Friday, November 29, 2024
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दीवाली की पौराणिक कथा

एक बार भगवान विष्णु माता लक्ष्मीजी सहित पृथ्वी पर घूमने आए। कुछ देर बाद भगवान विष्णु लक्ष्मीजी से बोले- मैं दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूँ । तुम यहीं ठहरो, परंतु लक्ष्मीजी भी विष्णुजी के पीछे चल दीं। कुछ दूर चलने पर ईख (गन्ने) का खेत मिला। लक्ष्मीजी एक गन्ना तोड़कर चूसने लगीं। भगवान लौटे और जब उन्होंने लक्ष्मीजी को गन्ना चूसते हुए देखा तो क्रोधित होकर श्राप दे दिया कि यह खेत जिस किसान का है तुम उसके यहाँ पर १२ वर्ष तक रहकर उसकी सेवा करो।

विष्णु भगवान क्षीर सागर लौट गए तथा लक्ष्मीजी ने किसान के यहाँ रहकर उसे धन-धान्य से पूर्ण कर दिया। उस किसान को पता ही नहीं था कि उसके घर में एक साधारण स्त्री के रूप में रहने के लिए स्वयं लक्ष्मीजी आई है। १२ वर्ष के बाद लक्ष्मीजी भगवान विष्णु के पास जाने के लिए तैयार हो गईं परंतु किसान ने उन्हें जाने नहीं दिया। श्राप की अवधि पूर्ण होने पर भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मीजी को वापस लेने आए परंतु किसान ने लक्ष्मीजी को रोक लिया।  इस पर विष्णु भगवान ने उस किसान से कहा कि  तुम परिवार सहित गंगा स्नान करने जाओ और इन कौड़ियों को भी गंगाजल में छोड़ देना तुम्हारे आने तक मैं यहीं रहूँगा।

किसान गंगा नदी में स्नान करने पहुँचा और गंगाजी में कौड़ियां डालते ही चार भुजाएँ निकली जिन्होंने वे कौड़ियाँ अपने पास ले ली।  यह देखकर देखकर किसान ने गंगाजी से पूछा कि ये चार हाथ किसके हैं। गंगाजी ने किसान को बताया कि ये चारों हाथ मेरे ही थे। तुमने जो मुझे कौड़ियाँ भेंट की हैं, वे तुम्हें किसने दी हैं? किसान बोला कि मेरे घर पर एक स्त्री और पुरुष आए हैं। तभी गंगाजी बोलीं- वे लक्ष्मीजी और भगवान विष्णु हैं। तुम लक्ष्मीजी को मत जाने देना, नहीं तो पुन: निर्धन हो जाओगे।

किसान ने घर लौटने पर लक्ष्मीजी को नहीं जाने दिया। तब भगवान ने किसान को समझाया कि मेरे श्राप के कारण लक्ष्मीजी तुम्हारे यहाँ  १२ वर्ष से तुम्हारी सेवा कर रही हैं। फिर लक्ष्मीजी चंचल हैं, इन्हें बड़े-बड़े नहीं रोक सके, तुम हठ मत करो। फिर लक्ष्मीजी बोलीं- हे किसान यदि तुम मुझे रोकना चाहते हो तो कल धनतेरस है। तुम अपना घर स्वच्छ रखना। रात्रि में घी का दीपक जलाकर रखना। मैं तुम्हारे घर आउंगी। तुम उस समय  जब मेरी पूजा करोगे तो मैं अदृश्य रहूँ गी। किसान ने लक्ष्मीजी की बात मान ली और लक्ष्मीजी द्वारा बताई विधि से पूजा की। उसका घर धन-धान्य से भर गया। इस प्रकार किसान प्रति वर्ष लक्ष्मीजी को पूजने लगा तथा अन्य लोग भी लक्ष्मीजी का पूजन करने लगे।

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राम की शक्ति पूजा

दिवाली का मतलब है अंधकार को दूर करना लेकिन इसके शाब्दिक अर्थ को ग्रहण करने की बजाय आप अपने आस-पास के अंधियारे को देखें और अनाथ आश्रमों में रहने वाले बच्चों के बीच जाकर, अपने घर के पास की झुग्गी झोपडियों में रहने वाले गरीबों के बीच जाकर या फिर अपने घर में काम करने वाले नौकरों, ड्रायवरों और महरियों के बच्चों को अपने घर बुलाकर उनके साथ दिवाली मनाएं तो तो दीपावली का पर्व मनाना ज्यादा सार्थक होगा।

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने राम की शक्ति पूजा पर एक कालजयी रचना लिखी थी हमें उम्मीद है हमारे हिन्दी प्रेमी सुधी पाठकजनों को जरुर पसंद आएगी।

राम की शक्ति पूजा

फिर देखी भीमा-मूर्ति आज रण देवी जो
आच्छादित किए हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझकर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन,
लख शंकाकुल हो गए अतुल-बल शेष-शयन;
खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना-हँस रहा अट्टाहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक गुण-गण-अनिन्द्य,
साधना-मध्य भी साम्य-वामा-कर दक्षिण-पद,
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर, गद्गद्
पा सत्य, सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्ति हो राम-नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु-युगल,
देखा कवि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल।
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ, –
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल

बैठे वे वहीं कमल लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उच्छवास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत पूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव

वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
इस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
उस ओर रूद्रवंदन जो रघुनन्दन-कूजित;
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण भर चंचल;
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले – "सम्वरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, नहीं हुआ शृंगार-युग्म-गत, महावीर
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर,
चिर ब्रह्मचर्य-रत ये एकादश रूद्र, धन्य,
मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य

लीला-सहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जाएगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"
कह हुए मौन शिव; पतन-तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजना-रूप का हुआ उदय
बोली माता – "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें; रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह-रह
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह-सह;
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल-
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में;
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रघुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य –
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिए धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता-छवि हुई लीन,
उतरे धीरे-धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण;
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न-वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर-वानर-
भल्लूक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर;
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही पक्ष, रण-कुशल-हस्त, बल वही अमित;
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनाद-जित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद-सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय भाव-प्रहर!
रघुकुल-गौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलन-समय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण – लम्पट, खाल कल्मय-गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पाद-प्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित-पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक्, राघव, धिक्-धिक्?'
सब सभा रही निस्तब्ध; राम के स्मित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न हो कोई दुराव,
ज्यों ही वे शब्दमात्र – मैत्री की समानुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि – "मित्रवर, विजया होगी न, समर
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण;
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, – समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, – हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।

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झूम पर देखिये सड़कछाप रोमियो आदित्य रॉय कपूर को एक नए अंदाज़ में!

ज़ूम टीवी पर आदित्य रॉय कपूर ने अपनी जिंदगी के कई खुलासे किए, जवानी के दिनों से लेकर बॉलीवुड के रोमांटिक हीरो बनने तक-सिद्धार्थ रॉय कपूर और कुणाल रॉय कपूर जैसे बड़े भाईयों के साथ रहना मुश्किल हो सकता है! इस शांत सुभाव लेकिन गहरी सोच रखने वाले स्टार आदित्य रॉय कपूर के बारे में जानिए इस सप्ताह जूम के जेनेक्सट-द फ्यूचर ऑफ बॉलीवुड में, जिनमें उनके कई रहस्याओं और कई अपेक्षाओं से पर्दा उठेगा।

सलमान खान, ऋतिक रौशन और अक्षय कुमार जैसे स्थापित सितारों के साथ स्क्रीन शेयर करने वाले इस युवा हीरो को ना सिर्फ नोटिस किया गया था बल्कि उसे अपनी हिट फिल्म में एकल भूमिका निभाने के लिए भी अनुभव भी मिला। आशिकी 2, चाहे उनकी पहली फिल्म ना हो पर इस फिल्म ने ही उन्हें बॉलीवुड में स्थापित किया है। 100 करोड़ रुपए का आंकड़ा पार कर इस ब्लॉकबस्टर ने उन्हें शानदार सफलता दी है और ये फिल्म उनके सबसे करीब भी है। देखिए उसको बॉलीवुड में सबसे चहेते और बेहतरीन हीरो होने पर अपनी भाभी विद्या बालन, इंडस्ट्री के महेश भट्ट, मोहित सूरी, शक्ति कपूर, रणबीर कपूर को अपनी राय देते हुए।

आशिकी 2, ने उन्हें पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनाया है पर ये जवानी है दिवानी में रणबीर कपूर के दोस्त के रूप में उनकी भूमिका से स्पष्ट है कि वे यहां पर लंबे समय तक टिकने वाले हैं। ये प्राकृतिक ही है कि एक स्टार अपने प्रशंसकों के प्यार का आनंद उठाएंगे पर ये रूमानी लड़का काफी शर्मीला है और ये भी नहीं जानता कि प्रशंसकों के साथ कैसे बर्ताव करना चाहिए! उसका कहना है कि जब दर्शक  उसके काम की तारीफ कर रहे होते हैं तो वह चुपचाप ही रहता है।

अपनी फिल्मों में अपनी भूमिकाओं के अनुरूप ही ये हीरो असल जिंदगी में भी एक कूल राउडी की रह चुका है। अपनी जवानी के दिनों में दो लड़कियों से आकर्षित ये ‘आशिक’ उनके हर कदम पर नजर रखता था! उनसे अपने कॉलेज के रॉक बैंड और संगीत के प्रति अपने प्रेम के किस्से भी सुनिए। अपने क्रांतिकारी कदमों के साथ आगे रहने वाला ये स्टार पाठशाला में हमेशा बैकबेंचर ही होता था! परीक्षाओं में फेल होना और स्कूल से बंक मारने के नए नए अंदाज के साथ वह कॉलेज से सस्पेंडड  भी  हो गया था। अब इन सब के बारे में वे खुद ही बात करेंगे जूम पर !

 

इस मिश्रण में कुछ और मसाले डालते हुए उनके भाई भी बचपन के कुछ किस्सों और शरारतों का खुलासा करेंगे। अपने भाई, दोस्त और राजदार के साथ बिताए पलों के बारे में सिद्धार्थ रॉय कपूर और कुणाल रॉय कपूर भी काफी कुछ मजेदार बताएंगे।

 

देखिए, जेनेक्सट, फ्यूचर ऑफ बॉलीवुड, सोमवार 4 नवंबर, 2013, रात 8 बजे, सिर्फ जूम पर-भारत का नंबर 1 बॉलीवुड चैनल!

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पूजन के लिए आवश्यक पूजा सामग्री

धूप बत्ती (अगरबत्ती),  चंदन ,  कपूर,  केसर ,  यज्ञोपवीत 5 ,  कुंकु ,  चावल,  अबीर,  गुलाल,  अभ्रक,  हल्दी ,  सौभाग्य द्रव्य-मेहंदी,  चूड़ी, काजल, पायजेब,   बिछुड़ी आदि आभूषण। नाड़ा (लच्छा),  रुई,  रोली, सिंदूर,  सुपारी, पान के पत्त ,  पुष्पमाला,  कमलगट्टे,  निया खड़ा (बगैर पिसा हुआ) ,  सप्तमृत्तिका,  सप्तधान्य,  कुशा व दूर्वा (कुश की घांस) ,  पंच मेवा ,  गंगाजल ,  शहद (मधु),  शकर ,  घृत (शुद्ध घी) ,  दही,  दूध,  ऋतुफल,  (गन्ना, सीताफल, सिंघाड़े और मौसम के फल जो भी उपलब्ध हो),  नैवेद्य या मिष्ठान्न (घर की बनी मिठाई),  इलायची (छोटी) ,  लौंग,  मौली,  इत्र की शीशी ,  तुलसी पत्र,  सिंहासन (चौकी, आसन) ,  पंच-पल्लव (बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते),  औषधि (जटामॉसी, शिलाजीत आदि) ,  लक्ष्मीजी का पाना (अथवा मूर्ति),  गणेशजी की मूर्ति ,  सरस्वती का चित्र,  चाँदी का सिक्का ,  लक्ष्मीजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र,  गणेशजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र,  अम्बिका को अर्पित करने हेतु वस्त्र,  सफेद कपड़ा (कम से कम आधा मीटर),  लाल कपड़ा (आधा मीटर),  पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार),  दीपक,  बड़े दीपक के लिए तेल,  ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा) ,  धान्य (चावल, गेहूँ) ,  लेखनी  (कलम, पेन),  बही-खाता, स्याही की दवात,  तुला (तराजू) ,  पुष्प (लाल गुलाब एवं कमल) ,  एक नई थैली में हल्दी की गाँठ,  खड़ा धनिया व दूर्वा,  खील-बताशे,  तांबे या मिट्टी का कलश और श्रीफल।

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खगोलीय दृष्टि से दिवाली का महत्व

मेष एवं तुला की संक्रांति में सूर्य विषुवत रेखा (नाड़ीवृत्त) पर रहता है, जिसे देवता 6 माह तक उत्तर की ओर तथा राक्षस 6 माह तक दक्षिण की ओर खींचते हैं। मंदराचल पर्वत ही नाड़ीवृत्त है, जिसके एक भाग में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशि हैं जिन्हें देवता खींचते हैं। दूसरे भाग में तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि हैं जिन्हें राक्षस खींचते हैं। मंथन से चौदह रत्न निकलते हैं, जिनमें महालक्ष्मी कार्तिक की अमावस्या को प्रकट होती हैं।

कार्तिक कृष्ण अमावस्या को समुद्र मंथन के परिणामस्वरूप महालक्ष्मी का जन्म हुआ था। हम जिस लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं वह अब भी प्रतिवर्ष समुद्रमंथन से निकलती हैं। ज्योतिषशास्त्र, भूगोल या खगोल की दृष्टि से देखें तो सूर्य को सभी ग्रहों का केंद्र एवं राजा माना गया है। सूर्य की बारह संक्रांतियां हैं। नाड़ीवृत्त मध्य में होता है, तीन क्रांतिवृत्त उत्तर को और तीन दक्षिण को होते हैं।

समुद्र मंथन में भगवान विष्णु की ही बड़ी भूमिका रही है और सूर्य ही भगवान विष्णु स्वरूप हैं। सूर्य क्रांतिवृत्त पर विचरण करता है। यह 6 माह उत्तर गोल में एवं 6 माह दक्षिण गोल में विचरण करता है, जिन्हें देवभाग एवं राक्षस भाग भी कहते हैं। मेष एवं तुला की संक्रांति में सूर्य विषुवत रेखा (नाड़ीवृत्त) पर रहता है, जिसे देवता 6 माह तक उत्तर की ओर तथा राक्षस 6 माह तक दक्षिण की ओर खींचते हैं।
मंदराचल पर्वत ही नाड़ीवृत्त है, जिसके एक भाग में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह व कन्या राशि हैं जिन्हें देवता खींचते हैं। दूसरे भाग में तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ व मीन राशि हैं जिन्हें राक्षस खींचते हैं। मंथन से चौदह रत्न निकलते हैं, जिनमें महालक्ष्मी कार्तिक की अमावस्या को प्रकट होती हैं।

लक्ष्मी, महालक्ष्मी, राजलक्ष्मी, गृहलक्ष्मी आदि लक्ष्मी के अनेक रूप हैं। लक्ष्मी विहीन होने पर लोग ज्योतिष की शरण में भी जाते हैं। दीपावली के लिए पुराणों में अनेक कथाएं हैं। वास्तव में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पृथ्वी का जन्म हुआ था और पृथ्वी ही महालक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी मानी गई है। दीपावली पृथ्वी का जन्मदिन है, इसलिए इस दिन सफाई करके धूमावती नामक दरिद्रा को कूड़े-करकट के रूप में घर से बाहर निकालकर सब ओर ज्योति जलाते हैं तथा श्री कमला लक्ष्मी का आह्वान करते हैं।

दीपावली से पूर्व अच्छी वर्षा से धनधान्य की समृद्धि रूपी लक्ष्मी का आगमन भी होता है। संवत्सर के उत्तरभाग में ऋत सोम तत्व रहता है जो लगातार दक्षिण की ओर बहता रहता है। दक्षिण भाग में ऋत अग्नि रहती है जो हमेशा उत्तर की ओर बहती है। लक्ष्मी का आगमन ऋताग्नि का आगमन ही होता है।

यह दक्षिण से होता है, इसीलिए आज भी भारतीय किसान फसल की पहली कटाई दक्षिण दिशा से ही करता है। ऋताग्नि एक ऐसी ज्योति है जो पूरी प्रजा को सुख-शांति एवं समृद्धि प्रदान करती है और वही महालक्ष्मी है। ज्योतिषशास्त्र में भी जन्मकालीन ग्रहयोगों के आधार पर महालक्ष्मी योग देखा जाता है।

शास्त्रों में कहा गया है-

लक्ष्मीस्थानं त्रिकोणं स्यात् विष्णुस्थानं तु केंद्रकम्।
तयो: संबंधमात्रेण राज्यश्रीलगते नर: ।।

यह योग श्री लक्ष्मी प्राप्ति का संकेत देता है। केंद्रस्थान में लग्न, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव गिने जाते हैं तथा त्रिकोण स्थान में पंचम एवं नवम भाव को माना गया है। जिस व्यक्ति का शरीर स्वस्थ हो, स्थायी संपत्ति, सुख-सुविधा के साधन हों, जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो वह विष्णुस्वरूप बन जाता है।
इन सब गुणों का उपयोग सद्बुद्धि एवं धर्मपरायणता के साथ हो तो व्यक्ति महालक्ष्मी एवं राज्यश्री को प्राप्त करने वाला होता है। व्यक्ति यदि कर्मशील होगा, सदाचारी होगा, गुरुनिंदा, चोरी, हिंसा आदि दुराचारों से दूर रहेगा तो लक्ष्मी स्वत: उसके यहां स्थान बना लेगी।

पौराणिक प्रसंगों में स्वयं लक्ष्मी कहती हैं-

नाकर्मशीले पुरुषे वरामि, न नास्तिके, सांकरिके कृतघ्ने।
न भिन्नवृत्ते, न नृशंरावण्रे, न चापि चौरे, न गुरुष्वसूये।।

अत: कर्मशील एवं सदाचारी व्यक्ति को ही राज्यश्री एवं महालक्ष्मी योग बन पाता है। जबकि लोगों की ऐसी धारणा है कि खूब पैसा, धन दौलत हो तो आनंद की प्राप्ति हो सकती है, पर यह धारणा गलत है। ज्योतिषशास्त्र एवं पौराणिक ग्रंथों में महालक्ष्मी का स्वरूप दन-दौलत या संपत्ति के रूप में नहीं बताया गया है।

लक्ष्मीवान उस व्यक्ति को माना गया है जिसका शरीर सही रहे और जिसे जीवन के हर मोड़ पर प्रसन्नता के भाव मिलते रहें। मुद्रा के स्थान एवं खर्च के स्थान को महालक्ष्मीयोग का कारक नहीं माना गया है बल्कि प्राप्त मुद्रा रूपी लक्ष्मी को सद्बुद्धि के साथ कैसे खर्च करके आनंद लिया जाए, इसे माना गया है। इसीलिए महालक्ष्मी पूजन में महालक्ष्मी, महासरस्वती एवं गणोश जी का पूजन एक साथ किया जाता है।

गणोश बुद्धि के देवता हैं तथा सरस्वती ज्ञान की देवी हैं, इसीलिए लक्ष्मी के पहले श्री शब्द लगाया जाता है। यह श्री सरस्वती का बोधक होता है। इसका भाव यह निकलता है कि मुद्रारूपी लक्ष्मी को भी यदि कोई प्राप्त करता है तो श्रेष्ठ गति के साथ जो उसका उपयोग एवं उपभोग करता है, वह आनंद की अनुभूति करता है।

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ज्योति पर्व दिवाली का महत्व, पूजा विधि और मुहुर्त

कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जाता है। उस दिन धन प्रदात्री 'महालक्ष्मी' एवं धन के अधिपति 'कुबेर' का पूजन किया जाता है। हमारे पौराणिक आख्यानों में इस पर्व को लेकर कई तरह की कथाएँ हैं। भारतीय परंपरा में हर पर्व और त्यौहार का संबंध प्रकृति की पूजा,� हमारे सुखद जीवन, आयु, स्वास्थ्य, धन, ज्ञान, वैभव व समृद्धि की उत्तरोत्तर प्राप्ति से है। साथ ही मानव जीवन के दो प्रभाग धर्म और मोक्ष की भी प्राप्ति हेतु विभिन्न देवताओं के पूजन का उल्लेख है। आयु के बिना धन, यश, वैभव का कोई उपयोग ही नहीं है। अतः सर्वप्रथम आयु वृद्धि एवं आरोग्य प्राप्ति की कामना की जाती है। इसके पश्चात तेज, बल और पुष्टि की कामना की जाती है। तत्पश्चात धन, ज्ञान व वैभव प्राप्ति की कामना की जाती है।� विशेषकर आयु व आरोग्य की वृद्धि के साथ ही अन्य प्रभागों की प्राप्ति हेतु क्रमिक रूप से यह पर्व धन-त्रयोदशी (धन-तेरस), रूप चतुर्दशी (नरक-चौदस), कार्तिक अमावस्या (दीपावली- महालक्ष्मी, कुबेर पूजन), अन्नकूट (गो-पूजन), भाईदूज (यम द्वितीया) के रूप में पाँच दिन तक मनाया जाता है। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, नया साल और भैयादूज या भाईदूज ये पाँच उत्सव पाँच विभिन्न सांस्कृतिक विचारधाराओं प्रतिनिधित्व करते हैं।

लक्ष्मी जी का स्थायी निवास अपने यहाँ� बनाये रखने के लिये दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के लिये दिन के सबसे शुभ मुहूर्त समय को लिया जाता है।

इस वर्ष 3 नवम्बर, 2013 को� रविवार के दिन दिवाली मनाई जाएगी।� स्वाती नक्षत्र का काल रहेगा, इस दिन प्रीति योग तथा चन्दमा तुला राशि में संचार करेगा। दीपावली में अमावस्या तिथि, प्रदोष काल, शुभ लग्न व चौघाडिया मुहूर्त विशेष महत्व रखते है।

3 नवम्बर 2013, रविवार के दिन 17:33 से लेकर 02 घण्टे 24 मिनट तक प्रदोष काल रहेगा। इसे दिपावली पूजन के लिये शुभ मुहूर्त के रुप में उपयोग करते हैं। इस दिन पूजा स्थिर लग्न में करनी चाहिए क्योंकि शास्त्रों के अनुसार स्थिर लग्न दिवाली पूजा में उतम माना जाता है। इस दिन प्रदोष काल व स्थिर लग्न का समय सांय 18:15 से 20:09 तक रहेगा।� इसके पश्चात 18:00 से 21:00 तक शुभ चौघडिया भी रहने से मुहुर्त की शुभता बनी रहेगी।

इस बार दीपावली पर 149 वर्ष पुराना संयोग

दीपावली पर इस बार १४९ साल बाद धन लक्ष्मी योग बन रहा है। इस योग में धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के पूजन का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस संयोग में लक्ष्मी को प्रसन्न करने से निरंतर धन-धान्य की प्राप्ति होती है। पंचग्रही योग सिद्घांत के अनुसार ऐसा योग ५०० साल में केवल तीन बार ही बनता है। इससे पहले २९ अक्टूबर १८६४ में ऐसा संयोग बना था। अगला योग १६ नवंबर २१६१ में बनेगा।

उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं.अमर डब्बावाला का कहना है कि� स्थिर लग्न में की गई महालक्ष्मी की पूजा सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस लग्न में पूजन से माता की कृपा हमेशा बनी रहती है। अर्थात निरंतर धन आगमन का योग बना रहता है। नक्षत्र मेखला की गणना के अनुसार इस बार प्रदोष काल में वृषभ लग्न आ रहा है। लग्न के द्वितीय स्थान में बृहस्पति एकादश अधिपति होकर अपने कारक स्थान यानी धन स्थान पर बैठे हैं। मिथुन राशि में पदस्थ बृहस्पति व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से श्रेष्ठ माने जाते हैं। यह योग धन लक्ष्मी योग कहलाता है।

वृषभ लग्न में करें पूजन

ज्योतिष के अनुसार दीपावली पर प्रदोषकाल के दौरान वृषभ लग्न में शाम ६.२३ बजे से ७.५८ बजे तक महालक्ष्मी का पूजन करना अतिशुभ होगा। हालांकि प्रदोष काल के बाद भी अर्धरात्रि तक माता लक्ष्मी का पूजन किया जा सकता है।

शाम तक अमावस्या

इस बार अमावस्या शनिवार रात ८.१२ बजे से शुरू होकर रविवार को दीपावली की शाम ६.२३ बजे तक रहेगी। शास्त्रों में कहा गया है कि किसी भी पर्व पर अमावस्या का स्पर्श काल मुहूर्त के अंदर ३५ मिनट भी रहता है तो उसे अर्धरात्रि तक मान्य किया जा सकता है।


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जैन दिवाली पूजा आरती
दीपावली पूजन – सम्पूर्ण जैन विधि

 


मध्य युग से लेकर आज तक कई मुस्लिम कवियों ने भी दिवाली के इस रंगारंग त्यौहार परअपनी कलम चलाई है और अपनी बेहतरीन शायरी से इस त्यौहार की महिमा का बखान किया है। हिन्दुओं के त्यौहारों पर नजीर अकबराबादी ने जिस मस्ती से कलम चलाई है उसका कोई सानी नहीं है। प्रस्तुत है कुछ शायरों द्वारा दीपावली को लेकर लिखी गई कुछ यादगार शायरी।

नजीर अकबराबादी

हर एक मकां में जला फिर दीया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का दिन है बना दिवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई, बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौनेवालों की उनसे ज़्यादा बन आई
गोया उन्हीं के वां राज आ गया दिवाली का।

हर एक मौकों में जला फिर दिया दीवाली का।
हर एक तरफ को उजाला हुआ दीवाली का ।
सभी के दिल में समां भा गया दीवाली का ।
किसी के दिल में मजा खुश लगा दीवाली का।
अजब बहार का है दिन बना दीवाली का ।

दिवाली के मौके पर खील बताशे और खिलौनों के महत्व को नजीर ने कुछ इस तरह बयाँ किया है।

जहाँ� में यारों अजब तरह का है यह त्योहार ।
किसी ने नकद लिया और कोई करे है उधार ।
खिलौने खीलों बताशों का गर्म है बाजार ।
हर एक दुकां में चिरागों की होरही है बहार ।
सभी को फिक्र अब जा बजा दीवाली का ।

कोई कहे है इस हाथी का बोलो क्या लोगे ।
ये दो जो घोड़े हैं इनका भी क्या भला लोगे ।
यह कहता है कि मियाँ जाओ बैठो क्या लोगे ।
टके को ले लो कोई चौधड़ा दीवाली का ।

दिवाली के मौके पर जुआ खेलने की आदत पर अफ़सोस जताते हुए नज़ीर लिखते हैं

मकान लीप के ठिलिया जो कोरी रखवाई।
जला चिराग को कोड़ी यह जल्द झंकाई।
असल जुंआरी थे उनमें तो जान सी आई।
खुशी से कूद उछलकर पुकारे और भाई
शगुन पहले करो तुम जरा दीवाली का।

किसी ने घर की हवेली गिरो रखा हारी ।
जो कुछ था जिन्स मयस्सर बना बना हारी
किसी ने चीज किसी की चुरा छुपा हारी
किसी ने गठरी पड़ोसिन की अपनी ला हारी
यह हार जीत का चर्चा पड़ा दीवाली�

सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं
अल अहमद सुरूर

यह बामोदर', यह चिरागां
यह कुमकुमों की कतार
सिपाहे-नूर सियाही से बरसरे पैकार।'
यह जर्द चेहरों पर सुर्खी फसुदा नज़रों में रंग
बुझे-बुझे-से दिलों को उजालती-सी उमंग।
यह इंबिसात का गाजा परी जमालों पर
सुनहरे ख्वाबों का साया हँसी ख़यालों पर।
यह लहर-लहर, यह रौनक,
यह हमहमा यह हयात
जगाए जैसे चमन को नसीमे-सुबह की बात।
गजब है लैलीए-शब का सिंगार आज की रात
निखर रही है उरुसे-बहार आज की रात।
हज़ारों साल के दुख-दर्द में नहाए हुए
हज़ारों आर्जुओं की चिता जलाए हुए।
खिज़ाँ नसीब बहारों के नाज उठाए हुए
शिकस्तों फतह के कितने फरेब खाए हुए।
इन आँधियों में बशर मुस्करा तो सकते हैं
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं।

रात आई है यों दिवाली की
उमर अंसारी

रात आई है यों दिवाली की
जाग उट्ठी हो ज़िंदगी जैसे।
जगमगाता हुआ हर एक आँगन
मुस्कराती हुई कली जैसे।
यह दुकानें यह कूच-ओ-बाज़ार
दुलहनों-सी बनी-सजीं जैसे।
मन-ही-मन में यह मन की हर आशा
अपने मंदिर में मूर्ति जैसे।

बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
नाजिश प्रतापगढ़ी

बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।
सहर हुई तो हर इक बात भूल जाते हैं
फिर इसके बाद अँधेरों में झूल जाते हैं।

दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
महबूब राही

दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अदल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फतह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें।

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भारत राष्ट्र के भावी स्वप्न और अतीत की काली छाया

मैं पशुओँ का डॉक्टर हूँ  यह  बात  मेरे परिचय में ही बता दी गई है  कृषि अर्थशास्त्र नामक एक विषय हमें पढना पडता था इसलिये अर्थशास्त्र से मेरा इतना ही सीमित संबंध है। और यह पुस्तक लिखनेवाले तथा आज के समारंभ के अध्यक्ष स्थान को विभूषित करनेवाले पद्मभूषण डो. दुभाषी इत्यादि लोग इस विषय के तज्ञ लोग हैँ । इस लिये इस विषय के संदर्भ में मैं कुछ बोलुं उसमें कोई खास औचित्य नहीं है । परंतु संघ द्वारा सरसंघचालक बनाये जाने के कारण ऐसे विषयोँ पर बोलते समय क्या नहीं बोलना है इसका मुझे ज्ञान हो गया है । इस कारण से वह ज्ञान के  क्षेत्र पर मैं अनधिकृत आक्रमण नहीं करुंगा   मुझे जो जानकारी है उसके आधार पर मैं आपके सामने कुछ बातेँ रख  रहा हूँ ।

 

जानवरोँ का डॉक्टर होने के  कारण हमारे क्षेत्र में एक किस्सा हमेशा चलता है । एक आदमी का कुत्ता बीमार हो गया । वह आदमी अपने पडोसी के  घर गया  और उससे पूछा, ‘मेरा कुत्ता बीमार हो गया है, ऐसे ऐसे लक्षण हैं, क्या आपका कुत्ता भी कभी  बीमार हुआ था ? पडोसी ने कहा, हाँ, मेरा कुत्ता भी बीमार हुआ था और मैंने उसे एक  बोटल टिंचर आयोडिन पिलाया था। अधिक कुछ न सुनते  हुए वह व्यक्ति चला आया और बाजार से खरीदकर एक  बोटल टिंचर आयोडिन अपने कुत्ते को भी पिला दिया । अब टिंचर आयोडिन पिलाने पर दूसरा क्या होना संभव था ? कुत्ता 20 मिनिट में छटपटा कर मर गया । वह व्यक्ति तुरंत पडोसी के पास  गया और उसे  कहा, अरे भाई , तुम्हारे कहने पर मैंने कुत्ते को  टिंचर आयोडिन पिलाया पर मेरा  कुत्ता तो छटपटा कर 20 मिनिट में मर गया, पडोसी ने कहा, ठीक बात है, मेरा कुत्ता भी ठीक इसी प्रकार छटपटाकर 20 मिनिट में मर गया था।

 

इस  प्रकार कुल  मिलाकर अपने समाजजीवन की जो रचना हमने स्वातंत्र्यप्राप्ति के बाद की उसके अनेक लाभ है इसमें कोई विवाद नहीं हैं । परंतु जिन सिद्धांतोँ तथा चौखट के आधार पर हमने विचार किया वह चौखट आज न केवल अपने देश के लिये पर संपूर्ण विश्व के लिये भी पर्याप्त नहीं है, वह मनुष्य को सुख नहीं दे सकती । यह बात अब सभी के ध्यान पर आना  शुरु हुआ है । विश्व के सामने कोई पर्याय नहीं है, अर्थात् उसके सामने आधुनिक जगत  के प्रगत विचारोँ के नाते अभी  तक मात्र दो पर्याय आये हैं। उन दोनों में से कौनसा चुनना यह  समस्या उनके सामने खडी है। पर अपने पास एक तीसरा पर्याय भी था। केवल कम्युनिझम और पूंजीवाद दो ही  पर्याय हैं ऐसा मानकर हमने जो अपना प्रवास शुरु किया उसके दुष्परिणाम हम आज भुगत रहे हैँ। कारण यह है  कि नीतियाँ तथा चौखट तो बाद की चिजें हैं परंतु सब से पहले तो मनुष्य जब स्वयं के विकास के मानक तथा चौखट निश्चित करता है, कार्यक्रम तथा फैंसले करता है, तब उन सबके पीछे उसकी एक निश्चित दृष्टि होती है। अब सब के ध्यान में यह बात आ रही है।

 

यह बात भी केवल मैं कह रहा हूँ या संघ के लोग कह रहे हैँ या भारतीय विचार के लोग कह रहे हैँ ऐसी बात नहीं है, विश्व के सब लोग अब इन बातोँ की अनुभूति कर रहे हैँ कि मूल में ही कोई  कमीं या दोष रह गये हैं । विश्व के जिन जिन देशोँ में इस प्रकार से सोचनेवाले है, उन देशोँ का इन दोनों मार्गोँ पर  चलने का और  प्रामाणिकता तथा परिश्रमपूर्वक चलकर जनता का हितसाधन करने का शतकोँ का अनुभव है। हमने उसका भी विचार करना चाहिये। और उसका विचार करते समय यह बात ध्यान में आती है कि संपूर्ण विश्व को तीसरे पर्याय की आवश्यकता है और उस तीसरे पर्याय का विचार हम दे सकते हैँ। कारण जीवन की ऑर देखने की  हमारी दृष्टि विशिष्ट तथा अलग है।

 

इस दृष्टि के आधार पर कभी अतीत में, हमने जीस राष्ट्रजीवन का निर्माण किया उसके बाद सहस्रोँ वर्षोँ तक हमने उसके आधार पर एक सुसंपन्न, सर्व दृष्टि से सुखी तथा संपूर्ण विश्व को भी  सहायक बननेवाला राष्ट्रजीवन खडा  किया । और एक हजार वर्ष के आक्रमणोँ के चलते भी या संघर्षकाल में भी  1860 तक अपने देश के सर्वांगीण सुसंपन्न जीवन को विश्व में अग्रसर रखने में उस जीवनदृष्टि का बहुत बडा योगदान था । यह इतिहास है। इसके लिखित सबूत उपलब्ध हैँ । दस्तावेज उपलब्ध हैँ, एकाधिक लेखकोँ ने उन्हें विश्व के सामने  रखा है ।

 

धर्मपालजी लिखित इतना बडा साहित्य उपलब्ध है । पूरा साहित्य सबूतो के साथ है, परंतु  हमने उसकी ऑर ध्यान ही नहीं दिया है, उस साहित्य का अध्ययन करने की हमें फूर्सत नहीं है । ऐसी एक अलग दृष्टि लेकर, यह बात ठीक है कि सरकार नीतियाँ तय करती है, और वह अपने हाथ में नहीं है पर मेरी जो धारणा है उसके आधार पर  कुछ  निर्माण करुंगा ऐसे  निश्चय से भिन्न भिन्न विचारधाराओँ से संबद्ध कुछ प्रामाणिक कार्यकर्ताओँ ने जिसे आज की भाषा में क्लस्टर कहा जाता है ऐसे कुछ दर्शनीय क्लस्टर्स देशभर में खडे किये हैं, पर उसका अध्ययन करने का कष्ट अपने देश के विचारक नहीं लेते हैँ । जो  लोग जाकर आते हैं उनके विचारोँ में  आमूलाग्र परिवर्तन हो जाता है।

 

अब यह सब करने का समय आ गया है । एकात्म मानवदर्शन यह कोई मतवाद नहीं है । इसका कारण यह है कि कोई एक निश्चित चौखट या निश्चित नीतियोँ का ही वह समर्थन नहीं करता है । वह दृष्टि देता है । विश्व की सभी सत्ताओँ का  अस्तित्व सब ने सर्वप्रथम मान्य करना चाहिये। दुनिया ने यह भी मान्य करना चाहिये की विश्व के प्रत्येक चर, अचर, जड चेतन सब जो पदार्थ हैं  वह एक जो पूर्ण है उसके अविभाज्य अंश हैं। जो  चेतना किसी एक वस्तु में या जीव में है वही चेतना पूरे संसार में है। और उसी चेतना से यह सब परस्पर संबद्ध है। यह अपनी दृष्टि है । यह दोनों विचारधाराएँ जिस दृष्टि के आधार पर खडी है वह दृष्टि इस  संबंध में विश्वास नहीं रखती है । वे ऐसा कहते हैँ की इस विश्व में मनुष्य की  सत्ता है, समूह या समाज की सत्ता है, निसर्ग की भी सत्ता है। पर यह सब सत्ताएँ भिन्न भिन्न हैँ और उनका परस्पर से कोई संबंध नहीं है। और विश्व की प्रत्येक वस्तु, चर, अचर, जड, चेतन प्रत्येक प्राणी तथा  प्रत्येक  मनुष्य दूसरे से अलग है। यहीं से  दोषपूर्ण दृष्टि का प्रारंभ होता है। और उस कारण से फीर सुखी करना, सुख यह उसका लक्ष्य है। यह पूरा विश्व सुख के  पीछे दौडता है।

 

यह जो पूरा व्यवहार  चलता है, देश, राष्ट्र बनते हैँ, हम यहाँ एकत्र आकर ऐसे विषयोँ का विचार करते हैँ, यह सब क्योँ करते हैँ? तो सब सुखी हो इस लिये। याने मैं  सुख  प्राप्त करुं। आत्मनस्तु कामाय । परंतु मैं  सुख प्राप्त करुं यह कहते समय मनुष्य के ध्यान में आता है कि बिना अन्य लोगोँ को भी निश्चित सुख  मिले हमें अपना सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इस कारण से वह दूसरोँ के सुख का भी विचार करता है। पर उस सुख में क्या है उसका अगर चिंतन किया तो वास्तव में सुख माने क्या यहीं से सोचने की शुरूआत होती है। जो अपने  को सुख लगता है, जब भूक लगती है तब पेटभर भोजन मिलना यह उस समय सुख है। इसलिये तब मुझे भोजन मिलना चाहिये। मेरी आवश्यकताएँ जिसके कारण पूर्ण हो ऐसी नीतियाँ चाहिये । ठीक  है। मोटे तौर पर यह ठीक  ही है।

 

परंतु कभी कभी इससे उलटा भी होता है। घर के सभी सदस्योँ के लिये मिष्टभोजन बनानेवाली और आग्रहपूर्वक खिलानेवाली माता अपने  लिये  मीठा पदार्थ न बचने पर भी  सभी  स्वजनोँ की  संतुष्टि तथा प्रसन्नता की  अनुभूति करते हुए बिना मिठाई खाये प्रसन्न होती है। यह सुख कहाँ से  आया ? अथवा रसगुल्ला बहुत पसंद करनेवाला मनुष्य पचास  खाएगा, सौ  खाएगा, डेढ सौ खाएगा, पर उसके बाद उसकी रुचि उन रसगुल्लोँ में नहीं रहेगी । आग्रह करने पर वह और भी खाएगा पर एक स्थिति ऐसी आयेगी कि रसगुल्ला देखते ही उसे उलटी हो जाएगी । तो फिर वह रसगुल्ले में दिखनेवाला सुख कहाँ गया? वास्तव में वह उस रसगुल्ले में था ही नहीँ । तो सुख संकल्पना का भी पूर्ण विचार वहाँ नहीं है । सुख की समग्र कल्पना भी नहीं है । सुख  अगर  रसगुल्ले में है तो किसी को अगर यह कहा कि मैं तुझे रसगुल्ले खिलाता हूँ, पर शर्त यह है कि एक रसगुल्ले के साथ एक जुता खाना पडेगा। और यह कार्यक्रम चार लोगोँ के सामने चलेगा। तो क्या उसे वह रसगुल्ला सुख देगा ? मनुष्य कहेगा, नहीं चाहिये वह रसगुल्ला, मैं आधी रोटी खाकर ससम्मान रहुंगा।

 

अपने यहाँ बच्चोँ को पढाया भी जाता है कि  स्वतंत्रता की  सुखी रोटी पारतंत्र्य के पंचपक्वान्नोँ से भी श्रेष्ठ है । क्योँ ? कारण सुख का  विचार करते समय वह भी सुख के नाते समग्र ही है। इसलिये मनुष्य क्या है ? विश्व जानता है  की वह देह,मन बुद्धि है। मनुष्य समूह और सृष्टि पूरे विश्व को  पता  है । अर्थ और  काम के  स्वरूप में मनुष्य में  इच्छाएँ होती है, उसकी पूर्ति के  लिये मनुष्य को प्रयास करने पडते हैं। कामनापूर्ति करनी पडती है इसलिये अर्थ पुरुषार्थ करना पडता है। परंतु  वह  कभी न कभी इस सब से उब जाता है और उसे इन सब से मुक्त होना पडता है । यह बात पूरा विश्व जानता है परंतु यह सुख  सबको कैसे प्राप्त  होगा यह उसे  पता  नहीं होने से विश्व अब तक आगे तो गया है पर वह कितना गया  है ? तो मेक्सिमम गुड ऑफ मेक्सिमम  पिपल। (अधिकतम लोगोँ का  अधिकतम कल्याण)।  सर्वेपि सुखिन: संतु । यह अभी  दुनिया ने देखा नहीं है। परंतु ऐसा हो नहीं सकता क्योँकि सभी पदार्थ निसर्ग के अंश होने के कारण एक कोई छोटे से स्थान पर अगर कोई दु:ख होगा तो कालांतर से वह सब के लिये दु:खदायी होगा । यह बात अब विज्ञान भी मान्य कर रहा है । किसी एक रिमोट स्थान पर होनेवाली चहलपहल के परिणाम कालांतर से सर्वदूर प्रसारित होते हैँ।

 

सभी को वह  अंशत: या  पूर्णत:,  कभी  अधिक तीव्रता से तो कभी सहसा ध्यान में न आनेवाली सौम्यता से पर भुगतने तो पडते ही हैँ । इसलिये यह संपूर्ण विश्व एक लिविंग ऑर्गेनिझ्म है । आजकल विज्ञान में  भी यह परिभाषा प्रारंभ हुई है । हमलोग यह बात पहले से जानते हैँ । एक ही  चेतना से अनुप्राणित विश्व के यह  सभी व्यवहार चलते हैं । और  विश्व  को (एवरलास्टिंग, अनडिमिनिशिंग, फुल्ली सेटिसफाइंग ब्लिस ।) संपूर्ण,  शाश्वत, कभी  कम न होने वाले, अमर  सुख की कामना है । और यह सुख तभी मिलता है जब हम उस चेतना का  साक्षात्कार कर लेते हैँ । उस चेतना के  साथ  हम तन्मय होते हैँ । इसका कोई दूसरा उपाय नहीं है । कामपूर्ति और उसके कारण अर्थसाधन से समाधान नहीं मिलता है। और  समाधान नहीं तब तक  सुख  नहीं। न जातु कामकामानाम् उपभोगेन शाम्यते, हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय: एवाभीवर्धते ।

 

अपनी एक विशिष्ट दृष्टि है और उस दृष्टि के आधार पर हम लोगोँ ने एक जमाने में ऐसा विचार किया था कि जिसमें सर्व सत्ता परस्पर मिलीजुली रहे । समाज की सत्ता स्थापित करने के लिये व्यक्ति के अधिकारोँ का हनन आवश्यक नहीं है और व्यक्ति को सुखी  करने के लिये समाज को कुचलना आवश्यक नहीं है । और इन दोनों की प्रगति के लिये सृष्टि का विध्वंस करने की आवश्यकता नहीं है । अगर हम ऐसी स्थिति निर्माण करेंगे तो सुख मिलेगा अन्यथा हम विकास करेंगे और उत्तराखंड जैसी आपत्तियाँ आएगी। नये विकास से नयी समस्याएँ खडी होगी और वह इतनी विकराल होगी कि मनुष्य समाज किंकर्तव्यमूढ स्थिति में आ जाएगा । यह सब हम देख ही रहे हैँ । और इस लिये विकास की अपनी कोई दृष्टि हो सकती है क्या ? अपनी दृष्टि के आधार पर जिसे आज पूरा विश्व खोज  रहा  है ऐसा कोई आदर्श उदाहरण हम विश्व के सामने रख सकते हैं क्या ? कि जीवन का जरा इस  प्रकार विचार करते हुए अपनी नीतियाँ गढीये और अपनी चौखट बनाईये।

 

एकात्म मानव दर्शन जब पहली बार प्रकाश में आया, एकात्म मानवदर्शन यह कोई दीनदयालजी का रिसर्च नहीं है। दीनदयालजी की समालोचना है । अपनी यह जो जीवनदृष्टि है उस जीवनदृष्टि के आधार पर उन्होंने एक कालसुसंगत मंडन किया है । वर्तमान समय में करनेलायक एक विचार सब के सामने उन्होंने रखा है । प्रारंभिक काल में उसे एकात्म मानववाद कहते थे । पर बाद में  ध्यान में आया कि इस में वाद जैसा कुछ नहीं है । उसमें किसी के भी साथ विवाद नहीं है । एकात्म मानव दर्शन पढते समय उसमें गांधी भी दिखते हैं, डॉ. आंबेडकर भी दीख जाते हैं, विश्व के अन्यान्य विचारक भी  दिखते हैं । कहीं कहीं कार्ल मार्क्स भी दिख जाता है । यह विवाद का प्रश्न नहीं है । यह एक दृष्टि है । इस दृष्टि से पुनर्विचार कर हमें नीतियाँ बनानी पडेगी, कारण विश्व को अब एक नये तीसरे पर्याय की आवश्यकता है ।

 

जिसे  हम विकास या प्रगति कहते हैं उसका एक भिन्न अर्थ भी हो सकता है । मनुष्य दो पैरों पर चलता है, साइकल   चलाने लगता है । तो वह प्रगत हुआ । स्वचालित वाहन हो गया तो अधिक प्रगत हो गया । यह मनुष्य के लिये  ठीक है, पर सर्कस में हाथी फूटबॉल खेलते हैं, बंदर साइकल चलाता है । क्या उनके लिये यह प्रगति या विकास है ? निश्चित रूप से नहीं है । फिर अपनी प्रगति माने क्या है ? यह भी अपनी आकांक्षाएँ, अपने समाज की आवश्यकताएँ, प्राथमिकताएँ, उपलब्ध संसाधन तथा जीवनविषयक अपनी दृष्टि, इसी के आधार पर सब का लग अलग तय होगा । हमें भी स्वातंत्र्यप्राप्ति के बाद अपनी इस दृष्टि के आधार पर अपनी  समस्याओँ के  उत्तर देने वाला, जिसकी नींव डालना संभव है ऐसा, अपनी जीवनदृष्टि, स्वभाव, परंपरा इत्यादि के अनुकूल विकास संभव बनानेवाला कोई मार्ग खोजने की आवश्यकता थी । पर हमने ऐसा नहीं किया । हम भी  लंबक(पेण्डुलम)की  तरह इधर से उधर भटकते रहे । दुनिया की कोई व्यवस्था ढह गई तो हम वहाँ से वापस लौट गये । इसलिये  इसका मूलगामी विचार करने की आवश्यकता है। नहीं तो विश्व में अनेक प्रयोग चल रहे हैँ और ढह भी रहे हैँ ।

 

अब यह बात स्पष्टरूप में ध्यान में आई है कि अब तो अपनी दृष्टि बदल कर ही कोई नया तीसरा पर्याय खडा करना पडेगा । सौभाग्य से हमारे पास उस तीसरे विकल्प के लिये आवश्यक जीवनदर्शन उपलब्ध है । वह दर्शन  माने मात्र किसी ने देखा  और  हमने सुना ऐसा नहीं है । उसके आधार पर यहाँ वैभव सम्पन्न समाज जीवन चला है । समस्या मात्र यह है कि ऐसा वैभवसंपन्न जीवन चला वह कालखण्ड दो हजार वर्ष पूर्व का था । वर्तमान   आधुनिक काल में उन मूल्योँ के आधार पर चौखट कैसे खडी करना, नीतियाँ कैसे तय करना, इन नीतियोँ के अंतर्गत  कार्यक्रमोँ का क्रम क्या  होगा, इत्यादि विषयोँ का चिंतन करने की आवश्यकता रहेगी । एकत्म मानवदर्शन तो मात्र  प्रस्तावना थी ।

 

उसके उद्गाता पंडित दीनदयालजी तो हत्या के शिकार हो कर चले गये, इस कारण से उस समय  इसकी गति भी मंद हो गई । परंतु जैसे जैसे विश्व में इन  दोनोँ पद्धतियोँ के अपयश के विविध पहलु ध्यान में आने लगे वैसे वैसे  विचार करनेवालों को इसकी आवश्यकता की अधिक अनुभूति होने लगी । जैसे डॉ. दुभाषी ने कहा  उस प्रकार यह सब मात्र अभी तक मैं जो बोला हूँ उतना और ऐसा बोलने से नहीं चलेगा । अभी भी  उसके उपर  ठीक विस्तृत विचार करते हुए, एक चौखट, एक पथ, एक सोपानपरंपरा तैयार करनी पडेगी । और सब उपक्रम सोचने  पडेंगे । परंतु  उन बारिकीयोँ में तब जाएंगे जब कुछ कर दिखाना अपने हाथ में होगा । वह अभी से कहकर नहीं  चलता । इसलिये ऐसा चिंतन होना, और उसकी चौखट तथा सोपान क्या हो सकते हैं उस पर देशभर के संपूर्ण संवाद का मोटे तौर पर एक मत होना चाहिये । क्योँ कि  आखिर तो यह एक प्रक्रिया है । यह कोई निर्णय नहीं है । अब यह पुस्तक हो गई, पर यह निर्णय  नहीं है ।

 

इसके उपर संवाद, परिसंवाद होँगे, चर्चा होगी । खुलकर चर्चा होगी ।  इसकी  कुछ  बातोँ का पूर्णत: या अंशत: स्वीकार होगा उसी प्रकार अस्वीकार भी होगा । कुछ भी हो सकता है । और यह सब हो जाने के बाद भी इसको व्यवहार में लाते समय व्यवहार में लानेवाले कार्यकर्ताओँ के अनुभव में से इसका प्रत्यक्ष जो रूप चलेगा वह उस काल के लिये खडा रहेगा । समय बदलता है और बदलते समय के साथ यह सब बातें भी बदलनी पडती है । दृष्टि हमेशा वही रहती है। वह शाश्वत होती है ।

 

इसलिये नये समय के लिये  कालसुसंगत रचनाएँ हर बार नये से करनी पडती है । इस पुस्तक के लेखन का कारण भी यही है । क्यों कि दृष्टि के संदर्भ में मैं जो बोल रहा हूं उसके बारे में पुस्तक लिखने की आवश्यकता नहीं है इतनी बडी संख्या में ग्रंथ उपलब्ध  हैं । और यह विषय इतना सनातन है कि उस पर नई पुस्तक केवल नई पद्धति से विषयप्रस्तुति के रूप में हो  सकती है । पर उसे आधार बना कर सामयिक आवश्यकतानुसार आज के प्रश्नों का उत्तर देनेवाली रचना क्या हो  सकती है, उसकी चौखट कैसी बन सकती है, उसको व्यवहार में लाते समय उसका रास्ता क्या हो सकता है, समाज की मानसिकता बनाने से लेकर, प्रत्यक्ष चौखट के अनुसार कार्यारंभ कैसे संभव होगा, सोपान कैसे होँगे, मार्ग  कौनसा होगा, यह सब बातोँ का चिंतन होने की आवश्यकता है ।

 

यह चिंतन जब प्रारंभ हुआ तब मैं था । इन सब लोगोँ ने इकठ्ठा होकर यह प्रारंभ किया । तब ऐसा ध्यान में आया कि यह कोई 8-10 दिन बैठने से होनेवाला काम नहीं है । इसको कई वर्ष लगेंगे । और यह समझते हुए  कार्य शुरू हुआ । पूरा होगा कि नहीं यह मैं नहीं जानता था । तब अगर किसी ने पूछा होता कि आप तो इस  कार्यक्रम में गये थे, और भी इतने लोग थे । अब आगे क्या होगा ? तो  मैंने कहा होता कि पता नहीं क्या होगा । क्योँ की इस काम को लगकर करना पडता है, समय देना पडता है, दिमाग लगाना पडता है । परंतु इन मित्रोँ ने  यह सब परिश्रमपूर्वक किया । एक पांच-दस कदम आगे के लिये उनकी पुस्तक भी आई । पर यहाँ रुकने से काम नहीं  चलेगा । कारण यह कोई अंतिम नहीं है ।

 

जैसे श्री रवींद्र महाजन ने कहा उस प्रकार इस पर सब प्रकार के विचार  प्रकट होंगे और वे सब स्वागतयोग्य ही हैँ । ऊन सब विचारोँ पर चर्चा और उसके आधार पर नवीन संस्करण बनते  जाएंगे । यह सब मात्र यहीं होगा ऐसा नहीं है । मेरी जानकारी के अनुसार इस दिशा में काम करनेवाले देशभर में 15-20 गट हैँ । उन सब का भी कभी नेटवर्किंग करना पडेगा । मनुष्यजीवन  के जितने पहलु रहते हैं उनमें से  कुछ  पहलु अभी तक ध्यान में आये हैं पर अगर  इसके आधार पर नीतियाँ बनाना संभव बनानेवाली चौखट देनी है तो  इस के बारे में अधिक विस्तृत विचार करना पडेगा । और उसके आधार पर देश के सभी संवादों का एक मोटे तौर  पर समान अभिप्राय कि ठीक है, हमने अब इस दिशा में जाना चाहिये। ऐसी बौद्धिक हवा हमें तैयार करनी पडेगी। तब कहीं जाकर जिनके हाथ में  देश की नीतियाँ तय करने का काम होता है वे इसका संज्ञान लेंगे ।

 

यह काम बहुत लगकर करनेवाला काम है । पर इसका कोई विकल्प नहीं है । क्योँ कि दुनिया जिनसे परिचित है वह दो मार्ग मानो  कुंठित हो गये हैँ । और अब तो  परिस्थिति इतनी विचित्र हो गई है कि उन नामों की ही निरर्थकता सामने आ रही  है। केवल नाम रहे हैं, नाम के अनुसार बाकी कुछ नहीं रहा। जिसे पहले पूंजीवाद कहते थे वह वैसा पूंजीवाद नहीं  रहा और जिसे साम्यवाद कहते थे वह साम्यवाद नहीं रहा। दोनों प्रकार के देश एक दूसरे से कुछ अलग नहीं दीख रहे हैं । और उस कारण से उसपर चलने से मनुष्य का पूर्ण सुख प्राप्त  होगा कि नहीं या जितना सुख प्राप्त होगा  उससे अधिक समस्याएँ खडी  होगी ऐसी शंका आज लोगों के मन में खडी हो गई है । इस प्रश्न का उत्तर देने के  लिये अपने देश ने एक नया रास्ता विश्व को देना पडेगा । इस जिद्द से, मनोयोग से अनेक वर्ष परिश्रम के बाद  हमें यह चित्र देखने मिलेगा । जब मैं अनेक वर्ष कहता हूँ तब आगे सौ वर्ष नहीं लगेंगे यह निश्चित है कारण अन्य  दो मार्गों की विफलता विश्व के ध्यान में आ गई है। पूर्ण विफलता नहीं, सौ प्रतिशत निकम्मी कोई चीज नहीं होती  है।

 

मनुष्य काम करता है वह लाभ होने के कारण ही करता है । इस कारण से सभी में जो अच्छा है उसे लेते हुए, यह दृष्टि परिपूर्ण कर, अपनी दृष्टि के आधार पर क्या किया जा सकता है ? मुझे लगता है कि जब यहाँ दृष्टि का  विकास हुआ तब टेकनोलोजी की आज जो स्थिति है वह नहीं थी । आज नवीन प्रकार का विज्ञान और नवीन प्रकार  की टेकनोलोजी है । पहले एक  देश से दूसरे देश में जाने में अनेक वर्ष लग जाते थे,  आज मनुष्य तीन समय का भोजन तीन अन्यान्य देशों में कर सकता है ।

 

यह सब  बातें ध्यान में रखते हुए, विश्व के देशों में घटित घटनाओँ  के एकदूसरे पर होनेवाले परिणामों को ध्यान में रखकर, विभिन्न क्षेत्रोँ में बढी हुई और कहीं कहीं आकुंचित हुई   मनुष्य के ज्ञान की सीमाओँ का ध्यान रखते हुए इस जीवनदृष्टि के आधार पर एक नयी चौखट, नया पथ, नये सोपान, जीवन का एक नया मार्ग समग्र जगत को देने में हमें सफल होना है । वह मार्ग मात्र बौद्धिक दृष्टि से देकर चलेगा नहीं, उसके प्रयोग होना आवश्यक है । उसके लिये समाज मन जाग्रत होना चाहिये । उसको वह अनुभूति  होनी चाहिये ।

मात्र बौद्धिक प्रयास न करते हुए उसके साथ ही समाज को गढने के प्रयास और उसके साथ बौद्धिक  प्रयासों से निकला हुआ पाथेय है उसका उपयोग करते हुए प्रत्यक्ष योजना द्वारा लोगोँ  के जीवन में इस प्रकार का  सुख उत्पन्न करने के प्रत्यक्ष प्रयोग इत्यादि सब बातें जब साथ साथ चलेगी तब सकल विश्व के सामने सुखशांति  का एक नया मार्ग रखनेवाला भारत खडा रहेगा । परंतु इन सब उद्यम का प्रारंभ निश्चितरूप से इस चिंतन में से  ही है । और मेरा ऐसा अनुभव है कि समाज के अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं कि उन्हें जो कहा गया वह काम करने  को तैयार रहते हैं । पर क्या करना है उसका विचार करने को कहा तो नहीं करेंगे ।

 

वह चिंतन इत्यादि आप कीजिये,  हमें तो केवल क्या काम करना है यह बता दीजिये । चिंतन की क्षमता रखनेवाले लोग कम ही रहते हैं और ऐसे सब  लोगों ने अपने चिंतन को कार्यरूप देना चाहिये । उसकी आज आवश्यकता है । और इसलिये मेरा अभिप्राय है कि  यह पुस्तक का प्रकाशन होना बडा महत्त्वपूर्ण कार्य है। अन्य दस-पंद्रह केद्रोँ  में भी यह चिंतन हो रहा है । परंतु  मोटेतौर पर ऐसे कोई निष्कर्ष किसीने  निकाले नहीं है । वे भी अवश्य लाएंगे पर उस विषय में प्रथम स्थान निरंतर  सात-आठ वर्ष परिश्रम करते हुए श्री रवींद्र महाजन और उनके मित्रोँने प्राप्त कर लिया है यह एक अच्छा प्रारंभ है ।  

यह संवाद आगे भी चलना चाहिये । अधिक व्यापक होना चाहिये । जिन लोगों ने  यह संवाद चला रखा है ऐसे छोटे मोटे गुटों का नेटवर्किंग होना चाहिये और उसमें से एक ऐसा पाथेय सबको प्राप्त होना चाहिये जिसके आधार पर  वे  प्रयोग कर सके । और इस विषय के लिये समाज की मानसिकता तैयार कर सके । इस दृष्टि से यह जो उपक्रम शुरू   हुआ है और जिसका आज पहला फल प्राप्त हुआ है वह पूर्णत: सफल होने की  शुभकामना और आवश्यक सभी  प्रकार के सहयोग का मेरी ऑर से आश्वासन देते हुए मैं मेरी बात पूर्ण करता हूँ ।     

(पुणे में नेशनल पॉलिसी स्टडीज़ (इन द लीट ऑफएकात्म मानव दर्शन) के अवसर पर संघ प्रमुख माननीय श्री मोहन भागवत द्वारा दिए गए उद्वोधन के कुछ अंश)

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स्व. पटेल के परिवार का दावाः पटेल को लेकर मोदी ने जो कहा, सच ही कहा!

भले ही कांग्रेस नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सरदार पटेल की विरासत हथियाने का आरोप लगा रहे हैं पर सरदार पटेल के भाई के पोते का इससे पूरी तरह से सहमत नहीं हैं. वे नरेंद्र मोदी के इस बयान से सहमत हैं कि अगर सरदार पटेल पहले प्रधानमंत्री होते तो देश की तकदीर और तस्वीर कुछ अलग होती. सरदार पटेल के इस रिश्तेदार का यह भी कहना है कि अगर सरदार के अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश हो रही है तो अच्छा है.

सरदार पटेल के रिश्तेदार से आज तक की खास बातचीत के मुख्य अंश:  

इन दिनों सरदार पटेल को लेकर जिस तरह का राजनीतिक घमासान मचा है उसके बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? सरदार पटेल के नाम के बिना कोई कुछ बोल नहीं सकता है, सरदार के नाम के अलावा आज राजनीतिक पार्टियों के पास कोई विकल्प नहीं है. सरदार पटेल का मकसद देश की सेवा करना था. आज सेवा करने के लिये घमासान करते हैं लोग, लेकिन उन्हें पोस्ट चाहिये. तो क्या सेवा करने के लिये पोस्ट जरूरी है.  

मोदी ने कहा कि अगर पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो देश की तकदीर और तस्वीर अलग होती? बिल्कुल सही बात कही नरेंद्र भाई ने. क्यूंकि कश्मीर का विवाद अभी चल रहा है वो नही होता. चीन है, पाकिस्तान है, सबके साथ जो विवाद है वो नहीं होता.  सरदार के व्यक्तित्व में ऐसी क्या बात थी, जो सारे प्रश्नों को हल करने के लिये काफी थी? वो दूर का देख सकते थे. उनका मैनेजमेंट बहुत अच्छा था. कोई भी परेशानी हो वो बहुत अच्छी तरह से उसे मैनेज करते थे.  

सरदार अगर जिंदा होते तो देश कि तकदीर और तस्वीर कैसी होती?
देश में जो सांप्रदायिक समस्याएं है वो नहीं होती. सरदार पटेल सेकुलर थे. किसी भी धर्म के विरोध में नहीं थे. सब को बराबर मानते थे.  सरदार पटेल के परिवार से कोई भी व्यक्ति राजनीति में नहीं हैं? मेरे दादा ने मुझे बताया था कि सरदार ने उन्हें एक बार कहा था कि राजनीति में नहीं आना. शायद सरदार साहब को मालूम हो गया था कि आने वाले समय में किस प्रकार की राजनीति होगी.  सरदार की प्रतिमा का अनावरण करने वाले हैं नरेंद्र मोदी, आप क्या सोचते हैं?  
कोशिश कोई करता है तो क्या फर्क पड़ता है, और कोशिश करनी चाहिये.  मोदी सरदार के अधूरे काम को पूरा करने में लगे हैं? बोल नहीं सकता लेकिन अगर सरदार के अधूरे काम होते हैं तो अच्छा है.  सरदार के शब्दों का इस्तेमाल हर राजनीतिक पार्टी अपने फायदे के लिए करती है,
क्या आपको दुख होता है? बिल्‍कुल दुख होता है. पहले तो सरदार पटेल किसी भी पोस्ट के लिये काम नहीं करते थे. एक गांधीजी के कहने पर उन्होंने बड़ी से बड़ी पोस्ट को त्याग दिया था. अभी की राजनीति में क्या है कि किसी को देश की सेवा करनी है तो पद चाहिए, लेकिन अगर पोस्ट नहीं भी होती है तब भी देश की सेवा कर सकते हैं. एक पोस्ट के लिये इतना घमासान होता है मुझे दुख होता है.    

साभार-. http://aajtak.intoday.in/ से

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हिन्दू कालेज में राजेन्द्र यादव को श्रद्धांजलि

'हंस' के सम्पादक और प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव के असामयिक निधन पर हिन्दू कालेज के हिंदी विभाग द्वारा श्रद्धांजलि दी गई।  शोक सभा में विभाग के आचार्य डॉ रामेश्वर राय ने कहा कि स्त्री और दलित विमर्श की ज़मीन तैयार करने वाले साहसी सम्पादक और विख्यात लेखक का जाना असामयिक इसलिए लगता है कि उन्होंने अपने को अप्रासंगिक नहीं होने दिया था।  डॉ राय ने उनके उपन्यास 'सारा आकाश' को हिंदी रचनाशीलता के श्रेष्ठ उदाहरण के रूप ने रेखांकित करते हुए उनके अवदान की चर्चा भी की।  

वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ हरीन्द्र कुमार ने यादव के कहानी लेखन की चर्चा करते हुए 'जहां लक्ष्मी कैद है' और नयी कहानी आंदोलन में उनकी भूमिका के बारे में बताया।  विभाग की पत्रिका 'हस्ताक्षर' की सम्पादक डॉ रचना सिंह ने हस्ताक्षर में उनके साक्षात्कार के बारे में बताया और कहा कि अपने मत पर अडिग रहने वाले दूरदर्शी सम्पादक के रूप में यादव जी को याद किया जाता रहेगा। सभा में विभाग के प्रभारी डॉ विमलेन्दु तीर्थंकर ने कहा कि कहानी,उपन्यास और सम्पादन के साथ साथ यादव जी को हिंदी गद्य की उच्च स्तरीय समीक्षा के लिए भी याद किया जाता रहेगा।

डॉ. तीर्थंकर ने 'अठारह उपन्यास ' को उपन्यास आलोचना की श्रेष्ठ कृति बताया और कहा कि गद्य के लिए साहित्य में जैसा मोर्चा राजेंद्रा यादव ने लिया वह कोई साधारण बात नहीं है।  डॉ अरविन्द सम्बल और डॉ रविरंजन ने भी सभा में भागीदारी की।  संयोजन कर रहे हिंदी साहित्य सभा के परामर्शदाता डॉ पल्लव ने कहा कि पाखण्ड से भरे भारतीय जीवन में अपनी स्थापनाओं के लिए राजेन्द्र यादव को याद किया जाता रहेगा। उन्होंने कहा कि हंस के माध्यम से यादव जी ने अपने समय की सबसे प्रभावशाली और ईमानदार पत्रिका पाठकों को दी। अंत में सभी अध्यापकों और विद्यार्थियों ने दो मिनिट का मौन रख राजेन्द्र यादव के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त की।

 

संपर्क

रविरंजन

सहायक आचार्य

हिंदी विभाग

हिन्दू कालेज

दिल्ली

 

 

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डॉ. होमी भाभा वैज्ञानिक लेख प्रतियोगिता के लिए लेख आमंत्रित

मुम्बई। वर्ष 1974 में भारत के अंतिम राष्ट्रकवि स्व. रामधारी सिंह “दिनकर” द्वारा नामित हिन्दी विज्ञान साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका “वैज्ञानिक”, जिसका प्रकाशन हिन्दी विज्ञान साहित्य परिषद, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र द्वारा विगत 46 वर्षों से किया जाता है ।

इस पत्रिका को कई राज्यों द्वारा हिन्दी के जरनल की मान्यता दी गई है। इस पत्रिका द्वारा आयोजित “डॉ. होमी जहांगीर भाभा वैज्ञानिक लेख प्रतियोगिता – 2013” हेतु नवीनतम एवं मौलिक वैज्ञानिक लेख आमंत्रित हैं। जिसमें प्रथम पुरूस्कार 2000 रूपए हैं । सात अन्य पुरूस्कार हिन्दी भाषी एवं अहिन्दी भाषी लेख्कों को दिए जाते हैं।

अधिक जानकारी पत्रिका के व्यवस्थापक व संयोजक हास्यकवि विपुल लखनवी से 9969680093 या 025591154 पर ली जा सकती है। 

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