Saturday, November 23, 2024
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भारत राष्ट्र के भावी स्वप्न और अतीत की काली छाया

मैं पशुओँ का डॉक्टर हूँ  यह  बात  मेरे परिचय में ही बता दी गई है  कृषि अर्थशास्त्र नामक एक विषय हमें पढना पडता था इसलिये अर्थशास्त्र से मेरा इतना ही सीमित संबंध है। और यह पुस्तक लिखनेवाले तथा आज के समारंभ के अध्यक्ष स्थान को विभूषित करनेवाले पद्मभूषण डो. दुभाषी इत्यादि लोग इस विषय के तज्ञ लोग हैँ । इस लिये इस विषय के संदर्भ में मैं कुछ बोलुं उसमें कोई खास औचित्य नहीं है । परंतु संघ द्वारा सरसंघचालक बनाये जाने के कारण ऐसे विषयोँ पर बोलते समय क्या नहीं बोलना है इसका मुझे ज्ञान हो गया है । इस कारण से वह ज्ञान के  क्षेत्र पर मैं अनधिकृत आक्रमण नहीं करुंगा   मुझे जो जानकारी है उसके आधार पर मैं आपके सामने कुछ बातेँ रख  रहा हूँ ।

 

जानवरोँ का डॉक्टर होने के  कारण हमारे क्षेत्र में एक किस्सा हमेशा चलता है । एक आदमी का कुत्ता बीमार हो गया । वह आदमी अपने पडोसी के  घर गया  और उससे पूछा, ‘मेरा कुत्ता बीमार हो गया है, ऐसे ऐसे लक्षण हैं, क्या आपका कुत्ता भी कभी  बीमार हुआ था ? पडोसी ने कहा, हाँ, मेरा कुत्ता भी बीमार हुआ था और मैंने उसे एक  बोटल टिंचर आयोडिन पिलाया था। अधिक कुछ न सुनते  हुए वह व्यक्ति चला आया और बाजार से खरीदकर एक  बोटल टिंचर आयोडिन अपने कुत्ते को भी पिला दिया । अब टिंचर आयोडिन पिलाने पर दूसरा क्या होना संभव था ? कुत्ता 20 मिनिट में छटपटा कर मर गया । वह व्यक्ति तुरंत पडोसी के पास  गया और उसे  कहा, अरे भाई , तुम्हारे कहने पर मैंने कुत्ते को  टिंचर आयोडिन पिलाया पर मेरा  कुत्ता तो छटपटा कर 20 मिनिट में मर गया, पडोसी ने कहा, ठीक बात है, मेरा कुत्ता भी ठीक इसी प्रकार छटपटाकर 20 मिनिट में मर गया था।

 

इस  प्रकार कुल  मिलाकर अपने समाजजीवन की जो रचना हमने स्वातंत्र्यप्राप्ति के बाद की उसके अनेक लाभ है इसमें कोई विवाद नहीं हैं । परंतु जिन सिद्धांतोँ तथा चौखट के आधार पर हमने विचार किया वह चौखट आज न केवल अपने देश के लिये पर संपूर्ण विश्व के लिये भी पर्याप्त नहीं है, वह मनुष्य को सुख नहीं दे सकती । यह बात अब सभी के ध्यान पर आना  शुरु हुआ है । विश्व के सामने कोई पर्याय नहीं है, अर्थात् उसके सामने आधुनिक जगत  के प्रगत विचारोँ के नाते अभी  तक मात्र दो पर्याय आये हैं। उन दोनों में से कौनसा चुनना यह  समस्या उनके सामने खडी है। पर अपने पास एक तीसरा पर्याय भी था। केवल कम्युनिझम और पूंजीवाद दो ही  पर्याय हैं ऐसा मानकर हमने जो अपना प्रवास शुरु किया उसके दुष्परिणाम हम आज भुगत रहे हैँ। कारण यह है  कि नीतियाँ तथा चौखट तो बाद की चिजें हैं परंतु सब से पहले तो मनुष्य जब स्वयं के विकास के मानक तथा चौखट निश्चित करता है, कार्यक्रम तथा फैंसले करता है, तब उन सबके पीछे उसकी एक निश्चित दृष्टि होती है। अब सब के ध्यान में यह बात आ रही है।

 

यह बात भी केवल मैं कह रहा हूँ या संघ के लोग कह रहे हैँ या भारतीय विचार के लोग कह रहे हैँ ऐसी बात नहीं है, विश्व के सब लोग अब इन बातोँ की अनुभूति कर रहे हैँ कि मूल में ही कोई  कमीं या दोष रह गये हैं । विश्व के जिन जिन देशोँ में इस प्रकार से सोचनेवाले है, उन देशोँ का इन दोनों मार्गोँ पर  चलने का और  प्रामाणिकता तथा परिश्रमपूर्वक चलकर जनता का हितसाधन करने का शतकोँ का अनुभव है। हमने उसका भी विचार करना चाहिये। और उसका विचार करते समय यह बात ध्यान में आती है कि संपूर्ण विश्व को तीसरे पर्याय की आवश्यकता है और उस तीसरे पर्याय का विचार हम दे सकते हैँ। कारण जीवन की ऑर देखने की  हमारी दृष्टि विशिष्ट तथा अलग है।

 

इस दृष्टि के आधार पर कभी अतीत में, हमने जीस राष्ट्रजीवन का निर्माण किया उसके बाद सहस्रोँ वर्षोँ तक हमने उसके आधार पर एक सुसंपन्न, सर्व दृष्टि से सुखी तथा संपूर्ण विश्व को भी  सहायक बननेवाला राष्ट्रजीवन खडा  किया । और एक हजार वर्ष के आक्रमणोँ के चलते भी या संघर्षकाल में भी  1860 तक अपने देश के सर्वांगीण सुसंपन्न जीवन को विश्व में अग्रसर रखने में उस जीवनदृष्टि का बहुत बडा योगदान था । यह इतिहास है। इसके लिखित सबूत उपलब्ध हैँ । दस्तावेज उपलब्ध हैँ, एकाधिक लेखकोँ ने उन्हें विश्व के सामने  रखा है ।

 

धर्मपालजी लिखित इतना बडा साहित्य उपलब्ध है । पूरा साहित्य सबूतो के साथ है, परंतु  हमने उसकी ऑर ध्यान ही नहीं दिया है, उस साहित्य का अध्ययन करने की हमें फूर्सत नहीं है । ऐसी एक अलग दृष्टि लेकर, यह बात ठीक है कि सरकार नीतियाँ तय करती है, और वह अपने हाथ में नहीं है पर मेरी जो धारणा है उसके आधार पर  कुछ  निर्माण करुंगा ऐसे  निश्चय से भिन्न भिन्न विचारधाराओँ से संबद्ध कुछ प्रामाणिक कार्यकर्ताओँ ने जिसे आज की भाषा में क्लस्टर कहा जाता है ऐसे कुछ दर्शनीय क्लस्टर्स देशभर में खडे किये हैं, पर उसका अध्ययन करने का कष्ट अपने देश के विचारक नहीं लेते हैँ । जो  लोग जाकर आते हैं उनके विचारोँ में  आमूलाग्र परिवर्तन हो जाता है।

 

अब यह सब करने का समय आ गया है । एकात्म मानवदर्शन यह कोई मतवाद नहीं है । इसका कारण यह है कि कोई एक निश्चित चौखट या निश्चित नीतियोँ का ही वह समर्थन नहीं करता है । वह दृष्टि देता है । विश्व की सभी सत्ताओँ का  अस्तित्व सब ने सर्वप्रथम मान्य करना चाहिये। दुनिया ने यह भी मान्य करना चाहिये की विश्व के प्रत्येक चर, अचर, जड चेतन सब जो पदार्थ हैं  वह एक जो पूर्ण है उसके अविभाज्य अंश हैं। जो  चेतना किसी एक वस्तु में या जीव में है वही चेतना पूरे संसार में है। और उसी चेतना से यह सब परस्पर संबद्ध है। यह अपनी दृष्टि है । यह दोनों विचारधाराएँ जिस दृष्टि के आधार पर खडी है वह दृष्टि इस  संबंध में विश्वास नहीं रखती है । वे ऐसा कहते हैँ की इस विश्व में मनुष्य की  सत्ता है, समूह या समाज की सत्ता है, निसर्ग की भी सत्ता है। पर यह सब सत्ताएँ भिन्न भिन्न हैँ और उनका परस्पर से कोई संबंध नहीं है। और विश्व की प्रत्येक वस्तु, चर, अचर, जड, चेतन प्रत्येक प्राणी तथा  प्रत्येक  मनुष्य दूसरे से अलग है। यहीं से  दोषपूर्ण दृष्टि का प्रारंभ होता है। और उस कारण से फीर सुखी करना, सुख यह उसका लक्ष्य है। यह पूरा विश्व सुख के  पीछे दौडता है।

 

यह जो पूरा व्यवहार  चलता है, देश, राष्ट्र बनते हैँ, हम यहाँ एकत्र आकर ऐसे विषयोँ का विचार करते हैँ, यह सब क्योँ करते हैँ? तो सब सुखी हो इस लिये। याने मैं  सुख  प्राप्त करुं। आत्मनस्तु कामाय । परंतु मैं  सुख प्राप्त करुं यह कहते समय मनुष्य के ध्यान में आता है कि बिना अन्य लोगोँ को भी निश्चित सुख  मिले हमें अपना सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इस कारण से वह दूसरोँ के सुख का भी विचार करता है। पर उस सुख में क्या है उसका अगर चिंतन किया तो वास्तव में सुख माने क्या यहीं से सोचने की शुरूआत होती है। जो अपने  को सुख लगता है, जब भूक लगती है तब पेटभर भोजन मिलना यह उस समय सुख है। इसलिये तब मुझे भोजन मिलना चाहिये। मेरी आवश्यकताएँ जिसके कारण पूर्ण हो ऐसी नीतियाँ चाहिये । ठीक  है। मोटे तौर पर यह ठीक  ही है।

 

परंतु कभी कभी इससे उलटा भी होता है। घर के सभी सदस्योँ के लिये मिष्टभोजन बनानेवाली और आग्रहपूर्वक खिलानेवाली माता अपने  लिये  मीठा पदार्थ न बचने पर भी  सभी  स्वजनोँ की  संतुष्टि तथा प्रसन्नता की  अनुभूति करते हुए बिना मिठाई खाये प्रसन्न होती है। यह सुख कहाँ से  आया ? अथवा रसगुल्ला बहुत पसंद करनेवाला मनुष्य पचास  खाएगा, सौ  खाएगा, डेढ सौ खाएगा, पर उसके बाद उसकी रुचि उन रसगुल्लोँ में नहीं रहेगी । आग्रह करने पर वह और भी खाएगा पर एक स्थिति ऐसी आयेगी कि रसगुल्ला देखते ही उसे उलटी हो जाएगी । तो फिर वह रसगुल्ले में दिखनेवाला सुख कहाँ गया? वास्तव में वह उस रसगुल्ले में था ही नहीँ । तो सुख संकल्पना का भी पूर्ण विचार वहाँ नहीं है । सुख की समग्र कल्पना भी नहीं है । सुख  अगर  रसगुल्ले में है तो किसी को अगर यह कहा कि मैं तुझे रसगुल्ले खिलाता हूँ, पर शर्त यह है कि एक रसगुल्ले के साथ एक जुता खाना पडेगा। और यह कार्यक्रम चार लोगोँ के सामने चलेगा। तो क्या उसे वह रसगुल्ला सुख देगा ? मनुष्य कहेगा, नहीं चाहिये वह रसगुल्ला, मैं आधी रोटी खाकर ससम्मान रहुंगा।

 

अपने यहाँ बच्चोँ को पढाया भी जाता है कि  स्वतंत्रता की  सुखी रोटी पारतंत्र्य के पंचपक्वान्नोँ से भी श्रेष्ठ है । क्योँ ? कारण सुख का  विचार करते समय वह भी सुख के नाते समग्र ही है। इसलिये मनुष्य क्या है ? विश्व जानता है  की वह देह,मन बुद्धि है। मनुष्य समूह और सृष्टि पूरे विश्व को  पता  है । अर्थ और  काम के  स्वरूप में मनुष्य में  इच्छाएँ होती है, उसकी पूर्ति के  लिये मनुष्य को प्रयास करने पडते हैं। कामनापूर्ति करनी पडती है इसलिये अर्थ पुरुषार्थ करना पडता है। परंतु  वह  कभी न कभी इस सब से उब जाता है और उसे इन सब से मुक्त होना पडता है । यह बात पूरा विश्व जानता है परंतु यह सुख  सबको कैसे प्राप्त  होगा यह उसे  पता  नहीं होने से विश्व अब तक आगे तो गया है पर वह कितना गया  है ? तो मेक्सिमम गुड ऑफ मेक्सिमम  पिपल। (अधिकतम लोगोँ का  अधिकतम कल्याण)।  सर्वेपि सुखिन: संतु । यह अभी  दुनिया ने देखा नहीं है। परंतु ऐसा हो नहीं सकता क्योँकि सभी पदार्थ निसर्ग के अंश होने के कारण एक कोई छोटे से स्थान पर अगर कोई दु:ख होगा तो कालांतर से वह सब के लिये दु:खदायी होगा । यह बात अब विज्ञान भी मान्य कर रहा है । किसी एक रिमोट स्थान पर होनेवाली चहलपहल के परिणाम कालांतर से सर्वदूर प्रसारित होते हैँ।

 

सभी को वह  अंशत: या  पूर्णत:,  कभी  अधिक तीव्रता से तो कभी सहसा ध्यान में न आनेवाली सौम्यता से पर भुगतने तो पडते ही हैँ । इसलिये यह संपूर्ण विश्व एक लिविंग ऑर्गेनिझ्म है । आजकल विज्ञान में  भी यह परिभाषा प्रारंभ हुई है । हमलोग यह बात पहले से जानते हैँ । एक ही  चेतना से अनुप्राणित विश्व के यह  सभी व्यवहार चलते हैं । और  विश्व  को (एवरलास्टिंग, अनडिमिनिशिंग, फुल्ली सेटिसफाइंग ब्लिस ।) संपूर्ण,  शाश्वत, कभी  कम न होने वाले, अमर  सुख की कामना है । और यह सुख तभी मिलता है जब हम उस चेतना का  साक्षात्कार कर लेते हैँ । उस चेतना के  साथ  हम तन्मय होते हैँ । इसका कोई दूसरा उपाय नहीं है । कामपूर्ति और उसके कारण अर्थसाधन से समाधान नहीं मिलता है। और  समाधान नहीं तब तक  सुख  नहीं। न जातु कामकामानाम् उपभोगेन शाम्यते, हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय: एवाभीवर्धते ।

 

अपनी एक विशिष्ट दृष्टि है और उस दृष्टि के आधार पर हम लोगोँ ने एक जमाने में ऐसा विचार किया था कि जिसमें सर्व सत्ता परस्पर मिलीजुली रहे । समाज की सत्ता स्थापित करने के लिये व्यक्ति के अधिकारोँ का हनन आवश्यक नहीं है और व्यक्ति को सुखी  करने के लिये समाज को कुचलना आवश्यक नहीं है । और इन दोनों की प्रगति के लिये सृष्टि का विध्वंस करने की आवश्यकता नहीं है । अगर हम ऐसी स्थिति निर्माण करेंगे तो सुख मिलेगा अन्यथा हम विकास करेंगे और उत्तराखंड जैसी आपत्तियाँ आएगी। नये विकास से नयी समस्याएँ खडी होगी और वह इतनी विकराल होगी कि मनुष्य समाज किंकर्तव्यमूढ स्थिति में आ जाएगा । यह सब हम देख ही रहे हैँ । और इस लिये विकास की अपनी कोई दृष्टि हो सकती है क्या ? अपनी दृष्टि के आधार पर जिसे आज पूरा विश्व खोज  रहा  है ऐसा कोई आदर्श उदाहरण हम विश्व के सामने रख सकते हैं क्या ? कि जीवन का जरा इस  प्रकार विचार करते हुए अपनी नीतियाँ गढीये और अपनी चौखट बनाईये।

 

एकात्म मानव दर्शन जब पहली बार प्रकाश में आया, एकात्म मानवदर्शन यह कोई दीनदयालजी का रिसर्च नहीं है। दीनदयालजी की समालोचना है । अपनी यह जो जीवनदृष्टि है उस जीवनदृष्टि के आधार पर उन्होंने एक कालसुसंगत मंडन किया है । वर्तमान समय में करनेलायक एक विचार सब के सामने उन्होंने रखा है । प्रारंभिक काल में उसे एकात्म मानववाद कहते थे । पर बाद में  ध्यान में आया कि इस में वाद जैसा कुछ नहीं है । उसमें किसी के भी साथ विवाद नहीं है । एकात्म मानव दर्शन पढते समय उसमें गांधी भी दिखते हैं, डॉ. आंबेडकर भी दीख जाते हैं, विश्व के अन्यान्य विचारक भी  दिखते हैं । कहीं कहीं कार्ल मार्क्स भी दिख जाता है । यह विवाद का प्रश्न नहीं है । यह एक दृष्टि है । इस दृष्टि से पुनर्विचार कर हमें नीतियाँ बनानी पडेगी, कारण विश्व को अब एक नये तीसरे पर्याय की आवश्यकता है ।

 

जिसे  हम विकास या प्रगति कहते हैं उसका एक भिन्न अर्थ भी हो सकता है । मनुष्य दो पैरों पर चलता है, साइकल   चलाने लगता है । तो वह प्रगत हुआ । स्वचालित वाहन हो गया तो अधिक प्रगत हो गया । यह मनुष्य के लिये  ठीक है, पर सर्कस में हाथी फूटबॉल खेलते हैं, बंदर साइकल चलाता है । क्या उनके लिये यह प्रगति या विकास है ? निश्चित रूप से नहीं है । फिर अपनी प्रगति माने क्या है ? यह भी अपनी आकांक्षाएँ, अपने समाज की आवश्यकताएँ, प्राथमिकताएँ, उपलब्ध संसाधन तथा जीवनविषयक अपनी दृष्टि, इसी के आधार पर सब का लग अलग तय होगा । हमें भी स्वातंत्र्यप्राप्ति के बाद अपनी इस दृष्टि के आधार पर अपनी  समस्याओँ के  उत्तर देने वाला, जिसकी नींव डालना संभव है ऐसा, अपनी जीवनदृष्टि, स्वभाव, परंपरा इत्यादि के अनुकूल विकास संभव बनानेवाला कोई मार्ग खोजने की आवश्यकता थी । पर हमने ऐसा नहीं किया । हम भी  लंबक(पेण्डुलम)की  तरह इधर से उधर भटकते रहे । दुनिया की कोई व्यवस्था ढह गई तो हम वहाँ से वापस लौट गये । इसलिये  इसका मूलगामी विचार करने की आवश्यकता है। नहीं तो विश्व में अनेक प्रयोग चल रहे हैँ और ढह भी रहे हैँ ।

 

अब यह बात स्पष्टरूप में ध्यान में आई है कि अब तो अपनी दृष्टि बदल कर ही कोई नया तीसरा पर्याय खडा करना पडेगा । सौभाग्य से हमारे पास उस तीसरे विकल्प के लिये आवश्यक जीवनदर्शन उपलब्ध है । वह दर्शन  माने मात्र किसी ने देखा  और  हमने सुना ऐसा नहीं है । उसके आधार पर यहाँ वैभव सम्पन्न समाज जीवन चला है । समस्या मात्र यह है कि ऐसा वैभवसंपन्न जीवन चला वह कालखण्ड दो हजार वर्ष पूर्व का था । वर्तमान   आधुनिक काल में उन मूल्योँ के आधार पर चौखट कैसे खडी करना, नीतियाँ कैसे तय करना, इन नीतियोँ के अंतर्गत  कार्यक्रमोँ का क्रम क्या  होगा, इत्यादि विषयोँ का चिंतन करने की आवश्यकता रहेगी । एकत्म मानवदर्शन तो मात्र  प्रस्तावना थी ।

 

उसके उद्गाता पंडित दीनदयालजी तो हत्या के शिकार हो कर चले गये, इस कारण से उस समय  इसकी गति भी मंद हो गई । परंतु जैसे जैसे विश्व में इन  दोनोँ पद्धतियोँ के अपयश के विविध पहलु ध्यान में आने लगे वैसे वैसे  विचार करनेवालों को इसकी आवश्यकता की अधिक अनुभूति होने लगी । जैसे डॉ. दुभाषी ने कहा  उस प्रकार यह सब मात्र अभी तक मैं जो बोला हूँ उतना और ऐसा बोलने से नहीं चलेगा । अभी भी  उसके उपर  ठीक विस्तृत विचार करते हुए, एक चौखट, एक पथ, एक सोपानपरंपरा तैयार करनी पडेगी । और सब उपक्रम सोचने  पडेंगे । परंतु  उन बारिकीयोँ में तब जाएंगे जब कुछ कर दिखाना अपने हाथ में होगा । वह अभी से कहकर नहीं  चलता । इसलिये ऐसा चिंतन होना, और उसकी चौखट तथा सोपान क्या हो सकते हैं उस पर देशभर के संपूर्ण संवाद का मोटे तौर पर एक मत होना चाहिये । क्योँ कि  आखिर तो यह एक प्रक्रिया है । यह कोई निर्णय नहीं है । अब यह पुस्तक हो गई, पर यह निर्णय  नहीं है ।

 

इसके उपर संवाद, परिसंवाद होँगे, चर्चा होगी । खुलकर चर्चा होगी ।  इसकी  कुछ  बातोँ का पूर्णत: या अंशत: स्वीकार होगा उसी प्रकार अस्वीकार भी होगा । कुछ भी हो सकता है । और यह सब हो जाने के बाद भी इसको व्यवहार में लाते समय व्यवहार में लानेवाले कार्यकर्ताओँ के अनुभव में से इसका प्रत्यक्ष जो रूप चलेगा वह उस काल के लिये खडा रहेगा । समय बदलता है और बदलते समय के साथ यह सब बातें भी बदलनी पडती है । दृष्टि हमेशा वही रहती है। वह शाश्वत होती है ।

 

इसलिये नये समय के लिये  कालसुसंगत रचनाएँ हर बार नये से करनी पडती है । इस पुस्तक के लेखन का कारण भी यही है । क्यों कि दृष्टि के संदर्भ में मैं जो बोल रहा हूं उसके बारे में पुस्तक लिखने की आवश्यकता नहीं है इतनी बडी संख्या में ग्रंथ उपलब्ध  हैं । और यह विषय इतना सनातन है कि उस पर नई पुस्तक केवल नई पद्धति से विषयप्रस्तुति के रूप में हो  सकती है । पर उसे आधार बना कर सामयिक आवश्यकतानुसार आज के प्रश्नों का उत्तर देनेवाली रचना क्या हो  सकती है, उसकी चौखट कैसी बन सकती है, उसको व्यवहार में लाते समय उसका रास्ता क्या हो सकता है, समाज की मानसिकता बनाने से लेकर, प्रत्यक्ष चौखट के अनुसार कार्यारंभ कैसे संभव होगा, सोपान कैसे होँगे, मार्ग  कौनसा होगा, यह सब बातोँ का चिंतन होने की आवश्यकता है ।

 

यह चिंतन जब प्रारंभ हुआ तब मैं था । इन सब लोगोँ ने इकठ्ठा होकर यह प्रारंभ किया । तब ऐसा ध्यान में आया कि यह कोई 8-10 दिन बैठने से होनेवाला काम नहीं है । इसको कई वर्ष लगेंगे । और यह समझते हुए  कार्य शुरू हुआ । पूरा होगा कि नहीं यह मैं नहीं जानता था । तब अगर किसी ने पूछा होता कि आप तो इस  कार्यक्रम में गये थे, और भी इतने लोग थे । अब आगे क्या होगा ? तो  मैंने कहा होता कि पता नहीं क्या होगा । क्योँ की इस काम को लगकर करना पडता है, समय देना पडता है, दिमाग लगाना पडता है । परंतु इन मित्रोँ ने  यह सब परिश्रमपूर्वक किया । एक पांच-दस कदम आगे के लिये उनकी पुस्तक भी आई । पर यहाँ रुकने से काम नहीं  चलेगा । कारण यह कोई अंतिम नहीं है ।

 

जैसे श्री रवींद्र महाजन ने कहा उस प्रकार इस पर सब प्रकार के विचार  प्रकट होंगे और वे सब स्वागतयोग्य ही हैँ । ऊन सब विचारोँ पर चर्चा और उसके आधार पर नवीन संस्करण बनते  जाएंगे । यह सब मात्र यहीं होगा ऐसा नहीं है । मेरी जानकारी के अनुसार इस दिशा में काम करनेवाले देशभर में 15-20 गट हैँ । उन सब का भी कभी नेटवर्किंग करना पडेगा । मनुष्यजीवन  के जितने पहलु रहते हैं उनमें से  कुछ  पहलु अभी तक ध्यान में आये हैं पर अगर  इसके आधार पर नीतियाँ बनाना संभव बनानेवाली चौखट देनी है तो  इस के बारे में अधिक विस्तृत विचार करना पडेगा । और उसके आधार पर देश के सभी संवादों का एक मोटे तौर  पर समान अभिप्राय कि ठीक है, हमने अब इस दिशा में जाना चाहिये। ऐसी बौद्धिक हवा हमें तैयार करनी पडेगी। तब कहीं जाकर जिनके हाथ में  देश की नीतियाँ तय करने का काम होता है वे इसका संज्ञान लेंगे ।

 

यह काम बहुत लगकर करनेवाला काम है । पर इसका कोई विकल्प नहीं है । क्योँ कि दुनिया जिनसे परिचित है वह दो मार्ग मानो  कुंठित हो गये हैँ । और अब तो  परिस्थिति इतनी विचित्र हो गई है कि उन नामों की ही निरर्थकता सामने आ रही  है। केवल नाम रहे हैं, नाम के अनुसार बाकी कुछ नहीं रहा। जिसे पहले पूंजीवाद कहते थे वह वैसा पूंजीवाद नहीं  रहा और जिसे साम्यवाद कहते थे वह साम्यवाद नहीं रहा। दोनों प्रकार के देश एक दूसरे से कुछ अलग नहीं दीख रहे हैं । और उस कारण से उसपर चलने से मनुष्य का पूर्ण सुख प्राप्त  होगा कि नहीं या जितना सुख प्राप्त होगा  उससे अधिक समस्याएँ खडी  होगी ऐसी शंका आज लोगों के मन में खडी हो गई है । इस प्रश्न का उत्तर देने के  लिये अपने देश ने एक नया रास्ता विश्व को देना पडेगा । इस जिद्द से, मनोयोग से अनेक वर्ष परिश्रम के बाद  हमें यह चित्र देखने मिलेगा । जब मैं अनेक वर्ष कहता हूँ तब आगे सौ वर्ष नहीं लगेंगे यह निश्चित है कारण अन्य  दो मार्गों की विफलता विश्व के ध्यान में आ गई है। पूर्ण विफलता नहीं, सौ प्रतिशत निकम्मी कोई चीज नहीं होती  है।

 

मनुष्य काम करता है वह लाभ होने के कारण ही करता है । इस कारण से सभी में जो अच्छा है उसे लेते हुए, यह दृष्टि परिपूर्ण कर, अपनी दृष्टि के आधार पर क्या किया जा सकता है ? मुझे लगता है कि जब यहाँ दृष्टि का  विकास हुआ तब टेकनोलोजी की आज जो स्थिति है वह नहीं थी । आज नवीन प्रकार का विज्ञान और नवीन प्रकार  की टेकनोलोजी है । पहले एक  देश से दूसरे देश में जाने में अनेक वर्ष लग जाते थे,  आज मनुष्य तीन समय का भोजन तीन अन्यान्य देशों में कर सकता है ।

 

यह सब  बातें ध्यान में रखते हुए, विश्व के देशों में घटित घटनाओँ  के एकदूसरे पर होनेवाले परिणामों को ध्यान में रखकर, विभिन्न क्षेत्रोँ में बढी हुई और कहीं कहीं आकुंचित हुई   मनुष्य के ज्ञान की सीमाओँ का ध्यान रखते हुए इस जीवनदृष्टि के आधार पर एक नयी चौखट, नया पथ, नये सोपान, जीवन का एक नया मार्ग समग्र जगत को देने में हमें सफल होना है । वह मार्ग मात्र बौद्धिक दृष्टि से देकर चलेगा नहीं, उसके प्रयोग होना आवश्यक है । उसके लिये समाज मन जाग्रत होना चाहिये । उसको वह अनुभूति  होनी चाहिये ।

मात्र बौद्धिक प्रयास न करते हुए उसके साथ ही समाज को गढने के प्रयास और उसके साथ बौद्धिक  प्रयासों से निकला हुआ पाथेय है उसका उपयोग करते हुए प्रत्यक्ष योजना द्वारा लोगोँ  के जीवन में इस प्रकार का  सुख उत्पन्न करने के प्रत्यक्ष प्रयोग इत्यादि सब बातें जब साथ साथ चलेगी तब सकल विश्व के सामने सुखशांति  का एक नया मार्ग रखनेवाला भारत खडा रहेगा । परंतु इन सब उद्यम का प्रारंभ निश्चितरूप से इस चिंतन में से  ही है । और मेरा ऐसा अनुभव है कि समाज के अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं कि उन्हें जो कहा गया वह काम करने  को तैयार रहते हैं । पर क्या करना है उसका विचार करने को कहा तो नहीं करेंगे ।

 

वह चिंतन इत्यादि आप कीजिये,  हमें तो केवल क्या काम करना है यह बता दीजिये । चिंतन की क्षमता रखनेवाले लोग कम ही रहते हैं और ऐसे सब  लोगों ने अपने चिंतन को कार्यरूप देना चाहिये । उसकी आज आवश्यकता है । और इसलिये मेरा अभिप्राय है कि  यह पुस्तक का प्रकाशन होना बडा महत्त्वपूर्ण कार्य है। अन्य दस-पंद्रह केद्रोँ  में भी यह चिंतन हो रहा है । परंतु  मोटेतौर पर ऐसे कोई निष्कर्ष किसीने  निकाले नहीं है । वे भी अवश्य लाएंगे पर उस विषय में प्रथम स्थान निरंतर  सात-आठ वर्ष परिश्रम करते हुए श्री रवींद्र महाजन और उनके मित्रोँने प्राप्त कर लिया है यह एक अच्छा प्रारंभ है ।  

यह संवाद आगे भी चलना चाहिये । अधिक व्यापक होना चाहिये । जिन लोगों ने  यह संवाद चला रखा है ऐसे छोटे मोटे गुटों का नेटवर्किंग होना चाहिये और उसमें से एक ऐसा पाथेय सबको प्राप्त होना चाहिये जिसके आधार पर  वे  प्रयोग कर सके । और इस विषय के लिये समाज की मानसिकता तैयार कर सके । इस दृष्टि से यह जो उपक्रम शुरू   हुआ है और जिसका आज पहला फल प्राप्त हुआ है वह पूर्णत: सफल होने की  शुभकामना और आवश्यक सभी  प्रकार के सहयोग का मेरी ऑर से आश्वासन देते हुए मैं मेरी बात पूर्ण करता हूँ ।     

(पुणे में नेशनल पॉलिसी स्टडीज़ (इन द लीट ऑफएकात्म मानव दर्शन) के अवसर पर संघ प्रमुख माननीय श्री मोहन भागवत द्वारा दिए गए उद्वोधन के कुछ अंश)

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स्व. पटेल के परिवार का दावाः पटेल को लेकर मोदी ने जो कहा, सच ही कहा!

भले ही कांग्रेस नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सरदार पटेल की विरासत हथियाने का आरोप लगा रहे हैं पर सरदार पटेल के भाई के पोते का इससे पूरी तरह से सहमत नहीं हैं. वे नरेंद्र मोदी के इस बयान से सहमत हैं कि अगर सरदार पटेल पहले प्रधानमंत्री होते तो देश की तकदीर और तस्वीर कुछ अलग होती. सरदार पटेल के इस रिश्तेदार का यह भी कहना है कि अगर सरदार के अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश हो रही है तो अच्छा है.

सरदार पटेल के रिश्तेदार से आज तक की खास बातचीत के मुख्य अंश:  

इन दिनों सरदार पटेल को लेकर जिस तरह का राजनीतिक घमासान मचा है उसके बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? सरदार पटेल के नाम के बिना कोई कुछ बोल नहीं सकता है, सरदार के नाम के अलावा आज राजनीतिक पार्टियों के पास कोई विकल्प नहीं है. सरदार पटेल का मकसद देश की सेवा करना था. आज सेवा करने के लिये घमासान करते हैं लोग, लेकिन उन्हें पोस्ट चाहिये. तो क्या सेवा करने के लिये पोस्ट जरूरी है.  

मोदी ने कहा कि अगर पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो देश की तकदीर और तस्वीर अलग होती? बिल्कुल सही बात कही नरेंद्र भाई ने. क्यूंकि कश्मीर का विवाद अभी चल रहा है वो नही होता. चीन है, पाकिस्तान है, सबके साथ जो विवाद है वो नहीं होता.  सरदार के व्यक्तित्व में ऐसी क्या बात थी, जो सारे प्रश्नों को हल करने के लिये काफी थी? वो दूर का देख सकते थे. उनका मैनेजमेंट बहुत अच्छा था. कोई भी परेशानी हो वो बहुत अच्छी तरह से उसे मैनेज करते थे.  

सरदार अगर जिंदा होते तो देश कि तकदीर और तस्वीर कैसी होती?
देश में जो सांप्रदायिक समस्याएं है वो नहीं होती. सरदार पटेल सेकुलर थे. किसी भी धर्म के विरोध में नहीं थे. सब को बराबर मानते थे.  सरदार पटेल के परिवार से कोई भी व्यक्ति राजनीति में नहीं हैं? मेरे दादा ने मुझे बताया था कि सरदार ने उन्हें एक बार कहा था कि राजनीति में नहीं आना. शायद सरदार साहब को मालूम हो गया था कि आने वाले समय में किस प्रकार की राजनीति होगी.  सरदार की प्रतिमा का अनावरण करने वाले हैं नरेंद्र मोदी, आप क्या सोचते हैं?  
कोशिश कोई करता है तो क्या फर्क पड़ता है, और कोशिश करनी चाहिये.  मोदी सरदार के अधूरे काम को पूरा करने में लगे हैं? बोल नहीं सकता लेकिन अगर सरदार के अधूरे काम होते हैं तो अच्छा है.  सरदार के शब्दों का इस्तेमाल हर राजनीतिक पार्टी अपने फायदे के लिए करती है,
क्या आपको दुख होता है? बिल्‍कुल दुख होता है. पहले तो सरदार पटेल किसी भी पोस्ट के लिये काम नहीं करते थे. एक गांधीजी के कहने पर उन्होंने बड़ी से बड़ी पोस्ट को त्याग दिया था. अभी की राजनीति में क्या है कि किसी को देश की सेवा करनी है तो पद चाहिए, लेकिन अगर पोस्ट नहीं भी होती है तब भी देश की सेवा कर सकते हैं. एक पोस्ट के लिये इतना घमासान होता है मुझे दुख होता है.    

साभार-. http://aajtak.intoday.in/ से

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हिन्दू कालेज में राजेन्द्र यादव को श्रद्धांजलि

'हंस' के सम्पादक और प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव के असामयिक निधन पर हिन्दू कालेज के हिंदी विभाग द्वारा श्रद्धांजलि दी गई।  शोक सभा में विभाग के आचार्य डॉ रामेश्वर राय ने कहा कि स्त्री और दलित विमर्श की ज़मीन तैयार करने वाले साहसी सम्पादक और विख्यात लेखक का जाना असामयिक इसलिए लगता है कि उन्होंने अपने को अप्रासंगिक नहीं होने दिया था।  डॉ राय ने उनके उपन्यास 'सारा आकाश' को हिंदी रचनाशीलता के श्रेष्ठ उदाहरण के रूप ने रेखांकित करते हुए उनके अवदान की चर्चा भी की।  

वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ हरीन्द्र कुमार ने यादव के कहानी लेखन की चर्चा करते हुए 'जहां लक्ष्मी कैद है' और नयी कहानी आंदोलन में उनकी भूमिका के बारे में बताया।  विभाग की पत्रिका 'हस्ताक्षर' की सम्पादक डॉ रचना सिंह ने हस्ताक्षर में उनके साक्षात्कार के बारे में बताया और कहा कि अपने मत पर अडिग रहने वाले दूरदर्शी सम्पादक के रूप में यादव जी को याद किया जाता रहेगा। सभा में विभाग के प्रभारी डॉ विमलेन्दु तीर्थंकर ने कहा कि कहानी,उपन्यास और सम्पादन के साथ साथ यादव जी को हिंदी गद्य की उच्च स्तरीय समीक्षा के लिए भी याद किया जाता रहेगा।

डॉ. तीर्थंकर ने 'अठारह उपन्यास ' को उपन्यास आलोचना की श्रेष्ठ कृति बताया और कहा कि गद्य के लिए साहित्य में जैसा मोर्चा राजेंद्रा यादव ने लिया वह कोई साधारण बात नहीं है।  डॉ अरविन्द सम्बल और डॉ रविरंजन ने भी सभा में भागीदारी की।  संयोजन कर रहे हिंदी साहित्य सभा के परामर्शदाता डॉ पल्लव ने कहा कि पाखण्ड से भरे भारतीय जीवन में अपनी स्थापनाओं के लिए राजेन्द्र यादव को याद किया जाता रहेगा। उन्होंने कहा कि हंस के माध्यम से यादव जी ने अपने समय की सबसे प्रभावशाली और ईमानदार पत्रिका पाठकों को दी। अंत में सभी अध्यापकों और विद्यार्थियों ने दो मिनिट का मौन रख राजेन्द्र यादव के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त की।

 

संपर्क

रविरंजन

सहायक आचार्य

हिंदी विभाग

हिन्दू कालेज

दिल्ली

 

 

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डॉ. होमी भाभा वैज्ञानिक लेख प्रतियोगिता के लिए लेख आमंत्रित

मुम्बई। वर्ष 1974 में भारत के अंतिम राष्ट्रकवि स्व. रामधारी सिंह “दिनकर” द्वारा नामित हिन्दी विज्ञान साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका “वैज्ञानिक”, जिसका प्रकाशन हिन्दी विज्ञान साहित्य परिषद, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र द्वारा विगत 46 वर्षों से किया जाता है ।

इस पत्रिका को कई राज्यों द्वारा हिन्दी के जरनल की मान्यता दी गई है। इस पत्रिका द्वारा आयोजित “डॉ. होमी जहांगीर भाभा वैज्ञानिक लेख प्रतियोगिता – 2013” हेतु नवीनतम एवं मौलिक वैज्ञानिक लेख आमंत्रित हैं। जिसमें प्रथम पुरूस्कार 2000 रूपए हैं । सात अन्य पुरूस्कार हिन्दी भाषी एवं अहिन्दी भाषी लेख्कों को दिए जाते हैं।

अधिक जानकारी पत्रिका के व्यवस्थापक व संयोजक हास्यकवि विपुल लखनवी से 9969680093 या 025591154 पर ली जा सकती है। 

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साहित्यकार राजेंद्र यादव नहीं रहे

हिन्दी के प्रख्यात लेखक एवं हंस पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव का सोमवार रात को निधन हो गया। वह 84 वर्ष के थे। यादव की कल रात अचानक तबीयत खराब हो गई और उन्हें सांस लेने की तकलीफ होने लगी। उन्हें रात लगभग 11 बजे एक निजी अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उन्होंने रास्ते में ही दम तोड दिया। हिन्दी में दलित एवं विमर्श को नई दिशा देने वाले यादव के निधन से साहित्य एवं बौद्धिक जगत में शोक की लहर दौड गई है।

उनके परिवार में लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के अलावा एक बेटी रचना यादव हैं। उनके निधन से मोहन राकेश और कमलेश्वर के बाद नई कहानी आंदोलन का तीसरा एवं अंतिम स्तम्भ ढह गया है। यादव का अंतिम संस्कार दोपहर तीन बजे लोदी रोड स्थित शवदाह गृह में किया जाएगा। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जनसंस्कृति मंच जैसे अनेक संगठनों ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है और कहा कि हिन्दी साहित्य के बौद्धिक जगत में वंचितों को मुख्यधारा से जोडने वाला तथा धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील मूल्यों के लिए लडने वाला एक लोकतांत्रिक लेखक चला गया, जिसने युवा पीढी को हमेंशा अपनी पत्रिका हंस के माध्यम से आगे बढ़ाने का काम किया।

यादव के निधन पर शोक व्यक्त करने वालों में सर्व डा. नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, निर्मला जैन, रवीन्द्र कालिया जैसे अनेक लोग शामिल हैं।

28 अगस्त 1929 को आगरा में जन्मे यादव की गिनती चोटी के लेखकों में होती रही है। वह मुंशी प्रेमचंद की पत्रिका हंस का 1986 से संपादन करते रहे थे जो हिन्दी की सर्वाधिक चर्चित साहित्यिक पत्रिका मानी जाती है और इसके माध्यम से हिन्दी के नए लेखकों की एक नई पीढी भी सामने आई और इस पत्रिका ने दलित विमर्श को भी स्थापित किया।

राजेन्‍द्र यादव के प्रसिद्ध उपन्यास सारा आकाश पर बासु चटर्जी ने एक फिल्म भी बनाई थी। उनकी चर्चित रचनाओं में 'जहां लक्ष्मी कैद है', 'छोटे-छोटे ताजमहल', 'किनारे से किनारे तक', 'टूटना', 'ढोल', 'जैसे कहानी संग्रह' और 'उखडे हुये लोग', 'शह और मात', 'अनदेखे अनजान पुल' तथा 'कुलटा' जैसे उपन्यास भी शामिल है। उन्होंने अपनी पत्नी मन्नू भंडारी के साथ 'एक इंच मुस्कान' नामक उपन्यास भी लिखा है।

यादव ने विश्व प्रसिद्ध लेखक चेखोव तुर्गनेव और अल्वेयर कामो जैसे लेखकों की रचनाओं का भी अनुवाद किया था। यादव ने आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. किया था और वह कोलकता में भी काफी दिनों तक रहे। वह संयुक्त मोर्चा सरकार में प्रसार भारती के सदस्य भी बनाए गए थे। वह 1913 से दिल्ली में रह रहे थे और राजधानी की बौद्धिक जगत की एक प्रमुख हस्ती माने जाते थे।

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मिक्की वायरस [हिंदी]

दो टूक : जिन्दगी  कोई भरोसा नहीं . कब बैठे बिठाए आपको घुमाकर गुंजल में लपेट दे. बस इतनी सी बात कहती है निर्देशक सौरभ वर्मा की मनीष पॉल , एली अवराम , वरुण बडोला , मनीष चौधरी, पूजा गुप्ता , राघव कक्कर . विकेश कुमार और नितेश पांडे के अभिनय वाली फिल्म मिकी वायरस.

कहानी: फिल्म की कहानी  दिल्ली की एक कॉलोनी में रहने वाले सुस्त लेकिन वेबसाइट हेक करने वाले मिकी अरोड़ा (मनीष पॉल) की है . मिकी गजब का हैकर है लेकिन उसका ज्यादा समय  उसकी खास दोस्त चुटकी (पूजा गप्ता) के साथ  गुजरता है जो खुद भी साइट हैक करने में माहिर है ! मिकी के इस हैकर गैंग में प्रोफेसर नीतेश पांडे और फ्लॉपी (राघव कक्कड़) भी शामिल हैं। लेकिन मिकी की मुलाकात कामायनी (एली) से होती है तो सबकुछ बदलने लगता है .  

मिकी कामायनी को चाहने लगता है।पर उसकी इस बदलती जिन्दगी में बदलाव तब आता है जब  एसीपी सिद्धांत चौहान (मनीष चौधरी) उसके बारे में जान कर  उसे एक खुफिया मिशन पर अपने साथ लगाता है। चौहान और उसके सहायक इंस्पेक्टर देवेंद्र भल्ला (वरुण बडोला) के साथ मिकी इस खुफिया मिशन में शामिल होता है। साइबर क्राइम के दिग्गजों को धर दबोचने के लिए मिकी अब चौहान और इंस्पेक्टर भल्ला के साथ लग जाता है। पर इस इसी बीच कामायनी की हत्या हो जाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि कामायनी के हत्यारे के शक की सूई मिकी के आसपास घूमने लगती है और फिर शुरू होती है मिकी की खुद को बेकसूर साबित  करने  और हत्यारों को दबोचने की मुहीम की शुरुआत.

गीत संगीत : फिल्म में मनोज यादव . हनीफ शेख  और अरुण कुमार के गीत हैं और संगीत एगनल रोमन और हनीफ शेख का है . लेकिन फिल्म में ऐसा कोई गीत नहीं जिसे याद रखा जा सके . हाँ एक गीत कोई गारंटी नहीं, कोई वॉरंटी नहीं… प्यार चाइना का माल है जरुर सुना जा सकता है . ऐसी फिल्मों में गीत कहानी का संतुलन बिगाड़ देते हैं .

अभिनय : मिकी के चरित्र में में मनीष पॉल ने मेहनत की है . वो टीवी से फिल्मों में गए है तो उन्हें कुछ जयदा मेहनत करनी होगी पर वो निराश नहीं करते . हालांकि मध्यांतर के बाद जब उनपर कहानी का दबाव बढ़ता  है तो वो  सकपका जाते हैं लेकिन निराश नहीं करते   एसीपी चौहान बने मनीष चौधरी और इंस्पेक्टर देवेंद्र भल्ला के रोल में वरुण बडोला खूब जमे हैं। कामायनी बनी  एली को करने को कुछ खास नहीं मिला जबकि चुटकी के रोल में पूजा गुप्ता याद रहती है .फिल्म में काई छोटे छोटे पात्र हैं और उनमे राघव कक्कर , विकेश कुमार , नितेश पांडे और उत्पल आचार्य भी ठीक हैं.

निर्देशन : मिकी डोनर के बाद छोटे बजट की लेकिन विषयक फ्रिल्मों की जो शुरुआत हुई है उसने ऐसे विषयों के साथ बनी

हल्की-फुल्की और मजेदार  कॉमेडी के बावजूद अपने नए अर्थों को इंगित किया है . मिक्की बेशक कई जगहों पर धीमी गति और बोल्डनेस के साथ सामने आती है लेकिन वो बुरी नहीं है और अपने चुनिन्दा पात्रों के साथ हमसे जुडी रहती है . फिल्म में कई जगह ठहराव  है लेकिन वो एक नए अंदाज के साथ सामने आता है . फिल्म अंत में एक सन्देश के साथ पूरी होती है लेकिन उसे सही और कुछ अद्भुत विस्तार दिया सकता था.

फिल्म क्यों देखें : मनीष पॉल के लिए.

फिल्म क्यों न देखें . अगर इसे मिकी डोनर से जोड़ रहे हैं तो.

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महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में मिर्गी रोग अधिक

इंदौर। एपिलेप्सी यानी मिर्गी रोग बुजुर्गो या अधेड़ के मुकाबले युवा अवस्था में अधिक होता है। 30 वर्ष से कम आयु के युवा मिर्गी रोग का ज्यादा शिकार हो रहे हैं। इस बात का खुलासा इन्डियन एकेडमी ऑफ  न्यूरोलॉजी की वार्षिक कांफ्रेंस के तीसरे दिन एक शोध पत्र में किया गया। यह शोध 2011-12 में इंदौर के ही चोइथराम हॉस्पिटल सहित देशभर के 8 बड़े हॉस्पिटल में किया गया। इस शोध में मिर्गी रोगियों का डाटा एकत्रित किया है, जिसमें इंदौर के डॉ. जेएस कठपाल भी शामिल हैं।

पुरुषों में बीमारी अधिक
शोध देश के 8 बड़े शहरों जिसमें, केरल, मुंबई, कोलकाता, कोचिन, बेंगलुरू, इंदौर शामिल के चिकित्सा संस्थाओं में 8 डॉक्टर्स ने किया गया। इसमें 1 हजार 521 मरीजों शमिल किया गया था। जो नतीजे निकले वह चौंकाने वाले थे। मिर्गी रोग से पीड़ितों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 32.2 प्रतिशत थी, जबकि पुरुषों की संख्या 67.2 रही। इसी तरह 0-5 वर्ष की आयु वाले बच्चों में 25.4 प्रतिशत, 5-10 में 20.4 प्रतिशत, 11-15 में 19.2 प्रतिशत 16-20 में 10.9, 21-30 वर्ष की आयु में 12.62 प्रतिशत लोगों मे मिर्गी मरीज मिले। 40-50 वर्ष की उम्र के मात्र 3.5 प्रतिशत मिर्गी के मरीज मिले हैं। 50 से अधिक उम्र में मात्र 2 प्रतिशत मरीज ही मिले हैं। शोध के मुताबिक 30 वर्ष से कम आयु में मिर्गी होने की अधिक संभावना है, क्योंकि 88 प्रतिशत मरीज इस आयु वर्ग के मिले।

अन्य शोध-पत्र भी प्रस्तुत किए
सम्मेलन के तीसरे दिन ‘‘कम्बाईनिंग एन्टीपाईलेटिक ड्रग्स’’ पर डॉ. मार्टिन ब्रॉडी, ग्लासगो, ‘एनॉटॉमिकल कोरिलेट्स ऑफ एमिग्डाला हिप्पोकैम्पेक्टोमी’’ पर डॉ. अतुल गोयल, मुम्बई और ‘मेन्टल डिस्ऑर्डर’ पर न्यूज़ीलैंड के डॉ. बैरी स्नो ने विचार व्यक्त किए। इसके अलावा रिवर्सिबल सेरेब्रल वैसोकॉन्सट्रिक्टिव सिन्ड्रोम, सरदर्द, इन्टरवेन्षन ऑफ हेडेक, डिमेन्शिया, डिमाईलिनेटिंग डिज़ीज, आदि पर भी विभिन्न देशों से आए विद्वानों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए और इनके लिए उपलब्ध आधुनिक चिकित्सा विधियों पर चर्चा की।

कार्यशाला में न्यूक्लियर इमेजि़ंग, सीटी स्कैन, एमआरआई आदि डायग्नोसिस विधियों पर विस्तृत चर्चा हुई, जिसमें न्यूज़ीलैंड के डॉ. बैरी स्नो ने पीईटी इन मूवमेंट डिस्ऑर्डर और डॉ. रितु वर्मा ने डीईटी स्कैन इन मूवमेन्ट डिस्ऑर्डर को विस्तार से समझाया।

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म.प्र. चुनाव में बनते-बिगड़ते समीकरणः हारेंगे या हरायेंगे !

बात अजीब-सी है, लेकिन सच है. मामला मध्यप्रदेश भाजपा से सम्बन्धित है. विधानसभा चुनाव के महज तीन हफ्ते ही बचे हैं. लेकिन पार्टी में असंतोष, बगावत और विरोध अपने चरम पर है. भाजपा के नेता अपनी-अपनी दावेदारी के लिये नेताओं, खासकर प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर, संगठन महामंत्री अरविंद मेनन और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दरवाजों पर लगातार, अहर्निश दस्तक दे रहे हैं. वर्तमान विधायकों के विरोधी भी दल-बल के साथ अपना असंतोष व्यक्त कर रहे हैं. इस विरोध और असंतोष में अनुशासन और मर्यादा नदारद है. विधायकी का टिकट पाने के लिये दावेदार किसी भी हद तक जाने को तैयार है. भले ही दल में दलदल हो जाए, दल में दरार पड़ जाए. वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारू हैं.

 

इस बीच भाजपा ने अपने सारे नीति-नियमों को ताक पर रख एक ही कसौटी रखा है- टिकट उसे ही मिलेगा जो जीत सकेगा. अर्थात पार्टी की एकमात्र कसौटी है जिताउपन. हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता जरूर संतानमोह से ग्रस्त होकर धृतराष्ट की तरह व्यवहार कर रहे हैं. संगठन और विचारधारा पर उनका संतानमोह हावी हो गया है. इस मामले में कई नेता मानसिक संकीर्णताओं से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं. यह सच है कि पार्टी में सबकुछ तिकड़ी कहे जाने वाले चौहान, तोमर और मेनन के के ईर्द-गिर्द सिमट गया है. बाकि नेता या तो उपेक्षित हैं या असंतुष्ट. पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष साध्वी उमाश्री भारती की उपेक्षा और उनका संतोष भाजपा के लिये महँगा सिद्ध हो सकता है.

 

ऐसे ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और वर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा की उपेक्षा संगठन के नुकसान की कीमत पर की जा रही है. पार्टी में प्रदेशव्यापी असंतोष और बगावत को शांत करने के लिये पूर्व संगठन महामंत्री माखन सिंह चौहान और सहसंगठन मंत्री रहे भागवत शरण माथुर को मोर्चे पर लगाया गया है. लेकिन वे मोर्चे पर तब आये हैं जब समस्याएँ फ़ैल चुकी हैं. सच बात तो यह है कि उनके पास असंतोष और बगावत से निपटने के लिये न तो अधिकार है और ना ही कोई साजो-सामान! दोनों के मन में संगठन से बेदखली की टीस जरूर है. इस टीस को लेकर वे बगावत प्रबंधन में कितने सफल हो पायेंगे यह तो समय ही बताएगा. ऐसे ही उमाश्री भारती और प्रभात झा भी बहुत कुछ कर सकते हैं, बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन फिलहाल प्रदेश भाजपा उनको इसकी इजाजत नहीं देता. संभव है आने वाले दिनों में दोनों अपनी-अपनी शर्तों पर सक्रिय हों भी, लेकिन तब तक समय और परिस्थितियाँ उनकी जद से बाहर जा चुकी होंगी! तब वे चाहकर भी कुछ नहीं पायेंगे.

 

इन सबके बीच जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो है भाजपा प्रत्याशियों की दावेदारी. दावेदारों का हुजूम अपने-अपने क्षेत्रों को छोड़ भोपाल में भाजपा कार्यालय, प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बंगले पर नजरें गराए, डेरा डाले बैठा है. दावेदारों के समर्थक और विरोधी एक-दूसरे के आमने-सामने हैं. हर दावेदार स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को निकृष्ट सिद्ध करने में लगा है. हर दावेदार अपने को लायक और अन्य को नालायक बता रहा है. वर्तमान विधायकों और मंत्रियों में से अनेक के खिलाफ उनके क्षेत्र में हारने लायक माहौल तैयार है. मध्यप्रदेश भाजपा के लिये सबसे बड़ा खतरा विधायकों और मंत्रियों के प्रति पैदा हुई सत्ता-विरोधी भावना है. ऐसे तकरीबन ६०-७० विधायक हैं जिनका हारना तय है. पार्टी के तमाम सर्वे, संघ का फीडबैक, खुफिया और मीडिया रिपोर्ट इन विधायकों के खिलाफ है. यही कारण है की भाजपा के रणनीतिकारों ने इन विधायकों को टिकट न देने और किसी कारण से टिकट काटना संभव न होने पर क्षेत्र बदलने का नीतिगत फैसला किया है. लेकिन इस फैसले को लागू करने में पार्टी के प्रदेश और केन्द्रीय नेतृत्व को पसीना छूट रहा है.

 

ऐसे ५० से अधिक विधायकों को लेकर पार्टी की हालत यह हो गई है कि या तो हारेंगे या हराएंगे. मतलब साफ़ है पार्टी ने इन्हें टिकट दिया तो ये हार जायेंगे, अगर नहीं दिया तो ये हरा देंगे. पार्टी की स्थिति सांप-छछून्दर की हो गई है. ये हारने-हराने वाले पार्टी के गले में अटक गए हैं. भाजपा ने इसे ही "डैमेज-कंट्रोल" का नाम दिया है. भाजपा इसी डैमेज कंट्रोल में चोट खाये नेताओं को लगाने वाली है. भाजपा दोहरे संकट में है. जिस विधानसभा में जीत पक्की है वहाँ दावेदारों की संख्या परेशानी का सबब है. जहां वर्तमान विधायक की हालत पतली है, लेकिन नए चहरे को सफलता मिल सकती है, वहाँ विधायक अपनी दावेदारी छोडने को तैयार नहीं है. दावेदार धमकी, भयादोहन और विद्रोह की चाल चल रहे हैं. तवज्जो न दिए जाने से तिलमिलाए नेताओं ने अपने समर्थकों को त्रिदेव (शिव-मेनन-तोमर) की ओर हकाल दिया है. भाजपा का संगठन सबसे मजबूत है, लेकिन टिकट वितरण की गलत पद्धति के कारण जिले और संभाग का तंत्र फेल हो गया है. सारा दारोमदार त्रिदेव पर ही आ टिका है. केन्द्रीय नेतृत्व भी सांसत में है. विधानसभा का परिणाम, लोकसभा के परिणाम का निर्धारक होगा. अब मोदी का भविष्य शिवराज के भविष्य से जुड़ा है.    

 

 

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या २३० है. इसमें जनशक्ति पार्टी को मिलाकर भाजपा की संख्या १४३ है जो २००३ की विधानसभा के मुकाबले ३० कम है. इसी प्रकार मतों के प्रतिशत के मामले में २००३ और २००८ में ४.८६ प्रतिशत का अंतर हो गया. कांग्रेस की निष्क्रियता और अयोग्यता के बावजूद उसके मतों और सीटों में वृद्धि हुई. कांग्रेस की संख्या विधानसभा में ३८ से बढ़कर ७१ हो गई और मतों में .७९ प्रतिशत की बढोतरी हुई. मतलब साफ़ है कि भाजपा जनता का मन जीतने में असफल रही. २००३ में कांग्रेस को भाजपा की तुलना में १०.८९ प्रतिशत कम मत मिले थे.

 

जबकि २००८ में यह अंतर कम होकर ५.२४ प्रतिशत हो गया. मध्यप्रदेश भाजपा के सन्दर्भ में दो महत्वपूर्ण आंकड़े उल्लेखनीय हैं – २००३ के चुनाव में बसपा को ७.२६ प्रतिशत, जबकि २००८ में ८.९७ प्रतिशत मत मिले. बसपा की सीटें २ से बढ़कर ७ हो गईं. जबकि सपा के साथ उलटा हुआ. सपा को २००३ में ३.७१ प्रतिशत मत और ७ सीटें मिली थी जो घटकर २००८ में १.९९ प्रतिशत मत और १ सीट पर सिमट गई. भाजपा भले ही महत्त्व दे या न दे लेकिन उमाश्री भारती के नेतृत्व में बनी भाजश को २००८ के चुनाव में मिले ४.७१ प्रतिशत मत और ५ सीटों को नकारा नहीं जा सकता.

 

गौरतलब है कि भाजश के ये विजयी प्रत्याशी तब भाजपा और कांग्रेस दोनों को हरा कर विधानसभा की दहलीज तक पहुंचे थे. इसके अलावा पिछोर, टीकमगढ़, जतारा, चांदला, पवई, बोहरीबंद और मनासा ऐसे क्षेत्र थे जहां मामूली अंतर से भाजश की हार हुई थी. राजनीति का सामान्य तकाजा तो यही है कि भाजश के सभी विजयी और हारे, किन्तु दूसरे नंबर पर रहे प्रत्याशियों को पुन: उम्मीदवार बनाया जाए. लेकिन प्रदेश भाजपा नेतृत्व इस तकाजे को नजरअंदाज करता दिख रहा है.

 

लब्बोलुआब यह है कि भाजपा ने अपनी मनमर्जी की राजनीति के कारण एक तरफ जहाँ अपना वोटबैंक खोया है वहीं अनीति और अनियोजन के कारण बसपा और कांग्रेस को बढ़त बनाने का मौक़ा दिया है. बुंदेलखंड, विंध्यप्रदेश और ग्वालियर-चम्बल में उमा भारती का सुनियोजित उपयोग बसपा के बढते प्रभाव को रोक सकता था. लेकिन नेतृत्व की जिद्द, संगठन की उदासीनता और राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भाजश के नेताओं का विलय तो भाजपा में होने के बावजूद भाजश के मतदाताओं और समर्थकों का विलय नहीं हो पाया. वे अब भी अनिर्णय की स्थिति में हैं. प्रदेश भाजपा में मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया कि सभी नेता बौने हो गए. संगठन, विचारधारा और देश भी पीछे छूट गया. राजनीति में व्यक्ति का विकास आनुपातिक न हो तो ईर्ष्या, द्वेष, छल-प्रपंच और कटुता बढ़ती ही है.

 

नेता और नेता में, नेता और कार्यकर्ता में तथा कार्यकर्ता और कार्यकर्ता में एक निश्चित दूरी तो जायज है, लेकिन दूरी अगर नाजायज हो जाए तो उसके दुष्परिणाम होते ही हैं. भाजपा के नेता अपनी श्रेष्ठता का बखान करते हुए कहते है- भाजपा कार्यकर्ता आधारित पार्टी है, जबकि कांग्रेस नेता आधारित. भाजपा संगठन आधारित है, जबकि कांग्रेस सत्ता आधारित. भाजपा विचारधारा आधारित है, जबकि कांग्रेस विचारविहीन. भाजपा का कैडरबेस है, जबकि कांग्रेस कैडरलेस. कांग्रेस के लिए सत्ता साध्य है, जबकि भाजपा के लिये साधन. कांग्रेस में एकानुवर्ती संगठन संचालन है, भाजपा अनेकानुवर्ती, अर्थात लोकतांत्रिक है. भाजपा में व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से बड़ा देश, जबकि कांग्रेस में इसका उलटा है. ऐसे अनेक विशेषण हैं जिनका उल्लेख कर भाजपा स्वयं को अन्य दलों, खासकर कांग्रेस से भिन्न बताती रही है. लेकिन जब इन कसौटियों पर राजनीतिक दलों की तुलना की जाती है तो अंतर शून्य मिलता है. यह एक बड़ा कारण है जो भाजपा के मतों और सीटों में वृद्धि को स्थायित्व नहीं देता.

 

अब जबकि पांच राज्यों में विधानसभा का चुनाव सर पर है, और इसके परिणामों के आधार पर लोकसभा का चुनाव लड़ा जाना है. देश की जनता सचमुच कांग्रेस से ऊब गई है, उसके विरोध में है. लेकिन कांग्रेस से ऊब और उसके विरोध का मतलब भाजपा का समर्थन नहीं हो सकता. भाजपा को परेशान, त्रस्त, असंतुष्ट, दुखी और आक्रोशित जनता का समर्थन पाने के लिये सुपात्र बनना होगा. इसके लिये एक समग्र नीति-रणनीति और योजना की जरूरत होगी.

 

इन योजनाओं को लागू करने के लिये सुयोग्य, सक्षम, सरल, सहज, सुलभ, शांत, संयमित, सहिष्णु, सजग और सक्रिय नेताओं-कार्यकर्ताओं का होना जरूरी है. वांछित सफलता के लिये यह जरूरी है की नेताओं-कार्यकर्ताओं के द्वारा ईमानदार प्रयास किया जाए. लेकिन फिलहाल मध्यप्रदेश भाजपा में यह सब होता हुआ नहीं दिख रहा. विरोध, विवाद और असंतोष को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कहकर नजरअंदाज किया जा रहा है. सरेआम लोकतांत्रिक प्रक्रिया को महज औपचारिकता कह कर मजाक बनाया जा रहा है. यह सब अशुभ लक्षण हैं. अशुभ लक्षण, शुभ परिणाम नहीं दे सकते. भाजपा नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस का जनाधार हो न हो, देशभर में उसका आधार पुराना है. बुरी-से बुरी स्थिति में वह भाजपा से उत्तराखंड, कर्नाटक और हिमाचल की सत्ता ले चुकी है. जर्जर स्थिति में भी पिछले १० सालों से देश पर शासन कर रही है. मध्यप्रदेश सहित, छात्तीसगढ़, राजस्थान दिल्ली और मिजोरम में वह सत्ता से बहुत दूर नहीं है. राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में तो वे पहले से ही सत्ता में है.

 

वक्त भले ही कम हो, लेकिन भाजपा के पास कार्यकर्ताओं, शुभचिंतक संगठनों और समर्थकों की संख्या आज भी ज्यादा है. बेहतर समन्वय और सद्भाव का लाभ भाजपा को मिल सकता है. लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ होता हुआ नहीं दिख रहा. कांग्रेस के लिये यह फायदे की स्थिति है. अगर मध्यप्रदेश की बात है तो कांग्रेस गत चुनाव से इस बार बेहतर तैयारी में है. वहाँ नेताओं में फूट भले हो, लेकिन उनके कार्यकर्ता अपेक्षाकृत अधिक अनुशासित और उत्साहित हैं. भाजपा में उठे असंतोष के उबाल का लाभ भी कांग्रेस को ही मिलेगा. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की निष्क्रियता और नकारात्मक सक्रियता कांग्रेस के लिये वरदान साबित होगी. कांग्रेस और बसपा का प्रत्यक्ष-परोक्ष समझौता भाजपा की सत्ता संभावनाओं पर पानी फेर सकता है.

मध्यप्रदेश में नई सरकार के गठन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. नामांकन की अंतिम तिथि ८ नवंबर है. मतदान २५ नवंबर को होगा. ८ नवंबर को मतगणना और १२ के पहले सरकार का गठन होना तय है. इस कम समय में भाजपा के लिये नया राजनीतिक इतिहास रचने की चुनौती है. कांग्रेस अपनी खोई सत्ता पाने की जद्दोजहद कर रही है. सफल वही होगा जो जन-मन को जीत पायेगा. जन-मन पल-पल बदला रहा है. कुशल रणनीति और सफल क्रियान्वयन से ही सफलता सुनिश्चित होगी. इतिहास ने पछताने का मौक़ा खूब दिया है. इतिहास वही बदल पाता है जो इन पछताने के अवसरों से सीख लेता है.

 

(लेखक मीडिया एक्टिविस्ट और स्टेट न्यूज टीवी के सलाहकार संपादक है.)   

 

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कमला गोइन्का फाउंडेशन की ओर से राजस्थानी साहित्य पुरस्कार समारोह

डॉ मंगत बादल की अध्यक्षता में हुआ कमला गोइन्का फाउंडेशन की ओर से राजस्थानी साहित्य पुरस्कार समारोह आयोजित, ‘अशांत’ को एक लाख ग्यारह हजार रुपए का मातुश्री कमला गोइन्का राजस्थानी साहित्य पुरस्कार, पंवार, गोयल व मेनारिया भी हुए सम्मानित, 31 हजार रुपए के राजस्थानी महिला लेखन पुरस्कार की घोषणा

साहित्य अकादेमी अवार्ड से पुरस्कृत राजस्थानी के मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. आईदान सिंह भाटी ने कहा है कि वर्तमान समय में समाज व संस्कृति पर जो आक्रमण व अतिक्रमण हो रहे हैं, भाषा ही उनसे मुकाबला कर सकती है। भाषा व साहित्य के माध्यम से ही संस्कृति जीवित रहती है।

     

डॉ. भाटी रविवार शाम शहर के मातुश्री कमला गोइन्का टाऊन हॉल में आयोजित राजस्थानी साहित्य पुरस्कार वितरण समारोह में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि राजस्थानी दुनिया की सशक्त भाषाओं में से एक है और इसकी ध्वन्यात्मकता और नाद-सौंदर्य इसे एक अग्रणी भाषा के रूप में स्थापित करते हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थानी के युवा लेखकों में अपार संभावनाएं हैं और इन्हें देखकर कहा जा सकता है कि राजस्थानी भाषा और साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है।

     

समारोह की अध्यक्षता करते हुए राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मंगत बादल ने कहा कि जो लोग राजस्थानी भाषा के स्वरूप और मान्यता आंदोलन पर सवाल उठाते हैं, उन्हें किसी भाषा से कोई मतलब नहीं और केवल अपनी रोटियां सेंकनी है। उन्होंने युवा लेखकों का आह्वान किया कि कविता-कहानी से इतर दूसरी विधाओं में भी कलम चलाएं और कम से कम एकाध पुस्तकों के अनुवाद अवश्य करें। अनुवाद से हमें पता चलता है कि एक भाषा के रूप में हम कहां खड़े हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थानी की मान्यता का सवाल यहां के लोगों के वजूद और उनके पेट से जुड़ा सवाल है और सबको एकजुट होकर इस दिशा में प्रयास करने चाहिए।

     

एक लाख ग्यारह हजार के मातुश्री कमला गोइन्का राजस्थानी साहित्य पुरस्कार से पुरस्कृत राजस्थानी साहित्यकार बी एल माली ‘अशांत’ ने कहा कि राजस्थानी भाषा का सवाल यहां के लोगों के रोजगार से जुड़ा मसला है और मान्यता मिलने पर प्रदेश के लोगों को नौकरियों में अपना वाजिब हक मिल सकेगा। उन्होंने कहा कि राजस्थानी एक वैदिक और ऋषि-मुनियों की भाषा है और इस भाषा में अकूत साहित्य का सृजन हुआ है।

रावत सारस्वत पत्राकारिता पुरस्कार से सम्मानित कुरजां पत्रिका के संपादक जमशेदपुर के डॉ. मनोहर लाल गोयल ने पत्राकारिता उनके लिए कोई पेशा नहीं अपितु एक जुनून है और मातृभूमि राजस्थान उनके लिए किसी भी तीर्थ से बढकर है। गोइन्का राजस्थानी साहित्य सारस्वत सम्मान से सम्मानित चूरू के वयोवृद्ध साहित्यकार बैजनाथ पंवार ने कहा कि राजस्थानी भाषा की मान्यता की बात जब किसी के भी मुंह से वे सुनते हैं तो उनमें एक ऊर्जा सी भर जाती है।

     

किशोर कल्पनाकांत युवा पुरस्कार से सम्मानित उदयपुर री रीना मेनारिया ने कहा कि यह केवल उनका नहीं अपितु पूरे मेवाड़ का सम्मान है और इस पुरस्कार से मिली जिम्मेदारी को वे राजस्थानी में अधिक बेहतर सृजन कर निभाने का प्रयास करेंगी।

आयोजक कमला गोइन्का फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी श्यामसुंदर गोइन्का ने आयोजन की रूपरेखा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि साहित्यिक राजनीति, गुटबंदी और खेमेबाजियों से इतर साहित्यिक क्षेत्रा में ईमानदारी से काम करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित करने का यह उनका एक विनम्र प्रयास है। फाउंडेशन की ललिता गोइन्का ने स्वागत किया। श्यामसुंदर शर्मा ने आभार जताया। इससे पूर्व कैलाश जाटवाला, माधव शर्मा, दुलाराम सहारण, कमल शर्मा आदि ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम के दौरान डॉ एल एन आर्य, हनुमान कोठारी, डॉ रामकुमार घोटड़, उम्मेद गोठवाल, उम्मेद धानियां, देवेंद्र जोशी, शोभाराम बणीरोत, बसंत शर्मा सहित बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी, पत्राकार व नागरिक मौजूद थे। संचालन सरोज हारित ने किया।

     

अशांत को एक लाख ग्यारह हजार का पुरस्कार: कार्यक्रम के दौरान राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के लिए अब तक उद्घोषित पुरस्कारों में सर्वाधिक राशि एक लाख ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह रुपए का मातुश्री कमला गोइन्का राजस्थानी साहित्य पुरस्कार वर्ष 2013 के लिए मूर्धन्य राजस्थानी साहित्यकार बीएल माली ‘अशांत’  को उनकी पुस्तक ‘बुरीगार नजर’ एवं उनकी समग्र साहित्य साधना के लिए दिया गया। वरिष्ठ साहित्यकार बैजनाथ पंवार को गोइन्का राजस्थानी साहित्य सारस्वत सम्मान, कुरजां के संपादक डॉ मनोहर लाल गोयल को ‘रावत सारस्वत पत्राकारिता सम्मान’ तथा उदयपुर की रीना मेनारिया को उनकी पांडुलिपि ‘तकदीर रा आंक’ के लिए ‘किशोर कल्पनाकांत युवा साहित्यकार

 

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ये लड़ाई पैसे के लिए नहीं थी, 6 करोड़ तो मुकदमेबाजी में ही खर्च हो गए!

चिकित्सीय लापरवाही के एक मामले में लगभग छह करोड़ रुपये का मुआवज़ा पाने वाले कुणाल साहा का कहना है कि उनकी लड़ाई कभी भी पैसे के लिए नहीं थी.  अमरीका में रहने वाले भारतीय मूल के डॉक्टर साहा का कहना है कि ये लड़ाई भारत में चिकित्सीय लापरवाही के हालात के खिलाफ़ थी जिसके फ़ैसले से आने वाले समय में कई लोगों की जान बच सकेगी.

 

उन्होंने साल 1998 में अपनी पत्नी की भारत के एक अस्पताल में मौत होने के बाद उस अस्पताल पर लापरवाही का मुक़दमा किया था.  गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फ़ैसला देते हुए अस्पताल को आदेश दिया कि वो डॉक्टर साहा को क़रीब छह करोड़ रुपये बतौर मुआवज़ा दे.

 

अमरीका के ओहायो राज्य के कोलंबस शहर से बीबीसी के साथ ख़ास बातचीत में डॉक्टर कुणाल साहा ने कहा, "मैं मुआवज़े की राशि को लेकर ख़ुश नहीं हूं क्योंकि ये लड़ाई कभी पैसे के लिए नहीं थी. ये लड़ाई भारत में चिकित्सीय लापरवाही के हालात के ख़िलाफ़ थी."  मामला  डॉक्टर साहा की पत्नी डॉक्टर अनुराधा साहा साल 1998 में भारत आई थीं जहां त्वचा से जुड़ी एक असाधारण बीमारी के लिए इलाज के लिए उन्हें कोलकाता के एडवांस मेडिकेयर रिसर्च इंस्टिट्यूट, एएमआरआई, अस्पताल में भर्ती कराया गया.  एएमआरआई में इलाज के बाद अनुराधा साहा की हालत बिगड़ने पर उन्हें मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में स्थानांतरित किया गया था जहां टॉक्सिक एपिडर्मल नेक्रोलिसिस (एनइटी) से उनकी मौत हो गई.

 

पत्नी की मौत के बाद कुणाल साहा ने अस्पताल के ख़िलाफ़ लापरवाही का मुक़दमा किया था.  "ये लड़ाई कभी पैसे के लिए नहीं थी. ये लड़ाई भारत में चिकित्सीय लापरवाही के हालात के ख़िलाफ़ थी. इस फ़ैसले का असर भारत की चिकित्सा प्रणाली पर पड़ेगा और इससे आने वाले समय में बहुत सी जाने बच सकेंगी." डॉ़क्टर कुणाल साहा  साल 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने एएसआरआई को मेडिकल लापरवाही का दोषी पाया था और इस मामले को नेशनल कंस्यूमर डिसप्यूट रिड्रेसल कमीशन को रेफर किया गया था जिसने मुआवज़े की राशि 1.7 करोड़ तय की थी. लेकिन डॉक्टर साहा को नामंज़ूर थी और उन्होंने मुआवज़े की राशि बढ़ाने के लिए अदालत में अपील की थी.

 

डॉक्टर साहा ने बताया कि उन्होंने 77 करोड़ रुपये का दावा किया था और पिछले 15 साल में इस लड़ाई को लड़ने के लिए उन्होंने ख़ुद पांच-छह करोड़ रुपये खर्च किए हैं.  सिस्टम को बदलने की ज़रूरत  उन्होंने कहा, "आज से 15 साल पहले अनुराधा की मौत हुई थी लेकिन ऐसी और बहुत अनुराधा आज भी भारत में मर रही हैं. आज जो ये फ़ैसला आया है इसका असर भारत की चिकित्सा प्रणाली पर पड़ेगा और इससे आने वाले समय में बहुत सी जाने बच सकेंगी."

 

ओहायो स्टेट युनिवर्सिटी में एड्स के एक बड़े रिसर्चर डॉक्टर कुणाल साहा ने एएमआरआई के तीन डॉक्टरों के ख़िलाफ़ मामले भी दर्ज करवाए थे जो अनकी पत्नी के इलाज से जुड़े हुए थे. इस मामले में 17 डॉक्टरों की अदालत में पेशी हुई थी.  लेकिन इसके बावजूद वो कहते हैं कि वो डॉक्टरों के ख़िलाफ़ नहीं हैं.  

 

डॉक्टर अनुराधा साहा साल 1998 में भारत आई थीं जहां त्वचा से जुड़ी एक असाधारण बीमारी में उनकी मौत हो गई थी. डॉ़क्टर साहा ने कहा, "मैं डॉक्टरों के खिलाफ़ नहीं हूं. मैं ख़ुद भी डॉक्टर हूं और मेरे बहुत से दोस्त और परिवार में डॉक्टर हैं. लेकिन हमारे समाज में आज जैसे डॉक्टरी हो रही है, मेडिसिन एक व्यापार हो गया है, ये ठीक नहीं है."  उनका ये भी आरोप है कि भारत में पैसा देकर मेडिसिन की डिग्री खरीदी जा सकती है.

 

उन्होंने कहा, "मेरे पिता भी डॉक्टर थे. मैंने देखा था कि उन्हें कितनी इज़्ज़त मिलती है. लेकिन आज ये इज़्ज़त कहां हैं? मेडिसिन में जो शीर्ष पर हैं वो अपनी जानकारी और इल्म की वजह से नहीं बल्कि राजनीति करने और पैसा देने से बनते हैं. आज भारत में पैसा देकर एमबीबीएस की डिग्री भी खरीदी जा सकती है. ऐसे लोग कैसे डॉक्टर बनेंगे?"  डॉक्टर साहा का कहना है कि इस सिस्टम को बंद करना पड़ेगा और इसके लिए अच्छे डॉ़क्टरों को सामने आना होगा. वे मानते हैं कि उनके मामले में दिए गए फ़ैसले से डॉक्टरों में थोड़ा डर पैदा होगा जिससे इस तरह के हालात की रोकथाम में मदद मिलेगी.  डॉक्टर कुणाल साहा का कहना है कि ये लड़ाई उनके लिए आसान नहीं रही है. लेकिन उन्होंने ऐसा किया क्योंकि ये काम एक पूरी पीढ़ी के लिए है और इंसान की जान बचाने के लिए है.

 

वो कहते हैं कि उनकी पत्नी उनके लिए आज भी ज़िंदा हैं.  पेशे से बच्चों की डॉक्टर रहीं अनुराधा साहा की मौत के बाद से ही उनके पति मेडिकल लापरवाही के मामलों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. उन्होंने ‘पीपल फ़ॉर बेटर ट्रीटमेंट’ नाम की एक संस्था बनाई और मेडिकल लापरवाहियों के खिलाफ आवाज़ और बुलंद की.  क्या अप्रवासी भारतीय या एनआरआई होने की वजह से उन्हें कुछ फ़ायदा हुआ?  डॉक्टर साहा कहते हैं कि इस बात का फ़ायदा और नुकसान दोनों ही रहे.  वे कहते हैं, "इन सालों में मुझे भारत के कई चक्कर लगाने पड़े. अपना काम छोड़कर कोई 50-60 बार भारत आना पड़ा जो कि बहुत मुश्किल था. हां, लेकिन एनआरआई होने की वजह से मैं इतना ख़र्च कर सकता हूं जो एक आम भारतीय नहीं कर सकता था. इसलिए इस सिस्टम को बदलना ही होगा."

डॉ. कुणाल साहा द्वारा देश के आम मरीजों कि लिए बनाई गई वेब साईट http://pbtindia.com/

साभार-बीबीसी हिन्दी से

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