सन् १९५६ के आते-आते बिनाका गीतमाला ने फिल्म संगीत की दुनिया में तहलका मचाना शुरू कर दिया था। उन दिनों कोई और रेडियो प्रोग्राम नहीं था, जिससे कि हिंदी फिल्मी गीतों की लोकप्रियता का सही अंदाजा लगाया जा सके। उस लोकप्रियता ने कई संगीतकारों को संगीत प्रेमियों के दिलों में बसा दिया था, जैसे कि अनिल बिस्वास, नौशाद, शंकर जयकिशन, हेमंत कुमार, सी रामचंद्र, एस डी बर्मन, मदनमोहन, सलिल चौधरी, ओ पी नैयर और वसंत देसाई। १९५७ में बिनाका गीतमाला की वार्षिक पायदानों पर दो और संगीतकार एन दत्ता तथा एस एन त्रिपाठी चमके और वह भी काफी छलांगें लगाकर! १९५८ के आते-आते बिनाका गीतमाला के शुरू और आखिर में जो संगीत बजता था, वह बदल गया। उस साल संगीतकारों में रवि और चित्रगुप्त भी जोरदार तरीके से उभरे और बिनाका गीतमाला न सिर्फ धूम-धड़ाके से चल रही थी बल्कि दौड़ रही थी। सभी बड़े समाचार पत्रों में गीतमाला की चर्चा होने लगी।
चाय और पान की दोगुनी बिक्री!
कई जगहों जैसे चाय, पान की दुकान और पार्क वगैरह में जब रेडियो लगाया जाता, तो गीतमाला सुनने के लिए एक बड़ा-सा जनसमूह एकत्रित हो जाता, जिसके कारण ट्रैफिक जाम की स्थिति भी बन जाती थी। चाय और पान की दुकान वाले तो धन्यवाद-पत्र भेजा करते थे! वे इस पत्र में जिक्र करते थे कि जिस दिन गीतमाला का प्रसारण होता है, उस दिन हमारी बिक्री दोगुनी हो जाती है। इस तरह सफलता का पर्याय बन गई थी "बिनाका गीतमाला"। वर्ष १९५९ में संगीतकारों की प्रतिस्पर्धा हुई। उसमें शंकर जयकिशन का नाम सबसे ज्यादा उभरा। दस टॉप गीतों में से सात गीतों में उन्हीं का संगीत था। मगर प्रथम गीत की धुन शंकर जयकिशन ने नहीं, बल्कि एस डी बर्मन ने बनाई थी। किशोर कुमार और आशा भोंसले की आवाज में "चलती का नाम गाड़ी" का यह गीत था "हाल कैसा है ज़नाब का, क्या खयाल है आपका…"। इस गीत से हिंदुस्तानी संगीत प्रेमी किशोर कुमार की "यूडलिंग" से रूबरू हुए।
सन् १९५५ से लेकर १९६० तक "जरा सामने तो आओ छलिये…" को छोड़कर शेष सभी लोकप्रिय गीतों में पश्चिमी संगीत की छाप थी। मगर १९६० के आते-आते संगीतकारों को यह अहसास होने लगा कि संगीत के जितने अलग-अलग रंग इस देश में मिल सकते हैं, अगर उन्हीं में गहरे उतरकर धुनें बनाई जाएं, तो फिल्म संगीत को एक नया जीवन, एक नया अपनापन प्रदान किया जा सकता है। नतीजा यह हुआ कि १९६० के दस सबसे लोकप्रिय गीतों में से सात गीत ऐसे थे, जिनमें हिंदुस्तानी संगीत की खुशबू थी। उसी साल संगीत की दुनिया में दो नए नाम और उभरेः संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी और गायक महेंद्र कपूर। और हां, कुछ प्रारंभिक असफलताओं के बाद एक लाजवाब संगीतकार रोशन ने "बरसात की रात" से सुखद वापसी की।
अवॉर्ड नहीं, गीतमाला ने दिलाई शोहरत
बिनाका गीतमाला को स्थायित्व देने वाले इन वर्षों के हिट गीतों की सूची देखता हूं, तो एक खास बात नजर आती है। वह यह कि इन वर्षों में अधिकांशतः दो ही मधुर आवाजें सबसे ज्यादा गूंजीं, ये आवाजें थीं सुरों की मलिका लताजी और प्लेबैक गायकों के बादशाह मोहम्मद रफी साहब की। एक और बहुत ही महत्वपूर्ण बात बिनाका गीतमाला के बारे में। वह यह कि जब "फिल्मफेयर पुरस्कार" की स्थापना हुई, तो शुरूआती कई वर्षों तक इसमें सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक एवं गायिका की श्रेणी ही नहीं थी। सिर्फ संगीतकार को ही इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाता था। लिहाजा, बेहतर गायिकी के बावजूद गायक न तो सम्मानित हो पाते थे और न ही उन्हें वह शोहरत मिल पाती थी, जिसके वे वास्तविक हकदार थे। ऐसी स्थिति में गायक-गायिकाओं को नाम व शोहरत दिलाने में बिनाका गीतमाला की भूमिका अविस्मरणीय रही। बाद में लता मंगेशकर के प्रयासों से फिल्मफेयर पुरस्कार की श्रेणी में गायकों को भी शामिल कर लिया गया।
सन् १९५२ से शुरू हुआ फिल्मी गीतों की प्रतिस्पर्धा का यह रोचक साप्ताहिक कार्यक्रम रेडियो सीलोन पर लगातार १९८३ तक चला। १९८३ में ही "सिबा" कंपनी का उत्पाद "बिनाका" का नाम बदलकर "सिबाका" हो गया। अतः १९८३ से १९८९ तक यह कार्यक्रम ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती पर "सिबाका गीतमाला" के नाम से प्रसारित हुआ। कुछ वर्षों के अंतराल के बाद यह कार्यक्रम पुनः २००३ तक "कोलगेट सिबाका गीतमाला" के नाम से प्रसारित हुआ। इस प्रकार गीतमाला के इस कार्यक्रम ने ४२ वर्षों का शानदार सफर तय किया।
नकल मत करो, नया करो
बदलाव जमाने का होता रहता है। इसका मतलब यह नहीं कि मुझे भी बदल जाना चाहिए। मैं तो जो था, सो हूं। उस जमाने में भी गड़बड़ करता था, धीरे-धीरे संभल गया। मैंने अपने प्रोफेशन में हमेशा सरलता के साथ आगे बढ़ने की कोशिश की क्योंकि सरलता जब तक नहीं होगी, संचार का मजा नहीं आएगा। मुझे सरलता अपनाना पड़ी, इसलिए क्योंकि मुझे और कोई अच्छी भाषा आती नहीं है। मैं तो गुजराती स्टूडेंट था, अंग्रेजी ब्रॉडकास्टर था। उर्दू ज्यादा सीखी नहीं थी। मेरा यह अनुभव रहा कि सिर्फ हिंदी में लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने भर से ही उद्घोषणा नहीं होती, बल्कि बोली जाने वाली भाषा पर संपूर्ण अधिकार होना चाहिए। बहुत कम लोग जानते हैं कि १९६० से १९६२ तक मैंने टाटा ऑइल मिल के मार्केटिंग विभाग में भी शाखा प्रबंधक की हैसियत से काम किया है। अपने ८१ वर्ष के जीवन में से मैंने लगभग ६५ वर्ष रेडियो को दिए हैं।
रेडियो सीलोन के लिए ही मैंने नए-नए उद्घोषकों को प्रशिक्षण भी दिया। एक समय में प्रशिक्षण देने वालों में मेरे साथ अभिनेत्री मधुबाला की छोटी बहन मधुर भी थीं। कई वर्षों तक ऐसा देखने में आया कि नए-नए उद्घोषक मुझे अपना गुरू मानकर मेरी नकल करते थे। मैंने हमेशा यही कहा कि उन्हें मेरी नकल न करके कुछ नया करना चाहिए क्योंकि स्वयं मैंने ही अपना वह स्टाइल जिसकी वे नकल करते हैं, कई वर्ष पहले छोड़ दिया है।
साभार- दैनिक नईदुनिया से
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