Friday, November 29, 2024
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आडवाणी बोले, पटेल को सांप्रदायिक मानते थे नेहरू

भाजपा ने सरदार पटेल को लेकर मचे विवाद को मंगलवार को और हवा दी। पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्‍ण आडवाणी ने पटेल को लेकर जवाहरलाल नेहरू पर गंभीर आरोप लगाया है।

आडवाणी ने एक किताब का हवाला देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने गृह मंत्री को 'साम्प्रदायिक' करार दिया था, जब उन्होंने आजादी के बाद सेना को हैदराबाद के लिए कूच करने को कहा था। हालिया ब्लॉग पोस्ट में आडवाणी ने एमकेके नायर की 'द स्टोरी ऑफ एन ऐरा विदआउट इल विल' का हवाला दिया है, जो हैदराबाद के खिलाफ 'पुलिस कार्रवाई' से पहले कैबिनेट बैठक में नेहरू और पटेल के बीच 'तकरार' की जानकारी देती है।
 

पाकिस्तान से जुड़ने की चाहत रखने वाले निजाम ने वहां की सरकार को खूब पैसा भिजवाया था। निजाम के अधिकारी स्‍थानीय लोगों पर अत्याचार कर रहे थे। किताब में लिखा है, "कैबिनेट बैठक में पटेल ने ये बातें बताईं और सेना को वहां भेजने की मांग की, ताकि हैदराबाद में जारी आतंकी गतिविधियां रुक सकें। आम तौर पर संयम और शांति का परिचय देने वाले नेहरू ने इस मौके पर अपना संयत रवैया छोड़कर पटेल से कहा कि आप पूरी तरह साम्प्रदायिक हैं। मैं आपकी मांग नहीं मान सकता।"

नायर की किताब के हवाले से आडवाणी ने लिखा है, "पटेल पर कोई असर नहीं हुआ, लेकिन वह दस्तावेजों के साथ कमरे से बाहर चले गए।" भाजपा बीते कुछ दिनों से सरदार पटेल को हिंदुत्व विचारधारा के करीब वाले नेता के रूप में पेश करने की कोशिशों में लगी है।

भाजपा का यह आरोप भी है कि सरदार पटेल के सहयोग को कांग्रेस ने कभी स्वीकार नहीं किया और केवल नेहरू-गांधी परिवार का नाम जपा। अपने ब्लॉग में आडवाणी ने लिखा है कि तत्कालीन गवर्नर जनरल राजाजी ने हैदराबाद में सेना भेजने का फैसला किया।

 

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तौकीर रज़ा खान विवाद पर आम आदमी पार्टी का बयान

आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने बरेली में तौकीर रज़ा खान से हुई उनकी मुलाक़ात पर उठे विवाद पर कहा है कि, “मैं बरेली कि दरगाह में चादर चढाने गया था, वहीँ पर मेरी मुलाकाटी तौकीर रज़ा खान से हुई. मैं ढेरो मंदिरों में गया, गुरुद्वारों में गया, कई चर्च में गया, कई मस्जिदों में गया. अभी कुछ दिन पहले पुरी के शंकराचार्य आए थे उनसे भी मिला था, श्री श्री रविशंकर जी से भी मिला था. मैं बरेली में चादर चढाने गया था, और दुआ मांगने गया था कि देश भ्रष्टाचार मुक्त हो. तौकीर रजा साहब दरगाह के प्रमुखों में से हैं और बरेली में उनकी इज्जत है. उनसे मैंने अपील की इस वक़्त सब लोगो को एक साथ मिलकर देश को बचाने की जरुरत है, देश बड़े नाजुक दौर से गुजर रहा हैं.”
 

आम आदमी पार्टी किसी भी तरह की हिंसा में यकीं नहीं रखती है और चाहती है कि देश में हिन्दू-मुसलमानों को लड़ाने कि राजनीति कि जगह सबको एक करने कि राजनीति हो. देश में पहली बार किसी पार्टी ने नफरत की राजनीति से ऊपर उठकर सकारात्मक राजनीति की नीव रखी है. आम आदमी पार्टी ने देश में इसकी पहल की है. इस मुलाकात को लेकर कांग्रेस और बीजेपी जैसी बौखलाई हुई पार्टिया एक नया विवाद पैदा करके, भ्रष्टाचार से मुद्दा भटकाने की कोशिश कर रहे है. कहा जा रहा है की “आप” कम्युनल कार्ड खेल रही है, ये आरोप गलत है. हम इस देश के मंदिरों में जा रहे हैं, मस्जिदों में जा रहे हैं, सब लोगों से मिल रहे हैं. आज जो लोग जहर की राजनीति कर रहे हैं, उसको प्यार और मोहब्बत की राजनीति से जवाब देने की कोशिश कर रहे है. अगर हम एक ही धर्म के लोगों से मिलता तब ये बात सही होती लेकिन हम हर धर्म के लोगों से मिल रहे है. हम रिलीजियस लीडर्स से मिल रहे है, सोशल लीडर्स से मिल रहे है और कोशिश कर रहे है की सब किस्म के लोगो को साथ में लेकर आये, क्यूंकि ये देश तो १२० करोड़ लोगों का हैं. हम इस देश के सब लोगों के पास जाकर ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंसा इस देश की समस्याओं का समाधान नहीं है. क्यूंकि ये देश तो १२० करोड़ लोगों का हैं. हम इस देश के सब लोगों के पास जाकर ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंसा इस देश की समस्याओं का समाधान नहीं है.

 

तौकीर रज़ा पर लगे आरोपों के बारे में अरविन्द केजरीवाल ने साफ़ कहा कि उनको उस बारे में बिलकुल पता नहीं था. आज फिर जब इस मुद्दे पर तौकीर रज़ा से बात हुई तो उन्होंने बताया के ये आरोप बिलकुल गलत है. जैसे कहा जा रहा है की उन्होंने कुछ फतवा जारी किया है, इसपर उनका कहना था की वो फतवा जारी कर ही नहीं सकते क्यूंकि वो मुफ़्ती नहीं है. फतवा तो मुफ़्ती जारी करते हैं. उन्होंने कहा की उन्होंने आज तक कोई फतवा जारी नहीं किया है.

 

दूसरी चीज, हम किसी तरह की हिंसा में यकीन नहीं करते हैं. हम हिंसा की राजनीति को बदलने आये हैं, हिंसा की राजनीति को करने के लिए नहीं आए हैं. तौकीर रज़ा जी का भी यही कहना है की वो भी हिंसा की राजनीति में यकीन नहीं करते हैं.

 

तीसरी चीज आम आदमी पार्टी का तौकीर रजा कि पार्टी से कोई गठबंधन नहीं हो रहा है.  आप के नेता जिन भी धार्मिक सामाजिक नेताओं से मिल रही हैं उनसे कोई गठबंधन नहीं करते हे. इन मुलाकातों का मकसद है उनके साथ जुड़े लोगों तक सन्देश पहुंचाना कि देश में हिंसा और बंटवारे कि राजनीति कि जगह मेलजोल और आपसी मुहब्बत कि राजनीति का माहौल बने.

 

हम एक ही मेसेज लेकर सब के पास जा रहे है की इस देश के अंदर अगर हम लोग अहिंसा की राजनीति करेंगे तो ये पोलिटिकल पार्टिया हमारा फायदा उठाएंगी, हमे वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करेंगी, हिन्दुओ को और मुसलमानों को आपस में लडवाएगी. एक पार्टी हिन्दुओं को और एक पार्टी मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाना चाहती है, हम इस देश के लोगों को इकठ्ठा करना चाहते हैं, जब तक इस देश के हिन्दू मुसलमान सारे इकट्ठे नहीं होंगे तब तकये सारी पार्टिया इस टाइम बेचैन हो गयी हैं, पहली बार हम लोगों को इकट्ठा करने में कामयाब हुए हैं, कांग्रेस ने आज तक मुसलमानों को अपना वोट बैंक समझा है. और बीजेपी हिन्दुओं को अपना वोट बैंक समझती है, सिक्खों को अपना वोट बैंक समझती है. न कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए कुछ किया और न बीजेपी ने हिन्दू और सिक्खों के लिए कुछ किया. पहली बार एक पार्टी आई है जो भ्रष्टाचार के नाम पर लोगों को जोड़ने का काम कर रही है, और काफी कामयाब भी हो रही है.

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काँग्रेस के विज्ञापन को चुनाव आयोग ने नकार दिया

वो सपने दिखाते हैं, हम करके दिखाते हैं। कांग्रेस के इस लाइन पर तैयार किए गए ऑडियो-वीडियो फिल्मों को चुनाव आयोग की मीडिया सर्टिफिकेशन एंड मॉनिटरिंग कमेटी (एमसीएमसी) ने रिजेक्ट कर दिया है।  कारण, इनमें कांग्रेस ने भाजपा व आम आदमी पार्टी पर सीधे हमला बोला था।

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस की ओर से शुक्रवार को एक रेडियो जिंगल समेत पांच एड फिल्म की मंजूरी के लिए आवेदन मंगाए गए थे।  इसमें रेडियो जिंगल व एक एड वीडियो को मंजूरी दे दी गई मगर तीन एड फिल्म को नकार दिया गया।  नकारे किए गए फिल्मों में कांग्रेस ने भाजपा व आप के प्रदेश मुखिया का भी इस्तेमाल किया था।

एड फिल्मों में कांग्रेस वोटर को यह बताने की भी कोशिश कर रही है कि भाजपा व आम आदमी पार्टी साथ-साथ हैं।  चुनाव आयोग को आपत्ति इस बात की है कि एड फिल्म में सीधे पार्टी के साथ व्यक्तिगत नाम का इस्तेमाल किया गया है।  साथ ही इसमें दूसरे पार्टी के सिंबल को पेश किया गया है। आयोग ने फिलहाल इन तीन एड फिल्म को रिजेक्ट करके बदलाव करने को कहा है।

क्या था रिजेक्ट होने वाली एड फिल्म में
कांग्रेस की एड फिल्म का जुमला है कि दो व्यक्ति एक का नाम विजय तो दूसरे का अरविंद है।

एक ने मैं हूं आम आदमी वाली टोपी पहन रखी है जबकि दूसरे ने बीजेपी के चुनाव चिह्न वाला पट्टा गले में डाल रखा है। दोनों के हाथ में बिजली के बिल हैं।  आप के कार्यकर्ता के हाथ में दिल्ली के बढ़े हुए बिल है जबकि भाजपा के दूसरे मेट्रो शहरों का बिल है।

दोनों एक जगह मिलकर कांग्रेस की पोल खोलने की बात कर बिलों को मिलाना शुरू करते हैं। फिर पाते है दूसरे शहरों की तुलना में दिल्ली में बिजली के बिल कम हैं।  फिर दोनों कहते हैं अरे दूसरे तो सपने दिखाते हैं पर कांग्रेस ने कर के दिखाया है।

यह कहकर दोनों कांग्रेस वाला पट्टा गले में डाल देते हैं। निरस्त की गई तीनों फिल्में एक जैसी थी, जबकि प्रस्तुति अलग थी।

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कौन जीतेगा बाजी, किसके हाथ लगेगी सत्ता की चाबी!

भोपाल। अन्य सभी चुनावी राज्यों की अपेक्षा मध्यप्रदेश में ज्यादा गहमागहमी है। राजनीतिक सरगर्मी पर पार्टियों की नजर है। राजनीतिक विश्लेषक इस बात का अंदाजा लगाने में हैं कि उंट किस करवट बैठेगा। प्रदेश में 25 नवम्बर को मतदान होगा। 8 नवम्बर को नामांकन की अंतिम तारीख है। 8 दिसंबर को मतों का पिटारा जनता के सामने होगा। इसी दिन यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि बाजी किसके हाथ लगी।

गौरतलब है कि अधिकांश चुनावों में यहां कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर रही है। यह सच है कि बसपा, सपा और गोगपा जैसी पार्टियां मतों में सेंधमारी कर भाजपा-कांग्रेस का खेल बिगाड़ती रही हैं। मध्यप्रदेश में पिछले चुनावों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच 6 प्रतिशत से अधिक मतों का अंतर नहीं रहा। वर्ष 1980, 1985 और 2003 के आंकड़े जरूर भिन्न रहे। 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस को 47.51 प्रतिशत, जबकि भाजपा को 30.34 प्रतिषत मत मिले थे। तब कांग्र्रेस ने दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाई थी।

इस चुनाव में अन्य दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को 22.15 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। इसी प्रकार 1985 में हुए चुनाव में कांग्रेस को श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिला और उसकी झोली में 48.57 आये। 1980 और 1985 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच क्रमश: 17.17 प्रतिशत और 19.10 प्रतिशत मतों का अंतर रहा। 1990 के चुनाव में कांग्रेस को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी और कांग्रेस 33.49 प्रतिशत मतों पर खिसक गई। 39.12 प्रतिशत मत लेकर भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। निर्दलीय सहित अन्य दलों को इस चुनाव में 26.39 मत मिले थे। 6 दिसंबर, 1992 को  अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के बाद तीनों राज्यों सहित मध्यप्रदेष की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गई थीं। 1993 में हुए चुनाव में भाजपा सहानुभूति नहीं ले पाई। भाजपा को कांग्रेस से 2 प्रतिषत कम मत मिले। इसी प्रकार 1998 में हुए चुनाव में भाजपा मात्र 1.25 प्रतिशत मत से सत्ता से दूर रह गई। इस चुनाव में कांग्रेस को 40.79 प्रतिषत जबकि भाजपा को 38.82 प्रतिशत मत मिले। इस साल भी निर्दलीय एवं अन्य को 20.39 प्रतिशत मत मिले।

वर्ष 2003 में भाजपा साध्वी उमाश्री भारती के नेतृत्व में कांग्रेस और दिग्विजय सिंह के कुशासन और बिजली, पानी और सड़क को मुददा बना चुनाव लड़ी। जनता ने भाजपा के वायदे पर भरोसा कर 42.50 प्रतिशत मत देकर दो तिहाई बहुमत दिया। कांग्रेस इस बार 31.61 प्रतिशत वोट मिला। हालांकि 2008 में भाजपा के मतों में कमी हुई, लेकिन कांग्रेस से 5 प्रतिशत मत अधिक लेकर वह फिर सरकार बनाने में सफल रही।

यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए आर-पार की लडाई है। कांग्रेस की स्थिति अभी नही तो कभी नहीं की है। कांग्रेस के लिए अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती है तो भाजपा के लिए दिल्ली का किला फतह करने की पूर्व-पीठिका। मध्यप्रदेश सहित अन्य चार राज्यों में प्राप्त सफलता ही भाजपा के लिए दिल्ली का रास्ता साफ करेगा। अगर भजपा विधानसभा में असफल रही तो दिल्ली उसके लिए दूर हो सकती है।

बहरहाल मध्यप्रदेश में भाजपा जहां शिवराज सिंह के चेहरे और 10 वर्षों के सुशासन के नाम पर फिर से जनता का समर्थन मांग रही है, वहीं कांग्रेस ने प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार को खास मुद्दा बनाया है। कांग्रेस अपनी गुटबाजी और दिग्विजय सिंह के कुशासन को ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरे से छुपाने की कोशिश कर रही है। भाजपा ने कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और महंगाई के बहाने कांग्रेस का चेहरा जनता के सामने ले जायगी। भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक नारा दिया है – ‘‘यह युद्ध आर-पार है, अंतिम यह प्रहार है।’’ एक कदम और आगे बढ़कर भाजपा ने कांग्रेस को खत्म करने के गांधीजी के सपने को पूरा करने का इरादा जता दिया है। भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेसमुक्त देश-प्रदेश का नारा देकर अपने आक्रमण का अहसास कांग्रेस के नेताओं को करा दिया है। चुनावी तैयारी में भाजपा आगे-आगे और कांग्रेस पीछे-पीछे दिख रही है। कांग्रेस को डर है कि इसबार की असफलता से कहीं उसकी स्थिति बिहार और उत्तरप्रदेश की तरह न हो जाये।

हालांकि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में एकजुटता का पूरा प्रयास कर रही है। लेकिन कांग्रेसी क्षत्रपों की गुटबाजी कम होने का नाम नहीं ले रही है। एक तरफ जहां पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का राजनीतिक कैरियर दांव पर है, वहीं कमलनाथ, भूरिया, पचौरी, अजय सिंह ‘राहुल’ और सत्यव्रत चतुर्वेदी अपना-अपना दांव खेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। सिंधिया के चेहरे के पीछे दिग्गजों का दांव-पेंच जारी है। मुख्यमंत्री की ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के जवाब में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में ‘सत्ता परिवर्तन रैली’ के जरिये अपना चुनावी अभियान चलाया है। मुख्यमंत्री की अधूरी घोषणाओं और विभिन्न योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को कांग्रेस ने मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया है।

यह चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए भी अग्नि परीक्षा जैसा ही है। भाजपा में गुटबाजी भले ही हो, लेकिन मध्यप्रदेश में उनके नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं है। वे मध्यप्रदेश में भाजपा के सबसे लम्बे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री का इतिहास रच गए हैं। स्वर्णिम मध्यप्रदेश और अपना मध्यप्रदेश बनाओ का नारा देकर शिवराज सिंह चौहान ने लोगों को प्रदेश की भावनात्मक अस्मिता और पहचान से जोड़ने की कोशिश की है। लाडली-लक्ष्मी, अन्त्योदय और दीनदयाल उपचार सरीखी योजनाएं भाजपा सरकार के लिए वरदान सिद्ध हो सकती हैं।

 यह सच है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां गुटबाजी और आंतरिक कलह से जुझ रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि जहां कांग्रेस की कलह अंत समय तक पार्टी को नुकसान पहंचाती है, वहीं भाजपा की कलह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हस्तक्षेप से नियंत्रित हो जाती है। भाजपा को विचार परिवार के संगठनों का समर्थन अंत समय में मिलना सुनिश्चित है। यही कारण है कि सत्ता विरोधी भावना होने के बावजूद भाजपा की तीसरी बार सरकार बनना लगभग तय है।

तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद न तो भाजपा और न ही समविचारी संगठनों के कार्यकर्ता यह चाहेंगे कि कांग्रेस के हाथ में सत्ता चली जाए। एक जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जो मध्यप्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के पक्ष में है, वह है विधानसभा की जीत से भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र भाई मोदी को ताकत मिलना। भाजपा नेता इस बात से आश्वस्त हैं कि मतदान के अंतिम दिनों में मोदी की रैलियों और सभाओं का भाजपा को बड़े पैमाने पर लाभ मिलेगा। मध्यप्रदेश में लगभग 35 प्रतिशत नये और युवा मतदाता हैं। इनपर मोदी का जादू चलना तय है। यही युवा और नये मतदाता सत्ता की चाबी हैं। राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि चुनाव के अंतिम दिनों में मोदी की सभाओं से लगभग 3 से 5 प्रतिशत मतदाता जो भाजपा के परंपरागत समर्थक नहीं हैं वे भाजपा के पक्ष में आ जायेंगे। यही वोट भाजपा की सरकार बनायेगी।  

 (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट और स्टेट न्यूज चैनल के सलाहकार संपादक हैं)

संपर्क
Anil Saumitra
Spandan
E-31, 45 Bungalows, Bhopal
Madhya Pradesh – 462003
http://www.spandanfeatures.com/
http://lalmirchi-anilsaumitra.blogspot.com/

 

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रानी मुखर्जी ने भावी ससुराल में मनाई दिवाली

रानी मुखर्जी ने यह दीवाली अपने घर में न मनाकर अपनी होने वाली ससुराल में मनायी। उन्होंने अपने होने वाले पति आदित्य चोपड़ा के साथ जमकर दीवाली क मजा लिया।

अभी तक रानी और आदित्य ने अपने रिश्तों को सार्वजनिक नहीं किया है लेकिन अब तो इन दोनों की शादी की खबरें भी आ रही हैं ऐसे में कई मौकों पर रानी आदित्य का साथ देखे जाना यही बता रहा है कि ये दोनों अब खुलकर अपने रिश्तों को जगजाहिर करने जा रहे हैं।

दीवाली की ये पार्टी चोपड़ा परिवार के घर पर ही रखी गई थी। जिसमें रानी ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। इस अवसर पर किरण खेर, जिम्मी शेरगिल और करण जौहर भी मौजूद रहे।

 

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आज़ादी के 66 साल बाद भी नाव में बैठकर वोट डालने जाएंगे…

मध्य प्रदेश के  ग्वालियर भितरवार (गिर्द) विधानसभा क्षेत्र में चार गांव के लोग नावों में बैठकर वोट डालने जाएंगे। आजादी को ६६ साल बीतने के बाद भी इन गांवों में न तो सड़क पहुंच सकी है, न ही बिजली की रोशनी। लेकिन हर ५ साल बाद चाहे कांग्रेस हो या भाजपा सभी पार्टिंयों के नेता वोट मांगने जरूर पहुंच जाते हैं। घाटीगांव ब्लॉक में आने वाले बसई,समेड़ी, खतैरा, पैयखौं गांव में पगारा डेम की डूब प्रभावित क्षेत्र में बसे हुए हैं। गुर्जर, जाटव और आदिवासी बाहुल इन गांवों की कुल आबादी लगभग २००० है। जबकि कुल मतदाताओं की संख्या १४०० है।

आसन नदी के दूसरी ओर बसे इन गांवों में आवागमन मुरैना के जौरा क्षेत्रों से होता है। लेकिन ग्वालियर जिले के यह गांव घाटीगांव ब्लॉक का हिस्सा होने के कारण भितरवार विधानसभा क्षेत्र में आते हैं। इनके अलावा भी मुरैना जिले की दक्षिण-पूर्वी सीमा से पर बसे मिर्चा, सौंसा, राई समेत एक दर्जन से अधिक गांव हैं, जहां न तो पक्की सड़क है, न ही बिजली की लाइन अब तक पहुंच पाई है।

इन गांवों तक बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने में असफलता को छिपाने के लिए शासन और प्रशासन के पास एक आसान बहाना सोनचिरैया अभयारण्य का होना है, जब भी इन गांवों के लोग अपनी जरूरतों के लिए प्रशासन से मांग करते हैं, तब कहा जाता है कि इन गांवों का रास्ता सोन चिरैया अभयारय के बीच से जाता है, इसलिए यहां नवीन निर्माण नहीं किए जा सकते। लेकिन इन इलाकों में अवैध रूप से पत्थर की खुदाई के लिए पहाड़ों की खुदाई बदस्तूर जारी है। लेकिन इस ओर न सरकार का ध्यान है न ही प्रशासन का।

साभार -दैनिक नईदुनिया  से

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मोहर्रम में रक्तदान शिविर लगाकर करें सद्भावना का प्रदर्शन

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विश्व के कई मुस्लिम बाहुल्य देश इस समय हिंसाग्रस्त हैं। कहीं सत्ता संघर्ष के चलते आए दिन बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं तो कहीं विद्रोहियों व स्थानीय सेना के बीच खंूरेज़ी का खेल चल रहा है। कोई देश जातिवादी हिंसा की चपेट में है तो कहीं आतंकवादी व कट्टरपंथी लोग वैचारिक मतभेद रखने वाले अपने विरोधियों की जान के दुश्मन बने बैठे हैं। कहीं पश्चिम विरोध के नाम पर खून बहाया जा रहा है तो कहीं इस्लामी जेहाद के नाम का सहारा लेकर बेकुसूर इंसानों को मौत के घाट उतारा जा रहा है।

कुल मिलाकर इस्लाम धर्म इस समय पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। हालंाकि लगभग प्रत्येक हिंसा प्रभावित मुस्लिम देश में हत्याओं व हिंसा के अलग-अलग कारण ज़रूर हैं परंतु इन कारणों की परिणिती एक-दूसरे का खून बहाने के रूप में ही होती देखी जा रही है। यही वजह है कि पूरी दुनिया खंूरेज़ी के इस घिनौने व अमानवीय खेल को इस्लाम धर्म की शिक्षाओं से जोड़कर देखने लगी है। ऐसे में इस्लामी जगत के जि़ मेदार लोगों खासतौर पर उदारवादी धर्मगुरुओं की यह जि़ मेदारी है कि वे इस्लाम पर लगने वाले इस प्रकार के आरोपों का केवल माकूल जवाब ही न दें बल्कि अपनी रचनात्मक कारगुज़ारियों से भी यह साबित करने की कोशिश करें कि इस्लाम धर्म किसी इंसान की जान लेना नहीं बल्कि इंसान की जान बचाने की शिक्षा देता है। इस्लाम किसी की हत्या करना नहीं बल्कि खुद अपनी जान को जोखिम में डालकर दूसरे इंसान की जान बचाने की तालीम देता है।         

यह प्रमाणित करने का सबसे उचित अवसर निश्चित रूप से मोहर्रम का वह महीना है जिस दौरान मुस्लिम समुदाय के लोग करबला की घटना को याद कर हज़रत मोह मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन का सोग मनाते हैं। वैसे तो हज़रत इमाम हुसैन व उनके 72 साथियों की करबला में हुई कुर्बानी को सभी धर्मों व समुदायों के लोग किसी न किसी रूप में कमोबेश पूरे विश्व में मनाते हैं। पंरतु मुसलमानों में शिया समाज के लोग इस अवसर पर अनेक िकस्म के आयोजन करते हैं। इनमें मजलिस व नौहा  वानी(जि़क्र-ए-हुसैन)से लेकर तलवार,ज़ंजीर व आग के अंगारों पर चलने वाले मातम तक शामिल हैं।

कहना ग़लत नहीं होगा कि केवल दसवीं मोहर्रम को एक ही दिन में पूरे विश्व में हज़रत इमाम हुसैन के चाहने वाले उनकी याद में सैकड़ों टन खून की नदियां सड़कों पर स्वेच्छा से बहा देते हैं। भारतवर्ष में भी शिया आबादी वाले कई स्थानों पर यह शोकपूर्ण नज़ारा देखा जा सकता है। हज़रत इमाम हुसैन के अनुयायी हज़रत हुसैन की याद में धारदार ज़ंजीरों व तलवारों के मातम के द्वारा अपना खून बहाकर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि यदि वे करबला के मैदान में होते तो वे भी हज़रत इमाम हुसैन के साथ खड़े होकर क्रूर यज़ीद  व उसकी सेना से लड़ते हुए अपनी जानें न्यौछावर कर देते।

परंतु एक ओर जहां मुस्लिम समुदाय विशेषकर शिया समाज द्वारा गत् 1400 वर्षों से भी अधिक समय से अपना रक्त बहाकर हज़रत हुसैन के वास्तविक इस्लाम को जि़ंदा रखने की कोशिश की जा रही है वहीं दूसरी ओर यज़ीदी विचारधारा का अनुसरण करने वाला एक हिंसक वर्ग बेगुनाह लोगों की जानें लेने पर आमादा है। यह तथाकथित इस्लाम विरोधी वर्ग सड़कों, भीड़ भरे बाज़ारों के अलावा विभिन्न धर्मस्थलों यहां तक कि शव यात्रा में शामिल भीड़ और नमाज़-ए-जनाज़ा में शिरकत करने वाले नमाजि़यों और अस्पताल में किसी घायल व्यक्ति की तीमारदारी के लिए पहुंची भीड़ के मध्य आत्मघाती धमाके कर बेगुनाहों की हत्याएं करने से बाज़ नहीं आ रहा है।

 इन्हीं ज़ालिम तथाकथित मुसलमानों की यही हिंसक गतिविधियां इस्लाम धर्म की शिक्षाओं को संदिग्ध कर रही हैं। इस्लाम धर्म के विरुद्ध अपना पूर्वाग्रह रखने वाले लोग इन हिंसक गतिविधियों को सीधे तौर पर इस्लामी शिक्षाओं यहां तक कि कुरान शरीफ की तालीम से जोड़कर देखने लगते हैं। ऐसे में यह बेहद ज़रूरी है कि दुनिया को खासतौर पर इस्लाम की आलोचना करने वाले पूर्वाग्रही लोगों को अपनी कारगुज़ारियों के द्वारा यह बताया जाए कि इस्लाम वास्तव में त्याग, कुर्बानी,मानवता तथा दूसरे की जान बचाने की शिक्षा देने वाला धर्म है।       

रक्तदान निश्चित रूप से एक ऐसा महादान है जिससे केवल किसी एक व्यक्ति की जान ही नहीं बचती बल्कि रक्तदान प्राकृतिक रूप से मानवीय सौहाद्र्र की भी एक बेजोड़ मिसाल पेश करता है।

 

कुदरत का भी क्या अजीब करिश्मा है कि उसने मनुष्य के रक्त में कोई भी अलग पहचान नहीं बनाई जिससे यह साबित हो सके कि यह खून किसी पश्चिमी स यता से संबंधित व्यक्ति का है या किसी पूर्वी देश के व्यक्ति का। कोई पैमाना ऐसा नहीं है जो यह निर्धारित कर सके कि यह खून किसी हिंदू का है अथवा मुस्लिम का, सिख का या ईसाई का। दलित का या ब्राह्मण का, किसी स्वर्ण जाति के व्यक्ति का अथवा कथित निम्र जाति के किसी श स का, किसी स्वामी का अथवा किसी नौकर का। गोया ईश्वर ने मानव को मात्र प्राणी के रूप में ही इस धरती पर पैदा किया।

 

परंतु दुर्भाग्यवश कहें या सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार समय के आगे बढऩे के साथ-साथ मानव के विभाजन की रेखाओं की सं या भी बढ़ती ही गई। परिणामस्वरूप मानव समाज विभिन्न प्रकार की श्रेणियों,वर्गों तथा रेखाओं में विभाजित होकर रह गया। नि:संदेह रक्तदान एक ऐसा दान है जो बिना किसी धर्म-जाति अथवा संकीर्ण सीमाओं के एक-दूसरे के मध्य सद्भाव पैदा करता है। दो दशक पूर्व अमिताभ बच्चन अपनी एक िफल्म की शूटिंग के दौरान बुरी तरह घायल हो गए थे। उस समय उन्हें अमजद खान ने अपना खून दान किया था। आज अमजद खान हमारे मध्य नहीं हैं। परंतु उनका रक्त अमिताभ बच्चन के शरीर में प्रवाहित हो रहा है।

 

हिंदू-मुस्लिम एकता व घनिष्ठता  का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। लिहाज़ा आज केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में और केवल शिया समुदाय को ही नहीं बल्कि पूरे मुस्लिम जगत को और कितना अच्छा हो यदि गैर मुस्लिम समुदाय के लोग भी मोहर्रम के महीने में जगह-जगह मिलजुल कर रक्तदान शिविर लगाकर पूरी दुनिया को यह संदेश दें कि वास्तविक इस्लाम अपना रक्त देकर दूसरे की जान बचाना है।

 

इस्लाम के नाम पर दूसरों की जान लेने जैसा कार्य वास्तविक इस्लाम नहीं बल्कि यज़ीदियत की पैरवी करने वाले तथा यज़ीदियत की शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले तथाकथित मुसलमानों के बुरे कारनामे मात्र हैं। और हकीकत भी यही है कि करबला के मैदान में सत्ता पर बैठे सीरिया के तत्कालीन बादशाह यज़ीद ने अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए पैगंबर-ए-रसूल हज़रत मोह मद के परिवार के सदस्यों के साथ जो ज़ुल्म किया उन्हें तीन दिनों तक भूखा-प्यासा रखकर कत्ल करने व कत्ल करने के बाद शहीदों की लाशों पर घोड़े दौड़ाने और लाशों से शहीदों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर बुलंद कर जुलूस में शामिल करने जैसा क्रूरतापूर्ण कार्य इस्लामी इतिहास की सबसे पहली व सबसे बड़ी आतंकवादी घटना थी। आज दुनिया में जहां-जहां आतंकवाद इस्लाम के नाम पर फैलाया जा रहा है वह नि:संदेह यज़ीदी शिक्षाओं से ही प्रेरित है पैगंबर हज़रत मोह मद अथवा कुरानी शिक्षाओं से नहीं।

               

 

इस्लाम का अपहरण करने की कोशिश करने वाले इन क्रूर,अत्याचारी तथा बेगुनाह इंसानों पर ज़ुल्म ढाने वाले लोगों को इसका माकूल जवाब दिए जाने की ज़रूरत है। और हज़रत इमाम हुसैन की याद में तथा करबला के शहीदों के नाम पर लगने वाले रक्तदान शिविर इस दिशा में एक बड़े और रचनात्मक कदम साबित हो सकते हैं।

 

इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे रक्तदान शिविर इस्लाम,मुसलमान तथा इस्लामी शिक्षाओं की धूमिल होती जा रही छवि को साफ करने में महत्वपूर्ण कदम साबित होंगे। पूरे देश व दुनिया के उदारवादी मुस्लिम धर्मगरुओं को इस मुहिम में आगे आना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि हज़रत इमाम हुसैन व करबला के शहीदों के नाम पर स्वेच्छा से बहाया जाने वाला श्रद्धालुओं का खून धरती पर व्यर्थ न बहने पाए।

 

यदि हज़रत इमाम हुसैन के किसी अनुयायी के रक्तदान के परिणामस्वरूप किसी दूसरे इंसान की जान बचती हो तो करबला के शहीदों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि आिखर और क्या हो सकती है? इस विषय पर हज़रत इमाम हुसैन की याद में अपना खून बहाने वाले युवाओं से लेकर इन्हें प्रोत्साहित करने वाले धर्मगुरुओं तक सभी को चिंतन-मंथन करना बहुत ज़रूरी है। हज़रत हुसैन के परस्तारों को यह बात बखूबी अपने ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस प्रकार 1400 वर्ष पूर्व हज़रत इमाम हुसैन ने अपना व अपने पूरे परिवार का रक्त देकर इस्लाम धर्म की छवि को दागदार होने से बचाया था वैसी ही जि़ मेदारी आज हज़रत इमाम हुसैन के अनुयायी समुदाय पर भी आ पड़ी है। लिहाज़ा इस जि़ मेदारी को भी कुर्बानी के उसी जज़्बे के साथ निपटने की ज़रूरत है।    

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बसंत कुमार तिवारीः स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला

छत्तीसगढ़ के जाने-माने पत्रकार और ‘देशबंधु’ के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी का न होना जो शून्य रच है उसे लंबे समय तक भरना कठिन है। वे एक ऐसे साधक पत्रकार रहे हैं, जिन्होंने निरंतर चलते हुए, लिखते हुए, धैर्य न खोते हुए,परिस्थितियों के आगे घुटने न टेकते हुए न सिर्फ विपुल लेखन किया ,वरन एक स्वाभिमानी जीवन भी जिया । उनके जीवन में भी एक नैतिक अनुशासन दिखता रहा है। छत्तीसगढ़ की मूल्य आधारित पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बसंत कुमार तिवारी राज्य के एक ऐसे विचारक, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी पूरी जिंदगी कलम की साधना में गुजारी।

आकर्षक व्यक्तित्व के धनीः

  बसंत जी जब रिटायर हो चुके थे तो हमारे जैसे युवा पत्रकारिता में स्थापित होने के हाथ-पांव मार रहे थे। हमने उन्हें हमेशा एक हीरो की तरह देखा। आकर्षक व्यक्तित्व, कार ड्राइव करते हुए जब वे मुझसे मिलने ‘हरिभूमि’ के धमतरी रोड स्थित दफ्तर आते मैं उनसे कहता ” सर मैं अवंति विहार से आते समय आपसे मिलता आता, आपका घर मेरे रास्ते में है। अपना लेख लेकर आप खुद न आया करें।“ वे कहते “अरे भाई अभी से घर न बिठाओ।“ मुझे अजीब सा लगता पर उनकी सक्रियता प्रेरणा भी देती। खास बात यह कि खुद को लेकर, अपने व्यवसाय को लेकर उनमें कहीं कोई कटुता नहीं। कोई शिकायत नहीं। चिड़चिड़ाहट नहीं। वे अकेले ऐसे थे जिन्होंने हमेशा पत्रकारिता के जोखिमों, सावधानियों को लेकर तो हमें सावधान किया पर कभी भी निराश करने वाली बातें नहीं की। उनका घर मेरा-अपना घर था।

हम जब चाहे चले जाते और वे अपनी स्वाभाविक मुस्कान से हमारा स्वागत करते। हमने उन्हें कभी संपादक के रूप में नहीं देखा पर सुना कि वे काफी कड़क संपादक थे। हमें कभी ऐसा कभी लगा नहीं। एक बात उनमें खास थी कि उनमें नकलीपन नहीं था। अपने रूचियों, रिश्तों को कभी उन्होंने छिपाया नहीं। वे जैसे थे, वैसे ही लेखन में और मुंह पर भी वैसे। ‘मीडिया विमर्श ‘ पत्रिका का प्रकाशन रायपुर से प्रारंभ हुआ तो उन्होंने पहले अंक में ही ‘मेरा समय’ स्तंभ की शुरूआत की, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार अपने अनुभव लिखते थे। बाद में यह स्तंभ लोकप्रिय काफी लोकप्रिय हुआ जिसमें स्व. स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, मनहर चौहान, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर जैसे अनेक पत्रकारों ने इसमें अपनी पत्रकारीय यात्रा लिखी। ‘मीडिया विमर्श’ के वे एक प्रमुख लेखक थे। उसके हर आयोजन में वे अपनी उपस्थिति देते थे। मेरी पत्नी भूमिका को भी उनका बहुत स्नेह मिला। वे जब भी मिलते हम दोनों से बातें करते और परिवार के अभिभावक की तरह चिंता करते। रायपुर में गुजारे बहुत खूबसूरत सालों में वे सही मायने में हमारे अभिभावक ही थे, पिता सरीखे भी और मार्गदर्शक भी। उन्हें देखना, सुनना और साथ बैठना तीनों सुख देता था। अभी हाल में ही पत्रकार और पूर्व मंत्री बी.आर.यादव पर केंद्रित मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ‘कर्मपथ’ में भी उन्होंने बीमारी के बावजूद अपना लेख लिखा। किताब छपी तो उन्हें देने घर पर गया। बहुत खुश हुए बोले कि “तुमने इस तरह का डाक्युमेंटन करने का जो काम शुरू किया है वह बहुत महत्व का है।”

सांसें थमने तक चलती रही कलमः

   छत्तीसगढ़ के प्रथम दैनिक 'महाकौशल' से प्रारंभ हुई उनकी पत्रकारिता की यात्रा 81 साल की आयु में उनकी सांसें थमने तक अबाध रूप से जारी रही। सक्रिय पत्रकारिता से मुक्त होने के बाद भी उनके लेखन में निरंतरता बनी रही और ताजापन भी। सही अर्थों में वे हिंदी और दैनिक पत्रकारिता के लिए छत्तीसगढ़ में बुनियादी काम करने वाले लोगों में एक रहे। उनका पूरा जीवन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को समर्पित रहा । प्रांतीय, राष्ट्रीय और विकासपरक विषयों पर निरंतर उनकी लेखनी ने कई ज्वलंत प्रश्न उठाए हैं। राष्ट्रीय स्तर के कई समाचार पत्रों में उन्होंने निरंतर लेखन और रिपोर्टिंग की करते हुए एक खास पहचान बनाई थी।अपने पत्रकारिता जीवन के लेखन पर आधारित प्रदर्शनी के साथ-साथ पत्रकारिता के इतिहास से जुड़ी 'समाचारों का सफर' नामक प्रदर्शनी उन्होंने लगाई। इसका रायपुर,भोपाल, भिलाई और इंदौर में प्रदर्शन किया गया। उनके पूरे लेखन में डाक्युमेंट्रेशन और विश्वसनीयता पर जोर रहा है, लेकिन इन अर्थों में वे बेहद प्रमाणिक और तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता में भरोसा रखते थे। संपादकीय पृष्ठ पर छपने वाली सामग्री को आज भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।बसंत कुमार तिवारी के पूरे लेखन का अस्सी प्रतिशत संपादकीय पृष्ठों पर ही छपा है। बोलचाल की भाषा में रिपोर्टिंग, फीचर लेखन और कई पुस्तकों के प्रकाशन के माध्यम से श्री तिवारी ने अपनी पत्रकारिता को विविध आयाम दिए हैं।

   मध्यप्रदेश की राजनीति पर उनकी तीन पुस्तकों में एक प्रामाणिक इतिहास दिखता है। प्रादेशिक राजनीति पर लिखी गई ये पुस्तकें हमारे समय का बयान भी हैं जिसका पुर्नपाठ सुख भी देता है और तमाम स्मृतियों से जोड़ता भी है। वे मध्यप्रदेश में महात्मा गांधी की १२५ वीं जयंती समिति के द्वारा भी सम्मानित किए गए और छत्तीसगढ़ में उन्हें 'वसुंधरा सम्मान' भी मिला। राजनीति, समाज, पत्रकारिता, संस्कृति और अनेक विषयों पर उनका लेखन एक नई रोशनी देता है। उनकी रचनाएं पढ़ते हुए समय के तमाम रूप देखने को मिलते रहे हैं।

असहमति का साहसः

   अपने लेखन की भांति अपने जीवन में भी वे बहुत साफगो और स्पष्टवादी थे। अपनी असहमति को बेझिझक प्रगट करना और परिणाम की परवाह न करना बसंत कुमार तिवारी को बहुत सुहाता था। वे किसी को खुश करने के लिए लिखना और बोलना नहीं जानते थे। इस तरह अपने निजी जीवन में अनेक संघर्षों से घिरे रहकर भी उन्होंने सुविधाओं के लिए कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया। पं. श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं से बेहद पारिवारिक और व्यक्तिगत रिश्तों के बावजूद वे इन रिश्तों को कभी भी भुनाते हुए नजर नहीं देखे गए। मौलिकता और चिंतनशीलता उनके लेखन की ऐसी विशेषता है जो उनकी सैद्धांतिकता के साथ समरस हो गई थी। उन्हें न तो गरिमा गान आता था, न ही वे किसी की प्रशस्ति में लोटपोट हो सकते थे। इसके साथ ही वे लेखन में द्वेष और आक्रोश से भी बचते रहे हैं। नैतिकता, शुद्ध आचरण और प्रामाणिकता इन तीन कसौटियों पर उनका लेखन खरा उतरता है। उनके पास बेमिसाल शब्द संपदा है। मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ की छ: दशकों की पत्रकारिता का इतिहास उनके बिना पूरा नहीं होगा। वे इस दौर के नायकों में एक हैं।  

   पत्रकारिता में आने के बाद और बड़ी जिम्मेदारियां आने के बाद पत्रकारों का लेखन और अध्ययन प्राय: कम या सीमित हो जाता है किंतु श्री तिवारी हमेशा दुनिया-जहान की जानकारियों से लैस दिखते हैं। 80 वर्ष की आयु में भी उनकी कर्मठता देखते ही बनती थी। राज्य में नियमित लिखने वाले कुछ पत्रकारों में वे भी शामिल थे। उनका निरंतर लिखना और निरंतर छपना बहुत सुख देता था। वे स्वयं कहते थे-'मुझे लिखना अच्छा लगता है, न लिखूं तो शायद बीमार पड़ जाऊं।'  उनके बारे में डा. हरिशंकर शुक्ल का कहना है कि “वे प्रथमत: और अंतत: पूर्ण पत्रकार ही हैं।“ यह एक ऐसी सच्चाई है, जो उनके खरेपन का बयान है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उम्र का असर उन पर दिखता नहीं था। वे हर आयु, वर्ग के व्यक्ति से न सिर्फ संवाद कर सकते हैं, बल्कि उनके व्यक्तित्व से सामने वाला बहुत कुछ सीखने का प्रयास भी करता है। उनमें विश्लेषण की परिपक्वता और भाषा की सहजता का संयोग साफ दिखता है। वे बहुत दुर्लभ हो जा रही पत्रकारिता के ऐसे उदाहरण थे, जो छत्तीसगढ़ के लिए गौरव का विषय है। उनका धैर्य, परिस्थितियों से जूङाने की उनकी क्षमता वास्तव में उन्हें विशिष्ट बनाती है। अब जबकि वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाली पीढ़ी के लिए बसंत जी एक ऐसे नायक की तरह याद किए जाएंगें जो हम सबकी प्रेरणा और संबल दोनों है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

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अम्बाला छावनी का २२ वां वार्षिकोत्सव

२४ से २७ अक्टूबर तक आर्यसमाज रामनगर अम्बाला छावनी का २२ वां वार्षिकोत्सव सामवेद पारायण यज्ञ (आंशिक) के माध्यम से मनाया गया | यज्ञ के ब्रह्मा होशंगाबाद मध्य प्रदेश के आचार्य आनंद पुरुषार्थी जी थे जिन्होंने प्रतिदिन मन्त्रों की मार्मिक व्याख्या के माध्यम से वैदिक सिद्धांतों को स्पष्ट किया | वेदपाठी के रूप में सुयोग्य डॉ नरेश बत्रा जी (प्रधान आर्यसमाज )एवं सुश्री प्रियंका आर्या जी थे | जो दोनों ही गुरुकुलों के स्नातक व सनातन धर्म डिग्री कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक है |आप दोनों ही ने उच्चारण की शुद्धता का तो ध्यान रखा ही और जनता जनार्दन को आपके उपदेशामृत के पान करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ |

भजनोदेशक श्री संदीप वैदिक मुजफ्फरनगर ने सारगर्भित व्याख्या व मधुर भजनों से सभी का मन मोह लिया | प्रातः ६:३० से ९;३० व सायंकाल ४ से ७ तक यज्ञ भजन प्रवचन होते थे | पुरुषार्थी जी के आग्रह पर  बाहर की संस्थाओ में प्रोग्राम सनातन धर्म इंटर कालेज एवं सेंट्रल जेल में उपदेश रखे गए |जिनका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला |लगभग २५ आर्यसमाजी साथ गए थे | इस जेल में १३०० कैदी है जिनमे ७० महिलाएं भी है |एक महिला ऐसी भी है जिनकी दया याचिका राष्ट्रपतिजी ने ख़ारिज कर दी है | उसने पति के साथ मिलकर अपने  विधायक पिता ,सगे भाई भाभी सहित ९ व्यक्तियों का कत्लेआम किया है | पुरुषार्थी जी ने कैदियों के प्रश्नों के उत्तर भी दिए |आर्यों को कैदियों की बैरक भोजनालय पुस्तकालय आदि देखने का अवसर प्राप्त हुआ |सत्यार्थ प्रकाश भेंट की गई |आचार्य जी ने कैदियों से अपने बेटे बेटियों को गुरुकुलों में देने पर उनकी निशुल्क व्यवस्था का आश्वासन दिया |

 अंतिम दिन पूर्णाहुति पर स्थानीय आर्यसमाजों से भी आर्य परिवार आये थे | स्कूल के बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे गए थे | आर्य स्त्री समाज का योगदान न होता तो यह कार्यक्रम सफल होना कठिन था |मंत्री ने आर्यसमाज में एक कमरा बनाने हेतु ४० सीमेंट की बोरियों का आवाहन किया श्रद्धालुओं ने तुरंत  घोषणा करके उसकी पूर्ति कर दी | ऋषि लंगर में सभी ने प्रेम से भोजन किया |

संपर्क
कृष्ण कुमार
मंत्री आर्यसमाज
२९  रामनगर
अम्बाला छावनी हरयाणा 

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कृष थ्री [हिंदी विज्ञान कथा]

दो टूक : कहते हैं बुराई चाहे जितनी ताकतवर हो उसका अंतिम संस्कार अच्छाई ही करती है . बस इतनी से बात कहती है.

निर्देशक राकेश रोशन की ऋतिक रोशन , प्रियंका चोपड़ा , विवेक ओबरॉय , कंगना राणावत , आरिफ जकारिया , शौर्य चौहान , मोहनीश बहल , राजपाल यादव ,रेखा और  नसीरुद्दीन शाह के अभिनय  फ़िल्म वाली कृष थ्री .

कहानी  : फ़िल्म की कहानी वहीँ से शुरू होती हैं जहाँ पहली फ़िल्म की कहानी ख़तम होती है . पिता रोहित [ऋतिक रोशन ] पर होने वाले  डॉक्टर आर्य [नसीर उद्दीनशाह ]  के जुल्म के बाद कृष (रितिक रोशन) अब भारत का सुपरहीरो बन चूका है। अपने पिता और पत्नी प्रिया (प्रियंका चोपड़ा) के साथ वह खुश है। लेकिन कृष की दुनिया तब बदलती है  जब काल [विवेक ओबरॉय ] नाम का एक वैज्ञानिक उसके रास्ते में आ जाता है . दुनिया के दूसरे छोर पर रहें वाला अपंग काल जीनियस है लेकिन उस के इरादे दुनिया में तबाही मचाने के है। इसके लिए पहले  वह खतरनाक बीमारियों के वायरस फैलाता है और फिर उनका एंटीडोट बेचकर पैसा कमाता है। उसके इस काम को अंजाम देने में काया (कंगना रनोट) उसकी मदद करती है जो गिरगट की तरह अपना भेष बदल लेती है। हालात तब मुश्किल होते हैं जब कृष काल का रास्ता रोककर उसे उसके इरादों में नाकाम कर देता है और बदले में काल उसके पिता रोहित और पत्नी प्रिया को अपने कब्जे में लेकर दुनिया को तबाह करने पर उतर आता है . इसके बाद शुरू होती है कृष की  दुनिया , प्रिया और रोहित को बचाने कि जंग की शुरुआत.

गीत संगीत : फ़िल्म में राजेश रोशन का संगीत और समीर के गीत हैं लेकिन फ़िल्म में इस बार ऐसा कोई भी गीत नहीं जो कानों को सुकून दें। हाँ एक गीत है जो मुझे बहुत पसंद आया और वो है दिल तू ही तो बता' जैसे बोलों वाला गीत . उसका फिल्मांकन भी अद्भुत रंगों और लोकेशंस वाला है . जबकि इसके साथ  रघुपति राघव राजा राम  बस सुना जा सकता है .

अभिनय :  ऋतिक रोशन को अगर हम अपने  पिता का हीरो माने तो बुरा नहीं लगाना चाहिए .सुपरहीरो की भूमिका के लिए रितिक रोशन से बेहतरीन विकल्प उनके पास नहीं है . यही नहीं ..इस पात्र के चरित्र को भी ऋतिक सलीके से अभिनीत करते हैं और उसके लिए भावुक भरी डिलीवरी देने के साथ ही एक सुपर एक्शन हीरो को भी वो अद्भुत तरीके से परदे पर उतारते  हैं . रोहित और कृष के की भूमिकाओं का अवयव तत्व , उसकी शारीरिक भाषा और संवादों के उम्र और पात्र के अंतर्मन को भी  . विवेक ओबेरॉय को पहली बार इतनी ग़हरी और गम्भीर खलनायकी करते हुए देखा . सुपर हीरो को सुपर खलनायक की ताकर देना आसान नहीं था पर प्रियंका चोपड़ा के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। उनसे बेहतर रोल कंगना के पास था और उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया। एक विशेष कास्ट्यूम के लिए उन्होंने अपने फिगर पर खासी मेहनत की जो नजर आती है ।काल भूमिका में उन्होंने मेहनत तो की है बात .औरउनके साथ कंगना ने भी .

हालांकि कंगना को कुछ और विस्तार दिया जा सकता था . पर फिर प्रियाका के लिए जगह कम हो जाती है और वैसे भी उनके लिए करने को बहुत कुछ नहीं था जबकि कंगना उनके और खुद के पात्र के लिए भी आधार बनी रही . राजपाल यादव और राखी विजन की  कोई जरुरत नहीं थी . मोहनीश बहाल,रेखा और नसीर बस कुछ दृश्यों कें दिखाई देते है और आरिफ जकारीय को बहुत जल्दी मार दिया  गया . हाँ नाजिए शेख और समीर अली खान जरुर याद रहते हैं.

निर्देशन : फिल्म की कहानी राकेश रोशन ने लिखी है और  पटकथा  हनी ईरानी, रॉबिन भट्ट, आकाश खुराना और इरफान कमल ने लिखी  है। कहानी में कुछ भी नया नहीं है लेकिन एनीमेशन, स्पेशल इफेक्टस , साउंड्स और कैमरे के कमाल को राकेश ने बहुत मेहनत के साथ परदे पर रखा  है . अपने नयाक को भी और खलनायक को भी . उनका सुपरहीरो अपने  बेहद क्रूर और विध्वंसकारी खलनायक को मात देता है तो लोग ताली बजाते हैं लेकिन फ़िल्म में विज्ञान सम्बन्धी शब्दों और भाषा का बेहद गूढ़ इस्तेमाल उसका चार्म कम कर देता है . फ़िल्म में एक्शन , रोमांस और रिश्तों की कहानी को बुना गया है .कोई और फ़िल्म .माने ..जब सुपर मैन , स्पाइडर मैन , टर्मिनेटर जैसी फ़िल्में देख चुके हों तो कृष ३ उतना प्रभाव नहीं छोड़ती ..ये अलग बात है कि फ़िल्म के क्लामीमेक्स में वही सब कुछ है जो किसी उत्रकृष्ठ फिल्मांकन , एक्शन  , संपादन और कैमरावर्क वली फ़िल्म में होता है.

फ़िल्म क्यों देखें : उत्कृष्ठ तकनिकी शैली वाली फ़िल्म हैं .

फ़िल्म क्यों ना देखें : अगर इसकी तुलना पिछली  वाली फ़िल्म से कर रहे हों .

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