भारत के विभिन्न हिस्सों में १९४७ से पहले अलग अलग प्रकार की शासन व्यवस्थाएँ प्रचलित थीं । कुछ हिस्सों में , जिसे उन दिनों ब्रिटिश भारत कहा जाता था , शासन व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम १९३५ के तहत चलती थी । उन हिस्सों में जिन्हें "भारतीय रियासतें " कहा जाता था , वहाँ शासन व्यवस्था की आनुवांशिक पद्धति थी । इन भारतीय रियासतों में भी कुछ स्थानों पर आंशिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था भी प्रचलित थी । रियासतों से भी ब्रिटिश सरकार की भी कुछ सन्धियाँ थीं , जिनके अनुसार ब्रिटिश सरकार की भी यहाँ की शासन व्यवस्था में कुछ दख़लन्दाज़ी थी । लेकिन १५ अगस्त १९४७ के बाद ब्रिटिश सरकार की ब्रिटिश भारत से भी सत्ता समाप्त हो गई और भारतीय रियासतों से सन्धियाँ भी समाप्त हो गईं । उसके बाद पूरे भारत में एक प्रकार की ही शासन पद्धति स्थापित करने के प्रयास शुरु हो गये । भारतीय रियासतें और ब्रिटिश भारत के प्रान्त सभी एक साथ संविधान सभा में पूरे भारत के लिये एक संविधान बनाने के लिये एकजुट हुये । इस एकजुटता को ही वैधानिक भाषा में रियासतों का भारत में विलय कहा गया ।
ज़ाहिर है नई शासन व्यवस्था और पुरानी शासन व्यवस्था में कुछ काल के बाद तुलना की जाये । यदि यह तुलना अकादमिक दृष्टि से या फिर प्रशासन को बेहतर बनाने के लिये की जाये तो इस पर किसी को एतराज़ नहीं हो सकता । लेकिन जम्मू कश्मीर में , जिस प्रकार वहाँ के पूर्व शासक महाराजा हरि सिंह की , नकारात्मक छवि बनाने का प्रयास किया जा रहा है , उससे इस विषय में किये जा रहे अधिकांश अध्ययन पूर्वाग्रह ग्रस्त होते जा रहे हैं । इन पूर्वाग्रहों के कारण उन के शासन काल को इतिहास का काला अध्याय कहा जा रहा है । अत: उनके शासन काल का निष्पक्ष अध्ययन और भी ज़रुरी हो गया है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये की महाराजा अपने राज्य को जिस जनकल्याणकारी अवधारणा के अनुसार ढालना चाहते थे , उसमें ब्रिटिश सरकार भी अडंगे लगाती रहती थी । अंग्रेज़ों को लगता था कि भारतीय रियासतों का प्रशासन यदि बेहतर हो गया , तो लोग उसकी तुलना अन्य प्रान्तों , जो ब्रिटिश सरकार द्वारा शासित थे , से करने लगेंगे । हिन्दी के एक प्रसिद्ध उपन्यास , कथा सतीसर , का एक पात्र कहता है,"महाराजा हरि सिंह का प्रशासन प्रगतिशील प्रशासन के तौर पर याद किया जाता है । वे अपनी प्रजा के लिये और भी कितना कुछ करना चाहते थे , लेकिन"महाराजा के ऊपर यह जो ललमुंहा रेज़ीडेंट रहता है ,न रहता , तो राजा अपनी प्रजा के लिये क्या न करता—-।" ( कथा सतीसर ३६६)
जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का शासन काल प्रगतिवादी और जनकल्याणकारी ही कहा जा सकता है , विशेष कर यदि उसकी तुलना उस समय की अन्य रियासतों के शासन से की जाये । राज्य के सामाजिक उत्थान , शैक्षिक विकास , औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान है।
१ वेश्यावृत्ति पर प्रतिबन्ध– वेश्यावृत्ति शायद ऐसा पेशा है , जिसका उल्लेख मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मिलना शुरु हो जाता है । राजशाही सरकारों में तो वेश्यावृत्ति को कहीं कहीं राज्यश्रय भी प्राप्त होता था । क्योंकि अनेक राजा व्यसनी और चरित्रहीन प्रकार के होते थे । लेकिन महाराजा हरि सिंह रियासतों में से शायद पहले ऐसे शासक थे , जिन्हेंने अपने राज्य से वेश्यावृत्ति को समाप्त करने का निश्चय किया । उन्होंने १९२५ में राज्य सत्ता संभालते ही वेश्यावृत्ति को राज्य भर में प्रतिबन्धित कर दिया था । दंड संहिता में इस बात का प्रावधान किया गया कि नाबालिग़ लड़की से यौन सम्बध बनाना , चाहे ये सम्बध नाबालिग की इच्छा से ही क्यों न बनाये गये हों , दंडनीय अपराध माना जायेगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये रणवीर दंड संहिता की धारा २७२,२७८और २७९ को संशोधित भी किया गया।
२ बाल विवाह पर रोक — बाल विवाह भी इस देश में पुराने काल से प्रचलित है । यह प्रथा भारतीय समाज के भीतर कैंसर के समान फैली हुई है । अभी , जब प्रगति और शिक्षा प्रसार की इतनी बातें की जाती हैं , बाल विवाह को पूरी तरह रोका नहीं जा सका है । राजस्थान में अक्षय तीज के अवसर पर हजारों की संख्या में बाल विवाह होते हैं । जम्मू कश्मीर भी शेष देश की तरह इस बीमारी का शिकार था । बाल विवाह से लड़कियों की जिन्दगियां तबाह हो रहीं थीं । बाल विवाह के उपरान्त किसी छोटी बच्ची के पति की यदि किसी वजह से मृत्यु हो जाती थी , तो वह वेचारी सारी उम्र विधवा का जीवन जीने के लिये अभिशप्त हो जाती थी । १९२८ में महाराजा हरि सिंह ने बाल विवाह को अपराध घोषित कर दिया । नये नियमों के अनुसार विवाह के लिये कन्या की उम्र १४ और वर की १८ साल निर्धारित की गई । बाद में इसमें भी संशोधन करके यह उम्र कन्या के लिये १६ साल और वर के लिये २१ साल निर्धारित कर दी गई ।
परम्परागत समाज ने इस का बहुत विरोध किया , लेकिन महाराजा टस से मस नहीं हुये । डोगरी की प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मा सचदेव के ही एक पात्र के शब्दों में,"पहले तो थाली में लिटाकर लड़की ब्याह दी जाती थी , दूल्हा भी दो तीन साल का रहता था । फिर महाराजा हरि सिंह ने क़ानून बनाया कि लड़की चौदह की और लड़का अठारह का होने पर ही शादी होनी चाहिये । (जम्मू जो कभी शहर था १००)
स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना– राज्य में निष्पक्ष न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये १९२८ में ही महाराजा हरि सिंह ने उच्च न्यायालय की स्थापना की । भारतीय रियासतों में शायद यह पहली रियासत थी , जिसने अपने राज्य में उच्च न्यायालय की स्थापना की थी । महाराजा की न्यायप्रियता का एक उदाहरण देना समुचित होगा । जम्मू के कर्ण नगर में स्वर्गीय राम नाथ शास्त्री के पिता शम्भू नाथ ने ज़मीन ख़ाली करने से इन्कार कर दिया । शासन ने सार्वजनिक हित के लिये इस जमीन का अधिग्रहण किया था । बाक़ी निवासियों ने ज़मीन ख़ाली कर दी थी । शास्त्री के पिता इस राजाज्ञा के खिलाफ महाराजा के खिलाफ मुकद्दमा करना चाहते थे । लेकिन न्यायालय भला महाराजा के खिलाफ अभियोग कैसे सुन सकता था ? महाराजा ने अपने खिलाफ यह मुकद्दमा दर्ज करने की अनुमति ही नहीं दी बल्कि अपना पक्ष स्वयं न्यायालय में उपस्थित किया । महाराजा यह मुकद्दमा हार गये , लेकिन उन्होंने राज्य में न्यायप्रियता और निष्पक्षता की नई मिसाल क़ायम कर दी ।
(Excelsior 23/9/2013/J.P.Singh retired col)
दरअसल किसी भी राज्य की प्रशासनिक श्रेष्ठता की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि उसकी न्यायपालिका कितनी निष्पक्ष है । रियासतों में जहाँ सब कुछ राजा की भृकुटी पर ही निर्भर करता था और वहाँ प्रशासन में शक्तियों के विभाजन की कल्पना करना भी कठिन था , वहीं महाराजा हरि सिंहने पिछली सदी के दूसरे दशक में ही उच्च न्यायालय की स्थापना करके स्वतंत्र न्यायपालिका की दिशा में एक नई शुरुआत की ।
जाति आधारित भेदभाव समाप्त– महाराजा हरि सिंह ने राज्य के सभी मंदिर हरिजनों के लिये भी खोल दिये । शुरु में ब्राह्मणों ने इस का विरोध किया , लेकिन महाराजा ने इसकी चिन्ता नहीं की । ३१ अक्तूबर १९३२ (१९३१?) को हरिजनों के लिये भी मंदिर प्रवेश की अनुमति दिये जाने के विरोध में जम्मू के रघुनाथ मंदिर के पुजारियों ने त्यागपत्र दे दिये । लेकिन महाराजा अपने निर्णय पर अडिग रहे । सभी सार्वजनिक स्थानों यथा विद्यालयों ,मंदिरों , कुओं में दलितों को जाने का अधिकार मिला ।
१९३१ में लंदन में गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिये महाराजा हरि सिंह भी गये हुये थे । वहाँ हिन्दु समाज में व्याप्त अस्पृश्यता की समस्या पर चिन्तन करने वाले भीम राव आम्बेडकर भी आये हुये थे । ऐसा कहा जाता है कि हरि सिंह की आम्बेडकर से हिन्दु समाज की इन कुरीतियाँ पर लम्बी बातचीत हुई । वे आम्बेडकर की हिन्दु समाज की इन भीतर की कमज़ोरियों को लेकर चिन्ता से अत्यन्त प्रभावित हुये । उन्होंने आम्बेडकर को आश्वासन दिया कि वे अपनी रियासत में इन बीमारियों को दूर करेंगे । लन्दन से वापिस आकर उन्होंने हरिजनों के लिये मंदिरों समेत सभी सार्वजनिक स्थानों के दरवाज़े खोल दिये ।
सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान वर्जित– हिमाचल प्रदेश सरकार ने दो साल पहले सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान न करने का कानून पारित किया था । यह आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी बहुत ही प्रगतिवादी और साहसिक कार्य माना जा रहा है । लेकिन कल्पना करिये जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह ने बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में ही राजाज्ञा द्वारा नाबालिगों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान को प्रतिबन्धित किया । हरि सिंह का यह कार्य , दरअसल राज्य की प्रगति को लेकर उनकी भीतरी सोच को प्रतिबिम्बित करता है।
राजधर्म– भारतीय परम्परा में राजतिलक के समय का एक विधान है । राजतिलक हो जाने पर राजा घोषणा करता है कि मैं राजा होने के कारण दण्ड से ऊपर हूँ । कोई मुझे दण्ड नहीं दे सकता । तब पुरोहित उस के सिर पर पलाश से प्रहार करता हुआ सार्वजनिक रुप से घोषणा करता है कि धर्म तुम्हें दंड दे सकता है । तुम धर्म से ऊपर नहीं हो । महाराजा हरि सिंह का राजतिलक २५ फ़रवरी १९२५ ( या ९ जुलाई?) को हुआ । अपने राजतिलक के अवसर पर अपने पहले सम्बोधन में महाराजा ने इस धर्म का अर्थ स्पष्ट किया । उन्होंने कहा , "न्याय ही मेरा धर्म है । मैं जन्म से चाहे हिन्दू हूँ लेकिन शासक के नाते मेरा कोई मज़हब नहीं है । न्याय ही मेरा मज़हब होगा ।
मेरी प्रजा की प्रसन्नता ही मेरी प्रसन्नता होगी । अपनी प्रजा के कल्याण में ही मेरा कल्याण निहित होगा ।जो मुझे अच्छा लगता है , मैं उसे अच्छा नहीं मानूँगा । जो मेरी प्रजा को अच्छा लगता है , मैं उसे ही अच्छा मानूँगा ।"(daily Excelsior 23/9/2012 Col J.P.Singh) आज जिस को पंथ निरपेक्षता कहा जाता है और जिसे किसी भी प्रगतिशील और कल्याणकारी प्रशासन की धुरी माना जाता है , उस पंथ निरपेक्षता को हरि सिंह ने स्वेच्छा से राज्य के प्रशासन का मूलाधार घोषित किया ।
विधवा पुनर्विवाह– भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विधवा का जीवन नारकीय जीवन से कम नहीं है । बाल विवाह के कारण विधवाओं की संख्या अन्य किसी समाज की तुलना में कहीं ज्यादा भी है । सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता नहीं है और यदि कोई इक्का दुक्का विधवा विवाह हो भी जाता है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है । यह ठीक है कि विधवा स्त्रियों के विवाहों की संख्या में वृद्ध हुई है , लेकिन अभी भी समाज में उसे हैरत की नजर से ही देखा जाता है । लेकिन हिन्दू समाज में , खासकर तथाकथित सवर्ण जातियों में विधवा विवाह आज भी सामाजिक मान्यता की प्रतीक्षा में है । महाराजा हरि सिंह अपने समय के प्रगतिशील शासक थे । हिन्दु समाज की भीतरी बुराइयों को समाप्त करने के लिये जहां उन्होंने राज्य में सामाजिक संगठनों को प्रोत्साहित किया वहीं कानून का सहारा भी लिया । उन्होंने अपने राज्य में विधवा विवाह को वैधानिक मान्यता प्रदान कर एक नई शुरुआत की । उन दिनों विधवा का पुनर्विवाह डोगरा समाज में निंदनीय माना जाता था । राजपूतों एवं ब्राह्मणों में तो यह पूरी तरह वर्जित था । लेकिन हरि सिंह ने १९३१ में एक राजाज्ञा द्वारा विधवा विवाह की अनुमति प्रदान कर दी ।
कन्या मारना अपराध– भारत पर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण और देश के अनेक हिस्सों पर कब्जा कर लेने के बाद देश में इन आक्रमणकारियों से लम्बा संघर्ष शुरु हुआ । मध्य एशिया व अरब के ये आक्रमणकारी पराजित क्षेत्रों में औरतों के साथ बहुत ही अपमानजनक व्यवहार करते थे । जिस के कारण अनेक क्षत्रिय जातियों ने लडकी को जन्म के समय ही मारना शुरु कर दिया । धीरे धीरे राजपूतों में जन्म लेते ही लडकी मार देने की इस कुरीति को परिवार व वंश के सम्मान के साथ जोड कर देखा जाने लगा । राजस्थान व उत्तरी भारत में यह प्रथा ज्यादा प्रचलित थी ।
पंजाब में कूका आन्दोलन के पर्वतक सद् गुरु राम सिंह ने पंजाब में बार बार अपने शिष्यों को निर्देश दिया है कि "कुडी मार" परिवारों के साथ कोई सम्बध न रखें । इस से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कुछ दशक पहले तक यह कुप्रथा कितनी विद्यमान थी । गांवों में जन्म लेते ही कन्या को मारने का काम दाई ही सरलता से निपटा देती थी । रियासतों में यह बीमारी और भी भयानक थी । महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य में इसे अपराध घोषित किया और इसे करने वाले को सौ रुपया जुर्माना निश्चित किया । उस समय एक ऐसे प्रदेश में जहाँ , क्षत्रिय वंशों की ही भरमार थी , इस प्रकार का क़ानून बनाना बड़े साहस का काम था । लेकिन हरि सिंह ने इसे करके दिखाया । उस समय इस प्रकार का क़ानून बनाना साहसिक कार्य ही कहा जा सकता है ।
सती प्रथा पर प्रतिबन्ध– सती प्रथा भारत के अनेक हिस्सों में चिरकाल से प्रचलित रही है । कुछ विद्वान मानते हैं कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती ने , उस समय हवन कुंड में कूद कर आत्मदाह कर लिया था , जब दक्ष ने सती के पति का अपमान किया था । प्रथा जितनी भी पुरानी क्यों न हो , इसे रोकने के प्रयास भी होते रहे हैं । ब्रिटिश काल में बंगाल प्रेसिडेंसी में इसे कानून की सहायता से बन्द करवाने के प्रयास राजा राम मोहन राय ने किये थे , जिसके फलस्वरुप १८२९ में सरकार ने सती होने को प्रतिबन्धित करते हुये कानून बनाया । लेकिन परम्परा के नाम पर इस कानून का विरोध करने वालों ने इस कानून को प्रिवी कौंसिल तक में चुनौती दी । लेकिन वहां पराजित हुये और इस प्रकार १९३२ में यह कानून वहां लागू हो सका । लेकिन इससे इतना अन्दाजा तो लगाया ही जा सकता है कि शास्त्रों का आधार लेकर पुरातन पंथी विरोध का स्वर कितना ऊंचा कर सकते थे । ऐसी हालत में रियासतों में स्त्री के पक्ष में इस प्रकार की व्यवस्था करने के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था । लेकिन महाराजा हरि सिंह ने प्रिवी कौंसिल में निर्णय हो जाने के एक साल बाद ही १९३३ में अपने राज्य में सती प्रथा को बन्द कर दिया और इसमें सहायता करने वालों को अपराधी घोषित किया ।
ऐसा नहीं कि राज्य में इसका विरोध नहीं हुआ । यद्यपि जम्मू संभाग में यह प्रथा बहुत ज़्यादा प्रचलित नहीं थी , फिर भी इसको शास्त्र सम्मत बताने वालों ने सैद्धान्तिक आधार पर इसका विरोध किया । लेकिन महाराजा हरि सिंह इस विरोध को नकारते हुये अपने निश्चय पर दृढ़ रहे ।
१० प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य– महाराजा हरि सिंह जानते थे कि यदि राज्य को आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरुप विकसित करना है तो उसके लिये राज्य में सर्वसाधारण को बिना किसी भेदभाव के शिक्षित करना अनिवार्य है ।
यदि राज्य में निरक्षरता विद्यमान रहेगी तो राज्य विकास के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकेगा । प्रथमिक शिक्षा विकास की आधारभित्ती बन सकती है । लेकिन यह प्रथमिक शिक्षा केवल लडकों तक सीमित नहीं रहनी चाहिये । इसका लाभ लडके और लडकियों को समान रुप से मिलना चाहिये । जम्मू कश्मीर जैसे राज्य में जहां मुसलमानों की जनसंख्या बहुत ज्यादा थी और मुसलमान आम तौर अपनी लडकियों को स्कूल में भेजना ठीक नहीं समझते , लडकियों को साक्षर बनाना और भी जरुरी है । महाराजा जानते थे कि राज्य में प्राथमिक पाठशालाओं की स्थापना मात्र और प्राथमिक शिक्षा की सुविधा प्रदान कर देने मात्र से रूढिवादी समाज लडकियों को स्कूल भेजना शुरु नहीं कर देगा । इसलिये उन्होंने राज्य में लड़के और लड़कियों , दोनों के लिये ही प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी । अब बच्चों को प्राथमिक स्तर तक स्कूल भेजना अनिवार्य हो गया था । इतना ही नहीं , उन्होंने अनाथ बच्चों के लिये पाँच सौ छात्रवृत्तियाँ सृजित कीं । इससे राज्य में एक नये साक्षरता आन्दोलन की शुरुआत हुई ।
साहूकारों से मुक्ति–हरि सिंह ने लोगों को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिये क़ानून बनाये।
राज्य प्रजा अधिनियम– दरअसल राज्य के विकास और उसके आधुनिकीकरण की परम्परा महाराजा प्रताप सिंह के शासन काल में ही स्थापित हो गई थी । महाराजा हरि सिंह ने उसे और आगे बढाया । अब जम्मू कश्मीर , खासकर कश्मीर घाटी शेष देश से कटी हुई नहीं रही थी , बल्कि सडकों के माध्यम से देश के बाकी हिस्सों से जुड गई थी । मौसम के लिहाज से अंग्रेजों को घाटी का जलवायु अपने देश के अनुकूल ही लगता था । गुलमर्ग अंग्रेज पर्यटकों का अड्डा ही बन गया था । अनेक अंग्रेज घाटी में जमीन खरीद कर राज्य के स्थायी निवासी बनना चाहते थे । महाराजा हरि सिंह जानते थे कि यदि प्रभावशाली अंग्रेज राज्य में सम्पत्ति अर्जित कर रहने लगे तो यह राज्य भी परोक्ष रुप से अंग्रेजों का उपनिवेश ही बन जायेगा । इस को रोकने के लिये उन्होंने १९२७ में राज्य के स्थायी निवासी होने का अधिनियम पारित किया । इसके लिये स्टेट सब्जैक्ट शब्द का इस्तेमाल किया गया । एक राजाज्ञा में स्टेट सब्जैक्ट को पारिभाषित किया गया । इस अधिनियम के अनुसार राज्य में सम्पत्ति राजाज्ञा में पारिभाषित स्टेट सब्जैक्ट ही खरीद सकता था । १९२७ के अधिनुयम में राज्य के स्थानीय लोगों को अतिरिक्त सुविधाएँ भी दी गईं । इस क़ानून से , उन दिनों जब ब्रिटेन का सूर्य अस्त नहीं होता था , महाराजा ने किसी सीमा तक राज्य की , ब्रिटिश कालोनी बन जाने से रक्षा की । इस क़ानून के कारण ही श्रीनगर की डल झील में हाउस बोट का निर्माण और प्रचलन शुरु हुआ , जिसका इस्तेमाल उन दिनों ज़्यादातर अंग्रेज़ ही करते थे । हाउस बोट ज़मीन की परिभाषा में नहीं आता था ।
अस्पृश्यता समाप्ति अभियान– अस्पृश्यता हिन्दु समाज का भीतरी कैंसर है । इसे समाप्त करने के लिये मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन से लेकर बीसवीं शताब्दी के महात्मा ज्योतिबा फुले और भीम राव आम्बेडकर समेत अनेक समाज सुधारकों ने प्रयास किया । महात्मा गान्धी , डा० केशव राम बलिराम हेडगवार ने तो इसे समाप्त करने के लिये बाकायदा संगठनों के माध्यम से व्यवहारिक प्रयोग किये । कालान्तर में आम्बेडकर के प्रयासों से भारतीय संविधान में भी अस्पृश्यता को नकारा गया । महाराजा हरि सिंह भी समाज से इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिये प्रयत्नशील थे। उन्होंने १९३२ में ही क़ानून बनाकर राज्य में अस्पृश्यता समाप्त की और अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया ।
बेगार प्रथा की समाप्ति– जम्मू कश्मीर के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में सामान ढोने एवं सरकारी कार्य निपटाने के लिये बेगार प्रथा का प्रचलन था । इसके अनुसार किसी एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान पहुंचाना प्रजा के लिये अनिवार्य कर्तव्य था और इसके लिये कोई पारिश्रामिक भी नहीं दिया जाता था । बेगार प्रथा एक प्रकार से निरीह प्रजा का शोषण करने की सामन्तवादी पद्धति थी । महाराजा हरि सिंह ने अपने शासन काल में राज्य से बेगार की इस बेकार प्रथा को समाप्त किया और इसे अपराध घोषित किया । यदि किसी से काम करवाया जाना अनिवार्य हो तो उसको उसका पारिश्रामिक देना भी अनिवार्य किया गया । अपने समय में यह क़दम , ख़ासकर किसी रियासत में ,सचमुच क्रान्तिकारी ही कहा जायेगा ।
विकास कार्य– महाराजा हरि सिंह जानते थे कि राज्य के विकास की धुरी , संरचनात्मक ढांचे का निर्माण और राज्य में उद्योगों का विकास ही है । १९३२ में हरि सिंह ने जम्मू में तवी पर और अखनूर में चिनाव पर दो लौह सेतु बनवाये । १९३५ में राज्य में पहला बिजली घर स्थापित किया । १९३६ में जम्मू कश्मीर बैंक की स्थापना की । १९४० में उन्होंने जम्मू,श्रीनगर और कोटली में तीन हस्पतालों की स्थापना की । उन्होंने लाहौर के मैडीकल कालिज में जम्मू कश्मीर के पाँच छात्रों के लिये स्थान आरक्षित करवाने के लिये कालिज को राज्य की ओर से प्रतिवर्ष पाँच लाख रुपये का अनुदान देना शुरु किया । १९४० में ही राज्य बिरोजा फैक्टरी स्थापित की । १९४१ में श्रीनगर एम्पोरियम की स्थापना की गई । १९४५ में रणवीर सिंह पुरा में चीनी मिल की स्थापना की ।
संसदीय प्रणाली की स्थापना– १९३४ में राज्य में विधान सभा की स्थापना कर महाराजा ने राज्य में लोकतंत्रीय प्रणाली की शुरुआत की । प्रजा सभा के लिये बाकायदा चुनाव करवाये गये । और महाराजा के खिलाफ आन्दोलन चलाने वाली पार्टी मुस्लिम कान्फ्रेंस के मिर्ज़ा अफ़ज़ल बेग को राज्य मंत्रिमंडल में राजस्व मंत्री के तौर पर शामिल किया गया । उन दिनों रियासतों में राज्य प्रशासन के खिलाफ आन्दोलन चलाने वालों को दंडित करने की परम्परा थी , उन्हें मंत्री बनाने की नहीं । लेकिन हरि सिंह ने राज्य में लोकतांत्रिक प्रणाली को मज़बूत करने के लिये अपने विरोधियों को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया ।
औरतों की ख़रीद फ़रोख़्त पर पाबन्दी– औरतों की खरीद फरोख्त की परम्परा पुरानी है । यह परम्परा औरत को सम्पत्ति समझने की मानसिकता से ही उत्पन्न होती है । औरतों के दलाल परिवारों की गरीबी का लाभ उठा कर माता पिता से उनकी जवान लडकियों को सस्ते में खरीद लेते थे और फिर उनको विवाह करवाने के इच्छुक अधेडों को बेच देते थे या वेश्याओं के चकले पर भेज देते थे । नेपाल से लेकर कश्मीर तक के पहाडी क्षेत्रों में यह धंधा ज्यादा चलता था । उन दिनों कश्मीर , विशेषकर बल्तीस्तान से औरतों को ले जाकर दूसरे प्रान्तों में बेच देने का धन्धा दलाल करते थे । कोलकाता , चेन्नै में इन औरतों की अच्छी क़ीमत मिल जाती थी । १९२९ में हरि सिंह ने कश्मीर से औरतों को ले जाने पर पाबन्दी आयद की । ऐसा करने वालों को जेल की सजा तीन साल से बढाकर सात साल करने के अतिरिक्त कोड़े मारे जाने का भी प्रावधान किया ।
पंचायत प्रणाली- महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य में सत्ता का विकेन्द्रीयकरण करने के लिये काफी अरसा पहले से ही पग उठाने शुरु कर दिये थे । राज्य में पंचायत व्यवस्था की शुरुआत इसका प्रमाण है । वैसे तो भारतीय समाज में पंचायत की अवधारणा बहुत पुरानी है और सामाजिक स्तर पर पंचायतें समाज में व्यवस्था स्थापन का कार्य करती रही हैं , लेकिन प्रशासकीय स्तर पर पंचायतों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये पहल महाराजा हरि सिंह ने ही की । उन्होंने ग्राम स्तर पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने के लिये राज्य में पंचायत प्रणाली की स्थापना की । महात्मा गान्धी जिस ग्राम स्वराज्य की कल्पना करते थे , उसके मूल में पंचायती व्यवस्था ही थी । हरि सिंह ने उसी दिशा में पहल की थी ।
१९. व्यक्तिगत व सार्वजनिक सम्पत्ति का अन्तर– हरि सिंह की व्यक्तिगत सम्पत्ति , उसके स्रोतों और राजकीय सम्पत्ति में स्पष्ट अन्तर था । महाराजा राजकीय कोष का उपयोग व्यक्तिगत कार्यों के लिये नहीं करता था ।
२०. कर्मचारी चयन पद्धति गुणवत्ता पर आधारित– महाराजा के शासनकाल में राज्य में सरकारी नौकरियों में नियुक्तियाँ केवल मेरिट पर आधारित थीं । १९३५ में ही महाराजा ने कर्मचारियों के निष्पक्ष चयन के लिये लोक सेवा आयोग का गठन कर दिया था । राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे देवी दास ठाकुर उस समय का वर्णन करते हुये लिखते हैं ,"आटोक्रेटिक सरकार की और चाहे कितनी भी कमियाँ क्यों न रही हों , राज्य प्रशासन में कर्मचारी चयन में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं होता था । यदि था तो वह नगण्य ही था । चयन का आधार केवल मेरिट ही था ।"(देवी दास ठाकुर पृष्ठ ६९)
२१. भ्रष्टाचार की स्थिति– वैसे तो किसी भी प्रशासन में बिल्कुल भ्रष्टाचार नहीं होता , यह नहीं कहा जा सकता । लेकिन महाराजा हरि सिंह के प्रशासन में भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते हुये देवी दास ठाकुर लिखते हैं,"आज़ादी के बाद जितना भ्रष्टाचार फैला है , महाराजा के शासन में उससे कहीं कहीं कम था । यदि था भी तो सम्बधित पक्ष पर तुरन्त कार्यवाही होती थी ।"( देवी दास ठाकुर ६९)
२२. सामाजिक कुरीतियाँ के खिलाफ संघर्ष- हिन्दु समाज की अनेक रूढ़िवादी मान्यताएँ उसके विकास में बाधा बन रही थीं । महाराजा जानते थे कि सामाजिक परिवर्तन केवल क़ानून से नहीं लाया जा सकता । महाजनों सेन गता स: पन्था । राजपूतों में उन दिनों हल चलाने की परम्परा नहीं थी । वे स्वयं खेती नहीं करते थे । इसलिये ज़मीन के मालिक होते हुये भी उनकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी । हरि सिंह ने उदाहरण उपस्थित करने के लिये स्वयं खेत में हल चलाया , ताकि अन्य राजपूत उनका अनुसरण करें ।
पद्मा सचदेव की एक पात्र कहती है,"पहले ये राजपूत भूखे मर जाते थे पर हल नहीं चलाते थे, फिर जब महाराजा हरि सिंह ने गद्दी सँभाली , तब उन्होंने देखा , जिनके घर का कोई भी फ़ौज में नहीं है , उनका तो घर नहीं चलता । इसलिये महाराजा हरि सिंह ने पहले ख़ुद हल पकड़ी , ताकि राजपूतों को हल चलाने में शर्म न आये । तब जाकर राजपूतों का संकोच कम हुआ । देखो क्या अकल लड़ाई महाराजा ने । मैंने तो सुना है महारानी तारामती रोटी लस्सी लेकर खेत में ख़ुद गई थी । (जम्मू जो कभी शहर था १००) इसी उपन्यास में एक अन्य जगह महाराजा का मूल्याँकन करते हुये पात्र कहते हैं,"परषोत्तमा ने कहा, महाराजा तो थे लाखों में एक । कितनी ही कुरीतियाँ को दूर किया । छोटी लड़कियों की शादी के खिलाफ क़ानून बनाया । लड़की की आयु कम से कम चौदह और लड़के की अठारह होनी ही चाहिये । पैदा होते ही लड़की मार देने पर सौ रुपया जुर्माना चलाया । तब तो रुपया देखने को भी नहीं मिलता था ।
सुग्गी ने कहा , ये राजपूत सिर्फ फ़ौज में जाते थे । ज़मीनों पर खेती नहीं करते थे । चाहे भूखे मर जायें । महाराजा ने ख़ुद खेत में हल चलाकर ये रस्म तोड़ी । महारानी तारादेवी खेत में खाना लेकर भी गई थीं । हरिजनों को मंदिरों में आने के लिये दरवाज़े खोल दिये । पंडित नाराज़ होकर नौकरियाँ छोड़ गये पर महाराजा अपनी बात पर अटल रहे । उनके गुणों के बखान कोई कम हैं क्या ? ( जम्मू जो कभी शहर था १८६) अरे सुग्गी , आज वही महाराजा हरि सिंह , हमारे सिरों का ताज , बम्बई में देस निकाला भोग रहा है । कभी कभी तो मन करता है कि नेहरु के साथ जाकर लड आऊँ ।( जम्मू जो कभी शहर था १००)
पंथ निरपेक्ष नीति– महाराजा हरि सिंह प्रशासन में पूरी तरह पंथ निरपेक्ष थे । उन्होंने अपने व्यक्तिगत विश्वासों , आस्थाओं और पूजा पद्धति को कभी प्रशासन पर भारी नहीं पड़ने दिया । वे सही अर्थों में पंथ निरपेक्ष थे । शासक के नाते उन्होंने सत्ता संभालते समय ही न्याय को अपना धर्म घोषित कर दिया था । उनके लिये यह केवल घोषणा मात्र नहीं थी , बल्कि उनका गहरा विश्वास इसमें परिलक्षित होता था । शेख अब्दुल्ला का महाराजा पर सबसे बडा दोषारोपण यही है कि विभाजन के दिनों में जम्मू में मुसलमानों को भगाने में उनका हाथ था ।
वे अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार में लिखते हैं,"इधर हम कश्मीर में क़बायलियों को पीछे धकेलने में व्यस्त थे, उधर जम्मू में महाराजा हरि सिंह सांप्रदायिकता की आग को भड़काने के लिए ख़ूब हाथ-पैर मार रहे थे… जम्मू पहुँचकर महाराजा और महारानी तारा देवी ने खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचना शुरू किया। अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए उन्होंने जम्मू के उग्रवादी हिंदुओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सधे हुए सदस्यों में घातक हथियार वितरित किये और उन्हें मुसलमानों का सफाया करने की उत्तेजना दिलाते रहे। ऐसी ही एक टोली की निगरानी प्रोफेसर बलराज मधोक कर रहे थे। उन्होंने ऊधमपुर और रियासी में मुसलमानों के ख़ूने-नाहक से खूब हाथ रँगे।' (पृष्ठ 433-434)
शेख अब्दुल्ला जानबूझकर भूल रहे हैं कि यदि महाराजा सचमुच अपनी प्रजा के बारे में हिन्दु और मुसलमान के नजरिये से सोच रहे होते तो रियासत का जनसांख्यिकी अनुपात बदलने के लिये उन्हें १९४७ का इन्तज़ार करने की ज़रुरत न होती । यह काम वे १९२७ से ही शुरु कर सकते थे । रियासत के बाहर के लोगों के आने के लिये वे दरवाज़े खोल देते तो आसानी से जनसंख्या का अनुपात बदला जा सकता था । लेकिन महाराजा ने इसके विपरीत १९२७ में रियासती प्रजा का क़ानून बना कर बाहर वालों के लिये रियासत में आने के दरवाज़े बन्द किये । इसी क़ानून के कारण घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक के रुप में रह सके ।
कहने का अभिप्राय यह है कि महाराजा रियासत के लोगों का विभाजन हिन्दु मुसलमान के आधार पर नहीं करते थे । यदि उनका शासन अच्छा था तो दोनों वर्गों के लिये समान रुप से अच्छा था और यदि बुरा था तो दोनों वर्गों के लिये समान रुप से बुरा था । हिन्दु मुसलमान को अलग अलग नजरिये से देखने की राजनीति शेख ने स्वयं १९३१ में शुरु की थी , जिसका ख़ामियाज़ा बाद में सभी को भुगतना पड़ा । जहाँ तक जम्मू में विभाजन के बाद हुये दंगों का प्रश्न है , इसकी आग में तो सारा पंजाब ही झुलस रहा था ।
जम्मू संभाग की सीमा तो पंजाब के स्यालकोट , रावलपिंडी , गुजराँवाला इत्यादि से लगती है । इसलिये पंजाब की आग की चपेट में जम्मू भी आ गया , इस पर उन दिनों की हालत को देखते हुये आश्चर्य नहीं किया जा सकता । इसलिये जम्मू के दंगों के लिये महाराजा हरि सिंह को लपेटना है , तब तो पंजाब -दिल्ली में हुये दंगों के लिये पंडित नेहरु और कांग्रेस को भी दोषी मानना होगा । महाराजा को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने १९४६-४७ में , जब पाकिस्तान बनाये जाने की बात लगभग पक्की हो गई थी , तब भी रियासत के मुसलमानों से भेदभाव नहीं किया । रियासत की सेना के मुसलमान सैनिक पाकिस्तान समर्थक तत्वों से साँठगाँठ कर रहे हैं , ऐसी अफ़वाहें रियासत में फैलनी शुरु हो गईं थीं । महाराजा चाहते तो उन्हें अपदस्थ कर सकते थे । लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । इसका बाद में उन्हें नुक़सान भी उठाना पड़ा । परन्तु संकट की उस घड़ी में भी उन्होंने पंथ निरपेक्षता का राजधर्म , जिसकी प्रतिज्ञा उन्होंने राजतिलक के समय की थी , नहीं छोड़ा ।
महाराजा हरि सिंह के शासन काल के मात्र कुछ क्षेत्रों की शासन व्यवस्था और उससे जुड़े चिन्तन की यहाँ चर्चा की गई है । उनके प्रशासन की ये उपलब्धियाँ लोक सम्पर्क विभाग की प्रचार सामग्री पर आधारित नहीं है , बल्कि ठोस तथ्यों पर आधारित है । उपरोक्त विवेचन की पृष्ठभूमि में ,जहां तक प्रशासन का ताल्लुक है, महाराजा हरिसिंह स्वयं अपने राज्य के प्रशासन के बारे में क्या कहते हैं यह जान लेना भी आवश्यक है। अगस्त 1952 में उन्होंने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को जो चिट्ठी लिखी थी उसमें उन्होंने उल्लेख किया है। महाराजा के अनुसार, “राजगद्दी संभालते ही मैंने अपनी प्रजा की हालत को सुधारने और सरकार को प्रगतिवादी लोकतांत्रिक तरीके से स्थापित करने के प्रयास किये । मैंने ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के कर्जे माफ किये ताकि किसानों की सामाजिक और आर्थिक दशा में सुधार हो सके ।
इस प्रकार के कुछ कानूनों पर तो हिन्दुओं ने विरोध भी दर्ज कराया । उनके अनुसार मैं मुसलमानों की उन्नति के लिये हिन्दुओं के हितों का बलिदान कर रहा हूं । मैंने अपने राज्य में उद्योग स्थापित किये और शिक्षा के लिये प्रावधान किया । मैंने लोगों की सहायता के लिये चिकित्सा की सुविधायें मुहैया करवायीं । शायद तब तक किसी भी रियासत ने ऐसा नहीं किया था । उन दिनों मुसलमान पिछड़े माने जाते थे इसलिये मैंने उनको शिक्षा प्रदान करने के लिये विशेष प्रयास किये । मैं अपने राज्य प्रशासन को सुसंगठित करने के लिये और प्रजा को सुशासन देने के लिये अत्यंत उत्साह में था इसलिये मैंने ब्रिटिश भारत से योग्य और असंदिग्ध निष्ठा वाले लोगों को प्रधानमंत्री, मंत्री और विभिन्न विभागों के अध्यक्ष नियुक्त किया । उनमें से हरिकृष्ण कौल , मिर्जा सर जाफ़िर अली, बी.आर.मेहता, वजाहत हुसैन,सर अब्दुस शम्स खान,लाल गोपाल मुखर्जी, सर एन गोपाल स्वामी आयंगर, सर बी.एन.राऊ प्रमुख हैं ।
इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे राज्य का प्रशासन , संगठन एवं निपुणता में ब्रिटिश भारत के कुछ प्रांतों से भी बेहतर था।———————————–मैं अपना प्रशासन मंत्रिमंडल की सलाह पर ही चलाता था । न तो मैंने उनके काम में कभी दखलंदाजी की और ना ही उन्हें दिशा-निर्देश दिये। इसलिये यदि आज मेरे राज्य के प्रशासन में कमियां गिनाई जा रही हैं तो उसकी जिम्मेदारी अकेले मुझ पर ही नहीं डाली जा सकती । —————–उल्लेखनीय है कि 1938 से लेकर 1943 तक 6 वर्षों के लिये तो श्री एन.गोपाल स्वामा आयंगर ही प्रधानमंत्री थे । वे आज भी इस बात की गवाही देंगे कि उन्होंने समय-समय पर जो नीतियां लागू की और निर्णय लिये मैंने कभी भी उनमें दखल अंदाजी नहीं की।————-
मैंने तो 1945 में ही स्वयं को केवल एक संविधानिक मुखिया रखने का निर्णय कर लिया था । तब मैंने सर तेज बहादूर सप्रू और कैलाशनाथ हकसर की हाजिरी में राज्य के प्रधानमंत्री बी.एन राऊ से चर्चा की थी कि राज्य में पूरी तरह जिम्मेदार लोकतांत्रिक सरकार स्थापित कर ली जाय और राज्य के विभिन्न संभागों को स्वायत्ता दे दी जाय । केंद्रीय सरकार में इन संभागों के प्रतिनिधियों और एक न्यायिक सलाहकार बोर्ड हो और मेरी भूमिका इसमें संवैधानिक मुखिया की ही रहे । मुझे पता था कि ब्रिटिश सरकार इसे पसंद नहीं करेगी लेकिन इसके बावजूद मैं इसे लागू करने के लिये तैयार था । मतभेद केवल इसी बात को लेकर था कि श्री बी.एन.राऊ इसे तुरंत 15 दिनों में ही लागू करना चाहते थे जब कि मेरा कहना था कि इस योजना को 6 महीनों के बीच लागू किया जाना चाहिये ताकि इसकी भली-भांति तैयारी हो सके । यह योजना किसी तरह सार्वजनिक हो गयी, स्थितियां कठिन होती गयीं और कुछ देर बाद ही बी.एन .राऊ पद त्याग कर चले गये।—————–
मेरी रियासत का वित्तीय प्रशासन पूरी तरह से आधुनिक सिद्धांतो पर संचालित किया जाता था । मेरा व्यक्तिगत खर्चा सख्ती से सीमा में ही था और वह राज्य के बजट से बाहर था । राज्य के वित्त और मेरे व्यक्तिगत वित्त को रेखांकित करने के लिये बहुत स्पष्ट सीमाएं थी। इसलिये मेरे राज्य में एक सुसंगठित और सक्षम कार्यपालिका थी , लोकतांत्रिक विधि से चुनी गयी विधान पालिका थी और स्वतंत्र न्यायपालिका थी । एक जन कल्याणकारी राज्य के दायित्व के नाते शिक्षा, चिकित्सा और अन्य मदों के लिये सुनिश्चित नीति थी। जिन योग्य न्यायधीशों और प्रशासकों ने समय समय पर मेरे राज्य में कार्य किया है वे इस बात की गवाही देंगे।———————————
उन दिनों भारतीयों रियासतों के शासकों का मूल्यांकन उनकी प्रजा की हालत और उसके भावों से किया जाता था और मैं बिना किसी खंडन के भय से पूरी तरह से कह सकता हूं कि मेरे राज्य के लोग पूरी तरह संतुष्ट थे। मेरे खिलाफ या मेरे राज्य के प्रशासन के खिलाफ असंतोष का कोई कारण नहीं था।"( जावेद आलम )।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि स्वतंत्र स्रोतों से महाराजा के प्रशासन और उसकी नीतियों को लेकर जो निष्कर्ष निकाले गये हैं , वे लगभग महाराजा के अपने बयान से मेल खाते हैं । महाराजा अपने समय के योग्य प्रशासकों में से एक थे । उनकी प्रशासन पद्धति लोक प्रशासन के आधुनिक सिद्धांतों पर टिकी हुई थी ।
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