कोटा के साहित्यकार जितेन्द्र ‘ निर्मोही ‘ को अमराव देवी पहाड़िया स्मृति राजस्थानी गद्य पुरस्कार

कोटा/ राजस्थान में कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार जितेन्द्र ‘ निर्मोही ‘ को “अमराव देवी पहाड़िया स्मृति राजस्थानी गद्य पुरस्कार 2024 ” से रविवार 9 जून को डेह नागौर में सम्मानित किया गया। इनको सम्मान स्वरूप ग्यारह हजार रुपए नकद, शाल,श्रीफल सम्मान पत्र दिया जाकर समादृत किया गया। इनके साथ ही हाड़ौती अंचल से सी. एल. सांखला, हरिचरण अहरवाल को पुरस्कृत कर समादृत किया गया।

समारोह की मुख्य अतिथि मंजु बाघमार राज्य सरकार थी। पुलिस सेवा विमर्श राजस्थान सरकार अध्यक्ष एच. के. कुडी थे। मंच पर लक्ष्मण दान कविया, कार्यक्रम संयोजक पवन पहाडिया विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर जहूर खां मेहर उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन डॉ. गजानन चारण द्वारा किया गया।

उल्लेखनीय है कि जितेंद्र ‘ निर्मोही ‘ ने न केवल साहित्य की विभिन्न विधाओं में विगत कई वर्षों से लेखन कर साहित्य जगत में स्वयं को स्थापित किया वरन आज अनेक साहित्यकार इनके मार्ग दर्शन की वजह से साहित्य के क्षेत्र में हैं और सृजन कर रहे हैं। इनके साहित्य पर कई शोध हो चुके हैं और वर्तमान में भी हो रहे हैं। इनकी प्रेरणा से साहित्य में कई नए प्रयोगात्मक लेखन कार्य हो रहे हैं। इनके समाजोपयोगी सृजन के लिए देश की अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा इन्हें सम्मानित किया जा चुका है। आज हाड़ोती के साहित्य जगत की ये अनमोल धरोहर हैं, कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
————




अब गांव भर की भौजाई जैसी हालत है मोदी जी की

भारतीय राजनीति के महाबली नरेंद्र दामोदर दास ने अभी शपथ भी नहीं ली है लेकिन उन पर चढ़ाई शुरू हो गई है। दुहरी-तिहरी चढ़ाई। क्या सहयोगी , क्या विपक्ष। हर कोई चढ़ाई पर आमादा है। आंख दिखा रहा है। आंख मिला रहा है। नरेंद्र मोदी की हालत गांव के उस ग़रीब की लुगाई जैसी हो गई है , जो अब गांव भर की भौजाई है। भौजाई की इस दुर्गति को देखते हुए एक सवाल पूछने का मन हो रहा है कि नरेंद्र मोदी की नई सरकार की आयु कितनी है ?

पूछना इस लिए लाजिम है कि दस बरस बाद सही भारत को मिलीजुली सरकार फिर मिल गई है। विशुद्ध मिलीजुली सरकार। गो कि हमारे मित्र और भोजपुरी के अमर गायक बालेश्वर एक समय गाते थे ‘दुश्मन मिलै सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले / हिटलरशाही मिले मगर मिली-जुली सरकार न मिले / मरदा एक ही मिलै हिजड़ा कई हजार न मिलै।’ यहीं दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है :

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

तो चार सौ सीट का सपना था। लक्ष्य था। कहां-कहां , कब और कैसे यह टूटा। राजनीतिक पंडित लोग लोग गुणा-भाग में लगे हुए हैं। पक्ष भी विपक्ष भी। घमासान मचा हुआ है। विपक्ष का भी सपना टूटा है। दुष्यंत फिर याद आ गए हैं : शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। लेकिन बुनियाद तो हिली नहीं। लक्ष्य तो नरेंद्र मोदी को हटाना था। हटा नहीं मोदी। चाहे जैसे भी हो नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधान मंत्री बन गए हैं। मनो बुनियाद बच गई है।

सांप-सीढ़ी का खेल बन कर रह गई है राजनीति। राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। पर भाजपा लोकसभा के इस सत्र में बहुमत के 272 के जादुई आंकड़े को अब किसी सूरत नहीं छू सकती। छोटी पार्टियां भाजपा में विलय करने से रहीं। हां , नीतीश और नायडू की ब्लैकमेलिंग का घनत्व कम करने के कुछ उपाय अवश्य संभव हैं। होंगे भी देर-सवेर। जैसे कि इंडिया गठबंधन के कुछ धड़ों को तोड़फोड़ कर एन डी ए परिवार को बढ़ा कर बड़ा करना। लेकिन यह भी टेम्परेरी इंतज़ाम है। 272 का जादुई आंकड़ा न होने से बड़े-बड़े काम का जो वादा , डंका बजा कर महाबली कर चुके हैं , उन का क्या होगा। समय-बेसमय चौआ , छक्का मारने की जो आदत है , जो धुन और सनक है , उस का क्या होगा। क्या होगा उन तमाम सुधारों का , विकास कार्यों का , इंफ्रास्ट्रक्चर का , जो अपेक्षित हैं। एन आर सी , जनसंख्या नियंत्रण , मुसलमानों का आरक्षण ख़त्म करने का वायदा क्या पूरा होगा ? वन नेशन , वन इलेक्शन का क्या होगा ?

अभी और अभी तो मदारी की रस्सी बंध चुकी है महाबली नरेंद्र दामोदर दास मोदी के लिए। देखना दिलचस्प होगा कि महाबली मदारी की भूमिका में इस रस्सी पर कैसे और कितनी देर चल सकते हैं। धराशाई होते हैं या अटल बिहारी वाजपेयी की तरह संतुलन बना कर पांच बरस निकाल लेते हैं। क्यों कि सरकार अभी बनी नहीं और नीतीश कुमार के के सी त्यागी अग्निवीर का त्याग खुल कर मांग रहे हैं। इशारों में कई और सारी लगाम लगा रहे हैं। विशेष दर्जा बिहार को भी चाहिए और आंध्र को भी।

यह लगाम तोड़ पाएंगे , महाबली ?
तिस पर 12 सांसद पर आधा दर्जन मंत्री पद की फरमाइश। उस में भी रेल सहित तमाम मलाईदार विभाग। उधर चंद्रा बाबू , चंद खिलौना लैहों पर आमादा हैं।

16 सांसद पर आधा दर्जन मलाईदार विभाग वाले मंत्री पद और लोकसभा अध्यक्ष के पद की फरमाइश। जीतन राम माझी , अठावले जैसे एक-एक सीट वाले भी हौसला बांधे हुए हैं। अगर यह ख़बरें सच हैं तो महाबली का बल तो सारा छिन जाएगा। गृह , वित्त , रक्षा , कृषि ,परिवहन , रेल आदि तो महाबली किसी सहयोगी को देने से रहे। न लोकसभा अध्यक्ष पद। तमाम सुधार अपेक्षित हैं इन हलकों में। फिर इन सहयोगियों पर सारे सपने न्यौछावर हो जाएंगे तो मोदी के अपने भाजपाई सिपहसालार क्या करेंगे ?

लोकसभा का सत्र शुरू नहीं हुआ है , कांग्रेस के मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने शेयर की उछल-कूद पर जे पी सी की फरमाइश कर दी है। मतलब महफ़िल सजी नहीं और मुजरे पर मुजरे की फरमाइश शुरू !

सूर्योदय हुआ नहीं , सुबह हुई नहीं कि गरीब की लुगाई यानी गांव भर की भौजाई की सांसत शुरू।

गांव में मैं ने देखा है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद गरीब की लुगाई यानी गांव भर की भौजाई भी लेकिन सम्मान सहित जीने की जुगत लगा लेती है। गरीबी में अपना आन और अना बचा कर रख लेती है। सारे शोहदों की सनक शांति से उतार कर अपना शील बचा लेती है। फिर यह महाबली नरेंद्र दामोदर दास मोदी तो इवेंट मैनेजर ठहरे। डिप्लोमेट ठहरे। अहमदाबादी व्यापारी ठहरे।

कांग्रेस के मोहम्मद बिन तुग़लक़ से तो निपटना आसान है। वह तो बैटरी वाला खिलौना हैं। जितनी चाभी भरी वामियों ने उतना चले खिलौना वाली बात है। लेकिन यह सुशासन बाबू और नायडू बाबू की ब्लैकमेलिंग ? यह तो मुंबई में मुसलसल बरसात की तरह जारी रहने वाली है। यह फरमाइश पूरी तो वह फरमाइश। 272 का जादुई आंकड़ा होता तो यही लोग समर्पित सहयोगी होते। पर जैसे रखैलें होती हैं न , न जीने देती हैं , न मरने देती हैं। सुकून भर सांस नहीं लेने देतीं। बहुमत न होने पर सहयोगी पार्टियां सत्ता के सरदार के साथ वही सुलूक़ करने की सनक पर सवार रहती हैं।

एक समय नरसिंहा राव तो बिना किसी सहयोगी दल के अल्पमत की सरकार बड़े ठाट से पांच साल चला ले गए थे। लेकिन चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल, मनमोहन सिंह हर किसी सरकार की यही कहानी रही है। सहयोगी डिक्टेट करते रहे। पैरों में बेड़ियां डाले रहते।

370 , राम मंदिर आदि तमाम सवाल पर अटल बिहारी वाजपेयी तो अकसर लाचार हो कर कहते रहते थे कि हमारी बहुमत की सरकार नहीं है , मिलीजुली सरकार है , क्या करें !

मनमोहन सिंह सरकार के सहयोगी दलों ने तो जम कर भ्रष्टाचार और अनाचार किए। पर मनमोहन सिंह तो मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं। में ही दस बरस बिता ले गए। शेष लोग भी थोड़ा-थोड़ा। मनमोहन सिंह के लिए तो एक बड़ी आफत सोनिया गांधी भी थीं। सुपर प्राइम मिनिस्टर थीं। कोई राष्ट्राध्यक्ष आए तो सोनिया गांधी ही आगे बढ़ कर हाथ मिलाती थीं। स्वागत करती थीं। मनमोहन सिंह निठल्लों की तरह कठपुतली बने सोनिया गांधी के पीछे खड़े रहते थे। लोग मजा लेते हुए कहते फिरते थे कि मनमोहन सरकार इतनी अमीर सरकार है कि हाथ मिलाने के लिए भी एक रख रखा है।

हां , देवगौड़ा ज़रूर एक बार जब बहुत परेशान हुए लालू प्रसाद यादव जैसे सहयोगी की ब्लैकमेलिंग से तो चारा घोटाले में लालू को बांध कर दुरुस्त कर दिया। सी बी आई इंक्वायरी करवा कर उन्हें रगड़ दिया। लालू अब इसी चारा घोटाले में बाक़ायदा सज़ायाफ्ता हैं। भूसी छूट गई है लालू प्रसाद यादव की। बीमारी के बहाने जेल से बाहर हैं। पर कब तक ?

नीतीश कुमार पर तो कोई कुछ नहीं कर सकता। पलटी वह चाहे जितनी मारें , जैसे और जब मारें , भ्रष्टाचार का कोई दाग़ , कोई छींटा उन पर नहीं है। नायडू पर जांच की तलवार ज़रूर है।

कई सारी कहानियां , कई सारे दृष्टांत हैं मिलीजुली सरकारों के। बीते दस बरस नरेंद्र मोदी ने भी मिलीजुली सरकार चलाई है। पर भाजपा अकेले स्पष्ट बहुमत में थी सो मोदी महाबली बन कर उपस्थित हुए। पर अब महाबली के पंख कट गए हैं। गगन को गाना कठिन हो गया है। 32 सीट कम पा कर ग़रीब की लुगाई बन गांव भर की भौजाई बने नरेंद्र दामोदर दास मोदी की यह कड़ी परीक्षा की घड़ी है। उन की तानाशाह की छवि अब चूर-चूर है। यह वही आदमी है जो एक सांस में किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित सारे मंत्री बदल देता रहा है और पार्टी में कोई चूं नहीं बोल पाता था। समूचा प्रदेश जीत कर आए लोगों को घर बैठा देता था। केंद्र में , प्रदेश में ताश की तरह मंत्रिमंडल फेट देता था। अमरीका को चिढ़ा कर रूस से तेल ले लेता रहा है। अमरीका और चीन जैसे महाबलियों को पानी पिलाने वाला महाबली , इजराइल और फिलिस्तीन को एक साथ चाहने वाला मोदी , पाकिस्तान को घुटने के बल खड़ा कर कटोरा थमा देने वाले विश्व नेता को घर में ही घात मार कर लोगों ने रगड़ दिया है। कंबल ओढ़ा कर।

अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करने वाला मोदी अयोध्या में ही मात खा गया है। देश में विकास की चहुंमुखी चांदनी खिलाने वाला , गरीबों के लिए बेशुमार कल्याणकारी योजनाएं फलीभूत करने वाला मोदी अब ख़ुद बहुत ग़रीब हो गया है। इन गरीबों का ही श्राप लग गया है। काशी में हज़ारो करोड़ की विकास योजना लाने वाला मोदी ख़ुद हारते-हारते बमुश्किल बचा है।

ऐसे में क़ायदे से झोला उठा कर चल देना चाहिए था। अपमान का यह घूंट पीने से बेहतर था झोला उठा कर चल देना। जाने क्यों सहयोगी दलों का विष पीने को आतुर है यह महाबली। लगता है देश सेवा और देश को दुनिया के नक्शे में नंबर वन बनाने का नशा टूटा नहीं है अभी। बहुत मुमकिन है जल्दी है टूटे। अपमान कथा अभी शायद पूरी नहीं हुई है। हो सकता है जल्दी ही पूरी हो। क्यों कि इस देश के चुनाव के चक्के को विकास के आनबान शान की बयार नहीं , जाति की धरती , आरक्षण की हवा और मुसलमान का आसमान चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं)




कमला झरिया: जिसके गाए गीत मुंबई से लेकर पेशावर और ढाका तक गूंजते थे

कमला झरिया का असली नाम कमला सिन्हा था। कमला झरिया भारत की कोयला राजधानी धनबाद की “कोकिला” कमला झरिया एक ऐसी महान और मशहूर शख्सियत जिनके गाने मुंबई से लेकर दिल्ली कोलकाता से ढाका तथा पेशावर से लेकर काबुल कंधार तक सुनी जाती थी। आज उन्हें लगभग भुला दिया गया है लेकिन वे हमारे धनबाद के रत्न थे।

कमला झरिया का जन्म 1906 में ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रेसीडेंसी में तत्कालीन मानभूम जिला के झरिया राज परिवार में एक कर्मचारी के घर हुआ था तथा राज दरबार में ही अपने परिवार के साथ रहती थी। कमला झरिया का असली नाम कमला सिन्हा था तथा वह जन्म से बंगाली थी। श्री के. मल्लिक (असली नाम कमाल मलिक था) जो उस समय एक बहुत लोकप्रिय ग्रामोफोन गायक थी, को महाराजा शिव प्रसाद अपने शादी के अवसर पर दरबार में गाने के लिए महल में आमंत्रित किया गया था। महाराजा के. मल्लिक के प्रदर्शन से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उन्हें झरिया में दरबारी गायक नियुक्त कर दिया।

झरिया महाराज के परिवार बांग्ला भाषी थे तथा वह बांग्ला संगीत प्रेमी थे। के मल्लिक को कुछ समय के लिए झरिया में रुकना पड़ा, इस दौरान उन्होंने कमला की संगीत प्रतिभा की खोज की और उसे कलकत्ता ले आए और एचएमवी अधिकारियों से उसका परिचय कराया। कमला ने एचएमवी के लिए चार गाने रिकॉर्ड किए और झरिया वापस चली गईं। उन्हें केवल चार गानों के लिए पैंसठ रुपये का भुगतान किया गया था। उनका पहला प्रकाशित रिकॉर्ड एक रेड लेबल वन था, जिसका नंबर 1930 में एन 3137 था। गाने थे ए) प्रिया जेनो प्रेम भूलो ना, एक ग़ज़ल और बी) निथुर नयन बाण केनो हनो, एक दादरा।

दोनों गानों के गीतकार _धीरेन दास_ थे। अधिकारियों को कलाकार का नाम रखने में कुछ दिक्कत हुई. वे उसका नाम तो जानते थे लेकिन उपनाम नहीं। वे उन्हें मिस कमला के रूप में श्रेय नहीं दे सके क्योंकि उसी नाम की एक गायिका पहले से ही मौजूद थी। अंततः उनके तत्कालीन निवास स्थान को ध्यान में रखते हुए उनकी पहचान मिस कमला (झरिया) के रूप में करने का निर्णय लिया गया और इस तरह उनके शानदार संगीत करियर की शुरुआत हुई।

संगीत में उनका औपचारिक प्रशिक्षण ठुमरी, ग़ज़ल और भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए उजीर खान जैसे दिग्गजों से हुआ था। जमीरुद्दीन खान, के. मल्लिक, श्री सतीश घोष और श्रीनाथ दास नंदी, जिनके साथ उन्होंने औपचारिक रूप से नारा बंधन प्रस्तुत किया और बन गईं नियमित विद्यार्थी. बाद में, वह काजी नजरूल इस्लाम और तुलसी लाहिड़ी के संपर्क में आईं, जो एक फिल्म निर्देशक, निर्माता, गीतकार और संगीत निर्देशक थे, वास्तव में वह एक बहुत ही रंगीन व्यक्तित्व थे और उनकी प्रतिभा व्यापक क्षेत्र में फैली हुई थी।

बाद में, कमला झारिया अपने निजी जीवन में तुलसी लाहिड़ी के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ गईं और उनकी पत्नी के रूप में उनके साथ रहने लगीं। कमला एचएमवी और सहयोगी कंपनी ट्विन रिकॉर्ड्स की नियमित कलाकार बन गईं, हालांकि बाद में उन्हें अपने गुरु तुलसी लाहिड़ी के साथ मेगाफोन कंपनी में स्थानांतरित कर दिया गया, लेकिन यह एचएमवी और मेगाफोन के बीच पूरी तरह से व्यावसायिक व्यवस्था का हिस्सा था। पायनियर, सेनोला, कोलंबिया जैसी अन्य रिकॉर्डिंग कंपनियों ने भी उनके गाने प्रकाशित किए।

वह 1933 में फिल्मों से जुड़ीं और उनकी पहली बंगाली फिल्म जमुना पुलिनी (1933) थी।, जो _अंगुरबाला_ और _इंदुबाला अभिनेत्री कन्होपात्रा (1937)_ की भी पहली ध्वनि फिल्में बनीं। वह बंगाली के अलावा हिंदी, उर्दू, मराठी, पंजाबी, गुजराती और कई अन्य भारतीय भाषाओं में गाती थीं और उस दौर में कोई भी कलाकार इतनी अलग-अलग भाषाओं में नहीं गाता था, जो उनकी अखिल भारतीय स्थिति और लोकप्रियता को बताता है।

उनकी महान उपलब्धियों में से एक कीर्तन और रामप्रसादी जैसे बंगाली भक्ति गीत थे। कटारा राधिका देखिया अधिका, मां होवा की मुखर कथा, कनु कहे रै कहिते डराई (चंडीदास) जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं। उन्होंने मंत्र शक्ति (1935) , ठीकदार (1940), सोनार संगसार (1936), बिजोयिनी (1941), बंगाली (1936) , तरुबाला (1936) , नाइट बर्ड (1934) , सौतेली माँ (1935) जैसी फिल्मों में अभिनय किया। ), देवजानी (1939) , पाताल पुरी (1935) , मस्तुतो भाई (1934) , ब्लड फ्यूड्स (1931) और अन्य फिल्में। एक पार्श्व कलाकार के रूप में उन्होंने मोधु बोस द्वारा निर्देशित उर्दू फिल्म सेलिमा (1935) में नायिका माधवी के लिए अपनी आवाज दी।

उनका गायन करियर तीन दशकों से अधिक समय तक फैला रहा। कमला एक गायिका के रूप में ऑल इंडिया रेडियो की स्थापना के समय से ही उससे जुड़ी हुई थीं। 1976 में, द ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया ने उन्हें जीवन भर की उपलब्धि के प्रतीक के रूप में गोल्ड डिस्क से सम्मानित किया। वह अपने करियर की शुरुआत से ही रेडियो से जुड़ी हुई थीं और उन्होंने विभिन्न देशी राजकुमारों के दरबार में गाते हुए पूरे भारत में कई दौरे भी किए। 1977 में, ऑल इंडिया रेडियो की स्वर्ण जयंती के जश्न के दौरान, उन्हें उन जीवित कलाकारों में से एक के रूप में सम्मानित किया गया, जिन्होंने ऑल इंडिया रेडियो की शुरुआत से ही हिस्सा लिया था।

तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी उपस्थिति से इस अवसर की शोभा बढ़ाई। वह बहुत अस्वस्थ थीं और उन्हें मंच पर दो अनुरक्षकों की मदद लेनी पड़ी। _अंगुरबाला_ भी उपस्थित थीं और उन्होंने वही गीत प्रस्तुत किया जो उन्होंने रेडियो कंपनी के प्रसारण के पहले दिन किया था। यह कमला की आखिरी सार्वजनिक उपस्थिति थी। तिकड़ी में से तीसरी, इंदुबाला उस समय इतनी बीमार थी कि वह इसमें शामिल नहीं हो सकी। 1972 में तीनों के जीवन और उपलब्धियों पर “तीन कन्या” नामक एक वृत्तचित्र बनाया गया था और फिल्म की स्क्रीनिंग के पहले दिन तीनों कलाकार उपस्थित थे।

इस अवसर पर उपस्थित लोगों में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक भी शामिल थे। कमला झारिया लंबे समय तक क्रोनिक अस्थमा से पीड़ित रहीं और 20 दिसंबर, 1979 को उनका निधन हो गया। इस तरह एक युग का अंत हो गया। वर्तमान में हमारे मानभूम के धनबाद तथा चास चंदनक्यारी अपना मूल बांग्ला संस्कृति तथा बांग्ला भाषा धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं तथा बाहरी भाषा धीरे-धीरे हाबी होते जा रहा है। हमें हमारे पुराने प्रतिष्ठा को पाने के लिए प्रयास करना होगा तथा हमारी भाषा और संस्कृति को बचाए रखना होगा।

साभार https://www.facebook.com/share/3wWgstvjf2q8tA2r/?mibextid=xfxF2i
 से



कई बंगलों के मालिक भारत भूषण का आखरी समय एक चाल में बीता

भारत भूषण 1950 के दशक के सुपरसितारों में भारत भूषण अव्वल थे. कई लोग उन्हें अपने समय के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में गिनते थे. वह रोमांटिक हीरो थे और उनके प्रशंसकों की संख्या करोड़ों में थी. राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार जैसे सुपरस्टार्स की मौजूदगी में भारत भूषण ने अपनी अलग पहचान बनाई।

उन्होंने अपने करियर में 30 से अधिक फिल्मों में काम किया और बैजू बावरा (1952), आनंद मठ (1952), मिर्जा गालिब (1954) और मुड़ मुड़ के ना देख (1960) जैसी हिट फिल्में दीं. लेकिन फिल्म निर्माता बनने की जिद और जुए की गलत आदत ने उन्हें बर्बाद कर दिया. अपने समय के सबसे अमीर अभिनेताओं में से एक होने के बावजूद, उन्होंने फिल्म निर्माण और जुए में मेहनत की गाढ़ी कमाई गंवा दी. बेहद गरीबी में उनकी मृत्यु हुई.

भारत भूषण 1920 में उत्तर प्रदेश के मेरठ में थे और अलीगढ़ में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अभिनय में हाथ आजमाने के लिए मुंबई आए. भारत भूषण ने 1941 में चित्रलेखा के साथ अपनी शुरुआत की. उनकी पहली हिट मीना कुमारी के साथ बैजू बावरा थी. इसके बाद उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु (1954) और बरसात की रात (1960) जैसी हिट फिल्मों में अभिनय किया।

बैजू बावरा ने भारत भूषण को घर-घर में मशहूर कर दिया. संजय लीला भंसाली आज इसी बैजू बावरा की कहानी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं. इस कहानी में भारत भूषण ने बैजू नाम केऐसे संगीतकार की भूमिका निभाई जिसने संगीत सम्राट तानसेन को चुनौती दी थी. भारत भूषण ने अपने समय की लगभग सभी लोकप्रिय अभिनेत्रियों के साथ काम किया. जिनमें गीता बाली (सुहाग रात), निरूपा रॉय (औरत तेरी यही कहानी), नरगिस (सागर) और मधुबाला (फागुन) शामिल हैं.

भारत भूषण बैजू बावरा के बाद मिली भारी सफलता संभाल नहीं सके. उन्होंने अपने भाई के साथ प्रोडक्शन में उतरने का फैसला किया और बड़ा घाटा उठाया. वह दिवालिया हो गए. एक समय भारत भूषण मुंबई में कई बंगलों के मालिक थे. शानदार कारों में घूमते थे. लेकिन निर्माता बनने का फैसला गलत साबित हुआ. वह जुए में भी काफी पैसा और प्रॉपर्टी हार गए. कर्ज चुकाने के लिए भारत भूषण ने अपनी अधिकांश संपत्ति बेच दी और एक चाल में रहने लगे. बाद के दौर में अपना गुजारा चलाने के लिए उन्होंने कुछ फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट के रूप में भी काम किया. आखिरकार 27 जनवरी 1992 को 72 वर्ष की आयु में अत्यंत गरीबी में उनकी मृत्यु हो गई.

#BollywoodNews #viralnews #viralfbpost

 से



हमें मेहनतकश गरीब आदमी और उसकी मजबूरी नहीं दिखती

दिल्ली नोएडा मुंबई में नौकरी करने वाले आज भी 80% लोग यूपी बिहार के छोटे गांव से आने वाले हैं, ये जब गांव में रहते हैं तो लोगो से मिलना सहायता करना ये सब बड़ी शान के साथ करते हैं लेकिन यही लोग जब दिल्ली नोएडा में 20 माजिल घर में 15 हजार के फ्लैट में रहने लगते हैं तो ये बाबू साहब बन जाते हैं
नीचे एक बुजुर्ग नेहरू प्लेस के बेहद बिजी बाजार में बैठे हैं 2 3 घंटे होने के बाद भी एक रुपए की बोहनी नही होती।

वहीं इसके बाहर विदेशी दुकान मैकडोनाल्ड kfc में लोग लाइन लगा कर इंतजार कर रहे हैं की जल्दी दुकान खुले और कुछ खाया जाए
ये दादा ताजा नारियल की गिरी बेच रहे हैं और एक गिरी की कीमत मुश्किल से 10 रुपए है
हद तो तब हो जाती है, जब एक महिला KFC से अपने 2 बच्चो के साथ निकलती है और हाथ में 2 कोलड्रिंक ली होती है

उनका एक बच्चा बोलता है इसे लेने को तो वो बोलती हैं नो नो इट्स डर्टी दादा बिचारे सोचते हैं की तारीफ हो रही है और बड़े ही प्रेम और आस से एक नारियल की गिरी उसके आगे करते हैं लेकिन वो महिला को ये गंदा लगता है
उसी के बाद 2 3 लड़कियों का ग्रुप स्टारबक्स से 2 3 हजार रुपए की काफी पीकर बाहर आता है, उनमें से एक लड़की हाथ में आईफोन 15 लेकर आती है और पूछती है अंकल कितने का है… दादा फिर से नारियल उठाते हैं और बोलते हैं 10 रुपए का एक फिर लड़की बोलती है ओह इट्स टू मच इतनी छोटे से टुकड़े का 10 रूपर अच्छा चलो आप 10 के 2 देदो तो मैं लेलूँ

चूँकि बोहनी का मामला था इस लिए दादा में 10 के 2 दे दिए।

अब जरा सोचिए गांव से निकले लोग जिनके मां बाप ने कड़ी मेहनत से पाई पाई जोड़ कर आपको बाहर भेजते हैं। और आप वहां जाकर बड़े बड़े रेस्टोरेंट में खाना खाते हैं साथ से जीएसटी और 2 3 तरह के टैक्स, साथ में टिप देकर अपने को कूल समझते हैं, लेकिन यदि कोई बेसहारा गरीब मिल जाए जो की अपने पेट को भरने के लिए 10 रुपए का समान बेचे तो ये उन्हे लुटेरे लगते हैं

कुछ महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें रेस्टोरेंट का सड़ा खाना जिसे वो देख भी नही रही हाईजनिक लगता है, लेकिन कोई गरीब अपने हाथ से छू कर कुछ ताजा समान दे तो वो अनहिजिनिक हो जाता है।

पता नही किस ढोंग में जी रहे हैं लोग
साभार
https://www.facebook.com/share/p/vtL5xhZCuTiDRMNZ/?mibextid=xfxF2i  से




बस्ती में बीजेपी के हरीश द्विवेदी की उपलब्धियां और उनके चुनाव हारने के कारण

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के तेलिया जोत (कटया) निवासी श्री हरीश द्विवेदी का जन्म 22 अक्टूबर 1973 को एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ है। उनके पिता श्री साधुशरण दुबे माता यशोदा देवी रहीं। पिता जी
किसान इंटर कालेज मरहा बस्ती में शिक्षक रहे है। 2006 में, उन्होंने विनीता द्विवेदी से विवाह किया, उनके एक बेटा और एक बेटी है 1991 से 1994 तक वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के जिला प्रमुख रहे है।हरीश द्विवेदी के जुझारू तेवर ही उनको हर किसी से अलग करते हैं।

आरएसएस की शाखा में 1990-91 में मुख्य शिक्षक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाले हरीश ने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्व विद्यालय से की है। वह 1996 तक प्रदेश सहमंत्री रहे है। बाद में वह अभाविप के विभाग संगठन मंत्री बने।1999 से 2003 तक प्रयाग में संभाग संगठन मंत्री रहे है । 2004 से 2007 तक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशरी नाथ त्रिपाठी के राजनीतिक सलाहकार रहे है। इस दौरान वह 2005 से 2007 तक भाजयुमो के प्रदेश महामंत्री भी रहे। 2007 से 2010 तक भाजयुमो के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे।

वह 2010 से 2013 तक भारतीय जनता युवा मोर्चा उत्तर प्रदेश इकाई के भाजयुमो के प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व संभाला। उन्होंने भाजयुमो द्वारा सक्रिय रूप से तिरंगे यात्रा में भाग लिया था अनुराग ठाकुर और उन्हें अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं के साथ पठानकोट में हिरासत में लिया गया था । 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्हें बस्ती सदर विधान सभा क्षेत्र से टिकट मिला। लगभग 34 हजार वोट पाते हुए तीसरे स्थान पर असफल रहे । 2013 से अब तक वह भाजपा प्रदेश कार्यसमिति सदस्य के रूप में काम कर रहे हैं। श्री हरीश द्विवेदी 43 वर्ष में सांसद का चुनाव लड़ा था।

उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के एक सदस्य के रूप में 2014 के चुनावों में वे उत्तर प्रदेश की बस्ती सीट से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर निर्वाचित हुए। 3.58 लाख वोट हासिल करते हुए वह चुनाव जीत गए। सपा उम्मीदवार बृज किशोर सिंह “डिंपल” दूसरे व बसपा उम्मीदवार राम प्रसाद चौधरी तीसरे स्थान पर रहे।

2019 भारतीय आम चुनाव में , वे बस्ती (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से लगातार दूसरी बार संसद सदस्य चुने गए। उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार राम प्रसाद चौधरी को 30,354 (2.88%) मतों के अंतर से हराया। वे वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव हैं ।

वह संसद में वित्त एवं ऊर्जा विभाग के स्टैडिंग कमेटी के सदस्य रहे हैं। संसद में उनका कामकाज औसत रहा है। पिछले 5 सालों के दौरान हरीश द्विवेदी का संसद में उपस्थिति 86 फीसदी रहा है, जबकि राष्ट्रीय औसत 80 फीसदी का है, जबकि राज्य औसत 86 फीसदी का है। वहीं उन्होंने महज 34 बहसों में हिस्सा लिया।

जबकि राष्ट्रीय औसत 67.1 फीसदी है, जबकि राज्य औसत 109 का है। अपने कार्यकाल के दौरान सांसद हरीश द्विवेदी ने सदन में 328 सवाल पूछे। जोकि राष्ट्रीय औसत 293 और राज्य औसत 198 से कहीं अधिक है। हालांकि, पूरे कार्यकाल के दौरान कोई भी प्राइवेट बिल सदन में पेश नहीं किया, जिसका राष्ट्रीय औसत 2.3 और राज्य औसत 1.8 है।

पहले के मुकाबले बस्ती का रेलवे स्टेशन बहुत बेहतर हो गया है, सड़के अच्छी हो गई हैं, लेकिन शहर गंदगी की मार झेल रही है। वैसे तो देश में स्वच्छ भारत अभियान जोरों से चलाया गया, लेकिन बस्ती में उनका कोई प्रभाव देखने को नहीं मिला। मुंडेरवा में काम तो हुआ है लेकिन रोजगार के कुछ हुआ है, मुंडेरवा चीनी मिल शुरु है, लेकिन स्थानीय लोगों को रोजगार कम मिला है।

सांसद का कामकाज अच्छा है, लेकिन उन्हें और सुधार करने की जरुरत है । पिछले पांच साल में जिले में मेडिकल कॉलेज का निर्माण और बंद पड़ी मुंडेरवा चीनी मिल को चलाने बड़ा प्रॉजेक्ट आ चुकी है। उन्होंने राम जानकी मार्ग ,बस्ती अंबेडकर नगर मार्ग को राष्ट्रीय राज मार्ग का दर्जा दिलवाया।बस्ती को रिंग रोड की सौगात दिलवाई। मनवर गंगा एक्सप्रेस ट्रेन चलवाई। कई और ट्रेन चलवाए और उनके स्टॉपेज बढ़वाए। स्वच्छ भारत अभियान , मुख्य मंत्री सामूहिक विवाह योजना ,निःशुल्क बोरिंग योजना ,अम्बेडकर विशेष रोजगार योजना ,मुख्यमंत्री सामग्र ग्राम विकास योजना तथा प्रधान मंत्री आवास योजना- ग्रामीण
,गैस कनेक्शन,कन्या विद्याधन, प्रधान मंत्री आयुष्मान योजना आदि अनेक जन योजनाओं को आम जनता को दिलवाया। साथ ही भोखरी में लगभग 1000 करोड़ रुपये की धनराशि से विद्युत केन्द्र का निर्माण कार्य कराया और
लगभग 6000 गांवों/मजरों का विद्युतीकरण कराया।

अन्य प्रमुख सहभागिता कार्य :-
(2014-वर्तमान)- सदस्य, ऊर्जा संबंधी स्थायी समिति ।
(2014-2019)- सदस्य, परामर्शदात्री समिति, कोयला मंत्रालय ।
(2016-2018)- सदस्य, सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति।
(2018-2019)- सदस्य, वित्त संबंधी स्थायी समिति ।
(2019-वर्तमान)- सदस्य, 17वीं लोकसभा (दूसरा कार्यकाल)। वे अध्यक्ष, याचिका समिति (लोकसभा)।
सदस्य, परामर्शदात्री समिति, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय तथाअनुमान समिति के सदस्य के रूप में भी अपनी सहभागिता निभाते रहे। संगठन में राष्ट्रीय मंत्री के रूप में बिहार और पश्चिम बंगाल का दायित्व भी निभाया है।

2024 के (61लोकसभा चुनाव :-

इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में प्रीतिकूल परिणाम का सामना करना पड़ा है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के आम चुनाव में 80 में से 33 तथा सपा को 37 सीटें मिली हैं। 6 सीट कांग्रेस को मिली है। राष्ट्रीय लोकदल को 2 सीट, अपना दल (एस) को एक तथा आजाद समाज पार्टी को एक सीट मिली है।

उत्तर प्रदेश की सबसे हॉट सीट बनी फैजाबाद-अयोध्या लोकसभा सीट तथा उससे लगे हुए अंबेडकर नगर, बस्ती, खलीलाबाद, सुलतानपुर, अमेठी व रायबरेली आदि पर भी भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। यूपी के सियासी मैदान में अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक साथ आए।

इसके कारणों और परिस्थितियों पर एक बार विहंगम दृष्टि डालना अनुचित ना होगा। बस्ती 61वे लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के श्री राम प्रसाद चौधरी को 524756 वोट मिले उन्होंने बीजेपी के श्री हरीश द्विवेदी को लगभग एक। लाख मतों से हराया।श्री हरीश द्विवेदी को 423798 वोट मिले। बीएसपी के
120957 मत मिले ।

बीजेपी के हार का विश्लेषण
1 .केंद्रीकरण और मशीनीकरण :-
भाजपा के यूपी में खराब प्रदर्शन के कई कारण रहे। इसमें सत्ताधारी दल का अत्यधिक केंद्रीयकरण और मशीनीकरण भी शामिल है। काफी पहले टिकट घोषित करने का भाजपाई प्रयोग भी सफल नहीं हुआ। अलबत्ता भाजपा प्रत्याशियों के हिसाब से विपक्षी दलों ने अपने पूर्व घोषित चेहरों को बदल दिया। तमाम सीटों पर टिकट वितरण को लेकर भारी असंतोष दिखा, जिसका असर नतीजों तक दिखाई दिया। वहीं भाजपा की रीढ़ कहा जाने वाला आरएसएस इस चुनाव में पूरी तरह नदारद दिखा। इसका असर मतदान प्रतिशत पर साफ नजर आया।

2. कार्यकर्ताओं में मायूसी :-

2014 के बाद यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा कार्यकर्ताओं में हद दर्जे की मायूसी दिखाई दी। प्रदेश संगठन के तमाम बार कहने के बावजूद कार्यकर्ताओं ने वोटरों को घरों से निकालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। पार्टी के कई नेताओं ने दबी जुबान से कहा कि जब सारे फैसले दिल्ली से ही होने हैं तो फिर भीषण गर्मी में कार्यकर्ता ही जान की बाजी क्यों लगाए?

दरअसल बीते कुछ समय में भाजपा में तमाम छोटे-बड़े फैसले दिल्ली दरबार से ही होते रहे हैं। यहां तक कि जिलाध्यक्षों के बदलाव का फैसला भी दिल्ली की मुहर के बाद ही हो सका। एमएलसी से लेकर राज्यसभा चुनाव से जुड़े अधिकांश फैसलों में यूपी की भूमिका लगातार घटी है। पार्टी ने केंद्रीय स्तर से इतने अधिक अभियान और कार्यक्रम चलाए कि उससे कार्यकर्ताओं में खिन्नता का भाव आ गया। यही कारण है कि बूथ स्तर तक सर्वाधिक संगठनात्मक कवायद करने वाली भाजपा को इस बार तमाम सीटों पर बड़ी हार का सामना करना पड़ा।

3. संघ की बेरुखी :-

भाजपा के उदय से अब तक माहौल बनाने से लेकर मतदान प्रतिशत बढ़ाने में संघ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह शायद पहला चुनाव था, जिसमें पूरे प्रदेश में आरएसएस और उससे जुड़े अन्य संगठन बिल्कुल सक्रिय नहीं दिखे। असल में संगठन और सरकार से जुड़े तमाम फैसलों में संघ बड़ी भूमिका निभाता रहा है। फिर चाहे वो विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति हो या संगठन से लेकर निगमों, बोर्डों आदि में नियुक्तियां, टिकट वितरण में भी संघ की राय खासा महत्व रखती थी।

इस लोकसभा चुनाव से पहले तीन बार संघ और भाजपा की समन्वय बैठकें हुईं। पांच चरणों के चुनाव के बाद भी संघ के पदाधिकारियों के साथ सरकार और संगठन के चेहरों ने बैठक की। मगर बंद कमरों की इन बैठकों का कोई प्रभाव जमीन पर नहीं दिखा। इसका भी सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ा।

4. प्रत्याशियों का विरोध :-

भाजपा के बारे में 2014 से लगातार यह कहा जाता है कि कई तरह के सर्वे के बाद ही प्रत्याशियों का चयन किया जाता है। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। पार्टी नेतृत्व का अति आत्मविश्वास तब दिखाई दिया, जब भाजपा की 51 नामों वाली पहली सूची में ही कई ऐसे सांसदों को प्रत्याशी घोषित किया गया, जिनकी जमीनी रिपोर्ट बेहद खराब थी। शुरुआती दौर में कई सीटों पर प्रत्याशियों को मुखर विरोध भी झेलना पड़ा। इसका नतीजा यह रहा कि तमाम सीटों पर पार्टी के विधायक और स्थानीय संगठन ही पार्टी प्रत्याशी को निपटाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि मोदी मैजिक भी नैया पार न लगा सका।

अपनों से दूरी के चलते हारे हरीश द्विवेदी:-

अपनों से दूरी के चलते हरीश द्विवेदी को जीत की हैट-ट्रिक लगाने की बजाय हार का सामना करना पड़ा है। जिन्होंने पहले साथ रहकर उन पर भरोसा जताया था, उनसे रिश्ता टूटता गया । चुनाव में वह कहीं साथ नजर नहीं आए। जिन पर हरीश ने आंख मूंद कर भरोसा किया वे लोग समय के साथ कदम से कदम मिलाकर तो चलते रहे, लेकिन उनके दिल में उपजे जख्म पर मरहम लगाने में वह सफल नहीं हो पाए। यही कारण रहा कि वह बड़े अंतर से चुनाव हार गए।

हरीश द्विवेदी लगातार राजनीतिक व सामाजिक रूप से सक्रिय रहे। टिकट को लेकर भी जिले में कई वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी खुलकर सामने आई। पार्टी ने भी कुछ ऐसे फैसले लिए, जिससे जिले में भाजपा की टीम कमजोर हुई।
बस्‍ती में 2014-2019 के चुनाव में जो लोग हरीश से जुड़े थे वह इनकी अनदेखी के चलते नाराज हो गए और धीरे-धीरे दूरी बना ली । पार्टी ने भी कुछ ऐसे फैसले लिए जिससे जिले में भाजपा की टीम कमजोर हुई। हार का एक कारण भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष दयाशंकर मिश्र का विरोध में आ जाना रहा।

हरैया विधान सभा के विधायक श्री अजय सिंह बस्ती के एक मात्र भाजपा के विधायक थे।शेष चार विधायक पहले ही पराजित होने के कारण तटस्थ हो गए थे।एक मात्र विधायक की महत्वाकांक्षा अंदरूनी विरोध कर पार्टी को नुकसान पहुंचाया है। श्री अजय सिंह भाजपा के विधायक का असहयोग भी बड़ा कारण रहा है।

6,. पार्टी में शामिल लोगों का विरोध :-

आखिरी दौर में तमाम ऐसे लोगों को पार्टी में शामिल कराया गया, जिनका पार्टी के ही स्तर पर विरोध खुलकर सामने आया। हरीश द्विवेदी कार्यकर्ताओं व समर्थकों को मनाने के साथ दूसरे दलों से आए हुए नेताओं के सहयोग से समीकरण साधने में जुटे रहे, लेकिन वह अंदरखाने में अपने ही खिलाफ बिछाई जा रही बिसात को भांपने में सफल नहीं हो पाए। लोग आश्वासन व भरोसा देते रहे। कुछ पूर्व विधायकों व पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने भी विरोध किया। कुछ मंच पर दिखते थे तो कुछ मंच पर भी किनारा किए रहे। हार का एक कारण भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष दयाशंकर मिश्र का विरोध में आ जाना रहा।
पहले तो उन्हें बसपा ने अपना प्रत्याशी बनाया लेकिन नामांकन के अंतिम दिन अचानक उनका टिकट कट गया। दयाशंकर मिश्र ने हरीश पर टिकट कटवाने का आरोप लगवाया।

7. आरक्षण और संविधान संशोधन को लेकर हमला:-

चुनाव प्रचार के दौरान सपा गठबंधन के प्रत्याशी लगातार आरक्षण और संविधान संशोधन को लेकर हमला बोलते रहे, लेकिन इसके जवाब में भाजपा प्रत्याशी समेत बड़े नेताओं ने चुप्पी साध ली, इसके चलते बसपा का बड़ा वोट बैंक सीधे सपा गठबंधन की तरफ शिफ्ट हो गया और भाजपा उन मतदाताओं को समझाने में सफल नहीं हो पाई, जो आरक्षण और संविधान संशोधन को लेकर आशंकित थे।

8. गोलबंदी और अंतर्कलह :-
.गोलबंदी और अंतर्कलह भाजपा के लिए दिन-ब-दिन भारी पड़ती गई। जैसे ही लोकसभा चुनाव का बिगुल बजा, यहां पार्टी में खेमेबंदी शुरू हो गई। शुरू में लगा टिकट के लिए दावेदारी का दौर है। प्रत्याशी घोषित होने के बाद स्थिति ठीक हो जाएगी, लेकिन हुआ उलटा। पार्टी ने चेहरा बदलने के बजाय लगातार तीसरी बार सांसद हरीश द्विवेदी पर भरोसा जताया। इसी के बाद अंर्तद्वंद्व और तेज हो गया। भीतर ही भीतर अपने ही लोग जुदा होने लगे। इस बिखराव को अंत तक न तो संगठन रोकने में सफल हो पाया और न ही प्रत्याशी। 2019 के चुनाव के बाद जिले में भाजपा का दबदबा इस कदर हुआ कि लोकसभा से लेकर विधानसभा सीट तक विपक्षी कहीं काबिज नहीं हो पाए। पांच विधायक के साथ सांसद पद भी भाजपा की झोली में थी। मगर, इस स्वर्णिम अवसर को भाजपा सहेज नहीं पाई। उस समय तत्कालीन विधायक और सांसद के बीच खींचतान जैसी स्थिति सामने आती रही। 2022 के पहले एक-दो बार प्रभारी मंत्री के सामने सरकारी बैठकों में भी भाजपा का अंर्तविरोध सामने आ चुका है।

9.सांसद और विधायक में अंर्तविरोध वा मतभिन्नता:-

सांसद और विधायक एक-दूसरे के खिलाफ आस्तीन चढ़ाते नजर आए। बहरहाल 2022 का विधानसभा चुनाव आ गया। यहां से पार्टी दिग्गजों की आपस में एक-दूसरे के प्रति त्योरी और चढ़ने लगी। इस चुनाव में सीटिंग एमएलए ही प्रत्याशी बना दिए गए। मोदी-योगी लहर के बाद भी यहां भाजपा को अंर्तविरोध से जमकर जूझना पड़ा। बस्ती सदर से तत्कालीन विधायक दयाराम चौधरी, रुधौली से तत्कालीन विधायक संजय जायसवाल, कप्तानगंज से तत्कालीन विधायक सीपी शुक्ल, महादेवा से तत्कालीन विधायक रवि सोनकर चुनाव हार गए। भाजपा के अंर्तविरोध का लाभ सपा प्रत्याशियों को मिला। भाजपा की झोली में केवल एक विधायक हर्रैया से अजय सिंह बचे रह गए। इसी चुनाव के बाद विपक्ष जहां हाबी होता गया, वहीं भाजपा में खेमेबंदी और मजबूत हुई। सांसद खेमे से नाराज पक्ष समय का इंतजार करने लगा। पहले उन्हें टिकट न मिले, इसे लेकर खींचतान हुई। मगर, जब यहां सफलता नहीं मिली तो नाराज खेमा चुनाव से ही तौबा कर लिया।

9. दिग्गजों का पलायन :-

सांसद हरीश द्विवेदी का टिकट घोषित होने के कुछ ही दिनों बाद भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष दयाशंकर मिश्र ने बगावत कर बसपा का दामन थाम लिया। उन्हें बसपा से प्रत्याशी भी घोषित कर दिया गया। हालांकि, बाद में उनका टिकट कट गया तो विपक्षियों ने इसका भी ठीकरा भाजपा पर ही फोड़ा। यहां से चुनाव ने नया मोड़ लिया। टिकट कटने के बाद दयाशंकर सपा में शामिल होकर गठबंधन प्रत्याशी राम प्रसाद चौधरी के साथ प्रचार में जुट गए। इसके अलावा संगठन के कुछ अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी और नेता चुनाव में भागदौड़ करने से अच्छा चुप्पी साध ली। भाजपा के चर्चित चेहरों में कुछ पूर्व विधायक, पूर्व पदाधिकारी बहुत सक्रिय नहीं दिखे। शीर्ष नेताओं के आगमन पर ही उन्हें मंचों पर देखा गया।

लेखक का परिचय:-
(लेखक ,भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं ।




जमीनी स्तर पर जुड़िए सरकार

2024 के आम चुनाव इस तथ्य का संकेत है कि जनता ही जनार्दन है। जनता की मूलभूत समस्याओं का निजात करके शासक वर्ग मजबूत स्थिति में हो सकता है। जाति वर्गीकरण में पाया गया है कि सबसे ज्यादा बेरोजगारी उच्च जाति में है, जिसकी हिमायती राजनीतिक दल को सोचने के लिए फुर्सत नहीं था। भाजपा को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश से ही मिला जो वोटो के दृष्टि से परंपरागत मतदाताओं का गढ़ रहा है। विकसित भारत की संकल्पना और देश की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने जैसे वादे को देश के निधन- वंचित वर्ग को आकर्षित करने में असफल रहा है ।

आम चुनाव ,2024 से राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति और मजबूरी की राजनीति की वापसी हुई है। भारतीय राजनीति में मौसम वैज्ञानिक के नाम से जाने जाने वाले सुशासन बाबू गठबंधन की राजनीति को दबाव की राजनीति में तब्दील कर देते है।समय का तकाजा और दूरदर्शिता के अभाव में सुशासन बाबू शासक निर्माण की भूमिका में है।इसी तरह की वाक्या चंद्रबाबू नायडू जी का भी है की वह गठबंधन की राजनीति को मलाईदार मंत्रालय और अपनी मांगों के लिए भरपूर इस्तेमाल करते है। दोनों राजनेताओं की खूबी है की अवसर का लाभ प्रत्येक चरण पर उठाने में माहिर है।गठबंधन की राजनीति मजबूरी की राजनीति में बदल जाती है ।विधायिका कार्यपालिका से मजबूत होती है तो विकास की राजनीति पटरी से नीचे आ जाती है।

संप्रति सवाल यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में हीन स्थिति में क्यों हो गई? तात्कालिक स्तर पर सबसे बड़ा कारण युवाओं का गुस्सा था। संगठन और सरकार में सामंजस्य का अभाव भी कारण रहा है। अयोध्या में श्री राम मंदिर निर्माण के कारण समूचा देश राममय में हुआ था जिससे भाजपा अतिविशवास में थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में राम नहीं रंग ला पाए।

सबसे बड़ा संकट यह रहा कि अयोध्या मंडल के सभी सीटों से हाथ धोना पड़ा है ।उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा नुकसान युवाओं के गुस्से, बड़े नेताओं के परस्पर अहम ,स्थानीय स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और अलोकप्रिय लोगों को टिकट वितरण से है जिनको शीर्ष नेतृत्व समय से समझ नहीं सका था।

इस जनादेश का संदेश यह भी है कि संगठन को जमीनी लोगों पर विश्वास करना होगा। जब नेतृत्व चापलूस और चाटुकार से फीडबैक लेने लगे तो संगठन हीनतर (कमजोर)स्थिति में आ जाती है। यूपी में ऐसे नेताओं की लंबी सूची रही है जिनको जनता की नब्ज टटोलने से कोसों भर दूर रहे हैं।

जमीनी कार्यकर्ता नाराज होकर उत्तर प्रदेश सरकार को सुधार का संदेश दिया है। यह सत्य है कि भाजपा द्वारा 240 सीटों की जीत मोदी जी के व्यक्तित्व के कारण मिला है ।भाजपा को 46% वोट मिले है। भारतीय जनता पार्टी को परंपरागत मतदाताओं पर विशेष ध्यान देना होगा,क्योंकि निश्चित और परंपरागत मतदाताओं के भरोसे सरकार बनती है।फ्लोटिंग(बहने वाले मतदाता) कब किधर चले जाए ! यह तथ्य समाज वैज्ञानिकों के शोध का प्रकरण अभी भी बना हुआ है।

(लेखक राजनीति विश्लेषक हैं)




आसन्न अतीत के सुरक्षित पड़े अंधेरे में प्रवेश

साहित्य ने जब- जब चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को आकर्षित किया है, उन्हों ने इसे शाश्वत ऊंचाइयों से ही जोड़ा है । मास्को मेडिकल कॉलेज से अपनी शिक्षा पूरी करने वाले एंटोन चेखव रूस के जाने माने चिकित्सक होने के साथ साथ विश्व प्रसिद्ध नाटककार, और कथाकार रहे। कहते थे- चिकित्सा उनकी धर्म पत्नी है और साहित्य प्रेमिका। प्रवासी भारतीय माता- पिता की संतान अब्राहम वर्गीस मशहूर अमेरिकन चिकित्सक होने के साथ-साथ उपन्यासकार, संस्मरण लेखक भी हैं। मानते हैं कि चिकित्सा उनका पहला प्यार है और लेखन सीधे उसी से निकला है।

ब्रिटेन के उपन्यासकार समरसेट मोघम ने चिकित्सक होते हुये भी कभी चिकित्सा का अभ्यास नहीं किया और पूर्णकालिक लेखक बन गए। वे नाटककार, उपन्यासकार और कहानीकार थे। हारवर्ड विश्वविद्यालय से एम. डी. करने वाले जॉन माइकल क्रिचटन नाटक, कहानिया, उपन्यास लिखने में रूचि रखते थे। ‘द जुरैसिक पार्क’ उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना है। इन्फोसिस कंपनी की अध्यक्ष टाटा मोटर्स की पहली महिला इंजीनियर सुधा मूर्ति ने साहित्य को 32 पुस्तकें दी हैं। उपन्यास, कहानी, लघु कथा, यात्रा संस्मरण- सब पर लेखनी चलाई है।

नौ उपन्यासों के रचयिता बेस्ट सेलर लेखक चेतन भगत ने दिल्ली प्रोद्यौगिकी संस्थान से मकेनिकल इंजीन्यरिंग की थी। हिन्दी ब्लोगिंग के आदि पुरुष रवि रतलामी टेक्नोक्रेट थे। हिन्दी पठन और कविता, गजल, व्यंग्य, स्तम्भ लेखन में उनकी पैठ थी।

नोएडा की पारुल सिंह हिन्दी जगत का एक उभरता हुआ हस्ताक्षर है। वे विज्ञान की छात्रा रही हैं। अल्मोड़ा विश्वविद्यालय से बॉटनी में एम. एस. सी. हैं। ‘चाहने की आदत है’ उनका कविता संग्रह है। ‘ऐ वहशते दिल क्या करूँ’ पारुल सिंह का संस्मरणात्मक उपन्यास है।

कहानी का आरंभ जुलाई 2014 से किया गया है। जब 42 वर्षीय नायिका पहली बार अस्पताल में एडमिट हुई थी। भूमिका में कहती हैं- “मैंने अपनी हार्ट सर्जरी के अनुभवों पर यह किताब लिखनी शुरू की। — आजकल हम — मैं और मेरे पति ब्रिजवीर सिंह जी -अलग- अलग शहरों में हैं तो मैं दिन भर का लिखा उन्हें भेजती। — सर्जरी के समय हम दोनों साथ थे ।” लिखने में, साफ़गोई में पति का हाथ प्रमुख रहा- “ जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख/ इतनी अंधेरी थी न कभी पहले रात, लिख जिनसे कसीदे लिखे थे वो फेंक दे कलम/ फिर खूने दिल से सच्चे दिल की शिफात लिख।”

जुलाई 2014 से नायिका पारुल सिंह तकलीफ में है। सांस की तकलीफ है, चक्कर आते हैं, सूजन है, बाल गिरते हैं, बेहोशी सा भी कुछ है। डॉ. इसे पैनिक अटैक कह स्ट्रैस और डिप्रेशन की दवाई देते रहते हैं, खुश रहने के लिए कहते हैं और रोग बढ़ता जाता है। सितंबर 2017 की इकोकार्डियोग्राफी बताती है कि दिल का एक वॉल्व बुरी तरह लीक कर रहा है और सर्जन ही बताएगा कि ओपन हार्ट सर्जरी करके इस वॉल्व की मरम्मत करनी है या इसे बदलना है।

सर्जरी के लिए वह नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली में दाखिल होती है। पता चलता है कि देर हो जाने के कारण वॉल्व रिपेयर का ऑप्शन नहीं रहा। अब एनिमल टिशू से बना मकेनिकल वॉल्व लगेगा।

पन्द्रह परिच्छेदों का यह संस्मरणात्मक उपन्यास रोगी के जीवट की, साहस की कहानी है। स्मृतियों से आच्छन्न पूर्वदीप्ति शैली ने, गीत- गजल- शेर ने, अतीत के रोचक प्रसंगों ने, परामनोविज्ञान की अलौकिक अनुभूतियों ने दुख की इस गाथा में साहित्य रस का सानुपातिक मिश्रण कर दिया है। ‘ज़िंदगी के युद्ध की रूमानी कहानी’ में पंकज सुबीर लिखते हैं–

“यह किताब लड़ना नहीं सिखाती, बल्कि आनंद के साथ लड़ना सिखाती है। —- जो कुछ हो रहा है, उस पर यदि आपका वश नहीं है, तो उसका आनंद लेना चाहिए।– यह दुख की कहानी है, मगर इसमें दुख कहीं नहीं है। दुख अगर इस कहानी को पढ़ ले तो स्वयं हैरत में पड़ जाये कि मेरी कहानी में मुझे ही नगण्य कर देने वाला कौन लेखक है।”

यह छह- सात घंटे की ओपेन- हार्ट- सर्जरी है। बाद में ढेरों मशीनों, अक्सिजन मास्क, कई तरह के दर्द, जागते रहने, लंबी सांस लेने के आदेश हैं। रोगी एक- एक घूंट पानी के लिए तड़पता है और जब नारियल पानी मिलता है, तो लगता है मानो ब्रह्मभोज मिल गया। हृदय की शल्य चिकित्सा के साथ मृत्युभय का वह पक्ष जुड़ा है, जो व्यक्ति के अपनों के प्रति मोह को पहले ही समाप्त कर देता है। यह आई. सी. क्यू. है। सब व्यस्त हैं- मरीज कराहने में और नर्स डॉक्टर तीमारदारी में। अनेक डॉक्टरों का जिक्र हैं– कार्डियक सर्जन डॉ. विकास अग्रवाल, सहायक डॉ अमिता यादव, अनेस्थेटिस्ट डॉ रचिता धवन, डॉक्टर गुलिस्ताँ, फिजिओथैरेपिस्ट। नर्स संगमा, कृष्णा, मेल नर्स, कैंटीन के लोग भी हैं। माँ, पापा, पति बी. वी. और मित्रगण हैं। सुदेश जी, मुरादाबाद का चौंकी इंचार्ज धोरासिंह जैसे अन्य रोगी हैं। दवाइयों के साइड एफ़ेक्ट्स, एनेस्थीसिया, दर्द निवारक दवाए, मसल्स रिलेक्सेट्स आदि मिलकर अनेक परेशानियाँ उत्पन्न कर रहे हैं।

नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट नई दिल्ली की आई. सी. क्यू. में पड़ी नायिका पारुल का संवेदनशील मन वस्तु बनने से विद्रोह कर रहा है। उसके सर्जन डॉक्टर विकास हैंडसम हैं, आत्मविश्वास और गर्व से भरपूर हैं। दृष्टि सपाट, सर्जरी पर पूरा फोकस, रोगी के बारे में सब कुछ कंठस्थ, सिनसियर, आर्गनाइज्ड, लंबे- ऊंचे, रोबोटिक। उन का दौड़ता हुआ सा हृदयहीन, मकैनिकल काफिला दनदनाता हुआ आता है। उनके बोलने का लहज़ा सपाट सा है। सर्जन और रोगी का अद्भुत रिश्ता है- वह डॉ के लिए मात्र एक रोगी है और डॉ रोगी के लिए जीवन दाता, भगवान, खेवनहार है। पारुल उनमें अपनापन ढूंढती है। लेकिन डॉ. को मरीज का उत्तर या बात सुनने की आदत ही नहीं। मरीज सिर्फ मरीज है, उसका कोई रुतबा नहीं, वह शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप में भी अनेक चुनौतियों से नित्य जूझता है। क्या मरीज का कोई आत्म सम्मान नहीं होता?

मृत्यु और जीवन के बीच झूल रही पारुल अपने डॉ के गले लगना चाहती है। लेकिन डॉ रोबोट सा व्यक्तित्व लिए है। समझिए कि मरीज का भी वस्तुकरण हो चुका है। उसे वार्ड से आई. सी. यू. अथवा आई. सी. यू. से वार्ड में भेजा नहीं जाता, हैंड ओवर किया जाता है। उसे आई. सी. यू. एक सोलो ट्रिप सा, प्रवास सा लगता है। भले ही मानसिक तौर पर पूरा परिवार आपके साथ हो, लेकिन शारीरिक स्तर पर आप अकेले ही होते हो। ऐसे में फिजियोथेरेपिस्ट का संवेदनशील व्यवहार और पति का स्नेह तथा अपनापा पारुल के अंदर आत्मविश्वास उत्पन्न करते हैं। मृतप्राय: जीवट में संजीवनी भरते हैं।

डॉ. अमिता तो हर रोगी के दर्द से तादात्म्य की क्षमता लिए है। बेटियो की स्मृति क्षमताबोध देती है। सर्जन के रूखे और अपमानजनक व्यवहार के बाद पारुल को पति बी. वी. का आना ऐसे लगता है जैसे किसी मेले में अकेले खोये हुये व्यक्ति को कोई अपना मिल गया हो, जैसे चारों ओर कोई खुशबू फैल गई हो।

फ्लैश बैक, पुरानी स्मृतियां, अतीत की यात्रा पठनीयता में रोचकता भरते है। आई. सी. यू. में प्यास की तीव्रता पारुल को दशकों पूर्व की उस यात्रा पर ले जाती है, जब दिल्ली से हल्द्वानी जाते लैंड स्लाइड के कारण बस रुकी थी। वह नाशपतियाँ तोड़ कर लाई थी, बहुत प्यास लगी थी और बोतल में पानी देख वह प्रसन्न भी हुई थी और विस्मित भी। ऑपरेशन थिएटर में पारुल बड़ी बेटी की ड़िलीवरी के समय यानी तेईस की उम्र में सात माह के बाद बाद हुये सिजेरियन की स्मृतियों में चक्कर लगाने लगती है। जब बार बार लंबी सांस लेने के लिए कहा जाता है तो वह अपने बचपन में पहुँच जाती है। जब वह और मनोज साँसे रोक कर साँसे बचाने का जुगाड़ किया करते थे। अपने शरीर की बनावट पर यह सुनने पर कि ब्रेस्ट भारी होने के कारण फेफड़े ठीक से काम नहीं कर रहे, जख्म भर नही रहा, वह आहत होती है, और वय: संधि काल की स्कूली स्मृतियाँ ताजा हो आती हैं, तब भी वक्ष के इसी भारीपन ने उसे वर्षों परेशानी में डाले रखा था।

नींद में अस्पताल की सीढ़ियाँ पारूल को दशकों पूर्व की कालेज की सीढ़ियों तक ले जाती है, जब वह मेरठ के रघुनाथ कॉलेज में बी. एस. सी. की मस्त किशोर छात्रा थी। लिखती हैं-

“ मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त

मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ।”

उपन्यास में कुल 15 परिच्छेद हैं और हर परिच्छेद का आरंभ एक शेर से होता है-

“हजारों ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।”

गहन असहनीय दर्द में भी पारुल मन ही मन गीत गाती रहती है, क्योंकि गानों में डूबा होना दर्द में डूबने से ज्यादा अच्छा है। दर्द से जूझने के लिए वह म्यूजिक थेरेपी का प्रयोग करती है। रेडियो से साहिर के गीतों की आवाजें उसे बांधती हैं।

मरीज का डॉ./नर्स से रिश्ता एक विश्वास का होता है। जैसे पारुल डॉ. विकास में अपनापा ढूंढती है, वैसे ही रोगी धोरासिंह पर एक नर्स का ‘हुन्न बोलो’ जादू कर रहा है- “जादू था जो आदिकाल से किसी भी स्त्री के समक्ष पुरुष को बेचारा, निरुपाय बनाता आया है। — पुरुष स्वभावत: स्त्री के किसी भी रूप के समक्ष आशा भरी निगाहों से ही देखता है। उसे लगता है उसी के पास हल है उसकी सारी समस्याओं का। भरण- पोषण की दुरूह कंटीली धूप सी जिम्मेदारियों से व्याकुल वह थोडी नर्म छांव सदा अपने जीवन में वह स्त्रियॉं में ही तलाशता व पाता है। पुरुष स्वभाव अपनी भावनाओं को प्रकट न कर पाने के लिए शापित है, ऐसे में स्त्री चाहे किसी भी रिश्ते में हो , जब उसका अनकहा समझती है तो उसके समक्ष आँख मूँद आराम पाता है।”

उपन्यास में परामनोविज्ञान के अनेक प्रसंग मिलते हैं। परिच्छेद तीन में सर्जरी के लिए पारुल को बेसुध किया जा चुका है। उसका दिल और फेफड़े बंद पड़े हैं। उन्हें ‘पी. सी. बी.’ तकनीक यानी मशीनों से चालू रखा हुआ है। ऐसे में एक परा मनोवैज्ञानिक शक्ति पारुल की आत्मा को अस्पताल के प्रथम तल पर बैठे परिजनों के पास ले आती है। वह पति की अंतरचेतना से सामंजस्य स्थापित कर उसे पढ़ने लगती है। परिच्छेद 6 में आया परामनोविज्ञान का प्रसंग मृत्यु भय से जुड़ा है-

“अचानक मुझे ऐसा लगा कि मुझ से यह धरती छूट रही है अब मैं इस ब्रह्मांड पर वापिस नहीं आऊँगी, पता नहीं कहाँ चली जाऊँगी। — नीची छूटती जाती धरती से दूर होते जाना देख रही थी।”

परिच्छेद 12 में बेचैन पारूल हठधर्मी डॉ विकास के आदेश से परेशान हो माँ को याद करती है और तभी डॉ का उसके हक में निर्णय आ जाता है और उसे लगता है माँ ने ही डॉ की अंतश्चेतना को प्रभावित कर यह निर्णय करवाया है। पारुल का विश्वास है कि “माँ के साथ हम टेलीपैथी से जुड़े होते हैं।” 175

पारुल सिंह में स्त्री सुलभ नज़ाकत और सौंदर्यबोध है। वह सर्जरी के लिए अस्पताल भी आती है तो जीन्स, पुलओवर और पूरे मेकअप के साथ। सर्जरी के समय भी उसे शरीर पर रह जाने वाले निशान की चिंता है। शरीर उसका प्लम्पी सा है। लेकिन वह स्मार्ट है। पति को भी वेषभूषा से स्मार्ट बनाए रखती है और उसे डॉ. भी स्मार्ट ही चाहिए। नाजुक इतनी थी कि चीर- फाड़ के भय से वह शादी के बाद बच्चों को जन्म ही नहीं देना चाहती थी और नियति देखो कि हृदय पर छुरिया चलवाने के लिए अभिशप्त है। अस्पताल में भी देखती है कि डॉ नीले रंग का ब्लेज़र या कोट, सफ़ेद शर्ट, नीली टाई पहनते हैं। नर्सें हरे रंग की पट्टियों वाले स्क्रब, कैनटीन का स्टाफ सफ़ेद टोपी, सफ़ेद शर्ट, काली जैकेट पहनता है।

कहते हैं कि भगवान ने स्त्री को बड़ी फुरसत से बनाया है, लेकिन उसके जीवन में फुर्सत के पल लिखना ही भूल गया है। कामकाजी स्त्री को तो मशीन ही मान लो। स्त्री भले ही डॉ. हो, उसे घर जाकर भी, रविवार को भी काम करना होता है। डॉ रचिता को अस्पताल का काम थकान नहीं देता, घर का काम – सफाई, कपड़े, खाना- जैसे थैंकलैस काम थका देते हैं और पति आम पतियों की तरह न बाहर से काम करवाने देते हैं, न ढंग की मशीन लेने देते हैं और न स्वयं कोई मदद करवाते हैं। नायिका की कॉलेज हॉस्टल की सबसे मेघावी सहपाठिन अनीता की भी बात करती है। पढ़ाई छूटी, सात बहनों के भाई से शादी हुई और वह हाउस वाइफ बनकर रह गई।

पल्मोनलाजिस्ट, एनेस्थेटिस्ट , एंजीओग्राफी, कार्डियोपलमोनरी बाईपास, परफ्यूजनिस्ट, लंग्स का एसपिरेशन, माइट्रल वॉल्व, मिनिमली इनवेसिव सर्जरी , परफ्यूजनिस्ट, इन्सिजन, एस्टर्नम, रूमेटिक हार्ट डिजीज, माइल्ड ट्रायकस्पिड, कैल्सिफिकेशन, कैथेटर जैसे अनेकानेक मेडिकल के शब्द उपन्यास में समाहित हैं।

उपन्यास में आई सूत्रात्मकता लेखिका के प्रौढ़ चिंतन का परिणाम है। जैसे-

1. बात लफ्जों के बिना कही जाती है, वो ही सबसे ज्यादा महत्व की होती है। — वो इस दुनिया की सबसे खूबसूरत बात होती है।

2. दो तरह की मुस्कुराहटें होती हैं अमूमन। एक में तो चेहरा ही मुसकुराता है केवल, और दूसरी मुस्कुराहट वो होती है जिसमें चेहरे के साथ आँखें भी मुस्कुराती हैं।

3. बीमारी के साथ मर जाना बीमारी को खत्म करने का छटा और आसान रास्ता था।

4. जितनी अपनी हिम्मत बढ़ाते हैं ऊपर वाला उतने ही बड़े इम्तिहान लेने लगता है।

5. कितना अभिमानी होता है इंसान, सामने मौत खड़ी हो तो भी उसे अपने अहं की रखवाली जरूरी लगती है।

मम्मी के कुछ विश्वास- अंधविश्वास भी हैं। जैसे नाम लेने से लोग पास और पास आ जाते हैं। मरे हुये लोग सिरहाने आ बैठते हैं तो मौत आती है।पौराणिक प्रतीक भी आए हैं, जैसे- कामधेनु के सहारे वैतरनी पार करने की जुगत।

‘ऐ वहशते दिल क्या करूँ’ उपन्यास स्मृति व्यापार नहीं है। जो तन मन पर गुजारा उस भोगे गए दर्द का रचनात्मक, साहित्यिक व्यौरा है। कहानी प्रेम– मुहब्बत की नहीं है, सामाजिक- सांस्कृतिक, प्रशासनिक, राजनैतिक विघटन की नहीं है, यह जीवन का आम, लेकिन अछूता पक्ष है।

उपन्यास कुछ ईमानदार प्रश्न छोड़ता है कि डॉ. की सहृदयता रोगी का आधा दर्द हर लेती है। रोगी का वस्तुकरण उसे स्वस्थ होने नहीं देता। कामकाजी स्त्री को पति का सहयोग अवश्य मिलना चाहिए। चूल्हा चौंका स्त्री की प्रतिभा को राख़ कर देता है। उपन्यास अनास्था से आस्था, नकारात्मकता से सकारात्मकता, मृत्युबोध से जीवन बोध की यात्रा है। लेखिका ने अद्भुत कथाकौशल से ओपन हार्ट सर्जरी वाले रोगी की वेदनाओं, मन: स्थितियों का लेखा जोखा, अपनी लेखनी में पिरोया है। यहाँ अस्पताल के इंटैन्सिव केयर सेंटर के मेडिकल स्टाफ और मरीजों का मुंह बोलते चित्र हैं, जिन्हें डॉक्टरों को अवश्य पढ़ना चाहिए।

यह संस्मरणात्मक उपन्यास है। पारुलसिंह ने आसन्न अतीत के सुरक्षित पड़े अंधेरे में प्रवेश किया है। जिये हुये अतीत को पुन: जिया है। हिन्दी में संस्मरणात्मक उपन्यासों की शुरुआत निराला के ‘कुल्लीभाट’ से मानी गई है। रामदेव धुरंधर का ‘अपने रास्ते का मुसाफिर’ आत्म संस्मरणात्मक उपन्यास है। मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ भी आत्मकथात्मक है। मृदुला गर्ग के ‘ये नायाब औरतें’ में यादों के पेंडोरा बॉक्स से निकाले गए नायाब किस्से हैं।

उपन्यास का अन्तिम परिच्छेद इसके संस्मरणात्मक रूप की एक बार फिर पुष्टि करता है। यहाँ पुस्तक मेला है। पंकज सुबीर, नीरज गोस्वामी, शहरयार, सन्नी जैसे साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की चर्चा है।

लेखक के बारे में

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब




जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणाम !

जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान हुआ है। औद्योगिक क्रांति के पश्चात पर्यावरण को जितनी क्षति पहुंची है वह बीते 2000 वर्षों के तुलना में बहुत विनाशकारी है। इसका परिणाम हम जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि से उपजे महासंकटों के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक स्तर के अद्यतन प्रतिवेदन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के चलते वर्ष 2050 तक वैश्विक आय में 19% की कमी आ सकती है।

इसी प्रकार विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में प्रकाशित प्रतिवेदन में चिंता जताई गई है कि भारत में आय में कमी का 22% तक हो सकता है। वायुमंडल में पहले से मौजूद ग्रीनहाउस गैस निरंतर बढ़ रहे हैं। प्रदूषण और पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था को लगभग 20% की हानि हो सकती है। संप्रति से कार्बन उत्सर्जन में वृहद कटौती कर ली जाए तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को ब20% तक नुकसान उठाना ही होगा।

जलवायु परिवर्तन आने वाले 25 वर्षों में संसार भर के लगभग सभी देशों में भारी आर्थिक नुकसान करेगा। इसमें प्रकृति सभी वर्गों और सभी आय वर्गों को नुकसान पहुंचाएगी। आर्थिक नुकसान को झेलने वाले देशों में विकासशील देशों और विकसित देश दोनों है। पर्यावरण समस्याओं पर शीघ्र सकारात्मक सुधार नहीं किया गया तो वर्ष 2029 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को 60% तक का नुकसान उठाना पड़ेगा ।मौसम वैज्ञानिकों और भूगर्भ भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि बढ़ते तापमान के लिए त्वरित स्तर पर कार्रवाई नहीं हुआ तो पृथ्वी आने वाले वर्षों में धधकते गोला बन जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक तापमान विगत 150 सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है।

औद्योगीकरण की शुरुआत से लेकर संप्रति तक तपांतरण में 1.25 सेल्सियस के स्तर पर पहुंच चुका है ।आंकड़ों के अनुसार 45 वर्षों से प्रत्येक दशक में तापमान में 0.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है । आईपीसीसी के आंकड़ों और अनुमानों में 21वीं सदी में पृथ्वी के पार्थिव स्तर के तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है । वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से घट रही है । अन्य शोध के अनुसार ,वायुमंडल में 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमंडल से 24 लाख तन ऑक्सीजन खत्म हो चुका है । यही स्थिति बनी रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होना निश्चित है।

भूमंडलीय तापन के कारण पृथ्वी का तापमान जिस तेज गति से उन्नयन कर रहा है इससे आने वाले वर्षों में 60 डिग्री सेल्सियस होने की संभावना बढ़ रही है। पृथ्वी के तापमान में 3.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो आर्कटिक और अंटार्कटिका के वृहद हिमखंड पिघल जाएंगे ।बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की बर्फ की चादरें शीघ्रता से पिघल रहे हैं ।भूमंडलीय तापन के कारण हिमालय क्षेत्र में माउंट एवरेस्ट के हिमचादर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपाल के मध्य गंगोत्री हिमचादर भी तेजी से पिघल रही है। जलवायु परिवर्तन को सुरक्षित भविष्य के लिए संरक्षित करना है तो भूमंडलीय तापन को नियंत्रित करना होगा ।ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित एवं सावधानी पूर्वक अनुप्रयोग करना होगा। वैज्ञानिक प्रगति के फलात्मक प्रभाव को मानव हित के लिए सावधानी से प्रयोग करना होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं )




किस करवट बैठेगा मुस्लिम आरक्षण का ऊंट ?

संविधान के अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 के तहत, किसी समुदाय विशेष को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति घोषित करना संसद में निहित शक्ति है। आरक्षण और योग्यता के बीच संतुलन रखना, समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता को ध्यान में रखना भी आवश्यक है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत के संविधान में आरक्षण जातीय आधार पर है न कि धार्मिक आधार पर।

भारत में आरक्षण सदा से वोट बैंक की राजनीति साधने का माध्यम रहा है। सबको पता है कि भारत के संविधान द्वारा अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 10 वर्ष के लिए सरकारी नौकरियां अधिनिया आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। प्रारंभ में इस आरक्षण की अवधि को आगे बढ़ते हुए वोट बैंक को साधा जाता रहा। लेकिन जब यह स्थायी सा हो गया तो अब वोट बैंक बनाने के लिए कुछ नया चाहिए था।

भारत के संविधान में अनुसूचित जाति जनजाति के लिए सीमित अवधि के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी लेकिन पदोन्नति में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। लेकिन वोट बैंक को रिझाने और अपनी सत्ता पाने के लिए उन्होंने यह भी शुरू कर दिया जो कि पूर्णत: असंवैधानिक था। हालांकि जब किसी व्यक्ति ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते इसे संविधान संशोधन के माध्यम से संवैधानिक बना दिया गया।

तब कांग्रेस नेता और बाद में राजीव गांधी के बोफोर्स घोटाले में फंसने पर कांग्रेस विरोधी लहर के चलते कांग्रेस छोड़कर नए विपक्षी गठबंधन नेशशनल फ्रंट में आए कांग्रेस के पूर्व नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह, जनता दल के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने सोचा कि आरक्षण के माध्यम से ऐसा कुछ किया जाए जिससे वे आजीवन प्रधानमंत्री बने रहें, इसके लिए उन्होंने रद्दी की टोकरी में पड़ी मंडल आयोग की रिपोर्ट को निकाला और रातों-रात लागू कर दिया। इस प्रकार भारत में पिछड़ी जातियों के नाम पर आरक्षण शुरू हो गया, जिसका सामान्य वर्ग द्वारा भारी विरोध भी हुआ। आजीवन प्रधानमंत्री बनने का सपना तो देखा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

1990 में उनके शासनकाल में, जब कश्मीर के नेता और भारत के पहले मुस्लिम गृहमंत्री, मुफ्ती मोहम्मद सईद भारत के गृहमंत्री बने तो कश्मीर घाटी से कश्मीरी हिंदुओं को बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा भारी हिंसा करके कश्मीर घाटी से निकाल दिया। जिसकी पूरे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम रथयात्रा निकाली गई और उसके बाद, भाजपा ने तत्कालीन जनता दल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार अविश्वास मत हार गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 7 नवंबर 1990 को इस्तीफा दे दिया।

लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते सभी दलों ने मंडल आयोग की सिफारिश के अनुसार पिछड़े वर्ग के आरक्षण को स्वीकार कर लिया। सामान्य वर्ग के लोगों में बढ़ते आक्रोश के चलते सरकार ने जनवरी 2019 में संविधान संशोधन करके सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए भी भी 10% आरक्षण प्रदान कर दिया।

अगर इतिहास टटोल कर देखें तो आरक्षण के माध्यम से वोट बैंक बनाकर सत्ता पाने का सर्वाधिक कार्य कांग्रेस द्वारा ही किया गया। वी.पी. सिंह भी मूलतः कांग्रेसी ही थे। उन्होंने भी आरक्षण का ही दांव खेला था, हालांकि वह उनके काम नहीं आया।जब कांग्रेस को कोई नया रास्ता दिखाई नहीं दिया। अब आरक्षण के जिन्न से कैसे नया वोट बैंक बनाया जाए इसके नए-नए रास्ते ढूंढे जाने लगे। तब उन्होंने विभिन्न राज्यों में वहां की तगड़ी और दबंग जातियों को आरक्षण के लिए भड़काया और एक के बाद एक राज्य को आरक्षण के आंदोलन से दहलाना शुरू किया, यह प्रक्रिया अभी तक चल रही है।

दबंग और लड़ाकू जातियों में से यादवों को तो पहले ही आरक्षण मिल गया था फिर कभी जाट आरक्षण के नाम पर पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा को रक्तरंजित किया, गुर्जर आरक्षण के नाम पर राजस्थान को दहलाया गया। फिर पाटीदार आरक्षण को लेकर गुजरात को दहलाया गया, मराठा आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र मैं भी ऐसा ही हुआ और इसी प्रकार कर्नाटक में भी किया गया। जब भी चुनाव आते हैं आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकाला जाता है। इस बार भी महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण में किस जाति को जोड़ा जाए, इसे लेकर बड़ा मुद्दा बनाया गया।

अब विपक्षी नेताओं को वोट बैंक साधने के लिए कोई नया रास्ता खोजना था। मुस्लिम तुष्टिकरण का मुद्दा तो पहले से ही लगातार सुर्खियों में रहा है। मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कांग्रेस के शासनकाल में ही कई ऐसे कानून बनाए गए जो संविधान की मूल भावना के तथा समानता के अधिकार के ठीक प्रतिकूल थे। अब संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रतिकूल कई राज्यों में मुसलमानों को आरक्षण देने का काम शुरू कर दिया गया। अदालतों द्वारा इसे असंवैधानिक तथा गैर कानूनी मानते हुए रद्द किया जाने लगा। लेकिन मुसलमानों का हितैषी बनने और दिखाने के लिए फिर भी यह होता रहा ताकि मुस्लिम वोट बैंक इन दलों के पक्ष में रहे।

इन दलों की आपसी लड़ाई भी प्राय: मुस्लिम वोट बैंक को लेकर देखी जाती है। जैसे-जैसे मुसलमानों की आबादी बढ़ती जा रही है विपक्षी दलों को यह सबसे अच्छा रास्ता दिखाई दे रहा है। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार द्वारा हाल ही में आरक्षण में मुसलमानों को शामिल किए जाने और उसके आधार पर उन्हें नौकरियां दिए जाने का मामला जब उच्च न्यायालय में पहुंचा तो उसे गैर कानूनी पा कर कोलकाता उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। लेकिन क्योंकि बांग्लादेश और म्यांमार से होती घुसपैठ तथा मुस्लिम आबादी बढ़ने की दर के कारण बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ी है, हालांकि इनमें से बहुत बड़ी आबादी यहां से पलायन कर अन्य राज्यों में भी पहुंच रही है।

जो ममता बैनर्जी का सबसे पक्का वोट बैंक है, तो वे कहां मानने वाली हैं। उन्होंने कोलकाता उच्च न्यायालय के निर्णय को मानने से इनकार कर दिया । अब वे सर्वोच्च न्यायालय में जाएगी। उसमें कुछ वर्ष निकल जाएंगे तब तक असंवैधानिक आरक्षण के माध्यम से नौकरी पर लोगों को कई साल हो जाएंगे, तब उन्हें हटाना और कठिन हो जाएगा। यह हो या ना हो तो भी वे यह धारणा बनाने में तो सफल हो ही जाएँगी कि वे मुसलमानों के लिए संविधान के विरुद्ध जाकर भी कुछ भी करने को तैयार हैं। इससे उनका वोट बैंक तो बढ़ेगा ही। जिसकी जितनी आबादी उसका हर चीज पर उतना हक, इस तरीके से कांग्रेस भी इनके समर्थन में खड़ी है।

इसी प्रकार कर्नाटक सहित कई राज्यों में संविधान विरुद्ध मुसलमानों को अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग में आरक्षण दिया जाने लगा है। उसके विरुद्ध अदालतों में भी लड़ाइयां जारी हैं। लेकिन अब विपक्षी दलों के कई नेताओं ने खुल्लम खुल्ला यह कहना शुरू कर दिया है कि वे मुसलमान के आरक्षण के पक्ष में हैं। यदि वे सत्ता में आएंगे तो मुसलमानों को आरक्षण देंगे, भले ही उसके लिए कानून या संविधान बदलना पड़े। मुस्लिम-यादव समीकरण से बने दलों के मुखिया तो मंचों से मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव ने तो इसे चुनावी मुद्दा बनाया है। यह कहना भी अनुचित न होगा कि इंडी गठबंधन कै ज्यादातर दल पुरजोर ढंग से मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटे हुए हैं और उसके लिए कानून व संविधान को ताक पर रख रहे हैं।

अब यहां विचार का विषय यह है कि यदि मुसलमानों को हिंदुओं की तरह अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया तो इस वर्ग के आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा कौन लेगा ? आजादी के बाद जिस तेजी के साथ मुसलमान की आबादी बढ़ी है और लगातार बढ़ रही है तो इस आरक्षण का ज्यादातर लाभार्थी कौन होगा? इसका नुकसान किस होगा ? यह भारत के संविधान के प्रतिकूल तो होगा ही, इसे वर्तमान में आरक्षण का लाभ उठा रहे हिंदू बौद्ध आदि की अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ी जातियों को तब आरक्षण का कितना हिस्सा मिल सकेगा ? क्या वे अपनी आरक्षण में से इतना बड़ा हिस्सा मुसलमान को जाते देखकर चुप बैठेंगे ?

मुस्लिम आरक्षण को लेकर अब विचार का विषय यह भी है कि लोकसभा चुनावों के पश्चात राजनीतिक समीकरण कैसे बनते हैं और सत्ता किसी मिलती है ? जहां भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह संविधान के बाहर जाकर मुसलमानों को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने की विरोध में है और वह ऐसी प्रयासों को सफल नहीं होने देगी। वहीं विपक्षी गठबंधन के घटक दल मुसलमानों को आरक्षण देने को लेकर तलवारें भांज रहे हैं।

यहां प्रश्न यह भी है कि क्या हिंदू, बौद्ध आदि की अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोग अपने आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों को देने के लिए तैयार होंगे, जिनकी आबादी लगातार बढ़ रहा है? क्या इसीलिए कारण देश में एक बार फिर हिंसा का तांडव होगा? वोट बैंक की राजनीति की आग में क्या एक बार फिर देश जलेगा।

क्या धार्मिक आधार पर मुसलमान को अलग से आरक्षण दिया जाएगा और इसके लिए आरक्षणकी निर्धारित सीमा को बढ़ाकर फिर एक नया विभाजन किया जाएगा ? क्या ऐसे प्रयासों की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया नहीं होगी ? इसके सामाजिक स्तर और देश के विकास पर किस-किस तरह के प्रभाव पड़ेंगे? क्या प्रतिभा पलायन में और अधिक तेजी आएगी ? प्रणाम जो भी हो लेकिन सत्ता पाने के लिए आतुर विपक्षी दल अब किसी भी कीमत पर मुसलमान को आरक्षण के दायरे में लाकर सत्ता पाने के लिए बेचैन हैं। इसके लिए वे संविधान में परिवर्तन करने के लिए भी तैयार हैं। इन सब प्रयासों का परिणाम क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन इतना तय है कि यह इतना सरल और शांतिपूर्ण तो नहीं होगा।

(लेखक वैश्विक हिंदी परिषद के अध्यक्ष हैं )