ने आपातकाल को सार्वजनिक रूप से ‘‘अनुशासन पर्व’’ बता दिया था। याद रहे कि केंद्र सरकार ने आपातकाल में आम लोगों के जीने तक का अधिकार छीन लिया था। देश के विभिन्न जेलों में कैद हजारों छोटे-बड़े प्रतिपक्षी नेताओं व पत्रकारों को अदालत जाने की अनुमति नहीं थी। केंद्र सरकार के इस कदम को भयभीत सुप्रीम कोर्ट का भी पूरा समर्थन मिल गया था।

आपातकाल (1975-77)की क्रूरता के खिलाफ प्रभाकर शर्मा ने  आत्म दाह करने से ठीक पहले प्रधान मंत्री   इंदिरा गांधी को पत्र लिखा-

‘‘इंदिरा जी,मैं आपके पापी राज्य में (जिन्दा)नहीं रहना चाहता।’’

प्रभाकर शर्मा  ने १४ अक्तूबर १९७६ को वर्धा के निकट सुरगाव में वानाशाही के विरोध में अपने शरीर पर तेल छिड़क कर आत्मदाह किया था । आत्मदाह के पूर्व प्रभाकर ने इंदिरा गांधी को जो पत्र लिखा था, उसे हम यथावत प्रकाशित कर रहे हैं।

श्रीमती गांधी

“पिछले वर्ष ईश्वर और मानवता को भूली हुई केंद्रीय सरकार ने मूढ़ पशुबल के सहारे अखबारों का लेखन-स्वातंत्र्य छीन कर जो कुछ सत, उदात्त और महान पुकारा जाता है, उन सब पर निर्मम प्रहार किया था। इस वर्ष पू० विनोबा जी के गोहत्या-प्रति- बंध के लिए आमरण अनशन के समाचार पर प्रतिबंध लगा कर तथा उनके ‘मैत्री’ का अंक जब्त करके उसने भारत की अहिंसक और आध्यात्मिक संस्कृति पर एक और निर्लज्ज प्रहार किया ।

मुगलों के जमाने में ऐसे अत्याचार पर लोगों को कदाचित आश्चर्य नहीं होता, परंतु यह उस तथाकथित कांग्रेसी सरकार ने किया है जिसे गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसा की शिक्षा मिली थी । यदि मेरे घर में मीठी-मीठी बातें कर कुछ व्यक्ति घुस आयें और बाद में पिस्तौल दिखा कर मुझे बांध दं, मेरी संपत्ति छीन लें और घर की स्त्रियाँ पर बलात्कार करें तो इस कुकृत्य की भर्त्सना मैं किन शब्दों में करूं’ ? ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगा कर पैसा, चालाकी और भ्रष्टाचार के द्वारा आप प्रधानमंत्री बनी हैं। यह देख कर कि पैरों तले जमीन खिसक रही है, अपन हाथों में सत्ता बनाये रखने के लिए आपने पुलिस और सेना के बल पर, जिनका खर्च जनता से ही वसूल किया जाता है, राक्षसी कानून लगा कर भारत को एक अंधेरी गुफा का रूप दे दिया है।

इस केंद्रीय सरकार को मैं पक्के गुंडों का संगठन मानता हूं। इस गुंडा संगठन ने मानवता, शील, चारित्र्य, न्याय, लज्जा, ईमानदारी और भारतीय संस्कृति को पूर्ण तिलांजलि दे दी है। इस गुंडा संगठन के मनमाने अत्याचारों का संवाद अखबारों में भी नहीं जा सकता। ‘जयप्रकाश जिंदाबाद’ कहने या उनके स्वागत के लिए सड़क पर खड़े रहने का अर्थ हूँ गिरफ्तारी । जालसाजी, भूष्टाचार और काले धन के ल पर प्रधानमंत्री बनी हुई श्रीमती इंदिरा गांधी की इच्छा के विरुद्ध निर्णय देने का

इंदिरा जी,

मैं आपके पापी राज्य में नहीं रहना चाहता प्रभाकर शमां

अर्थ है, न्यायाधीशों का पदच्युतिकरण । सारांश यह है कि आज उनकी (इंदिरा गांधी की) मर्जी है धर्मशास्त्र, सदक है नीति- शास्त्र, इच्छा है संस्कृति, गर्वोन्माद है कानून और हुकार है न्याय । अपने जघन्य कृत्यों के कारण लोकमत का सामना करने का साइस आप खो चुकी हैं, अन्यथा यह हिंसा और गोपनीयता का सहारा क्यों ? लेखन स्वातंत्र्य के अपहरण के कारण न तो शुद्ध लोकमत प्रकट हो सकता है और न कोई सामूहिक अहिंसक आंदोलन हो सकता है। मैं इसे राष्ट्र की अंतरात्मा की हत्या कहूंगा। आप अपनी राजनीतिक चालों से मात्र पशुबल का सहारा ले कर भारत की वर्तमान प्रजा को दब्बू और चरित्रहीन बना रही हैं। और नयी पीढ़ी तो खत्म ही है।

अपनी निरंकुश और स्वच्छंद सत्ता द्वारा भारत को अपनी राक्षसी सत्ताकांक्षा का विश्वरूप दर्शन कराने के लिए यदि आप भारत की सारी जनता को ही एटम बम से ख़त्म कर दें तो कम-से-कम अकेला में तो आपको धन्यवाद देता । संपूर्ण भारत को अपने पैरों तले रौंदनेवाली नरपिशाचिनी की सत्ता के अंतर्गत जीवित रहने की अपेक्षा मेँ हजार बार मल-मूत्र में रंगनेवाले कीड़े का जन्म लेना ज्यादा पसंद करूंगा ।

वर्तमान अवस्था से संतुष्ट हो कर अगर भारत की जनता चुप पड़ी रहती हैं तो भारत वह भारत नहीं रहेगा जहां हजारों संतों और महापुरुषों ने अद्वैत की उपासना द्वारा बुहुमात्मैक्य की अनुभूति प्राप्त कर आध्यात्मिक और अहिंसक संस्कृति के बीज बोये थे। प्रत्युत वह उन लोगों का देश कहलायेगा जिन्होंने शाश्वत सुख और शांति प्रदान करनेवाली अपनी कल्याणमयी माता की संपूर्ण अवज्ञा करके पैसे और भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए अपने शरीर और आत्मा को बेच कर पश्चिम से बन-ठन कर आयी हुई रोगग्रस्त वेश्या को पूजना शुरू कर दिया है।

जब एक ओर सत्ताधीश और उनकी नौकरशाही अपने पद और नौकरियों को रखने के लिए प्रजा का अनेक प्रकार से दमन कर रही है और उन्होंने अपनी अंतरात्मा को इतना कुचल दिया है कि उनका मन- व्यत्व ही समाप्त हो गया है तो दूसरी और शहरी वर्ग ने अपने भोग-विलास, फैशन और ऐश-आराम को सुरक्षित रखने के लिए सरकार के अपमानजनक कानूनों और जुल्मों के आगे घुटने टेक दिये हैं । सत्ता और संपत्ति की पूजा के लिए मनुष्य जाति के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का यह पतन देख कर मेरा हृदय विदीर्ण हो जाता है तथा मेरी दशा उस व्यक्ति के समान हो जाती हॅ जिसके सामने हजारों बच्चों की हत्या और लाख स्त्रियों पर बलात्कार हो रहा हो । अज्ञान और दारिद्र्य के महासागर में गांव लगानेवाले इन करोड़ों भारतीयों क रहते इन सत्ताधीशों और शहरवासियों को नींद कैसे आती है और अन्न कैसे पचता है ? मुझे तो यह आश्चर्य लगता है।

इस पत्र में मैंने कठोर शब्दों का प्रयोग किया है, किंतु आपके मनकारी यां की तुलना में मेरे शब्द बहुत ही सौम्य मान जाने चाहिए। ईश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं। ईश्वर इन मदांध सत्ताधारियों को कभी माफ नहीं करेगा। भावी पीढ़ी आक के मदमस्त अफसरों, मंत्रियों, राष्ट्रपति और पिठ्ठु न्यायाधीशों को सबसे बड़ा अपराधी मानेगी।




हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय कोरापुट के संयुक्त तत्वावधान में 75 वां राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न

भुवनेश्वर। हिंदी साहित्य सम्मेलन,  प्रयाग एवं ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय, कोरापुट के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 75 वें अधिवेशन का समापन समारोह दिनांक 25 जून 2024 को संपन्न हुआ। पूर्वाह्न 10:30 बजे समाजशास्त्र परिषद के परिसंवाद का विषय ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति भविष्य का समाज’ था । इसमें प्रो. भरत कुमार पंडा ने सभापति के रूप में अपना व्याख्यान दिया ।उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान-संपदा संरक्षण, मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ,शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार तथा समावेशी शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है। इस परिसंवाद में विशिष्ट वक्ता डॉ सुशील कुमार उपाध्याय  के साथ-साथ श्री मोहन कृष्ण भारद्वाज , डॉ मनोहर मयूर जमुना देवी एवं डॉ दीप्ति बोकन ने अपने महत्वपूर्ण विचार रखे।

अपराह्न 1:00 बजे के बाद खुला अधिवेशन का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ जिसके अंतर्गत राष्ट्रभाषा हिंदी के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान  हेतु ‘साहित्य वाचस्पति’ एवं ‘सम्मेलन सम्मान’ प्रदान किया गया। सबसे पहले प्रोफेसर हेमराज मीणा ने सम्मेलन सम्मान पाने वाले विद्वानों का परिचय देते हुए  उन्हें मंच पर आमंत्रित  किया। श्री मनमोहन गोयल ,श्री सुशील कुमार पात्र, डॉ. भगवान त्रिपाठी,श्री चरण सिंह मीणा, डॉ. चक्रधर प्रधान ,डॉ. मनोज कुमार सिंह, प्रो. हेमराज मीणा, डॉ. मनोहर मयूर जमुना देवी, प्रो. रामकुमार मिश्र ,डॉ. माली पटेल श्रीनिवास राव ,प्रो. विभाष चंद्र झा ,डॉ. अखिलेश निगम अखिल, डॉ. लोकेश्वर प्रसाद सिन्हा आदि को ‘सम्मेलन सम्मान’ से सम्मानित किया गया।

इसके बाद श्री शेषमणि पांडे ने हिंदी साहित्य सम्मेलन के सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्य वाचस्पति’ सम्मान के लिए डॉ अजय कुमार पटनायक एवं प्रोफेसर चक्रधर त्रिपाठी का नाम घोषित किया। उन्होंने इन दोनों विद्वानों का विस्तृत परिचय देते हुए उन्हें सम्मान प्रदान करने के लिए हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री श्री कुंतक मिश्र को अनुरोध किया। डॉ अजय कुमार  पटनायक ने इस  अवसर पर  हिंदी साहित्य सम्मेलन  के ‘साहित्य वाचस्पति सम्मान’  के राष्ट्रीय महत्व पर प्रकाश  डालते हुए अपने  छात्र जीवन को  याद  किया। उन्होंने कहा कि गंजाम से इलाहाबाद तक पहुंचना उनके समय में आसान नहीं था; किंतु हिंदी पढ़ने के लिए उनमें एक जुनून पैदा हुआ था जिसके कारण सारी कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने उच्च शिक्षा में हिंदी का अध्ययन किया और हिंदी सेवा में अपने आप को नियोजित किया।

इस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए  ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. चक्रधर त्रिपाठी ने अपने ओजपूर्ण संबोधन से  पूरे  सभागार को  मंत्रमुग्ध कर  दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदी का काम देश को जोड़ कर रखना है ।हिंदी प्रदेश के लोग संयोजक का काम करें तथा भारतवर्ष की अन्य भाषा और संस्कृति को अपनाकर  स्वयं को  समृद्ध करें। ‘ आज नहीं तो कभी नहीं’ इसी मंत्र को सभी हिंदी प्रेमियों को आत्मसात् करना चाहिए।

कार्यक्रम के अंत में हिंदी साहित्य सम्मेलन के साहित्य मंत्री प्रो. रामकिशोर शर्मा ने भारतवर्ष के कोने-कोने से आए हिंदी प्रेमियों को तथा ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय से मिलने वाले आंतरिक सहयोग,  प्रेम पूर्ण व्यवहार,और आतिथ्य का उल्लेख करते हुए कुलपति,कुलसचिव,  वित्त अधिकारी,सुरक्षा अधिकारी, जनसंपर्क अधिकारी समेत सभी को विशेष धन्यवाद दिया । समारोह के अंत में अपने तन -मन राष्ट्र को समर्पित करते हुए सभी ने राष्ट्रगान  किया।

प्रेषक ःडॉ. फगुनाथ भोई

जनसंपर्क अधिकारी




मेथनॉल और फॉर्मेल्डिहाइड के संयोजन से हाइड्रोजन उत्पादन की नई तकनीक

भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) तिरुपति के शोधकर्ताओं ने ‘हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था’ की ओर बढ़ने के लिए मेथनॉल और फॉर्मेल्डिहाइड के संयोजन से हाइड्रोजन उत्पादन की एक कुशल विधि विकसित की है

शोधकर्ताओं ने माइल्ड कंडीशन्ज़ में मेथनॉल और पैराफॉर्मेल्डिहाइड के मिश्रण से हाइड्रोजन गैस का उत्पादन करने के लिए एक नवप्रवर्तनकारी कृत्रिम विधि विकसित की है। यह विधि एल्काइन्स का हाइड्रोजनीकरण करके एल्केन्स में बदलने के लिए विशेष रूप से प्रभावी साबित हुई है और यह संयोजन एक आशाजनक हाइड्रोजन वाहक हो सकता है, जो रासायनिक संश्लेषण और टिकाऊ ऊर्जा समाधानों में प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है।

जीवाश्म ईंधन की तेजी से हो रही कमी ने वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की खोज को बढ़ावा दिया है, जो टिकाऊ और नवीकरणीय संसाधनों की जरूरत को उजागर करता है। हाइड्रोजन गैस उत्पादन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें ऊर्जा भंडारण, परिवहन और विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं में जीवाश्म ईंधन की जगह को लेने की क्षमता है। बड़े पैमाने पर उत्पादित मेथनॉल और पैराफॉर्मेल्डिहाइड, हाइड्रोजन वाहकों के लिए व्यवहार्य उम्मीदवार के रूप में उभरे हैं। उनकी प्रचुरता और उनका व्यापक रूप से बनाना उन्हें हाइड्रोजन के भंडारण और परिवहन के लिए मूल्यवान बनाता है, जो मुक्त हाइड्रोजन पर महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करता है।

भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) तिरुपति में प्रोफेसर एकम्बरम बालारमन की अगुवाई में किए गए शोध में क्षार या एक्टिवेटर की आवश्यकता के बिना मेथनॉल और पैराफॉर्मेल्डिहाइड से हाइड्रोजन का उत्पादन करने के लिए व्यावसायिक रूप से उपलब्ध निकल उत्प्रेरक का उपयोग किया गया है। इस कुशल उत्प्रेरक प्रणाली ने माइल्ड कंडीशन्ज़ में उल्लेखनीय दक्षता का प्रदर्शन किया है और उत्पन्न हाइड्रोजन को एल्काइन्स के कीमो- और स्टीरियो-चयनात्मक आंशिक हाइड्रोजनीकरण में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया था। इस प्रक्रिया ने बेहतर सिंथेटिक वैल्यू के साथ जैव सक्रिय अणुओं तक पहुंच को सक्षम बनाया है। इस शोध को एएनआरएफ (पूर्ववर्ती एसईआरबी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) का एक वैधानिक निकाय) द्वारा समर्थन दिया गया था।

कैटेलिसिस साइंस एंड टेक्नोलॉजी पत्रिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत यह शोध COx-मुक्त हाइड्रोजन उत्पादन के लिए एक नया रास्ता खोलता है, जो ‘हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था’ की प्रगति में योगदान देता है। हाइड्रोजन वाहक के रूप में मेथनॉल और पैराफॉर्मेल्डिहाइड का उपयोग करने की क्षमता, बढ़ती वैश्विक ऊर्जा मांगों के कारण उत्पन्न चुनौतियों को, संबोधित करने की महत्वपूर्ण क्षमता प्रदान करती है। यह विकास स्थायी ऊर्जा समाधानों की खोज में एक महत्वपूर्ण कदम को चिन्हित करता है।

प्रकाशन लिंक: https://pubs.rsc.org/en/content/articlelanding/2024/cy/d3cy01699d